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में नहीं था। सभी दण्डनाथ, कुमार बल्लाल, मन्त्री भी राज-काज में प्रमुख होने के कारण उपस्थित थे। इस दृष्टि से मंचियरस के लिए भी इस सभा में स्थान था। परन्तु मारसिंगय्या या तिरुवरंगदास आमन्त्रितों में नहीं थे। इस बात को लेकर महाराज और पट्टमहादेवी में चर्चा भी हुई थी। पहले भी सभी राजनीतिक सभाओं में उपस्थित रहकर बुजुर्ग हेगड़े मारसिंगय्याजी ने सहयोग दिया है। इसलिए महाराज का कहना था कि वह यहाँ भी रहें। परन्तु पट्टमहादेवी इससे असहमत थीं। उन्होंने कह दिया, "उन्हें बुला लें, और तिरुवरंगदास को न बुलाएँ तो वह आक्षेप का कारण बनेगा, इसलिए मैंने यह सलाह दी।"
"मंचियरस को आमन्त्रित किया है। वे रानी बम्मलदेवी और राजलदेवी के पोषक पिता हैं, मैं रानी लक्ष्मीदेवी का—मुझे भी बुलाना चाहिए था; यह बात तिरुवरंगदास कह सकते हैं।"
"इसके लिए मेरी सलाह ही एकमात्र समाधान है।" "पर हेग्गड़ेजी क्या सोचेंगे?"
"यह बात मुझ पर छोड़ दीजिए। सारी बात यह है कि तिरुवरंगदास इस सभा में न रहें।"
"शंकर दण्डनाथ तो रहेगा न? दोनों घनिष्ठ मित्र हैं।"
"वे दोनों मित्र अवश्य हैं, मगर दोनों के मनोभाव एक-से नहीं। उन दोनों को बुलवाकर विचार करने के लिए एक अलग बैठक ही बुलाने की बात है न? इसलिए अभी इस सम्बन्ध में कोई बात सोचने की नहीं है।" कहकर इस चर्चा को पूर्णविराम लगाया शान्तलदेवी ने।
इस अन्तरंग सभा में जो बातें स्पष्ट की गयीं वे इस प्रकार हैं-राज्य की एकता की रक्षा होनी चाहिए। उसकी सीमाओं की सुरक्षा पर ध्यान रखना होगा। धर्म के नाम से सम्भावित गुटबन्दियों को प्रोत्साहन नहीं देना होगा। राज्य के विस्तृत होने के कारण, चारों ओर पराजित शत्रुओं के रहने की वजह से, सीमा-प्रदेशों पर विशेष निगरानी रखनी होगी। राज्य की रसद राज्य से बाहर न जाय, इस तरह की सेक लगानी होगी। अगर बाहर रसद को भेजना भी हो तो उसके लिए राज्य से आवश्यक अधिकार-पत्र प्राप्त करना होगा। ऐसी वस्तुओं पर कर चुकाना अनिवार्य होगा ये सब बातें स्पष्ट रूप से बतायी गयीं। धर्म के नाम से, अधिकारियों की ओर से, राज्य के किसी भी भाग में, किसी भी तरह की तकलीफ जनता को नहीं होनी चाहिए । प्रत्येक जन को उसके अपने धर्म के पालन में किसी भी तरह की बाधा नहीं होनी चाहिए। इन सभी बातों को स्पष्ट समझा दिया गया। इसके बाद सभा विसर्जित होने ही वाली थी कि कुमार बल्लाल ने कहा, "मेरा एक छोटा-सा अनुरोध और है।"
बिट्टिदेव ने पूछा, ''कहो।"
पट्टमहादेवी वान्तला : भाग चार :: 123