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बुजुर्गों की तथा माचण दण्डनाथजी की उपस्थित में ही विचार करेंगे। बिट्टिदेव ने कहा। ___नये सिक्कों को देखकर बिट्टिदेव मन-ही-मन खुश हुए। बोले, "अब जो निधि लाये हैं उसमें से आधा सोना लेकर और कुछ सिक्के बनवाने की व्यवस्था कीजिए। उन कुछ चोल सिक्कों में व्यक्तिगत राजचिह्न अंकित हैं। विरुद के साथ राजचिह्न की आकृति भी उनमें आ जाए, इस तरह कैसे बनाये जा सकेंगे, इस पर विचार कीजिए। स्थपतिजी के साथ भी इसकी चर्चा कर लें तो वह भी बता सकेंगे कि सिक्के का रूप क्या हो। इसके लिए वे सिक्के के दोनों मुखों के कुछ चित्र तैयार कर देंगे। हम चालुक्यों के युद्ध से विजयी होकर लौट आएँगे तब विचार करके उन चित्रों से चुनकर सिक्के ढलवाने का आदेश दे देंगे।"
"स्वयं सन्निधान ही बुलवाकर कह देंगे तो अच्छा होगा। अभी जो सिक्के बने हैं उनका भी रूप उन्होंने ही बनाकर दिया था, पट्टमहादेवीजी के आदेश पर।" मादिराज ने कहा।
स्थपति को बुलवाकर उन्हें सूचना दी गयी। फिर जिट्टिदेव डाकरस, बम्मलदेवी और मायण-चट्टला के साथ राजधानी से रवाना होकर माचण के साथ मिल गये।
उधर शान्तलदेवी का आकस्मिक आगमन कोनेय शंकर दण्डनाथ के लिए आश्चर्य का विषय था। उसे और तिरुवरंगदास को यह खबर पट्टमहादेवी के यादवपुरी पहुँचने के दूसरे दिन सुबह मालूम हुई। वे पहले यदुगिरि जाकर वहाँ की सारी बातें जानकर ही आयी थीं। नागिदेवण्णा वहीं उपस्थित रहे, इसलिए इधर-उधर की बातों के सिलसिले में बहुत कुछ उन्हें भी ज्ञात हो गया।
___ आचार्यजी उत्तर की यात्रा पर गये हुए थे। उन्होंने वहाँ सुल्तान से जिस चेलुवनारायण की मूर्ति को प्राप्त किया था, उसे अपने प्रिय शिष्य एम्बार के साथ यदुगिरि भेज दिया था। वह मूर्ति कैसे प्राप्त हुई यह उसने सब विस्तार के साथ बताया : "दक्षिण के राज्यों को लूटकर जब सुल्तान लूट के सारे माल को दिल्ली ले गये, तब उसके साथ यह मूर्ति भी वहाँ पहुँच गयी थी। सुनते हैं कि वह मूर्ति लूट के अन्य पाल के साथ धूलधूसरित हो, धराशायी होकर पड़ी थी। एक दिन सुल्तान की बेटी की नजर उस पर पड़ी। पता नहीं क्यों, शहजादी उस मूर्ति को बहुत चाहने लगी। खाते-पीते, सोते-जागते, किसी भी वक्त कभी वह उससे अलग नहीं रहती थी। अलग रहना उसे सहन नहीं था। उनकी बेटी इस हिन्दू देवमूर्ति को प्यार करे, यह सुल्तान को पसन्द नहीं था। बहुत तरह से उसे समझाया, डराया-धमकाया। कुछ भी असर नहीं हुआ। उन्होंने इस मूर्ति को कुएँ में डलवा दिया। बेटी को जब यह मालूम हुआ तो उसने खाना-पीना छोड़ दिया। कमजोर पड़ गयी। उस मूर्ति को कुएँ से बाहर जब तक निकलवाकर नहीं दिया गया, तब तक उसने निराहार व्रत रखा। फिर वह उसके कब्जे
72 :: यट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार