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"हमारी ननदों की बात भूल गयी ?"
"नहीं, उन्होंने ही गलत कदम रखा था। उन्होंने स्वयं रीति-विरुद्ध निर्णय के लिए मौका दिया, इसलिए ऐसा हो गया।"
"रीति-नीति को मनमाना बरतनेवाले लोग पैदा हो जाएं तो क्या होगा?" "सो कैसे सम्भव है ?"
"एक ही मतावलम्बी हों तो नियम-आचरण भी एक-से होंगे। भिन्न मतावलम्बी जब होंगे तब विधि-विधान शंका के लिए मौका दे सकते हैं न?"
"मुझे विश्वास है कि यह राजमहल उस सबको समुचित रूप दे सकता है, दण्डनायिकाजी। अभी आपके दिमाग में ही धु: समाये हुई है शिकली आरिल कटवन पर हमने चर्चा की थी। वही सौतों की बात, है न? मैं और मेरी सन्तान सन्निधान की इच्छा के विरुद्ध चलेंगे तो कुछ भी.बाधा आ सकती है। उनकी इच्छा के अनुसार चलें तो कोई बाधा ही नहीं रहेगी। सबसे प्रबल ईश्वरेच्छा ही तो है । जिस पद को मैंने चाहा भी नहीं, उसे देने की कृपा करनेवाला भगवान, मेरी सन्तान पर कृपा नहीं करेगा? इस बात को लेकर हमें अपना दिमाग खराब नहीं करना चाहिए।"
"सब आप जैसे नहीं हो सकते। अभी तो इस बात का प्रमाण मिल चुका है कि मत-धर्म की बात को लेकर ऊँच-नीच का भेदभाव पैदा करने और लोगों को उकसाने वालों की कमी नहीं है। शैव और बैन एक होकर, ऊंच-नीच के भेदभाव के बिना आराम से सहजीवन यापन करते आ रहे हैं। अब लोगों में यह विचार फैलने लग जाए कि श्रीवैष्णव सबसे ऊपर हैं, तो भविष्य के लिए बहुत बुरा होगा न? इसलिए अभी से इस तरह की विचारधारा पर रोक लगाने का काम होना चाहिए।"
इस बीच घण्टी बजी1
दासी ने अन्दर आकर कहा, "वित्त-सचिव मादिराजजी दर्शन के लिए आये हैं।"
"मन्त्रणागृह में पहुँचें । मैं आती हूँ। कुमार बल्लाल जहाँ भी हों, वहीं आ जावें। मामा सिंगिमय्या भी वहाँ पहुँचे।" शान्तलदेवी ने कहा।
दासी चली गयी।
"लो, आपके लिए तो राजकाज का तकाजा आ लगा। फुरसत से बैठ भी नहीं सकती।" एचियक्का ने कहा और उठ खड़ी हुई।
"मनुष्य का जन्म हुआ है कर्तव्य करने के लिए, फुरसत से समय बिताने को नहीं।" कहकर शान्तलदेवी मन्त्रणागार की ओर चल दी। एचियक्का अपने मुकाम पर विश्राम करने चली गयी।
शान्तलदेवी मन्त्रणागार जब पहुँची, मादिराज वहां मौजूद थे 1 दासी की सूचना के अनुसार, कुमार बल्लाल भी वहाँ आ पहुँचा था।
66 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार