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लिए यह आवश्यक है। महावीर स्वामी के द्वारा स्थापित सिद्धान्त प्रधान रूप से अहिंसाभाव से प्रेरित हैं। हम केवल शारीरिक हिंसा तक ही अहिंसा को सीमित करते हैं लेकिन उसका मानसिक हिंसा से भी सम्बन्ध है। ऐसी स्थिति में हम जो आरोप करेंगे वह मानसिक हिंसा का कारण हो सकता है, इसलिए हम ऐसी प्रवृत्ति को बढ़ावा नहीं देते। परन्तु आज की इस सभा में ऐसा कहने-करने का प्रसंग आया है। इसलिए पहले ही अपने इस अपराध को क्षमा करने की प्रार्थना करते हुए हमने अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधुओं को नमन किया। परन्तु हमें इस बात का सन्तोष है कि हम व्यक्तिगत रूप से किसी पर आरोप नहीं लगा रहे हैं ! हम अन्न सो कहा सा रहे हैं. वह इसी तरह या थोड़ा अदल-बदलकर यहाँ उपस्थित श्री गण्डविमुक्तदेवजी को भी मालूम हुआ होगा। इसका सृजन करनेवाले बड़े ही कुतन्त्र-निपुण हैं। शायद उनमें मारीच का रक्त बह रहा है। जैसे हम और आप सब जानते हैं और उन्होंने भी स्वीकार किया है कि महाराज ने वैयक्तिक रूप से, आचार्यजी के प्रभाव से प्रेरित होकर, श्रीवैष्णव पन्थ को स्वीकार किया। इस चैयक्तिक विषय का इन दुष्टजनों ने किस हद तक दुरुपयोग किया है, यह बात इस राज्य की सारी जनता को भलीभांति समझ लेनी चाहिए। क्योंकि उस कहनेवाली जिह्वा पर कोई रोक-टोक नहीं; सुननेवाले कानों पर तो कोई अंकुश है नहीं। ऐसी दशा में दावानल की तरह फैलते जाने में कोई शंका ही नहीं। यह कहते-सुनते हैं, 'महाराज का यह मतान्तर हम जैसे जैन गुरुओं के लिए असन्तोष का कारण है, और इसलिए हम सब उनपर टूट पड़े हैं। साथ ही हमने मसान्तरित न होनेवाली पट्टमहादेवी को भी अपने गुट में सम्मिलित कर लिया है। इस मतान्सरण को अस्वीकार नहीं करेंगे तो उन्हें सिंहासन से उतार देने की हमने प्रतिज्ञा की है। एक तरफ यह प्रचार कर रहे हैं तो दूसरी ओर यह कहते-सुनते हैं, 'इसके लिए हम जैनियों द्वारा एक आन्दोलन चला रहे हैं। और हमने, अर्थात् जैन गुरुओं ने, कभी इन महाराज को स्वीकार नहीं किया था। किसी अंगविकल को स्वीकार कर नहीं सकते।' इसी तरह के ऊल-जलूल कारण बताकर, 'महाराज को हमने स्वीकार नहीं किया ऐसा कहते हैं। अब जब यहाँ विकलांगता है ही नहीं तो इस मनगढन्त किस्से का मूल्य ही क्या हो सकता है? ये बातें यहीं तक नहीं रुकी। जैन गुरुओं के इनकार से क्रोधित होकर महाराज वैष्णव मतावलम्बी बने, और जैन वंश को ही नाश करने पर तुले हुए हैं। इसके लिए राज्य के सभी जिनालयों को तुड़वा देने की आज्ञा भी महाराज ने दे दी है। साथ ही सभी जैनियों को कोल्हू में पिरवाने की भी आज्ञा दी गयी हैं।' इतना ही नहीं, हमें इस तरह की सलाह भी दी कि हप इस वैष्णव राज्य से छिपकर भाग जाएँ। राजमहल से सीधा सम्पर्क होने के कारण हम जैसे कुछ लोगों को ये बातें विश्वसनीय प्रतीत नहीं हुई। परन्तु दृर-दूर के गाँवों से भागकर आये जिन-भक्तों की दशा बड़ी शोचनीय लगती है। माथे पर तिलक लगानेवालों को देखकर वे डर से कॉप
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 133