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Ram अपना - HAMPA पास कार' परियन जो पन्नती की, उसे हंसते हुए पट्टमहादेवीजी ने ही मुझे बताया। मेरा तिरस्कार न कर, सहानुभूति से मुझे समझाया कि मेरी इस गलती के कारण पत्नी और पुत्र के प्रति कितना घोर माय और अगाया है। इसमा ही नहीं माने मुझ माय बनाया। मेर सम्पूर्ण परिवार में व्याप्त हो गयी कडुआहट को दूर कर, पारिवारिक जीवन को सुखमय बनाया। मेरे दाम्पत्य जीवन का सुपर्जन्म, मेरे इस पुत्र के साथ जिस पर मैं गर्व कर सकता हूँ, हुआ। हम तीनों पट्टमहादेवी के आजीवन ऋणी हैं। ईर्ष्या-द्वेष बढ़ाकर, एक-दूसरे पर क्रोधाग्नि भड़काकर, स्वार्थ को साधकर खुश होनेवाली मानव प्रवृत्ति के विपरीत, क्षमा और प्रेम द्वारा जीवन को भव्य बनानेवाली त्यागवृद्धि को व्यावहारिक जीवन में लाकर, मानवीयता के मूल्य को बढ़ानेवाली पट्टमहादेवीजी के व्यक्तित्व ने ही मुझे यह पाठ पढ़ाया। हमारी बात छोड़िए, सब-कुछ मेरे अविवेक एवं जल्दबाजी के कारण हुआ। चट्टलदेवी और मायण का जीवन जो सुधरा, उसका स्मरण करने पर आश्चर्य होता है। मानव का काम तोड़-फोड़ करना नहीं है। पट्टमहादेवीजी का आदेश होने से इस भव्य गोम्मट भगवान् के समक्ष खुले दिल से मैंने कह दिया। आप सभी के समक्ष कह देने के बाद, मैं समझता हूँ कि मुझमें अपराधी का भाव नहीं रह जाएगा। अब तक, इस समागम के पश्चात्, मेरी पत्नी और पुत्र ने यह सब जानते हुए भी मुझे सुख-सन्तोष ही दिया है। परन्तु मैंने ही एक तरह से कृतघ्न व्यवहार किया। क्यों छोड़कर चला गया, इसका कारण मैं नहीं बता सका। यदि कभी पूछ बैते ती क्या कहूँगा? यही खटका लगा रहता था। अब निश्चिन्त हो गया। आइन्दा मेरे और मेरे पुत्र को सेवाएँ पट्टमहादेवीजी और पोय्सल वंश की धरोहर हैं।" स्थपति ने कहा।
रेविपय्या और जकणाचार्य की कहानी सुनते हुए किसी को भी समय का पता नहीं चला। पद्मलदेवी ने कहा, "देखिए तो, चन्द्रमा कहाँ तक चढ़ चला है ! पूर्णिमा के अन्न दो ही दिन रहे गये हैं। वह उतना ही अपूर्ण है। जो भी पट्टमहादेवी के सम्पर्क में अग्ये वे परिपूर्ण होकर सुखी जीवन जीने लगे हैं। मगर हमने अपने जीवन को
आखिर तक अपृणं ही बनाये रखा। हमारे बारे में पट्टमहादेवी अभी तक कृतकार्य नहीं हुई। हम स्वयं ही उसके कारण हैं। यह अपूर्णता हमारी अपनी ही देन है। फिर भी उनकी समाशीलता ने हमें उनके अत्यन्त निकट बनाये रखा है। अपना किस्सा सुनते समय जितना उत्साह रहा, स्थपतिजी की कहानी सुनते हुए भी वह उत्साह उसी मात्रा में रहा। समय का पना ही न चला! अब हम अपने पुकाम पर जा सकती हैं न?"
सभी जन करवप्र से उत्तरकर अपने अपने मुकाम पर आ गये।
पूजागजी उन्हें विदा करने निवास के द्वार तक आये. उन्हें प्रणाम किया और कहा. "मेरा सम्म तन मन इस गोम्मटस्वामी के चरणों में ही विलीन हो गया। फिर भी मानव जीवन के अनेक पहलुओं से परिचय ही नहीं हुआ। आज मुझे उसका
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54 :: पट्टमहादेव शान्तला : भाग चार