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फिर मन्त्रणा हुई। तलकाडु की रक्षा के लिए थोड़ी सेना को वहीं रखकर, वहाँ को बाकी सेना के साथ कोवलालपुर पहुँचने के लिए मायण को खवर भेजकर, बिट्टिदेव बम्मलदेवी, उदयादित्य, मायण, चट्टलदेवी और कुछ रक्षक-दल के साथ कोवलालपुर की ओर चल पड़े।
चालुक्यों की सम्मिलित सेना का सामना करने की पूरी जिम्मेदारी अब गंगराज घर आ पड़ी।
महाराज के कोवलालपुर जाने और कंची पर हमला करने की बात गुप्तचर के द्वारा वेलापुरी भेजी गयी। उसके साथ एक और सूचना भी थो-यादवपुर में डाकरस जैसे निष्णात दण्डनाथ रहें, यह उचित नहीं। एक साधारण अनुभवी गुल्मनायक के मेलन में महाँ एक प्रक्षक दल का रहना पर्याप्त है, फोष राजकाज की देखभाल करने के लिए नागिदेवण्णाजी तो हैं ही। इसलिए डाकरस दण्डनाथ को एक सैन्य टुकड़ी के साथ कंची भेज दें।
___शान्तलदेवी ने दोरसमुद्र से बोपदेव को तुरन्त बुलवा लिया। स्वयं और बोप्यदेव तथा सिंगिमय्या मिले। साथ ही मारसिंगय्या और वित्त-सचिन मादिराज को भी बुलवाया गया। विचार-विमर्श हुआ। अन्त में निर्णय हुआ कि बोपदेव के अधीन काम करनेवाले कोनेय शंकर दण्डनाथ को यादवपुरी भेजने तथा डाकरस को वहाँ से छुटकारा देकर महाराज के साथ शामिल होने के लिए भेजा जाए। यह भी तय हुआ कि डाकरस का परिवार उनके लौटने तक वेलापुरी में ही रहे। यह खबर राजमहल के नवनियुक्त विश्वासपात्र योद्धा चिन्न के द्वारा पत्र भेजकर दी गयी और वहाँ से दण्डनायिकाजी और बच्चों को बुला लाने की भी व्यवस्था की गयी।
चिन्न ने डाकरस दण्डनायक तक शीघ्र ही पत्र पहुंचा दिया। डाकरस अपनी सेना लेकर महाराज के साथ सम्मिलित होने के लिए रवाना हुए। तभी दोरसमुद्र से कोलेय शंकर दण्डनाथ भी आ पहुँचा। वह सुरिंगे नागिदेवणखा के अधीन यादवपुरी के रक्षण में नियुक्त होकर कार्यरत हुआ। डाकरस की पत्नी और पुत्र योद्धा चिन्न के साश्य वेलापुरी पहुंच गये।
बेलुगोल से लौटने के बाद पद्मलदेवी और उनकी बहनों ने सिन्दगैरे जाने का आग्रह किया। शान्तलदेवी ने ही उन्हें ठहरा लिया था, इसलिए कि पूर्व-निर्मित चेन्नकेशव मूर्ति की प्रतिष्ठा के बाद भेज देंगे। इस बार तो उनकी भाभी और बेटे भी आये थे। वे सब राजमहल में ही ठहरे थे। दण्डनायक का अलग निवास था, तो भी रानियाँ पनलदेवी और उनकी बहनें राजमहल में ही रही, इसलिए उन्हें भी राजमहल ही में ठहराया गया था।
शिल्प-विद्यालय आरम्भ हो गया। मन्दिर निर्माण के लिए जो शिल्पी आये थे उनमें अनेक को यथोचित पुरस्कार प्रदान किया जा चुका था, और वे सब अपने-अपने
58 :: पट्टपहादेवी शान्तला : भाग चार