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"कल ही शिल्पकला विद्यालय खोलने की स्वीकृति ली थी। यदि हमारे साथ चलेंगी तो उस विद्यालय का क्या होगा? अभी हाल में परिवार के साथ मिले स्थपति एवं उनकी पत्नी में रही-सही कमियों और अलग-अलग विचारों के कारण सम्भावित गलतफहमियों को कौन दूर करेगा?" बिट्टिदेव ने पूछा।।
तो क्या मैं यही समझू कि सन्निधान की अभिलाषा बम्मलदेवी को ही साथ ले जाने की है?" शान्तलदेवी ने कहा।
राजलदेवी ने कहा, "तब तो मैं पट्टमहादेवी जी के ही साथ रहँगी।" लक्ष्मीदेवी ने कहा, "मैं यादवपुरी जाऊँगी।"
उसी के अनुसार यात्रा की मामा की गयी सभाँ- पदमी देनी और बोष्पिदेवो कुछ समय और वेलापुरी में रहकर, बाद को सिन्दगैरे जाने की बात पर विचार करें, यह निर्णय हुआ।
राजधानियों एवं नवीन प्रदेश तलकाडु की सुरक्षा के लिए उपयुक्त व्यवस्था करने के बाद, रानी लक्ष्मीदेवी को यादवपुरी भेज देने की व्यवस्था की गयी। फिर महाराज ने दशमी के शुभ दिन सेना के साथ युद्ध-यात्रा पर प्रस्थान कर दिया।
दो-चार दिन आराम कर लेने के बाद, मन्दिर के बाकी बचे छोटे-मोटे कार्यों को करने की बात स्थपति को सूचित की गयी। पहले जिस मूर्ति को तैयार किया था, उसकी प्रतिष्ठा नहीं हुई थी, इसलिए उसकी प्रतिष्ठापना के लिए भी एक छोटे से मन्दिर के निर्माण को आदेश देकर शान्तलदेवी ने बेलुगोल प्रस्थान करने का निश्चय किया। स्वयं शान्तलदेवी, उनके माता-पिता, राजलदेवी तथा महाराज की अन्य रानियाँ, रेविमय्या-सभी यात्रा की तैयारियाँ करने लगे।
___ यात्रा की खबर पहले ही बेलुगोल भेज दी गयी थी। इधर जैसे ही स्थपति की इस बात का पता चला, तो उन्होंने भी सपरिवार वेलुगोल की यात्रा पर साथ चलने के लिए पट्टमहादेवीजी से निवेदन किया। इसके लिए उन्हें सहज ही स्वीकृति प्राप्त हो गयी। फिर क्या था, स्थपति ने तब तक के लिए अपना सम्पूर्ण कार्यभार शिल्पी दासोज को संभाल दिया और पट्टमहादेवी के साथ वह भी बेलुगोल के लिए रवाना हो गये।
पट्टमहादेवी के आने की खबर से श्रवण-बेलुगोल में उत्साह की लहर दौड़ गयी । वहाँ के पुराने पुजारी वृद्धावस्था के कारण इधर कुछ समय से प्रति दिन गोम्मट की पूजा करने पहाड़ी पर नहीं बढ़ सकते थे। उस कार्य का निर्वाह उनका बेटा कर रहा था। पट्टमहादेवी जी के आने की खबर ने वृद्ध शरीर में भी यौवन-सा उत्साह भर दिया।
46 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार