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'पट्टमहादेवीजी को ऐसी ही रीति है। मैं इसे अब पांचवी बार सुन रहा हूँ। हो सकता है कि और अधिक बार सुना हो। परन्तु प्रत्येक बार उसका विन्यास ही अलगअलग प्रतीत हुआ।" पुजारीजी ने कहा ।
" पट्टमहादेवी के रूप में इस धरती पर संगीत सरस्वती ही अवतरित हैं। पत्थर में स्वर उत्पन्न कराने के लिए उन्होंने ही प्रेरित किया।" स्थपति ने कहा ।
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" इनकी बात मत मानिए ये बहुत ही श्रेष्ठ शिल्पी हैं। वेलापुरी के मन्दिर के निर्माता स्थपति जळणाचार्य हैं। निर्जीव प्रस्तर में प्राण भर देने वाले इनके हाथों के लिए स्वर उत्पन्न करना कौन बड़ी बात हैं!" शान्तलदेवी ने कहा ।
"कुछ नये लोग हैं, पूछना चाहता था कि ये कौन हैं, परन्तु थोड़ा संकोच रहा । " 'अब संकोच करने का कारण ही नहीं ।"
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" माने ?"
" एक समय था जब परिचय प्राप्त करने में संकोच ही नहीं, डर लगता था । " " तो मतलब हुआ कि अब पट्टमहादेवीजी ने उन्हें साधु बना दिया है।" पुजारी ने कहा। फिर स्थपति से पुजारी ने कहा, " स्थपतिजी, इन पट्टमहादेवी जी के सम्पर्क में आना पूर्वजन्म का पुण्य हैं। यह पोय्सल राज्य वास्तव में धन्य है । "
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'आपकी बात अक्षरशः सत्य है। मेरा पूर्व सुकृत था, इसीलिए इन महादेवी जी से सम्पर्क प्राप्त हुआ। जीवन एक दूँठ-सा हो गया था, अब उस ठूंठ में से कोंपलें निकल आयी हैं, वह हरा-भरा सा हो गया है। पूर्व जन्म के किसी पाप के कारण मेरी पत्नी और पुत्र मुझसे दूर हो गये थे। न न, मैं ही उनसे दूर हो गया था। पट्टमहादेवी जी से सम्पर्क होने के हो कारण वे फिर मुझे मिल गये। जैसा उन्होंने कहा, उस दिन आपको वहाँ रहना चाहिए था। एक अद्भुत चमत्कार ही घटित हो गया था वहाँ ।" स्थपति ने कहा ।
"मुझे भी उसे जानने की अभिलाषा हो रही है।" पुजारी ने कहा।
"केशव भगवान् के पादत्राण बनानेवाले चर्मकारों को अन्दर प्रवेश करने में जो विघ्न-बाधाएँ उठ खड़ी हुई थीं, उन सबको आदि से अन्त तक विस्तार के साथ सुनाया। फिर कहा-
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'उस समय पट्टमहादेवीजी ने यही गोम्मट स्तुति का गायन किया जो अभी गाया। जैसा मैंने पहले हो बताया, वह किसी को प्रोत्साहित करने का सा था। रास्ता रोककर जो लोग जिद पकड़कर खड़े थे, ने अपने आप विभक्त होकर, रास्ता बनाकर हट गये। स्वयं पट्टमहादेवी भगवान् के पादत्राणों को सिर पर रखकर अन्दर ले गर्यो । चर्मकार भी उनके साथ अन्दर गये। रास्ता रोककर खड़े तिलकधारियों का वह झुण्ड एकदम किंकर्तव्यविमूढ़ होकर देख रहा था । चर्मकारों के अन्दर जाने के बाद भी बहुत दूर तक उस भीड़ के तिलकधारियों की दृष्टि गयी। ऐसा लग रहा था कि वे किसी
48 :: पट्टमहादेवी शान्दला : भाग चार