________________
दिखे, तो उसे वहीं खतम कर देना चाहिए। यह बात सब पर लागू होगी। नीचता मनुष्य की अत्यन्त हेय प्रवृत्ति है। शिकायत करनेवाले और उसे सुननेवाले दोनों बुरे होते हैं और सहृदयता को समाप्त कर देते हैं । इस बात को कहने की मैं अधिकारी हूँ या नहीं, मैं कह नहीं सकती, फिर भी कह देने का मैंने निश्चय किया है। धर्मदीजी मेरी बातों को अन्यथा नहीं लेंगे। आचार्यजी के शिष्य एम्बार के विषय में आप जैसों के मुंह से ऐसी बात नहीं निकलनी चाहिए थी। सच है, अब आप राज्य के स्वामी के ससुर हैं। केवल इस कारण दूसरे लोगों को अपने से होन समझना ठीक नहीं। एम्बार उनके सेवक हैं, उनके लौटने की बात को अप्रधान विषय कहना आपके स्थान मान और आचार्यजी के आपके प्रति निहित कृपा-पूर्ण प्रेम के अनुरूप नहीं। आज एम्बार के बारे में जो कहा, वहीं कल शंकर दण्डनाथ के विषय में भी कह सकते हैं, सचिब नागिदेवण्णा के विषय में भी कह सकते हैं। आपको भाग्यवश जो स्थान मिला है, वह रानी लक्ष्मीदेवी की जन्मपत्री के बल पर और आचार्यजी की कृपा से। कल आपके व्यवहार से आपकी बेटी को शर्म से सिर झुकाना न पड़े, इसलिए अपने स्थान-पद आदि के अनुकूल व्यवहार करना आपके लिए अच्छा है। सुना है कि 'मैं आपकी प्रगति के मार्ग में रोड़ा अटकाती रही हूँ' यह बात आपने किसी से कही। इतना ही नहीं, और भी आपने क्या-क्या कहा है सो सब दोहराने की आवश्यकता नहीं, इतना पर्याप्त है। मेरे बारे में भी जब तरह-तरह की बातें करने लगे हैं तो आगे चलकर और क्या-क्या करेंगे, यह सोचा जा सकता है। प्रमखों को राजमहल के व्यवहारों की जानकारी हैं। वहीं छिपाव-दुराव के लिए कोई स्थान नहीं है। आपके सामने इन सब बातों को कहने का उद्देश्य इतना ही है कि कम-से-कम आगे चलकर परिस्थिति के अनुसार व्यवहार करने की बात सोचें। रानी लक्ष्मीदेवीजी को समक्ष रखकर, क्या सब बीता सो सभी प्रमुखों के सामने कहा है, इसका भी कारण है। घटनाओं और बातों को नमक-मिर्च लगाकर कहने का मौका न रहे, इसलिए वास्तविक स्थिति का परिचय सभी को हो जाए, यही यहाँ की रोति है। इसकी उन्हें भी जानकारी होनी चाहिए। वेलापुरी के प्रतिष्ठा समारम्भ के समय से लेकर, अर्थात् श्री आचार्यजी के उनर के प्रवास के समय से अब तक क्या सब गुजरा है, सो सब विस्तार के साथ उनके आते ही, सचिव नागिदेवण्णा को उनले निवेदन करना होगा। शिष्यों की गलतियों के कारण गुरुजी के व्यक्तित्व पर कलंक नहीं लगना चाहिए। अब सारी बातों की जानकारी होने के कारण रानी लक्ष्मीदेवीजी को मालूम हो गया होगा कि पोय्सल सिंहासन के अनुरूप रीति से, सतर्क रहकर ध्यवहार करना चाहिए। यह सभा अब विसर्जित की जाती है।" कहकर घट्टमहादेवी उठ खड़ी हुई और शेष सब लोग भी उठ गये।
पट्टमहादेवी रानी लक्ष्मीदेवी के साथ अन्त:पुर में चली गयीं। बाकी लोग अपनेअपने काम पर चले गये। सबके चले जाने के बाद तिरुपरंगदास धीरे से सजमहल से
82 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार