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ने कहा।
"हम सबके माने?" "हम, तुम, रानी राजलदेवी, कुमार बल्लाल और बिट्टियण्णा।" विष्टिदेव ने
कहा।
__ पिता के नाम का उल्लेख नहीं था, इसलिए उसे कुछ बुरा ही लगा। फिर भी उसने अपने मनोभाव को प्रकट नहीं किया। निश्चय के अनुसार राजपरिवार यदुगिरि के लिए रवाना हुआ। मायण और चहल्ला यादवपुरी ही में रह गये...परन्तु भायणचट्टला बनकर नहीं।
तिरुवरंगदास को बुरा लगना सहज ही था। अपने आपको बड़ा और प्रतिष्ठित समझनेवाले, अंगूठा दिखाने पर हाथ को ही निगल जाने के स्वभाववाले ऐसे ही होते हैं । उसको केवल बुरा ही नहीं लगा, उसके दिल में विद्वेष की भावना भी भड़क उठी। उसका एक और कारण भी था। आचार्य जी से पहले की तरह मिल न पाया और अब वहाँ उसकी दाल गल न सकी। अतएव तिरुवरंगदास सोचने लगा, 'आचार्य के मन को किसी ने मेरे विरुद्ध भड़का दिया है। मैंने किसके साथ क्या अन्याय किया? दूसरों के लिए कुछ भी किया हो, आचार्यजी की क्या बुराई मैंने की? जब उनके मुँह से यह बात निकली की विशिष्टाद्वैत का झण्डा लेकर मत जाओ तो मुझ पर भारी आरोप ही लगा दिया होगा। दीक्षा उन्होंने दी, अब वे ही उसकी जड़ काटें, यह भी सम्भव है? इसके पीछे बहुत बड़ा षड्यन्त्र ही है। इसके विरुद्ध यदि मैं कुतन्त्र न रचें तो मैं भी आचार्य का शिष्य नहीं।' यो उसने संकल्प कर लिया । कई तरह के लालचों में पड़कर यह शंकर दण्डनाम्य अभी भी तिरुवरंगदास की बातों में आ जाता था। उसकी आयु जो छोटी थी। इससे तिरुवरंगदास ने समझ रखा था कि उसे दण्डनाथ का बहुत बड़ा सहारा मिल गया है।
शंकर दण्डनाथ वेलापुरी के विजयोत्सव में जाना चाहता था। लेकिन कोई आदेश नहीं था उसे । राजमहल से सचिव नागिदेवण्णा और डाकरस दण्डनाथ को बुलाया गया था, रानी के पिता को नहीं। इसलिए उसने सोचा, 'मुझे और तिरुवरंगदास को क्यों नहीं बुलाया गया, इसका कारण? मेरे खिलाफ शिकायत करनेवाले कौन होंगे? इससे उनका क्या लाभ होगा?' यो शंकर दण्डनाथ के मन में तरह-तरह के विचार उठते रहे । उसने सोचा कि ऐसे लोगों का पता लगाना चाहिए।
राजपरिवार जिस दिन रवाना हुआ उसी दिन दण्डनाथ और तिरुवरंगदास मिले । दोनों ने मिलकर विचारोपरान्त निर्णय किया कि जो अपमान हुआ है, उनका प्रतिकार करना ही होगा।
"परन्तु इस निर्णय को कार्यान्वित करने के लिए रानी लक्ष्मीदेवी का सहयोग अपेक्षित होगा। उनके बिना कोई काम नहीं बनेगा।'' शंकर दण्डनाथ बोला।
पट्टमहादेवा गन्तला : भाग चार :: 105