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चोल राज्य की सीमा से बाहर ले आया, और पोय्सल राज्य में पहुँचाया।''
"तभी तो आप पर आचार्यजी का विशेष स्नेह है। इसीलिए आपकी बेटी का विवाह महाराज से करवाकर उन्हें रानी बना दिया।"
"यह सब दूसरा किस्सा है। वे सदा भगवान के ध्यान में ही निरत रहनेवाले हैं। इन भौतिक विषयों की ओर उनका दिमाग नहीं जाता। जब वे बहुत सन्तुष्ट हों, ऐसा समय देख हमें उनसे 'हाँ' करा लेनी होती है।"
"राजा या संन्यासी से 'हाँ' कराने में कोई अन्तर नहीं।" "कोई अन्तर नहीं! उनकी दुनिया ही अलग है।"
"सो तो ठीक है। इसनी सज जाननी होते हुए ने अपनी बेटी की मौथे विवाह के लिए क्यों दिया?"
"उसका कारण अभी बताएँ तो तुम नहीं समझ सकोगे। समय आने पर बताऊँगा। परन्तु मुझे तुमसे एक आश्वासन मिलना चाहिए। तुम वचन दो कि मेरा साथ न छोड़ोगे। मैं तुम्हें सबसे बड़ा दण्डनायक बना दूंगा।"
"मैं आपके साथ रहूँगा, सही। मगर कितना भी असन्तुष्ट क्यों न होऊँ, मैं राजघराने के विरुद्ध नहीं जाऊँगा।''
तिरुवरंगदास हँस पड़ा। बोला, "पागल की तरह मत बोलो । महाराज मेंरे लिए कोई पराये नहीं। मेरे लिए त्रे पुत्र के समान हैं। अपनी बेटी को जब ब्याह दिया है तो मुझसे उनको कोई तकलीफ नहीं होगी, यह निश्चित है।"
"तो आपने एक बहुत भारी आन्दोलन की तैयारी कर रखी है। उसका स्वरूप क्या है, जब मुझे वह सब ज्ञात ही न हो..."
बीच में ही तिरुवरंगदास बोल पड़ा, "तुम्हें न बताऊँ, यह कैसे होगा? ठीक समय पर बता ही दूंगा। मेरा सारा आन्दोलन उनके खिलाफ होगा जिन्होंने मुझे और तुमको दूर कर रखा है। महाराज से नहीं। वे तो बहुत ही अच्छे हैं।"
"तो अब हमें क्या करना होगा?"
"फिलहाल कुछ नहीं। चुप रहना होगा। महाराज आचार्यजी को मनाकर जब बेलापुरी ले जाएँगे, उसके बाद अन्य सारी बातें होंगी।"
"ठीक।" शंकर दण्डनाथ ने कहा। फिर वे अपने-अपने काम पर चले गये।
महाराज, रेविमय्या, रानी राजलदेवी-सिर्फ इन तीनों को ही यह मालुम था कि मायण चट्टला यादवपुरी में ही रह रहे हैं। ऐसी हालत में तिरुवरंगदास और शंकर दण्डनाथ कैसे जान सकते थे कि चट्टला-मायण वहीं हैं।
सपरिवार महाराज के यदुगिरि के लिए रवाना होने के तीन चार दिनों के बाद, धर्मदर्शी और शंकर दण्डनाश्य को यदुगिरि आने का निमन्त्रण्य मिला । उन दोनों ने इसकी
पट्टपहादेवी शान्तला : भाग सार :: 107