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"और नहीं तो! वैसे मेरी तरफ से तो ऐसी कोई विनती राजधानी तक नहीं पहुँची है।" नागिदेवण्णा ने कहा।
"तो मतलब यह कि किसी और ने आपकी तरफ से समाचार भेज दिया है। यही हुआ न?"
"ऐसा ही समझना चाहिए।" नागिदेवण्णा ने संकोच के साथ कहा।
"राजमहल को आपके विवेक पर विश्वास है, इसीलिए व्यवस्था करने के विचार से खुद चले आये। पर अब बात ही कुछ और हो गयी। आपकी जानकारी के बिना ऐसी बास राजधानी में पहुंचे तो वह अनुचित है न?" शान्तलदेवी ने पूछा।
"वेशक । तुरन्त तहकीकात करके अपराधी को योग्य दण्ड दिया जाना चाहिए।" नागिदेवण्णा ने कहा।
"दण्ड की बात पर बाद में विचार करेंगे। अभी इसके पीछे कौन है ? उसका क्या उद्देश्य है, यह जानना जरूरी है। इसलिए हमें पहले यादवपुरी जाकर वहाँ इन बातों की तहकीकात करनी होगी। इस सम्बन्ध में कोई अफवाह न उड़े, इस बात का ध्यान रखें। आपको भी अनजान की तरह रहना होगा 1 मेरा आगमन कुछ लोगों में कुतूहल पैदा करता है। ऐसे कुतूहली लोग हमारे आगमन का कारण जानना चाहेंगे। आप उनके सामने केवल आश्चर्य प्रकट करें।" शान्तलदेवी ने नागिदेवण्णा को एक तरफ बुलाकर जताया।
योजित रीति से उन्होंने यादवपुरी की ओर प्रस्थान किया। किसी पूर्व सूचना के बिना पट्टमहादेवी का आना रानी लक्ष्मीदेवी को कुछ अजीब-सा लगा। साथ ही उसके मन में कुछ उथल-पुथल भी मची। फिर भी उसने उसे प्रकट नहीं किया । सहजभाव से मानो कुछ हुआ ही न हो, बोली, "पहले ही खबर भेज देतीं कि पट्टमहादेवीजी अहा रही हैं तो राजगौरव के साथ नगर-प्रवेश की उचित व्यवस्था की जा सकती थी।"
"रहने भी दो। ऐसी सब व्यवस्था विशेष प्रसंगों में होनी चाहिए। मुझे इस यादवपुरी से एक तरह का स्नेह है, शायद तुम्हें भी हो सकता है। क्योंकि मेरा दाम्पत्यजीवन यहीं अंकुरित हुआ। तुम्हारे बारे में भी ऐसा ही है न?"
"सो तो है। मुझे तो वास्तव में वेलापुरी से यह जगह ज्यादा अच्छी लगती है।..पट्टमहादेवी के आगमन का कोई कारण होना चाहिए?" कारण जानने की इच्छा से लक्ष्मी ने बात छेड़ी।
"आचार्यजी के शिष्य उत्तर से लौटकर यदुगिरि आ गये हैं, यह समाचार मिला। आचार्यजी का कोई सन्देश तो नहीं, यह जानने के उद्देश्य से हम आये थे।'' शान्तलदेवी ने कहा।
"मैं इतने निकट हैं। उनके आने का समाचार मुझे मालूम ही नहीं हुआ!'' "क्यों ? तुम्हारे पिताजी ने नहीं बताया?"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 75