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"तब हमें भी सन्तोष है । कब कार्यारम्भ होगा, यह बताएँ तो हम योग्य शिल्पियों को वहाँ भेज देंगे।" विट्टिदेव ने कहा।
"हमारे वहाँ पहुँचते ही यह कार्य आरम्भ हो जाएगा। विजयोत्सव सम्पन हुए पखवाड़ा गुजर गया है। परन्तु हमें लौटने की अनुमति अब भी नहीं मिली। अब हमने जो कार्य सोचा है । उसे पूरा करके हमें अपनी जन्मभूमि की तरफ भी जाना है। वहाँ भी हमारा कुछ कर्तव्य है। उसे भी पूरा करना है। भगवान् के बुला लेने से पहले पूर्ण कर देना होगा, कुछ भी शेष न रह जाए। हमें अनुमति कब मिलेगी?"
"दोरसमुद्र की नींव-स्थापना के तुरन्त बाद।" विट्टिदेव इतना कह रुक गये। "नींव की स्थापना कब होगी?" आचार्य ने पूछा। "आनेन्गी गिरा को। "तो और दस दिन यहाँ रहना होगा?"
"जब चाहें तो आ नहीं सकते। इन छ:-सात वर्षों में यही पहली बार आपका आगमन हुआ है न! विजयनारायण स्वामी की प्रतिष्ठा के समय भी नहीं आ सके थे। इस अवसर पर उपस्थित रहें, यह हमारी आकांक्षा है।"
"यह सब हमारे हाथ में नहीं है। भगवान् की इच्छा के अनुसार ही सब कुछ होता है।"
"हम धन्य हैं।" कह राजदम्पती उठे। शेष लोग भी साथ ही उठ गये। सभी ने आचार्यजी को प्रणाम किया और यथास्थान चले गये।
इसके दो दिन बाद ही मायण-चट्टला वेलापुरी में प्रकट हुए। उन दोनों ने जो समाचार संग्रह किया था और जिन-जिन व्यक्तियों को देखा-पहचाना था, सब निवेदन कर दिया। यहाँ से चार ही दिनों के अन्दर-अन्दर सम्पूर्ण राजपरिवार और आचार्यजी दोरसमुद्र गये। वहाँ एक सभा का आयोजन था। राज्य के सभी प्रमुख व्यक्ति उपस्थित थे। महाराज, पट्टमहादेवी, सनियाँ, आचार्यजी, पट्टमहादेवी के गुरु प्रभाचन्द सिद्धान्तदेव, गण्डविमुक्तदेव, बाहुबली के पुजारीजी, मंचियरस, हेग्गड़े मारसिंगय्या, तिरुवरंगदास, सुरिगेय नागिदेवण्णा आदि सभी। वह एक सर्वधर्मसम्मेलन-सा लग रहा था।
महाराज ने सभा को सम्बोधित करते हुए कहा, "इस सभा का उद्देश्य सहीगलत का विमर्श कर अपराधियों को दण्ड देने के लिए नहीं, लोगों में समानता की भावना पैदा करने के लिए हैं। हाल में राज्य के कुछ हिस्सों में, खासकर राजधानियों में, और यदुगिरि पें, एक तरह के आन्तरिक तनाव का वातावरण पैदा हुआ है । राजमहल को इसकी जानकारी मिली है । वेलापुरी के चेन्नकेशव-प्रतिष्ठा के समय भी ऐसा ही वातावरण उत्पन्न हुआ था। उस समय काफी चेतावनी दी गयी थी। और यह भी बताकर सतर्क रहने के लिए कहा गया था कि हमारी आपस की अनबन शत्रुओं के गुप्तचरों के लिए मनचाहा न्योता बनेगी। इसलिए हमें परस्पर सहदयता से आचरण
130 :: पट्टमहादेवो शान्तला : भाग चार