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हुए। उनके सन्दर्शन का उद्देश्य विदित ही था। इसलिए महाराज, पट्टमहादेवी और स्थपति जमानार्य केतपस्ट को साथ लेकर भानार्थी के मा गये।
'दोरसमुद्र के युगल-शिव-मन्दिरों की नीव-स्थापना के सम्बन्ध में निश्चित करने के लिए केतमल्लजी आये हैं।' बिट्टिदेव ने आचार्यजी से कहा।
"महाराज हमें गलत न समझें। वह युगल-शिव-मन्दिर है। इसलिए दो जगह नींव को स्थापना होनी चाहिए। दोनों का एक ही मुहूर्त हो । एक व्यक्ति से यह काम सम्भव नहीं, इसके लिए दो व्यक्ति चाहिए। मेरा अभिमत है कि इस कार्य के लिए राजदम्पती ही सर्वश्रेष्ठ हैं । इसलिए यह स्थापना वही करें। हमें छोड़ दें।" श्री आचार्य ने कहा।
बिट्टिदेव ने साफ पूछ लिया, "शिव मन्दिर को नाय की स्थापना आप अपने हाथ से नहीं करना चाहते, इसलिए?"
"ऐसी क्या बात है? आपने समझा कि हम डर रहे हैं?" आचार्यजी ने प्रश्न किया।
"आप शिवाराधक चोलों के क्रोध..."
बीच ही में आचार्यजी ने कहा, "हम एक मात्र अपने आराध्य के सिवा और किसी से नहीं डरते। किसी को खुश करने के लिए भी हम कोई काम नहीं करते। हमने इसलिए ऐसा नहीं कहा कि हमें करना नहीं चाहिए। आप राजदम्पती के हाथों यह कार्य सम्पन्न होना उचित है, अधिक गौरवपूर्ण भी है, इस दृष्टि से हमने कहा कि ऐसा करें।"
"बीच में बोलने के लिए मुझे क्षमा करें। युगल मन्दिर के होने पर भी एक ही नींव की स्थापना पर्याप्त है। इलावा इसके, ये मन्दिर एक नींव पर बनी जगत पर बननेवाले हैं। इसलिए दो व्यक्तियों को एक ही समय नींव को स्थापना करनी पड़ेगी, यह कोई कारण नहीं हो सकता।' जकणाचार्य ने कहा।
"वास्तुशिल्प शास्त्र चाहे कुछ भी कहे 1 दोनों मन्दिरों में लिंग-मूर्ति को ही प्रतिष्ठा जब होनी है तो अलग-अलग प्राण-प्रतिष्ठा आदि कार्य करना जिस तरह आवश्यक है, उसी तरह यह भी आवश्यक है। इस विषय में हमारी दो सलाह हैं । एक यह कि नींव की स्थापना राजदम्पती द्वारा होनी चाहिए और दूसरी यह कि यहाँ स्थापित होनेवाले शिवजी पोय्सलेश्वर और शान्तलेश्वर के नाम से अभिहित हों। यह युगल मन्दिर इस राजदम्पती की सर्व-धर्म सहिष्णुता का एक शाश्वत साक्षी बनकर रहे। केतमल्लजी हमारी बात को मानेंगे, ऐसा हमारा विश्वास है। चाहें तो वे एक बार अपने माता-पिता से भी विचार कर आएँ।" आचार्यजी ने निर्णयात्मक स्वर में कहा।
वास्तव में केतमल्ल तो अन्दर ही अन्दर खुश हुए, क्योंकि उनके मन में आचार्यजी की बात ही नहीं उठी थी। फिर भी उन्होंने उनके मन की बात कही थी, इसलिए बुजुर्गों
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 127