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दर्शन लेने की अनुमति पाकर सपरिवार अपने घर की ओर चले गये।
विजयोत्सव के लिए दो दिन शेष थे। वेलापुरी निमन्त्रितों से खचाखच भर गयी थी। बहुत बड़ा न होने पर भी, काफी विस्तृत मंच बनाया गया था। विजयोत्सव के योग्य मण्डप का भी निर्माण किया गया था। पिछले अनुभवों के आधार पर अधिक व्यवस्थित रूप से सुरक्षा-व्यवस्था भी हुई थी। सभी लोग व्यस्त दीख रहे थे।
आचार्यजी के लिए कोई विशेष कार्य नहीं था, सिवा अपने स्नान, जप-तप आदि के । इसलिए उन्होंने स्थपति को खबर दी। स्थपति आये।
स्थति के आने के बाद उनके साथ मन्दिर देखने के उद्देश्य से आचार्यजी निकले। जकणाचार्यजी हर बात को विस्तार के साथ बताते गये। अपने इस वास्तुशिल्प के बारे में वे शिल्प-शास्त्र के आधार-ग्रन्थों के सूत्रों को उद्धृत करते जाते थे। आचार्यजी एकदम चकित रह गये। जब नारे पर तिने का मौका मिला। तभी उन्होंने समझ लिया था कि इस शिल्पी में एक विशेष प्रतिभा है। परन्तु इस तरह की नवीनता, बारीकी और पारम्परिक शैली का इतना सुन्दर समन्वय उसकी शिल्पकला में होगा, इसकी कल्पना भी आचार्यजी को नहीं थी। इस सबको देखकर वह आनन्दविभोर हो गये। सारे मन्दिर का शिल्प स्थूल दृष्टि से देखकर, भगवान् के दर्शन कर, अपने मुकाम पर लौट गये। फिर आचार्यजी ने कहा, "स्थपतिजी, आप पर श्रीमन्नारायण की कृपा है। आपकी यह सौन्दर्य सृष्टि आचन्द्रार्क आपके नाम के साथ स्थायी रहेगी। पोय्सलराज ने हमारे शिष्य बनकर, अपने देश से चोलों को भगाकर विजय प्राप्त की। यह सब इस नारायण की कृपा से । इसलिए इसका नाम विजयनारायण है । जिस तरह विजयनारायण नाम अन्वर्थ है, वैसे ही वह आपके इस वास्तुशिल्प की विजय का प्रतीक है। भगवान् की कृपा से हमारा संकल्प सिद्ध हुआ, इसका हमें सन्तोष है। उस दिन यादवपुरी से कहे बिना जब आप खिसक गये, तब हमें बड़ी निराशा हुई थी। आपको अपने परिवार के साथ सुखी देखने का सौभाग्य भगवान् ने हमें दिया। इससे यह भी सिद्ध होता है कि सत्य की सदा विजय होती है और निराधार शंका का कोई मृल्य नहीं।"
"परन्तु भगवान् कब किस रूप में सत्य का दर्शन कराता है, कहा नहीं जा सकता । मैंने सोचा भी नहीं था कि मेरा जीवन इतना सुखमय हो सकता है । इस सबके लिए पट्टमहादेवीजी ही कारण हैं।" कहकर जिस दिन वेलापुरी में उसने प्रवेश किया उस दिन से अपने परिवार के साथ मिलने तक की सारी बातें विस्तार के साथ बतायीं।
"वह एक विशिष्ट व्यक्तित्व हैं। अनेक जन्म-जन्मान्तरों के सुकृतों का पुंजीभूत सत्त्व हैं पट्टमहादेवी। सपूचे संसार के लिए पूजनीय हैं वे। व्यवस्थित रूप से ज्ञानार्जन करने पर मानव कितना उच्च बन सकता है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं पट्टमहादेवी। हम स्वयं उनसे पराजित हुए हैं। परन्तु उस पराजय में भी हमें एक प्रकार
116 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार