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"हम स्वयं तो युद्ध छेड़ कर उनके राज्य को हड़पने नहीं गये। अपनी रक्षा के लिए हम युद्ध करें तो इस तरह की हानि अनिवार्य है।" सिंगिमय्या बोले।
"आत्मरक्षा के लिए यह अनिवार्य है, इसी से हमें सन्तुष्ट होना चाहिए । जनता ने मुझे 'रणव्यापार में बलदेवता' की उपाधि से विभूषित तो किया, पर जब युद्ध समाप्ति के बाद के परिणाम का स्मरण हो आता है तो सारा शरीर काँप उठता है । यह मानब की एक विचित्र रीति है। कहना कुछ, करना कुछ और। 'राष्ट्र में सुख-शान्ति चाहिए, राष्ट्र समृद्ध बने राष्ट्र के सूत्रधार स्वयं कहते हैं-यही एक मानसिक तृप्ति है। परन्तु वह सब कहाँ है ? रक्त के प्यासे होकर अब लड़ते हैं तो शान्ति और सुख कैसे सम्भव हो? घर-घर में युद्ध का आतंक छाया रहता है।" शान्तलदेवी का स्वर भावपूर्ण था।
"पट्टमहादेवीजी की यह अधीर वाणी? वास्तव में उत्साह भरनेवाली आप ही इस तरह अनासक्त हो जाएँ तो कैसे चलेगा? महासन्निधान के लिए तो आपकी वाणी ही स्फुर्ति देनेवाली है।" मादिराज ने कहा।
"बाहरी शत्रुओं के विषय में सोचते हैं तो यह सब ठीक ही लगता है। परन्तु आन्तरिक शत्रुओं के बारे में सोच-विचार करते हैं तो मन अधीर हो उठता है।" शान्तलदेवी ने कहा।
"आन्तरिक शत्रु? पोयसल राज्य में ऐसे आन्तरिक शत्रुओं के लिए अवकाश हो कहाँ है ?' मदिराज ने आरचषकेत होकर उत्तर दिया।
__ "मैंने भी यही समझा था। महासन्निधान ने अचानक ही जब मतान्तर की बात कही, तभी पहली बार मेरे मन में अधीरता उत्पन्न हो गयी थी। वह बात केवल वैयक्तिक थी। साथ ही, यह विश्वास था कि उसका प्रसार नहीं होगा, इसी विश्वास में उस अधीरता का निवारण कर लिया था। परन्तु मत के दबाव में आकर महासन्निधान एक और विवाह करने पर सहमत हो गये, इससे मैं एक बार फिर से अधीर हो उठी। तब भी मैंने अपने को समझाया। किसी ने कहा भी था कि 'यह विवाह अंचल की आग है।' मैंने कहा था, अगर हवा न दें तो वह वहीं राख्ख बन जाएगी। परन्तु चेन्नकेशव भगवान् को प्रतिष्ठा के सन्दर्भ में ये मत सम्बन्धी संकुचित भावनाएँ इधर-उधर सिर उठा रही हैं। इससे मेरे मन पर बड़ा आघात हुआ है। यही हमारे अन्तरंग शत्र हैं, शरीर में रहनेवाली स्थायी व्याधि की तरह । यह दुर्बल बना देते हैं। कौन मत उच्च और कौन नीच-इस तरह का वाद छिड़ जाए तो वह अन्धाधुन्ध बढ़ता जाएगा। इसलिए इसके बारे में हमें बहुत सतर्क रहना होगा। इसी विषय पर बातचीत करने के लिए आप दोनों को बुलवाना चाहती थी।"
"इस तरह के मतीय वाद-विवादों को कौन से तत्त्व जिम्मेदार हैं, उन्हें पता लगाकर वहीं का वहीं दबा दें तो मामला खतम हो जाएगा।"
"कभी-कभी इतना आसान नहीं होता जितना हम समझते हैं। क्योंकि हम इस
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 69