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करना चाहिए। हमारे दादाजी और पिताजी के समय में और मेरे बड़े भाई के राजत्वकाल में भी, पोयसल राज्य की जनता ने पूर्ण सहयोग देकर राजमहल के आदेशों का पालन किया है। इस दायित्व को हम स्वयं दस साल से वहन कर रहे हैं। हमें भी वह सहयोग बराबर मिलता रहा है। हमारी राजकुमारी जब बीमार थी और बड़े-बड़े वैद्य चिकित्सा करके हार चुके थे तब पूज्यपाद आचार्यजी पधारे और राजकुमारी को उस भयंकर रोग से बचाकर उसकी रक्षा की। पूरी निराशा के उस समय हमने प्रतिज्ञा की थी कि हम उन आचार्य का शिष्यत्व ग्रहण करेंगे। अपने वचन के अनुसार हमने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। वह केवल वैयक्तिक मामला था। वास्तव में हमारी पट्टमहादेवी ने तभी चेता दिया था कि ऐसा मतान्तर अच्छा नहीं। लेकिन वचन-पालन पोग्सल राजवंश की नीति है, और उस नीति का हमने पालन किया इस मतान्तर को मान्यता टी और वे खुद जैसी रहीं वैसी ही रहीं। हमने उस बात के लिए भी मान्यता दी है। इस सबके लिए आज यहाँ विराजमान दोनों गुरुवर्य साक्षी हैं। हमारा वैयक्तिक धर्म-परिवर्तन राष्ट्र की जनता पर किसी तरह का प्रभाव न डाले, यही हमारी आकांक्षा थी। परन्तु अब दो-तीन वर्ष से इसके नेपथ्य में धर्मान्ध व्यक्ति तरह-तरह के किस्से गढ़कर राज्य के अन्दर की एकता को बिगाड़ने की कोशिश करते हुए मौके की ताक में बैठे हैं। ऐसे लोगों को राज्य में रहने देना सर्वथा उचित नहीं। इन दुष्ट लोगों ने इस दूषित कार्य के लिए हमारी, पट्टमहादेवीजी का, हमारी रानियों का और गुरुवर्य श्री आचार्यजी एवं प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेवजी का, इस तरह हम सबके नामों का दुरुपयोग, हममें से किसी की जानकारी के बिना किया है। इतना ही नहीं, और भी अनेक अधिकारियों के नामों का दुरुपयोग हुआ है। इन सभी बातों को आप सभी के समक्ष रखकर सिद्ध करने एवं आइन्दा ऐसे काम न हों, यह आग्रह करने के लिए यह सभा बुलायी गयी है । आचार्यजी जब तिरुमलाई में थे तन्त्र इन दुष्टरों ने उनके कानों में जो बात डाली, उसे वे स्वयं इस सभा के समक्ष कहेंगे।" कहकर बिट्टिदेव ने आचार्यजी की ओर देखकर हाथ जोड़े।
आचार्यजी ने भी हाथ जोड़कर ध्यानमुद्रा में थोड़ी देर के लिए आँखें बन्द की। फिर आँखें खोलते हुए कहा, "पोय्सल महाराज, मान्या पट्टपहादेवी और अधिकारी गण, नगर-प्रमुख एवं सजनो! हमने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि भावान के सिवा अन्य किसी के समक्ष हमारे साक्षी बनने की स्थिति कभी आ सकती है। परन्तु सत्य कहने में किसी को आगा-पीछा नहीं करना चाहिए। हमसे दूसरों को मार्गदर्शन मिलना चाहिए, इस दृष्टि से हम सत्य बात स्पष्ट करेंगे। हमें किसी से कोई द्वेष नहीं। परमात्मा का प्रेम पाने के लिए जो चले हैं उनके पास द्वेष की भावना फटक भी नहीं सकती। हमसे द्वेष करनेवाले हो सकते हैं । द्वेष करनेवाले दो तरह के होते हैं। इनमें एक तरह के लोग ऐसे होते हैं जो सामने ही धीरज के साथ कह देते हैं। इस तरह के लोग स्वागत योग्य हैं। दूसरे किस्म के लोग ऐसे हैं जो अत्यन्त निकटवती रहकर, आत्मीय मित्रों
पट्टमहादेषी शान्तला : भाग चार :: 131