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तड़के ही जागकर वे गोम्मट की पूजा के लिए पहाड़ी पर चढ गये थे।
पूर्व नियोजित न होते हुए भी महावीर जयन्ती के समय पर पट्टमहादेवीजी सपरिवार बेलुगोल पहुँच चुकी थीं। उस दिन बड़ी पहाड़ी पर और कटवन के नीचे बेलुगोल के समस्त जिन-मन्दिरों में विशेष पूजा की व्यवस्था की गयी थी। बेलुगोल के गाँव के जिनालयों का दर्शन कर सभी जल्दी ही पहाड़ पर चढ़ने लगे।
वृद्ध मारसिंगय्या और माचिकब्जे को ऊपर तक पहुँचने में विलम्ब हुआ! पहले जब बेलुगोल और शिवगंगा की यात्रा को थी उस समय अपने-अपने भगवान् के बार में चर्चा करनेवाला यह वृद्ध दम्पती आज मौन ही पहाड़ पर चढ़ा।
वृद्ध पुजारी ने सांगोप" रमा-विधि रामान की अनमोने याहा "पट्टमहादेवीजी गोम्मट-स्तुति-गान करने की कृपा करें। फिर आपकी अमरवाणी में उसे सुनने का मौका मिले न मिले। वेलापुरी के उस महान उत्सव में वहां आने की मेरी इच्छा थी। इतनी दूर की यात्रा थका देगी, यही सोचकर नहीं गया।"
"तो अभी इस पहाड़ पर कैसे चढ़ आये?'' शान्तलदेवी ने पूछा। "पट्टमहादेवोजी का सान्निध्य क्या-क्या नहीं करा सकता?'' "तो यही पट्टमहादेवी तो वहाँ भी थीं?" "फिर भी यह केशव की प्रतिष्ठा थी न? उत्साह कम रहा।'' "जिनालय होता तो उत्साह छलक पड़ता, यही न?"
।"स्वाभाविक ही है। लेकिन ऐसा कहने का तात्पर्य यह नहीं कि बाकी सब निकृष्ट हैं।"
"आपकी भावना चाहे कुछ भी हो, एक अपूर्व अवसर आपने खो दिया।" "आप कहती हैं तो मानना ही होगा। क्या था सो बताने की कृपा होगी?" "पूजा समाप्त हो जाए।" "जो आज्ञा; गोम्मट-स्तुति..."
शान्तलदेवी ने गायन किया। जकणाचार्य के कान खड़े हो गये। श्रद्धा-भक्ति से गायन सुना। गायन की समाप्ति पर उन्होंने पूछा, "उस दिन वेलापुरी के मन्दिर के बाहरी प्राकार में पट्टमहादेवी जी ने यही गाया था न?"
"हाँ।" "केशव मन्दिर में गोम्मट-स्तति ?" आश्चर्यचकित पुजारीजी ने पूछा।
"हाँ, उस दिन मालव पंचम में गाया था, अभी उसका राग शुद्ध वसन्त था।'' स्थपति ने कहा।
"सच है। उस दिन प्रोत्साहित करना था। आज भगवान् को सुप्रीत करना
रहा।"
"मेरी समझ में नहीं आया।" स्थपति ने कहा।
पट्टमहादेवी वान्तला : भाग चार :: 47