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प्रतीक्षा कर रहे हैं।"
"तो मन्दिर के स्थपति वह क्यों नहीं बने?" "उस धनी व्यक्ति ने जिन्हें चुना है वे ही स्थपति रहें, यही निश्चय हुआ था।" "खुशी की बात है। कार्य कहाँ तक हुआ है?" "शंकुस्थापना करनी है। भू-शुद्धि आदि प्रारम्भिक सभी कार्य हो चुके हैं।" "शंकु की स्थापना कब होगी? "आचार्यजी जब कहें, तब।"
"उसके लिए हमारी सम्मति की क्या आवश्यकता? महाराज की स्वीकृति ही पर्याप्त होगी।" तुरन्त जवाब न देकर कुछ सोचने के बाद आचार्यजी ने कहा।
"आपके हाथ से यह सम्पन्न होना है।" "यह किसकी सलाह है?" "आचार्यजी के शिष्य धर्मदर्शी की सलाह है।"
"न-न, उनकी ऐसी सलाह नहीं हो सकती। वे श्रीमन्नारायण के परमभक्त हैं।
"तो श्रीमन्नारायण के भक्त दूसरे देवों के प्रति गौरव भाव नहीं रखते?"
"नारायण पर भक्ति रखने का मतलब यह नहीं कि दूसरे देवों को अगौरत्र से देखें। ऐसा कौन कहेगा?"
"स्पष्ट शब्दों में न बताने पर भी, ध्वनि तो यही है । अभी कुछ देर पहले क्या हुआ, सो बताएंगे। आप ही निर्णय कर सकते हैं।" बिट्टिदेव ने शंकुस्थापना के प्रसंग से लेकर, रानियों के प्रवेश के बाद की बातचीत और उस समय रानी लक्ष्मीदेवी की बात करने की रीति आदि सभी बातों को विस्तारपूर्वक बताया।
आचार्यजी ने मौन होकर सब सुना, फिर कहा, "आप महाराज हैं। अज्ञानियों की बातों को महत्त्व नहीं देना चाहिए। उनकी परवाह किये बिना आगे बढ़ना ही उचित
"उनके अज्ञान को दूर करना हो तो आचार्यजी को इस शंकुस्थापना के लिए अपनी स्वीकृति देनी होगी।"
"हमारे लिए यह अनपेक्षित और अकल्पित विषय है। सोच-विचार करने के लिए महाराज कुछ समय दें।'' आचार्य बोले ।
"हमने केतमल्लजी से कह दिया है कि शंकुस्थापना विजयोत्सव के बाद होगी।"
"ठीक है। सोचने के लिए समय है। परन्तु इन सब बातों के बारे में जब सोचते हैं, और जब हमें यह सलाह दी गयी कि पोय्सल राज्य में लौटने की आवश्यकता नहीं, और फिर यहाँ आने पर जो बातें हमें सुनने को मिली, इन सब पर विचार करने से
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: |13