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"सन्निधान भी साथ होते तो अच्छा था!" तिरुवरंगदास ने सिर खुजलाते हुए कहा।
"श्री आचार्यजी को हमें वेलापुरी आने का आमन्त्रण देना है। दर्शन करते ही हमें आमन्त्रण देना पड़ेगानामी समय यदि सार चलने को राजी हो गये तो उन्हें आराम करने के लिए समय नहीं मिलेगा। इसलिए पहले आप लोग हो आएँ। हमारी तरफ से हमारी रानी रहेंगी न।" इतना कहकर बात समाप्त कर दी थी।
पिता-पुत्री यदुगिरि की यात्रा पर चल पड़े। शंकर दण्डनाथ को भी साथ में भेज दिया गया।
पूर्णिमा के दिन रानी राजलदेवी की इच्छा के अनुसार महाराज बिट्टिदेव और वह दोनों सूर्यास्त के बाद पहाड़ पर चढ़े । रेविमय्या ने व्यवस्था की थी कि उस वक्त पहाड़ पर कोई दूसरा न जाय। पहाड़ पर नरसिंह भगवान् के मन्दिर तक जो चाहे जा सकता था, उससे ऊपर नहीं। वह काफी दूर पर एक ऐसे स्थान को चुनकर बैठा था जहाँ से उसे मण्डप का द्वार दिखाई दे। वास्तव में शान्तलदेवी ने अपने सुखमय दिनों की मीठी स्मृति में इस मण्डप का निर्माण कराया था। राजदम्पती उसके अन्दर जा बैठे। उस पुराने जमाने में क्या सब व्यवस्था की जाती थी, सो रेविमय्या को याद थी। उसी तरह से व्यवस्था हुई भी थी।
चाँदनी दूध की तरह फैली थी। राजलदेवी का भाग्य था कि बादल नहीं थे। ठण्डी मन्द हवा बह रही थी।
''मैंने सुना था कि पट्टमहादेवी को अत्यन्त सुख दिया था इस जगह में।" "आपसे किसने कहा?"
"उन्हीं ने एक दिन कहा था। वे कभी-कभी पुरानी बातों को याद किया करती हैं। ऐसे किसी प्रसंग में बातचीत करते हुए इस स्थान पर जो आनन्द पाया था उसका उन्होंने वर्णन किया था।"
"उस समय न हम महाराज बने थे, न वह रानी ही।"
"सुना कि तब न कोई बन्धन था, न कोई नियमित आचरण हो । उनका जीवन एक पंछी के जीवन का-सा था। उस समय जिस सुख और आनन्द का अनुभव हुआ वह दस-दस जन्मों के लिए पर्याप्त है-यह भी कहा था। इसलिए उन्होंने जिस सुख का अनुभव किया था, उसका कम-से-कम एक अंश मैं भी अनुभव करूं, यह अभिलाषा हुई। मेरे लिए तो ऐसा प्रवास और सान्निध्य बिल्कुल अनपेक्षित है।"
"एट्टमहादेवीजी की बात सच है। हम भी उन दिनों को भूल नहीं सकते। अलावा इसके, अब तो ऐसा मौका मिल सकेगा, ऐसी आशा तक नहीं । इसलिए जैसा तुमने कहा हमें उस सुख का एक आंशिक उपभोग ही सम्भव हो सकता है। आजकल
पट्टमहादवी शान्तला : भाग चार :: 99