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से सहज स्थिति में लौटना पड़ा। उन्होंने अभी तक यादत्रपुरी से सम्बन्धित किसी भी बात की चर्चा नहीं की थीं। कहना है या नहीं, इस पर विचार कर रही थीं। एक तरफ यह चिन्ता थी कि बताने पर उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी, तो दूसरी तरफ आत्म-वंचना का भाव । बात यदि छोटी रानी के पिता से सम्बद्ध न होती तो वह चिन्ता न करी । इस वजह से उन्होंने यही अच्छा समझा कि बात पहले उधर से ही मालूम हो, बाद को वस्तुस्थिति क्या है, सो बता देंगी। इसलिए आचार्यजी के आगमन का बहाना करके महाराज को यादवपुरी भेजने का विचार किया था। परन्तु पता नहीं क्यों, महाराज ने इस सलाह को मान्यता नहीं दी। इसलिए अब क्या करना है, यही सोचती रहीं। उन्होंने तात्कालिक परिस्थिति के अनुकूल अपने को संभाल लिया और हँसती हुई महाराज का स्वागत किया। उन्हें पलंग की ओर ले जाकर उस पर बैठाया, खुद भी बगल में जा बैठी और पृछा. "यह अचानक आगमन कैसे हुआ...?" और प्रश्नार्थक दृष्टि से उनकी ओर देखने लगी।
"आज की सभा में पट्टमहादेवी ने जो सलाह दी उसे सुनकर हमें ऐसा लगा कि शायद हमारी उपस्थिति अब पट्टमहादेवीजी को नहीं भाती। अपनी इस शंका का निवारण करने के लिए हम प्रत्यक्ष मिलने के इरादे से आये। हमारे आने से कोई असुविधा तो नहीं हुई न?" बिट्टिदेव ने पूछा।
''कभी मेरे मुँह से आज तक ऐसी बात निकली है, स्वामी?" "फिर यादवपुरी जाने की सलाह क्यों दी?"
"हमारी उम्र हो चुकी है। अपनी आकांक्षा से भी ज्यादा छोटों की आकांक्षाओं की ओर ध्यान देना ठीक है न?"
"इस तरह को उदारता के लिए उनमें उसके अनुकूल योग्यता भी तो होनी चाहिए न?"
"क्यों? अब क्या हुआ है?"
"जानते हुए ऐसा सवाल नहीं करना चाहिए। पट्टमहादेवी के यादवपुरी हो आने के बारे में सब-कुछ हमें मालूम हो चुका है।"
"ती मतलब हुआ कि ठीक तरह से मालूम नहीं।" "क्यों?" "फिर यादवपुरो जाने के लिए यह हिचकिचाहट क्यों?" "इस राजमहल के गौरव की रक्षा जिससे न हो, ऐसे के साथ..." "तो, क्या छोटी रानी पर क्रोध है?" "क्रोध नहीं, उग्र रोष।" "इसीलिए मैंने कहा कि सन्निधान ने गलत समझा है।" "इसमें गलत समझने की कोई गुंजाइश हो नहीं है।"
88 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार