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"समझा था, शायद निवेदन कर दिया हो।"
"इससे क्या? आप ही कहिए। किसी माध्यम की आवश्यकता ही क्या है?" बिट्टिदेव कह ही रहे थे कि इतने में घण्टी बजी।
द्वार खोलकर रेविमय्या अन्दर आया, बोला, "रानी लक्ष्मीदेवीजी दर्शनाकांक्षी होकर आयी हैं।"
"इन सबसे बातचीत करने के बाद हम स्वयं उनके विश्वामागार में पहुंचेंगे।" बिट्टिदेव बोले।
___ रेविमथ्या झुककर पीछे की ओर सरक गया और द्वार खोलकर एक तरफ खड़ा हो गया। पट्टमहादेवी ने अन्दर प्रवेश किया। उन्हीं के पीछे लक्ष्मीदेवी भी आयी। बिट्टिदेव ने प्रश्नार्थक दृष्टि से उनकी ओर देखा, और पूछा, "पट्टमहादेवीजी को कोई जरूरी कार्य था?"
इतने में केतमल्ल ने कहा, "आज्ञा हो तो मैं फिर दर्शन करने आ जाऊँगा।"
रेविमय्या द्वार पर खड़ा रहा। उसको देखकर लगता था कि उसका ध्यान इस तरफ नहीं है, पर उसके कान चौकन्ने थे। ___शान्तलदेवी ने कहा, "मैंने रेविमय्या से कहा था कि यदि केतमल्लजी आएँ तो उन्हें सन्निधान से मिलाने की व्यवस्था कर देंगे। इनके आने से पहले इनके विषय में सन्निधान से निवेदन करना चाहती थी। परन्तु किसी और कार्य के कारण विलम्ब हो गया।"
"हमें किसी दूसरे के माध्यम की आवश्यकता नहीं, यह हमने केतमल्लजी से अभी कहा ही है।" बिट्टिदेव बोले।
"तो अब..." शान्तलदेवी ने बात को बीच में ही रोक लिया। "आ तो गयी हैं, बैठिए।" बिट्टिदेव बोले।
एक क्षण सोचकर शान्तलदेवी बैठ गयौं । लक्ष्मीदेवी भी बैठ गयीं। रेविमय्या किवाड़ लगाकर बाहर चला गया। केतमल्ल के लिए दूसरा कोई चारा न था। उन्होंने महाराज की ओर देखा। विट्टिदेव के संकेत पर वे भी बैठ गये। कुछ बोले नहीं।
"कुछ कहना चाहते थे न? कहिए!'' बिट्टिदेव ने कहा। केतमल्ल पट्टमहादेवी की ओर देखने लगे।
"कहिए। महाराज की आज्ञा का पालन करना हम सबका कर्तव्य है।" शान्तलदेवी ने कहा।
"वही, यहाँ युगल मन्दिर-निर्माण की बात पहले ही निवेदन कर सन्निधान की स्वीकृति ली थी न, उसके लिए शंकुस्थापना के बारे में..." कहते-कहते रुक गये।
"क्या सोचा है?"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 109