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छ: साल का अन्तर होने पर भी यौवन के कारण ये लोग अपने भावी जीवन की कल्पना करते रहते थे। यह चढ़ते यौवन का स्वभाव ही है। उनके विचार करने का एक ही ढंग था। उम्र में इन सबसे बड़े होने के कारण बिट्टियण्णा ही इस गुट के नेता की तरह था। इन लोगों के लिए कोई विशेष काम नहीं था, इसलिए सैनिक-शिक्षण में ही ये अपना अधिक समय व्यतीत कर रहे थे। रेविमय्या साथ रहता था, जब कभी समय मिलता, वह भी पुरानी रातों, व्यक्तियों और घटनाओं तथा उन पुराने व्यक्तियों के व्यवहार को रीति-नीतियों के विषय में सुनाया करता।
वेलापुरी और यादवपुरी के बीच बरावर, कम-से-कम हफ्ते में एक बार इधर से उधर और उधर से इधर समाचार आया-जाया करता।
राजलदेवी ने कभी अपनी कोई भी इच्छा महाराज से निवेदित नहीं की थी। एक दिन उन्होंने बड़े संकोच से महाराज से निवेदन किया, "मेरी अभिलाषा है कि एक बार पहाड़ पर चलें। केवल हम दोनों।"
"सो क्यों? वहाँ कौन-सी खास बात है?" बिट्टिदेव ने पूछा। "वहाँ चलने पर बताने से नहीं होगा?" "मना कर दें तो?" "कोई जवरदस्ती नहीं।" ''आज तेरस है । परसों पूर्णिमा है। उस दिन सूर्यास्त के बाद पहाड़ पर चलेंगे।" "यह बात किसी को न बताएँ तो अच्छा।" "क्यों, शरम लगती है?"
'ऐसा नहीं। महाराज जोर से साँस लें तब भी कान खोलकर सुननेवाले लोग रहते हैं। बार-बार पट्टमहादेवीजी कहती रहती हैं कि सदा सतर्क रहना चाहिए।"
"तो मतलब हुआ कि कोई रहस्य है।" "रहस्य कुछ नहीं। फिर भी..."
"ठीक है। वैसा ही करेंगे । रेविमय्या साथ रहेगा। उसकी राय के अनुसार चलें तो अच्छा होगा!''
जैसी मर्जी।" राजलदेवी पूर्णिमा की प्रतीक्षा में रही। प्रतीक्षा के दो दिन दो युग-से लगे।
महाराज के आदेश के अनुसार सारी व्यवस्था हुई थी। परन्तु एक अनपेक्षित काम हुआ था। वह यह था कि आचार्यजी के पूर्णिमा तक बंग देश से लौट आने की सम्भावना का समाचार मिला था इसलिए महाराज ने तिरुवरंगदास को बुला भेजा और कहा, "आप सनी को साथ लेकर यगिरि जाएँ और आचार्यजी का स्वागत कर लौटें। वे कुछ आराम कर लें तब हम जाकर उनके दर्शन कर आएंगे।"
98 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार