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प्रणाम कर चली गयौं।
आचार्यजो को कोई विशेष कार्य नहीं था। फिर भी विश्रान्ति के लिए रात को ही समय मिल सका, पूर्वपरिचित, अपरिचित, स्थानीय तथा आगत अनेक लोग आते
और दर्शन पाते, आशीर्वाद लेकर चले जाते । आचार्यजी सबका स्वागत मुस्कराकर करते । हँसते हुए उनकी बातें सुनते।
इससे उन्हें यही से या किसी कोई पक्रा मार है: पहल करनेवाला कौन है, और उसका क्या लक्ष्य है? इसका उन्हें बोध नहीं हआ। तिरुमलाई से न लौटने का समाचार जब मिला था, उस समय जो शंका अंकुरित हुई थी, वह अब निश्चित हो गयी। परन्तु साथ ही यह भी पक्का हो गया कि महाराज और पट्टमहादेवी पहले जिस तरह थे उसी तरह अब भी रह रहे हैं। उनमें कोई परिवर्तन नहीं आया है। एम्बार साथ होता तो विचार-विमर्श करने में सुविधा रहती। अच्चान इन बातों में नहीं पड़ता। तिरुवरंगदास से कोई मदद नहीं मिल सकेगी. यह बात यगिरि में ही स्पष्ट हो चुकी थी। वेलापुरी पहुँचने के पश्चात् यह सिद्ध हो गया था कि यदुगिरि का निर्णय विलकुल सही है। प्रतिदिन पूजा-पाठ और भगवान् के ध्यान के सिवा किसी अन्य कार्य में आचार्यजी मन नहीं लगाते थे। उनकी प्रार्थना यही थी कि इस पोय्सल राज्य और राजपरिवार को भगवान् सुखी रखें। इसके सिवा प्रार्थना का अन्य कोई उद्देश्य नहीं था।
विजयोत्सव आचार्यजी के सान्निध्य में बड़ी धूम-धाम से सम्पन्न हुआ। इस समारोह में सभी सचिव, दण्डनाथ, सरदार, सवारनायक, गुल्मपति, दलाएति. सैनिक, हेग्गड़े गोंड (पटवारी). व्यापारी, नगरप्रमुख आदि सबने राज्य और राजपरिवार के प्रति अपनी निष्ठा का वचन दिया। सबने एक कण्ठ होकर कहा कि किसी धर्म विशेष से राजनिष्ठा का कोई सम्बन्ध नहीं, धर्म वैयक्तिक है। राष्ट्र का सर्वतोन्मुखी विकास हो प्रजा के वैयक्तिक विकास का एकमात्र साधन है : "पोय्सल सन्तान स्वतन्त्र हो, चिरायु हो, स्वतन्त्र पोय्सल राज्य की शार्दूल पताका ऊँची रहे । कन्नड़ की ज्ञान-ज्योति सदा सर्वत्र फैले।" एकत्र जन-समूह ने एक स्वर से उद्घोषित किया।
अन्त में महाराज बिट्टिदेव खड़े हुए । आचार्यजी को प्रणाम किया, फिर उपस्थित सभी को नमस्कार करने के पश्चात् प्रधान गंगराज की ओर देखा।
प्रधान गंगराज मंच पर चार कदम आगे बढ़े, और झुककर प्रणाम करने के बाद संकेत किया। बगल से अंगरक्षक रेशम के वस्त्र से हँके एक स्वर्ण की परात को लेकर मंच पर आकर गंगराज के पास खड़े हो गये। गंगराज ने रेशमी आवरण को हटाकर नौकर के हाथ में दिया । परात में नगों से जड़ा और पूजा किया हुआ खड्ग जगमगा रहा था। __ गंगराज ने उसे प्रणाम किया। फिर कहा, "आज श्री श्री आचार्यजी के नेतृत्व
[20 :: हमहादेवी शान्तला : भग्ग चार