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"नहीं। उन्हें यहाँ एक बात स्पष्ट पालूम हो गयी है कि जो अपराधी होंगे, उनके अपराध के अनुसार दण्ड के भागी भो वही होंगे। इसलिए उन्हें मालूम है कि उनकी बेटी को कोई तकलीफ नहीं होगी। वह मतान्धताजन्य अज्ञान हैं । वह अभी यहां से चले गये हैं। पासों की घटना उनके लिए एक बहुत बड़ी हार साबित हुई। वे मूलतः जैनधर्म-देषी हैं, ऐसा लगता है। इसलिए सभी जिनभक्तों से उनका वैर है। जैन.. धर्मावलम्बियों से वैर प्रकट करेंगे तो उनका मुल्य घटेगा, यह जानकर कट्टर वैष्णव होने का स्वाँग भरा । उसका भी मनचाहा फल्न नहीं मिला। वह घोंघे जैसे स्वभाव के हैं। पीछे हटे। हमें भी बिना बतायें चले गये। इससे स्पष्ट है कि इस हार से वे बेहद दुखी हैं। उनके इस तरह से चले जाने पर विस्तृत चर्चा करेंगे, तो बेटी रानी को परेशानी हो सकती है।" बिट्टिदेव ने कहा।
''मैंने ही उनसे कहा कि सन्निधान को बताकर जाइए। वे बहुत जल्दी में थे, 'तुम ही सन्निधान से कह देना। वे युद्धयात्रा की तैयारी में व्यस्त होंगे।' ऐसा कहकर चले गये।" लक्ष्मीदेवी ने धीरे से कहा।
"यह जानकर भी कि हम युद्ध में जा रहे हैं, यों ही चले गये? तो उन्हें अपनी बेटी के कुशलक्षेम तक की परवाह नहीं रही?" बम्मलदेवी ने कहा।
"उन्हें अब बेटी को चिन्ता क्यों ?' लक्ष्मीदेवी ने व्यंग्य किया।
"क्योंकि हम युद्ध में जा रहे हैं। इस बार राजत्नदेवी भी साथ चलने को उत्साहित हो रही हैं। ऐसी हालत में छोटी रानी का अकेली रह जाना ठीक होगा?'' बम्मलदेवी ने छेडा।
"तो आप लोगों का निर्णय है कि मैं युद्ध में न चलूँ?" लक्ष्मीदेवी ने कहा। उसके स्वर में असन्तोष था।
"अब की बार युद्ध में किसी भी रानी के जाने की जरूरत नहीं। बदले में बिट्टियण्णा जाएगा। उदय भी रहेगा। चट्टलदेवी और मायण तो रहेंगे ही। इस युद्ध के समय में जो जहाँ रहना चाहें. अभी बता दें तो उसके अनुसार व्यवस्था कर दी जाएगी।" बिट्टिदेव ने कहा।
"और किसी को ले जाएँ या नहीं, मैं तो चलँगी ही।' बम्मलदेवी ने कहा।
पट्टमहादेवी अब तक मौन थीं। ये बोली, "किसी की जरूरत नहीं, यह मन्निधान ने अपने आप निर्णय कर लिया है. मालूम पड़ता है। सन्निधार भूल भी जाएँ, लेकिन मैं नहीं भूल सकती। सन्निधान की सुरक्षा के लिए आवश्यक सुरक्षा-दल, दक्ष दण्डनायक तो रहेंगे ही, फिर भी युद्ध में या तो मुझे या बमलदेवी को साथ में रहना ही चाहिए। इस बात को स्वीकार कर चुकने के बाद फिर इसे अमान्य करने का कोई कारण नहीं है। तलका? के युद्ध में एवं अभी हाल इस युद्ध में बम्पलदेवी रहीं। इस बार मैं रहना चाहूँगी।"
हादेवी शान्तला : भाग चार ::45