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की राय एक बार पूछ लेने की बात शिरोधार्य कर वहाँ से चले गये।
"तो आपने इस मन्दिर का रेखाचित्र देखा है, स्थपतिजी?" बाद में आचार्यजी
ने पुछा।
'अकेला मैंने ही नहीं, पट्टमहादवोजो ने भी देखा है। हमने जो सुझाव दिये उनको स्थपतिजी ने खुशी के साथ स्वीकार भी किया है।" जकणाचार्य ने कहा।
"तो मतलब यह हुआ कि यह चेन्नकेशव मन्दिर से भी सुन्दर होगा!" आचार्यजी ने प्रश्न भरी दृष्टि डाली।
"कला की सजीवता की पहचान वहीं होती है। और फिर, केवल अनुकरण ही उत्तम कला नहीं हो सकता। उसके साथ कुछ अपनी कल्पना भी होनी चाहिए। इस शिव-मन्दिर के स्थपतिजी ही पहले चेन्नकेशव मन्दिर के स्थपति थे । उस काम पर पट्टमहादेवोजी ने हमें लगा दिया तो वे अलग हो गये।"
"असन्तुष्ट होकर बीच ही में काम छोड़कर चले गये?"
"उत्साह भंग हो गया। कलाकार ऐसे ही होते हैं। गुस्सा करके चल देते हैं, या उस काप से हट जाते हैं। छोटी उम्र के प्रतिभावान कलाकार हैं ओडेयगिरि के हरीशी...
और, जब हमें कला की ही अपेक्षा है तो फिर कलाकार के स्वभाव, उसके व्यवहार से भला क्या लेना-देना!"
___ "सच है, आपका कहना सही है। इसीलिए जब आपसे पहली बार हमारी भेंट हुई तभी हमने अपने शिष्यों से सावधान रहने के लिए कहा था।"
"ओह ! वह पुरानी बात अब छोड़िए। मैं स्वयं भूल चुका हूँ। वह मेरे जीवन को एक काली घटना है।"
"जाने दीजिए। अभी आपके हाथ में कोई काम है?"
"ऐसा तो कोई काम नहीं है। परन्तु यहाँ जो विद्यालय खुला है, उसका कार्य आगे बढ़ाना है।"
"उसके लिए इन्हीं को रहना चाहिए, ऐसी कोई शर्त राजमहल या पट्टमहादेवीजी की है?" आचार्यजी ने राजदम्पती की ओर देख।।
"वे समझ चुके हैं कि जो विद्या उन्होंने सीखी है, वह केवल उनके घराने तक ही सीमित नहीं होनी चाहिए। उसे विस्तार देना हो और प्रकाश में लाना हो तो उसका दान करना ही एक रास्ता है।" शान्तलदेवी ने कहा।
"श्री आचार्यजी के इस प्रश्न के पीछे कोई उद्देश्य भी तो होना चाहिए न?" बिट्टिदेव ने प्रश्न किया।
"हमारा दूसरा कोई उद्देश्य नहीं है। यगिरि में एक मन्दिर का निर्माण होना है। हमने अपने प्रवास के समय इस कार्य के लिए बहुत-सा धन संग्रह किया है। दिल्ली के बादशाह ने जो दीनार दिये, वे वैसे ही सुरक्षित हैं । स्थपतिजी की सेवाएँ उपलब्ध
128 :: पट्टमहादेवी शान्तला ; शग चार