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तुम्हारी परवाह की मुद्रा यान रहा किसी को? अाश मिलने पापा बम्मनदेवी को ही आगे करती रही। वह ऐसा करता ही रहेगी तुम्हारा नाम तक नहीं लेगी। परसों का सम्पूर्ण उत्सव तुम्हारे ही कर्तृत्व में होना चाहिए था। उसके अधिकार की व्याप्ति यहाँ सबकी नस-नस तक पहुंच गयी है। तुम मेरी बेटी हो, तुम्हें बताना चाहिए। मैं चलता हूँ।'' तिरुवरंगदास ने कहा।
"आपके न बताने पर सन्निधान यदि असन्तुष्ट हुए तो?"
"इसका मुझे कोई डर नहीं है। बहुत हुआ तो धर्मदशी के पद से हटा देंगे, इतना हां न? मुझ जैसे श्रोत्रियों को कहीं भी स्थान मिल जाएगा। देशो विशालः।''
"जल्दबाजी में क्यों यह सब कर रहे हैं?"
"जान पड़ता है तुम्हें भी इन लोगों ने किसी टोने-टोटके स्ले बिलकुल बेवकूफ बना दिया है। नोट लगेगी तब अकल आएगी। मैं चला। तुम स्वयं ही सन्निधान को बता देना।'' कहकर तिरुवरंगदास राजमहल से बाहर आ गया और फिर यादवपुरी की और चल पड़ा।
अष्टमी के दिन की पूजा के समय महाराज, पट्टमहादेवी और रानियाँ मन्दिर में उपस्थित रहे । यथाविधि पूजा सम्पन्न हुई। राजमहल में लौटकर सबने भोजन किया। उसके बाद महाराज रानियों के साथ झूले के प्रकोष्ठागार में बैठकर, पान खाते हुए इधर-उधर की बातें करने लगे।
बातचीत के सिलसिले में प्रतिष्ठा-समारम्भ के समय की घटनाओं के बारे में भी बात चली। इस सिलसिले में जब महाराज ने कहा कि उत्सव के समय झुण्ड के झुण्ड लोगों को ले आने वाला यही तिरुवरंगदास था तो लक्ष्मीदेवी की शक्ति ही मानो गायब हो गयी। वह अन्दर हो अन्दर सहमी-सी बैठी रही।
"इसका क्या कारण है? सन्निधान ने या हममें से किसी ने, उनके प्रति कोई अन्याय किया है? आचार्य के शिष्य होकर ऐसा व्यवहार करना उनके लिए ठीक है?" पट्टमहादेवी ने पूछा।
"ठीक लगा होता तो वे स्वयं ही सामने आते । जीते तो यहाँ टीक बने रहेंगे, हारे तो वहाँ लोक बने रहगे--यह समय -साधक प्रवृत्ति है। यही उनकी रीति है, यह स्पप हो गया है । वेलापुरो का धर्मदर्शित्र नहीं मिला। उनके मन पर इस बात का बहुत प्रभाव पड़ा, ऐसा प्रतीत होता है।" बिट्टिदेव ने कहा।
'हम क्या है, कौन हैं, हमारी हस्ती क्या है, हैसियत क्या है-इनकी ओर ध्यान न देनेवाले व्यक्तियों की रीति ही मेरी समझ में नहीं आती। बेटी की शादी कराकर उनकी गलती के लिए यह दण्ड भोगेगी, इस बात का भी विचार न करके ऐसा आचरण करनेवाले को क्या कहना चाहिए? इस बेटी को अपने स्वार्थ की साधना के लिए इस्तेमाल किया-यही कहना पड़ता है।'' बम्मलदेवी ने कहा।
44 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भग चार