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उनकी बात समाप्त हो रही थी कि पट्टमहादेवीजी ने आकर प्रणाम किया और आचार्यजी के द्वारा निर्देशित आसन पर बैठ गयीं।
जकणाचार्य ने पूछा, "यदि मुझे आज्ञा हो तो... "
" अच्छा, स्थपतिजी।" आचार्यजी ने कहा। जकणाचार्य पट्टमहादेवो और आचार्य दोनों को प्रणाम कर चले गये।
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'स्थपतिजी के साथ सम्पूर्ण मन्दिर को हम देख आये । यह बहुत कलापूर्ण है। स्थपतिजी कह रहे थे कि इस सारी सिद्धि का आप ही कारण हैं। "
"वह तो ऐसे ही व्यक्ति हैं।
बहने से
भी
की
यह सब किया है। इसकी सम्पूर्ण कल्पना उन्हीं की हैं। इधर-उधर एकाध छोटी-मोटी सलाह हमने दी होगी। अब यह सब क्यों ? वह कार्य तो समाप्त हो गया न ?"
"समाप्त कार्य नहीं, शुरू किया हुआ कार्य है। पोम्सल वास्तुशिल्प इससे अवतरित हुआ है। इसे अब आगे बढ़ाना होगा । "
"बढ़ाना तो होगा। परन्तु लोग इसे बढ़ाने दें तब न?"
"हमने पट्टमहादेवीजी से इस तरह की निराशावाद की अपेक्षा नहीं की थी । " "देश को सशक्त बुनियाद पर जब स्थिर होना है, तब देश की एकता को तोड़ने के कुतन्त्र होने लगे हैं। इस बात की जानकारी हो जाने के बाद मन में क्षोभ उत्पन्न हुआ है। मन दुःखी हैं। पाप कोई करे और दोष किसी और पर लादे, यह विचित्र बात हैं। उस सबको रहने दीजिए। इस सम्बन्ध में सोच-विचार करने के लिए एक विशेष आयोजन करने के बारे में सन्निधान विचार कर रहे हैं। अभी मैं एक व्यक्तिगत कार्य से आयी हूँ । विजयोत्सव के सन्दर्भ में सन्निधान एवं उनके कुटुम्बियों के मंगलस्नान करने की परिपाटी है। उस दिन आचार्यजी को भी यह सब करना चाहिए, यह रानी लक्ष्मीदेवी की अभिलाषा हैं। इसके लिए आपकी स्वीकृति प्राप्त करने आयी हूँ।"
" बेचारी लक्ष्मीदेवी, एक अबोध बच्ची है। उसे बहीं समझा देना चाहिए था । हम तक आने की आवश्यकता ही नहीं थी। हम प्रतिदिन मंगलस्नान ही तो करते हैं। लौकिक जीवन से मुक्त हो जाने के बाद हमारे लिए अमंगलकर कोई बात नहीं है। ऐसी स्थिति में संन्यासियों के लिए यह मंगलस्नान कुछ अर्थ नहीं रखता। रानी लक्ष्मीदेवी के पास हम खबर भेज देंगे। राजमहल के अन्य सभी कार्यों में हम साथ रहेंगे। इसके लिए सब काम छोड़कर यहाँ तक आने की क्या आवश्यकता थी ? यह काम नौकरचाकर कर सकते थे। इसके लिए पट्टमहादेवी जी... '
"
बीच में ही पट्टमहादेवी शान्तलदेवी ने कहा, "यह बात पट्टमहादेवी जानती हैं, किसके पास किसका जाना उचित होगा। अब अनुमति दें तो चलूँगी।" कहकर वह उठ खड़ी हुईं।
आचार्यजी ने 'शुभमस्तु' कहकर अभयहस्त से सूचित किया। शान्तलदेवी
पट्टमहादेवी शान्तल: : भाग चार :: 119