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"यह बात वे भी जानते हैं। अपनी सुरक्षा से अधिक अपने इस आराध्य को ठिकाने पर सुरक्षित पहुँचा देना मुख्य था। और फिर, अच्चान साथ हों तो और किसी की जरूरत नहीं । वास्तव में आचार्यजी के गुरु गोष्ठिपूर्णजी ने आचार्य श्री को अच्चान के हाथ सौंपा है। वह भी एक विचित्र घटना है।" कहकर एम्बार ने उस प्रसंग को बहुत दिलचस्प ढंग से विस्तारपूर्वक कह सुनाया।
" प्रेम और भक्ति को किन-किन माध्यमों से पहचाना जा सकता है, यह भी विचित्र है न? आपके अच्चान को तो खुलकर बात करते मैंने कभी नहीं देखा । फिर भी उसकी श्रद्धा और भक्ति अवर्णनीय है।"
"रेविमय्या और वह दोनों एक-से हैं।"
थोड़ी दूर पर खड़े रेविमय्या की ओर शान्तला ने देखा । वह एकदम निर्लिप्तसर खड़ा था।
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'आचार्यजी के यदुगिरि लौटने पर राजधानी में समाचार पहुँचाइए।"
""जो आज्ञा ।"
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'आचार्यजी ने कुछ और सन्देश कहला भेजा हैं ?"
" और कुछ नहीं। मेरे लौटने के बाद मैंने सुना कि बेलापुरी में विजय नारायण भगवान् की प्रतिष्ठा बड़े समारोह से सोल्लास सम्पन्न हुई और हजारों लोग इकट्ठे हुए । मन्दिर की भव्यता की बात भी सुनी।"
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'जब हम लौटेंगे तब आप हमारे साथ चलेंगे। उसकी भव्यता को आप एक बार देखकर आएँ।"
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'पट्टमहादेवीजी, मुझे क्षमा करें। आचार्यजी के लौट आने तक इस चेलुवनारायण की पूजा प्रतिदिन होना जरूरी है। एक बार दुगिरि में पहुँचने के बाद स्थानान्तरित न हों, ऐसी उनकी आज्ञा है ।"
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'तब फिर आप उस मन्दिर को कब देख सकेंगे ?"
'आचार्यजी के साथ।"
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"ठीक। यदि आपको यहाँ और कोई सुविधा चाहिए तो..."
एम्बार ने बीच में ही कहा, "हमें कोई असुविधा न हो, इस बात का सचिव नागिदेवण्णाजी ने विशेष ध्यान रखा है, सारी व्यवस्था भी कर दी हैं। हमारी सुविधाओं का खयाल रखकर ही तो महासन्निधान ने उन्हें यादवपुरी में रखा हैं, तब फिर किस बात की कमी होगी ?"
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'यहाँ बहुत काम होना हैं, उसके लिए धन की आवश्यकता है, यह खबर हमारे पास आयी हैं। सब देखकर व्यवस्था करने के खयाल से हमारा इधर आना हुआ। इसलिए किसी तरह के संकांच की आवश्यकता नहीं, कहिए।"
"ऐसा है मन्त्रीजी ?" एम्बार ने नागिदेवण्णा से पूछा ।
74 : पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार