________________
से चल देगी। इस समय आप लोगों से हमारा इतना ही आग्रह है कि राष्ट्र के लिए सब लोगों के तहत में लिए गया हो जाना चाहिए। इस शुभ अवसर पर बाहुबली भगवान् के नाम से, विजयनारायण भगवान् के नाम से, धर्मेश्वर महादेव के नाम से-इनको साक्षी मानकर आप सभी को प्रतिज्ञा करनी होगी कि राष्ट्र के प्रति आपकी निष्ठा अचल है, अडिग है। किस-किस स्तर पर कहाँ-कहाँ से लोगों को हमारी सेना में सम्मिलित होना चाहिए, यह बात समय आने पर बतायी जाएगी।"
"राष्ट्र की रक्षा के लिए हम सब अपना तन-मन-धन समर्पित करने के लिए हमेशा तैयार हैं। हम सब यह प्रतिज्ञा इस शार्दूल-पताका के नीचे भगवान् की साक्षी देकर करेंगे। और पोय्सल राज्य के प्रति अपनी निष्ठा स्थायी रहेगी, यह घोषणा कर कन्नड़ राज्य के धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए हम कटिबद्ध हैं, ग्रह वचन देंगे।" जन-समुदाय ने घोषणा की। इस उद्घोष को ध्वनि-तरंगें उठकर आसमान तक व्याप्त हो गयीं। पंच महावाद्य बज उठे। बाद में वातावरण में मौन छा गया।
फिर बिट्टिदेव ने कहा, ''इस मन्दिर के निर्माण से हमें एक और महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हुई है। इस राज्य के वास्तु-शिल्प को एक नया आयाम मिला है। इस नृतनता के कारण-कर्ता इसे बनाने वाले स्थपतिजी हैं। इस मन्दिर की कल्पना. रचना से उनके जीवन को एक शाश्वत कीर्ति प्राप्त हुई है। इतना ही नहीं, उन्हें अपेक्षित शान्ति भी प्राप्त हुई है। छूटा हुआ उनका पारिवारिक जीवन फिर से शुरू हुआ है। उनके पारिवारिक समागम ने एक बहुत दिलचस्प घटना बनकर, अनुभव बनकर हमारा मार्गदर्शन किया है। इन विशिष्ट पिता-पुत्र का नाम आम जनता को जिहा पर सर्वदा, युग-युगों तक, स्थायी बनकर रहे और उनमें उत्साह भरता रहे । यह वास्तुकला जक्कणवास्तु के ही नाम से अभिहित हो। सम्पूर्ण दक्षिण भारत के लिए यह नमूना बनकर रहे । यह स्थपति दक्षिण के शिल्पि-समाज के आचार्य के रूप में विख्यात हौं। ये 'दक्षिणाचार्य' कहलाने के लिए सर्वथा योग्य हैं; इसलिए हम इन्हें 'दक्षिणाचार्य' के विरुद से विभूषित करना चाहते हैं। आप सभी की ओर से हम स्थपतिजी को यह विरुद प्रदान करते हैं। आशा है, वे इसे स्वीकार करेंगे।"
स्थपति जकणाचार्य उठ खड़े हुए और झुककर प्रणाम कर बोले, "सन्निधान के समक्ष मेरी एक विनती है । मैं एक घुमक्कड़ व्यक्ति था। लोगों के बीच आना-जाना हो मुझे पसन्द नहीं था। मेरे मन में ऐसी भावना ने घर कर लिया था कि सारी दुनिया ही मेरी शत्रु है । मगर यह मेरा पुराकृत पुण्य है कि मेरा इस विशिष्ट राजघराने के साथ सम्पर्क हुआ। पत्थर में भाव भरनेवाला मेरा यह छदय स्वयं पत्थर बन गया था। परन्तु उस पत्थर बने हृदय को पिघलाकार, वहाँ मानवीयता उँडेलने वाली पट्टमहादेवीजी जगन्माता का ही अवतार हैं। उनसे मेरी कला और मेरा जीवन दोनों ने सार्थकता पायी। इसलिए इस कला का सारा श्रेय उन्हीं को है। मैं एक साधारण व्यक्ति हूँ। यह कला
42 :: पट्टमहादेवी शान्सला : फाग चार