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ऐसे ही बढ़ने देंगे तो राज्य में अशान्ति पैदा हो सकती है और शत्रुओं को अपना प्रयोजन सिद्ध करने का मौका मिल सकता है। परन्तु इसमें एक सन्तोष का विषय यह है कि आचार्यजी यहाँ आ रहे हैं।"
"ये नीच शायद उनसे मिले ही न हों!"
"यदि मिले भी हों तो उन्होंने उन लोगों की बातों को कोई महत्त्व न दिया होगा। खैर, उनके आने पर सब स्पष्ट हो ही जाएगा। परन्तु राजमहल में ऐसे नीच कौन-कौन हैं, इसका पता लगाना होगा। चट्टला हमारे पास यहाँ होती तो वह पता लगा लेती। अच्छा, सोचेंगे।"
"तो सन्निधान ने और क्या सुना है?"
"आचार्यजी के आते ही धर्म-जिज्ञासा के लिए जैनों के साथ चर्चा-गोष्ठी का इन्तजाम करके उनको अपमानित करने का विचार किया गया है। इसके लिए हमारे नाम का उपयोग किया गया है, यह भी सुना है।" - "उसी वक्त पट्टमहादेवी ने इस सम्बन्ध में निवेदन किया था। उनकी कितनी दूरदृष्टि है। यह मतान्तर की बात न हुई होती तो कितना अच्छा होता!"
"अगर बात के सोचने टो नछ नहीं होगा। जैन हों या वैष्णव, यदि इस तरह का जब भी विवाद उठे कि कौन बड़ा है और कौन छोटा, तो उस बात को वहीं खतम कर देना होगा। आज ही चट्टला-मायण को आदेश भेज देंगे कि वे यहाँ आ जाएँ।"
"यह धर्म-जिज्ञासा कहीं राजव्रण न बन जाए। इसका समय रहते सही उपचार हो जाना चाहिए।"
__ "यदि जड़ को ही काट दें तो वह वैसे ही सूख जाएगा। जड़ का पता लगाना होगा। इसके लिए वे ही ठीक हैं।'
"किसे भेजेंगे?" "और किसी को नहीं भेजा जा सकता. सिवा रेविमय्या के।"
"वह दिन-ब-दिन बढ़ा ही होगा, युवा तो नहीं हो जाएगा? एक ही दिन में पहुंच सके, ऐसे किसी युवक को भेज दें तो अच्छा होगा।"
___ "इस काम के लिए विश्वस्त व्यक्ति चाहिए। अभी वहाँ यादवपुरी में कौन कैसा है, पहले इसकी जानकारी करनी होगी। तब तक विश्वास नहीं किया जा सकता! इसलिए उसी को भेजना होगा। परन्तु उसे फिर लौटना नहीं है।"
"सो भी ठीक है। किसी भी हालत में आचार्य जी के दर्शन के बाद उनके साथ वेलापुरी ही तो जाएँगे?"
"हाँ। अच्छा, दण्डनायिकाजी ने जो कहा सो तुमने बता दिया। रानी लक्ष्मीदेवी तुम्हारे साथ कैसा बरताव करती हैं ?"
"लगता तो है कि सहज ही व्यवहार करती रही हैं । शायद अपने मन में सोचती
102 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार