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द्वितीयः सर्गः
मौलिकुण्डलकेयूरप्रालम्बकटिसूत्रिणः । हारिणः कल्पवृक्षाभास्ततोऽमान् कल्पवासिनः ॥८५।। सपुत्रानमितानेकविद्याधरपुरस्सराः । न्यषीदन् मानुषा नानामाषावेषरुचस्ततः ॥८६॥ ततोऽहिनकुलेभेन्द्रहर्यश्वमहिषादयः । जिनानुभावसंभूतविश्वासाः शमिनो बभुः ॥४७॥ इति द्वादशभेदेषु परीतिं विनुर्ति नतिम् । गणेषु प्रथमं कृत्वा स्थितेषु परितो जिनम् ।।८।। प्रत्यक्षीकृतविश्वार्थ कृतदोषत्रयक्षयम् । जिनेन्द्र गौतमोऽपृच्छत् तीर्थार्थ पापनाशनम् ॥८९॥ स दिव्यश्वनिना विश्वसंशयच्छेदिना जिनः । दुन्दुमिध्वनिधीरेण योजनान्तरयायिना ।।९।। श्रावणस्यासिते पक्षे नक्षत्रेऽभिजिति प्रभुः । प्रतिपद्यति पूर्वाह्ने शासनार्थमुदाहरत् ॥११॥ आचाराङ्गस्य तत्त्वार्थ तथा सूत्रकृतस्य च । जगाद भगवान् वीरः संस्थानसमवाययोः ॥१२॥ व्याख्याप्रज्ञप्तिहृदयं ज्ञातृधर्मकथास्थितम् । श्रावकाध्ययनस्यार्थमन्तकृदशगोचरम् ।।१३।। अनुत्तरदशस्यार्थ प्रश्नव्याकरणस्य च । तथा विपाकसूत्रस्य पवित्रार्थ ततः परम् ॥१४॥ त्रिषष्टिः त्रिशती यत्र दृष्टीनाममिधीयते । दृष्टिवादस्य यस्यार्थ पञ्चभेदस्य सर्वदृक् ॥१५॥ जगाद जगतां नाथः प्रथमं परिकर्मणः । सूत्रस्याद्यानुयोगस्य तथा पूर्वगतस्य च ।।९६।। उत्पादपूर्वपूर्वस्य परमार्थ ततः परम् । अग्रायणीयपूर्वार्थमग्रणीरभणद्विदाम् ।।९७॥ वीर्यप्रवादपूर्वार्थमस्तिनास्तिप्रवादजम् । ज्ञानसत्यप्रवादार्थमात्मकर्मप्रवादयोः ॥९८॥ प्रत्याख्यानस्य विद्यानुवादकल्याणपूर्वयोः । प्राणावायस्य पूर्वस्य तत्त्वार्थ तदनन्तरम् ।।९९।। क्रियाविशालपूर्वस्य विशालार्थमशेषवित् । सल्लोकबिन्दुसारार्थ चूलिकार्थ सवस्तुकम् ॥१००।।
तदनन्तर दशम कोठामें मुकुट, कुण्डल, केयूर, हार और कटिसूत्रको धारण करनेवाले कल्पवृक्षके समान कल्पवासी देव सुशोभित हो रहे थे। तत्पश्चात् एकादश कोठामें पुत्र, स्त्री आदिसे सहित अनेक विद्याधरोंसे युक्त नाना प्रकारकी भाषा, वेष और कान्तिको धारण करनेवाले मनुष्य बैठे थे ॥८५-८६।। और उनके बाद द्वादश कोठामें जिनेन्द्र भगवान्के प्रभावसे जिन्हें विश्वास उत्पन्न हुआ था तथा जो अत्यन्त शान्तचित्तके धारक थे ऐसे सर्प, नेवला, गजेन्द्र, सिंह, घोड़ा और भैंस आदि नाना प्रकारके तियंच बैठे थे ।।८७। इस प्रकार जब बारह कोठोंमें बारह गण, जिनेन्द्र भगवान्के चारों ओर प्रदक्षिणा रूपसे परिक्रमा, स्तुति और नमस्कार कर विद्यमान थे तब समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष देखनेवाले एवं राग, द्वेष और मोह इन तीनों दोषोंका क्षय करनेवाले पापनाशक श्रीजिनेन्द्र देवसे गौतम गणधरने तीर्थकी प्रवृत्ति करने के लिए पूछा-प्रश्न किया ।।८८-८९||
तदनन्तर श्रीवर्धमान प्रभुने श्रावण मासके कृष्णपक्षकी प्रतिपदाके प्रातःकालके समय अभिजित् नक्षत्रमें समस्त संशयोंको छेदनेवाले, दन्दभिके शब्दके समान गम्भीर तथा एक योज तक फैलनेवाली दिव्यध्वनिके द्वारा शासनकी परम्परा चलानेके लिए उपदेश दिया ॥९०-९१॥ प्रथम ही भगवान् महावीरने आचारांगका उपदेश दिया फिर सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग, ज्ञातृधर्मकथांग, श्रावकाध्ययनांग, अन्तकृद्दशांग, अनुत्तरोपपादिक दशांग, प्रश्नव्याकरणांग और पवित्र अर्थसे युक्त विपाकसूत्रांग इन ग्यारह अंगोंका उपदेश दिया ।।९२-९४।। इसके बाद जिसमें तीन सौ त्रेसठ ऋषियोंका कथन है तथा जिसके पांच भेद हैं ऐसे बारहवें दृष्टिवाद अंगका सर्वदर्शी भगवान्ने निरूपण किया ॥१५॥ जगत्के स्वामी तथा ज्ञानियोंमें अग्रसर श्रीवर्धमान जिनेन्द्रने प्रथम ही परिकर्म, सूत्रगत, प्रथमानुयोग और पूर्वगत भेदोंका वर्णन किया-फिर पूर्वगत भेदके उत्पाद पूर्व, अग्रायणीय पूर्व, वीर्यप्रवाद पूर्व, अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व, ज्ञानप्रवादपूर्व, सत्यप्रवादपूर्व, आत्मप्रवादपूर्व कर्मप्रवादपूर्व, प्रत्याख्यानपूर्व, विद्यानुवादपूर्व, कल्याणपूर्व, प्राणावायपूर्व, क्रियाविशालपूर्व और लोकबिन्दुसारपूर्व इन चौदह पूर्वोका तथा १. अभुः, अभान् इति बहुवचने रूपद्वयम् । २. सपुत्रा आगतानेक ख., सपुत्रवनिता- म., . ।
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