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पश्चिमोत्तर कोने के प्रांगण में विद्यालय की स्थापना की गयी थी।
उस दिन विद्यालय का अवकाश था। शान्तलदेवी एचियक्का के साथ बातचीत कर रही थीं। बातचीत के सिलसिले में यादवपुरी की बात उठी। यादवपुरी की बात उठती है तो रानी लक्ष्मीदेवी की बात आएगी ही, उसके पोषक पिता तिरुवरंगदास की भी बात सहज ही उठेगी।
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- 'वेलापुरी की मूल चेन्नकेशवमूर्ति के प्रतिष्ठा समारोह का सारा श्रेय आचार्यश्री को जाता है। मैं यदि वेलापुरी न जाता तो आचार्यजी का सारा प्रयास हवा में उड़ जाता। वे आगे नहीं बढ़ सकते थे। पहले जो मूर्ति बनी वह दोषपूर्ण शिला से बनी थी इस बात को सबसे पहले मैंने ही कहा। कुछ लोगों ने दोष प्रकट करने के कारण मुझे दुरभिमानी तक कह दिया। कहें, मुझे क्या । कुत्ता भौंकेगा तो सुरलोक की क्या हानि ? मुझे क्या चाहिए? मैं तो केवल आचार्य श्री का श्रेय चाहता था आदि-आदि कहकर 'मेरे ही कारण वह प्रतिष्ठा समारोह विधिवत् और शास्त्रोक्त रीति से सम्पन्न हो सका', यह कहते हुए तिरुवरंगदास अपने बड़प्पन का प्रचार कर रहे हैं।" एचियक्का ने कहा । " सारी बात दण्डनायकजी जानते हैं ?"
"हाँ, जानते हैं। वह वस्तुस्थिति को ब्योरेवार बताना चाहते थे। इतने में रानीजी वहाँ आ गयीं तो वातावरण कुछ और तरह का बन गया। दण्डनायक जी इन सभी बातों की ओर धान का आवर्तित करने के लिए इस आता ही चाहते थे कि इतने में उन्हें युद्धक्षेत्र में जाने का आदेश मिला। और हम इधर आ गयीं।" 'सचित्र नागिदेवण्णाजी ?"
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'अगर आचार्यजी के नाम का जिक्र आवे तो वे होठ तक नहीं हिलाएँगे। मत या धर्म की बात आवे तो हम चर्चा नहीं करेंगे—ऐसा उन्होंने सोच रखा है।" " रानी लक्ष्मीदेवीजी ?"
" वे जब यहाँ से गर्यो तो प्रसन्नचित्त थीं। लगता है, जैसे-जैसे दिन गुजरते गये, उनमें परिवर्तन होता गया । "
"हो सकता है। छोटी रानी का मन अच्छा है, परन्तु उसके पिता उसे अपनी इच्छानुसार रहने नहीं देते। जब पहली बार मैंने तिरुवरंगदास को देखा तब से ही मेरे मन में उसके बारे में अच्छी राय नहीं रही है। उसके व्यवहार ने मेरी राय की पुष्टि की हैं। वास्तव में सन्निधान को उस व्यक्ति पर बड़ा गुस्सा हो आया था जब वह उस बाड़ी के गुप्तचर के साथ बड़ी आत्मीयता से रहा करता था। मैंने सन्निधान को समझा-बुझा कर शान्त किया। बहुत से राजनीतिक ऐसा हो अविवेकपूर्ण आचरण करते हैं इसलिए इस बात को सन्निधान यहीं छोड़ दें, कहकर समझाया, तो सन्निधान ने मेरी बात मान ली। परन्तु वह व्यक्ति सोच समझकर सही रास्ते पर चल नहीं रहा हैं - यही मानना पड़ता है अब तो यही हुआ कि चाविमय्या के शिष्यों को यादवपुरी
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार:: 63