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बैठ गये। वही पुरानी जगह । रेविमय्या को जहाँ पहले किरीटधारी गोम्मट ने दर्शन दिया था, वही जगह ।
रेत्रिमय्या ने कहना शुरू किया, "मैंने यहीं से अलंकृत बाहुबली को देखा था।" इसके बाद पहले-पहल शान्तलदेवी को देखने के समय से लेकर उप समय कहाँ क्या कुछ बीता सो विस्तार के साथ बताया। उसके कहने में चामव्वा दण्डनायिका की बात जब उठती तो उसे संकोच का अनुभव होता। वह कह सकता था कि वह बहुत नीच प्रवृत्ति वाली थीं। सम्पूर्ण जीवन को बड़े संयम से बिताने वाले रैखिमय्या की बातों में ऐसा नहीं था जो बरा डेल यः उत्साह... बातें कम गुम्ने के बाद उसने कहा, "हमारी पट्टमहादेवीजो मेरे हृदय की अम्माजी ही सही। उन्होंने एक गलती की है। उसे कहने की स्वतन्त्रता मुझे नहीं। परन्तु मैंने उसे अपने मन में अब तक दबाकर रखा है। अब ऐसा करना दुःसाध्य है, इसलिए कह देता हूँ। मैं विश्वास करता हूँ कि रानी राजलदेवी जी भी मुझे क्षमा करेंगी। इस द्वारपाल को इतनी बड़ी बात से क्या वास्ता। यदि मेरी बात गलत मालूम पड़े, तो मेरी प्रार्थना है कि मुझे क्षमा करें । ये तीनों सपियाँ भी आज यहाँ उपस्थित हैं, यह मेरे लिए बहुत ही हितकर है। मैंने अब तक जो बताया उसमें उनकी कथा भी निहित है। एक ही माता-पिता से जन्म लेनेवाली सगी बहनें एक मन होकर सहजीवन व्यतीत नहीं कर सकीं। परिस्थितियों ने उन्हें इस तरह जीने नहीं दिया। अर्थहीन, दिशाहोन, लक्ष्यहीन होकर उनमें यह विचार उठा कि किसके गर्भ-सम्भूत को पीछे चलकर सिंहासन मिलेगा। इसी चिन्ता में उल्टी-सीधी चलकर, गलत रास्ते पर कदम बढ़ाकर, उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन को ही बरवाद कर लिया। अपने इस कटु अनुभव की पृष्ठभूमि में रानी पद्मलदेवी ने मनसा यह आकांक्षा की थी कि सन्निधान श्रीराम की तरह, एक पत्नीव्रती होकर रहें। जिन तरह उनका जीवन बरबाद हुआ, वैसे हमारी अम्माजी और अप्याजी का जीवन भूलभुलैया में पड़कर नष्ट न होने पाये-यही उनका उद्देश्य था। परन्त हमारी इन अम्माजी ने. आपस में लडनेझगड़ने वालों को ठीक करनेवाली अम्माजी ने, सौतों का स्वागत किया है। अब तक रानी बम्मलदेवी या रानी राजलदेवी जी ने ऐसा-वैसा व्यवहार नहीं किया, यह मच है । सदा ऐसे ही रहेंगी-यह कैसे कहा जा सकता है। अब तक के अनुभव के आधार पर वे अब जैसी हैं वैसी ही रहेंगी. यह मान भी लें तो जो नयी रानी अन्न आयी हैं। वे ऐसी ही रहेंगो, मुझे विश्वास नहीं। वह रानी चाहें तो रह भी सकती हैं. परन्तु उनके पिताजी उन्हें वैसा रहने नहीं देंगे। वह तो हर बात में इस तिलक को ही मान्यता देनेवाले आदमी हैं, कुएँ में मेढ़क जैसे । कल तिलकधारी को ही सिंहासन पर बिठाने की कोशिश करेंगे, इसके लिए हठ छानकर वह लोगों की भीड़ जमा करेंगे, ऐसे ही जैसे परसों चर्मकारों के प्रसंग में लोगों को इकट्ठा किया था। इसलिए मैं कहता हूँ कि हमारी अम्माजी ने सचमुच गलती की है। वे तो निर्लिप्त होकर रह सकती हैं, पर
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 5।