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निर्णय को वे असीस दें, यही विनती करें।"
आचार्यजी के सान्निध्य में ही सगाई हो जाए, ऐसा निश्चित हो जाने पर आचार्यजी को समस्त गौरव के साथ राजमहल में बुलवाया गया। तिरुवरंगदास यादवपुरी नहीं लौटे थे। एक उद्देश्य से उन्हें रोक दिया गया था । श्रोत्रिय होने के नाते उन्हें नियन्त्रण दिया गया था।
माचण दण्डनाथ अपने कार्यक्षेत्र को लौट गये थे। सगाई के वक्त सपत्नीक आये थे। यों बड़े मरियाने दण्डनायक जी के सब पुत्र-पुत्रियाँ वहाँ मौजूद थे। प्रधान गंगराज, उनकी पत्नी लक्कलदेवी और उनके बच्चे भी उपस्थित थे। ये सभी वर पक्ष के ही थे। इधर शान्तलदेवी, उनके बच्चे, उनके माता-पिता, सपत्नीक मामा सिंगिमय्याजी उपस्थित रहे। महाराज और शेष रानियाँ, ये सब वधू पक्ष के ही तो थे । रानी पद्मलदेवी को तो दोनों पक्षों पर समानाधिकार था। उन्होंने ही पहले बात छेड़ी, " श्री आचार्यजी के सान्निध्य में, मैं फिलहाल इस राजपरिवार में बड़ी होने के नाते कहती हूँ। हमें आपस में इस विषय में कोई मतभिन्नता नहीं, हम सब एक राय हैं। राजकुमारी हरियलदेवी का विवाह मेरे बड़े भाई डाकरस दण्डनाथ के छोटे पुत्र कुमार भरत के साथ करने का निश्चय सबकी सम्मति से हुआ है। श्री आचार्यजो इस राजकुमारों के जीवनदाता महापुरुष हैं। उनकी उपस्थिति में सगाई हो और इसके लिए उनका आशीर्वाद मिले, यह राजकुमारी का सौभाग्य होगा, ऐसा हम मानते हैं। "
"
'महाराज आचार्यजी के शिष्य हैं। दण्डनाथजी गण्डविमुक्त मुनि के शिष्य हैं न?" मुहूर्त निश्चित करने के लिए जो पुरोहित आये थे उन्होंने व्यंग्य से कहा । 'हाँ, उससे क्या हानि होती है ?" तिरुवरंगदास ने बीच में कहा ।
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'मैं तो राजमहल की आज्ञा का पालन करनेवाला हूँ। परन्तु इसमें कुछ व्यावहारिक बात के होने के कारण, यदि न कहें, तो गलत हो सकता है। इसलिए अपने पौरोहित्य धर्म की रक्षा की दृष्टि से मैंने कहा। इस पर धर्मपीठाधिपति जी उपस्थित हैं। उनसे हमें मार्गदर्शन मिल जाएगा और सब भी काम सुगम हो जाएगा, यही मेरा आशय हैं। "
" तो यह बात क्यों उठायी ?"
"कुछ लोग संकोचवश चुप रहते हैं, हमारे व्यवहार में समानधर्मियों का दाम्पत्य उचित है। इसलिए निवेदन किया। इतना ही । "
" दण्डनायकजी का घराना जैन सम्प्रदाय का है। राजकुमारी ने जब जन्म लिया तब उसके माता-पिता जैन सम्प्रदाय के ही थे । इसलिए यह विषय चर्चाधीन नहीं हो सकता, ऐसा मुझे लगता है। इसलिए मुहूर्त निश्चय कर दीजिए।" पद्मलदेवी ने कहा । उनकी बात एक तरह से निर्णायक ही रही ।
पुरोहितजी ने एक बार महाराज की तरफ देखा, फिर आचार्य की ओर। आचार्यजी ने ध्यानस्थ मुद्रा में एक बार थोड़ी देर के लिए आँखें मूंद लीं। फिर
पट्टमहादेवी शान्तला भाग चार:: 125