________________
"रुक क्यों गये? संकोच क्यों? कहिए।'' "दोरसमुद्र के शिवालय के निर्माण के विषय में अण्ट-सण्ट बातें कही जा रही हैं।"
"उसके बारे में हमें भी मालूम है । इसके पीछे और अधिक व्यापक राजनीतिक स्वार्थ दिखाई पड़ता है। इस सम्बन्ध में विजयोत्सव के बाद महाराज और पट्टमहादेवी के साथ चर्चा करने का निश्चय हमने किया है।"
"ऐसा करें तो बड़ा उपकार होगा।"
"यह उपकार नहीं स्थपतिजी, बहुत ही मुख्य विषय है। हमें कलंकित होकर जाने की इच्छा नहीं। सच है, हम भगवान् की प्रेरणा के अनुसार चलने वाले हैं। फिर भी हम अपने परिवेश के प्रति उदासीन नहीं रह सकते। पुराने से चिपके लोग नये का जल्दी स्वागत नहीं करेंगे। नवीन की ओर इशारा करने वाले हम लोगों को आक्षेप, अनादर आदि के लिए सदा पाना होगा । जन्मभूति से नाईहोकर एम आई. प्रेमपूर्वक आश्रय और प्रोत्साहन हमें इस पोयसल राज्य में मिला। यहाँ जैन धर्म सर्वोपरि होकर स्थित है। देश के सभी कृति-निर्माता जैन ही हैं। हम विश्वास करते आये हैं कि अनादि काल से त्रिमूर्तियों (ब्रह्मा-विष्णु-महेश्वर) के हृदय-स्वरूप हैं श्रीमन्नारायण। उन भगवान् श्रीमन्नारायण के प्रेम को पाने का एक नूतन मार्ग, हम अपने पूर्वज ऋषियों की कल्पना की पृष्ठभूमि के आधार पर रूपित कर, स्थापित करना चाहते हैं, जो हमारा मूल-धर्म है। ऐसी हालत में दूसरे मार्गों की निन्दा से हमें क्या मतलब है? पर दूसरे मार्गावलम्बियों से हम भी दृषित न हों। हम समाज-सुधारक नहीं, लोगों की वृत्ति के आधार पर समाज का वर्गीकरण करने चले हैं। पंचमों (हरिजनों) को हम दूर रखते आये, पर वे भी समाज का एक अंग हैं। हमारे समाज में उनका भी स्थान है। उन्हें भी भगवान् का सान्निध्य चाहिए। उन्हें भी कम-से-कम साल में एक बार विजयनारायण का यह सान्निध्य मिले। आगे चलकर यह सुविधा और अधिक विस्तृत होती जाए, इसके लिए हमने मार्ग प्रशस्त कर दिया। यही हमारा लक्ष्य है। यह सलाह हमने दी, इस पर हमें कोई अहंकार नहीं, वह तो हमारी अन्त:प्रेरणा की सूझ है। पादत्राण बनानेवाले चर्पकारों को भगवान ने कभी अपवित्र नहीं माना है। इस बात को बिना. समझे झूठ-मूठ के मानव-मूल्यों को आगे रखकर अब तक हमने अपने धर्म को कमजोर बनाया है।"
शायद आचार्यजी बात को और भी आगे बढ़ाना चाहते थे। इतने में अच्चान ने आकर निवेदन किया कि पट्टमहादेवीजी दर्शन करने पधारी हैं।
"आने दो, उन्हें भी अनुमति लेनी है?"आचार्यजी ने कहा। स्थपति जकणाचार्य उठ खड़े हुए। अच्चान वहाँ से चला गया।
"राजमहल के रीति-रिवाजों का यथावत् पालन करके दूसरों को मार्ग-दर्शन देती हैं पट्टमहादेवीजी।" जकणाचार्य ने कहा।
118 :: पट्टमहादेवो शान्तला : भाग चार