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हरिवंशपुराणे
'रुजचक्रदु कूलाब्जगज सिंहवृषध्वजैः । गरुडध्वजसंयुक्तैरष्टभेदैर्महाध्वजैः ॥७३॥ मानस्तम्भैस्तथा स्तूपैश्चतुर्भिश्च महावनैः । वाप्यम्भोरुहखण्डैश्च वल्लीचनलतागृहैः ॥७४॥ तैस्तैर्देवैः कृतैः सर्वैरन्यैश्वातिशयैस्तथा । यथास्थानस्थितैजैनी समवस्थानभूरभात् ॥ ७५ ॥ अथेन्दोरिव शुक्राद्या निषण्णा गुर्वधिष्ठिताः । साधवोऽभाञ्जिनस्यान्ते जातरूपाच्छविग्रहाः ॥७६॥ ततः कल्पनिवासिन्यो देव्यः कल्पलताभुजाः । मेरोरिव जिनस्यान्ते ता बभुर्भोगभूमयः ॥ ७७ ॥ ततोऽलंकृतनारीभिरार्थिकात तिराबभौ । स्फुरद्विद्युद्भिराश्लिष्टा शारदीव घनावली ॥७८॥ ज्योतिर्देवस्त्रियोऽतश्च रेजुरुज्ज्वलमूर्तयः । तास्तारा इव संक्रान्ताः समवस्थानसागरे ||७९|| कान्ता व्यन्तरदेवानां ततस्तत्र विरेजिरे । करकुड्मलहारिण्यः साक्षादिव वनश्रियः ||८०|| ततो नागकुमारादिदेव्यो नागफणोज्ज्वलाः । नागलोकसमायाता नागवल्ल्य इवाबभुः ॥ ८१ ॥ ततोऽप्यग्निकुमाराद्या देवाः पातालवासिनः । ज्वलितोज्ज्वलवेषास्ते दशभेदा बनासिरे ॥ ८२ ॥ ततः किन्नरगन्धर्वयक्षकिंपुरुषादयः । षोडशार्द्धविकल्पास्ते व्यन्तराश्च चकासिरे ॥ ८३ ॥ प्रकीर्णकनक्षत्रसूर्याचन्द्रमसो ग्रहाः । पञ्चभेदास्तदाऽनल्पवपुषो ज्योतिषो बभुः ॥ ८४ ॥
भूमि, यथायोग्य स्थानोंपर रखे हुए छत्र, चामर, भृंगार, कलश, ध्वजा, दर्पण, पंखा और ठोना आठ प्रसिद्ध मंगल द्रव्योंसे, माला, चक्र, दुकूल, कमल, हाथी, सिंह, वृषभ और गरुड़के चिह्नोंसे युक्त आठ प्रकारकी महाध्वजाओंसे, मानस्तम्भों स्तूपोंसे, चार महावनोंसे, वापिकाओं में प्रफुल्लित कमल-समूहोंसे, लताओंके वनोंमें बने हुए लतागृहों - निकुंजोंसे तथा देवोंके द्वारा निर्मित अन्य सभी प्रकार के उन उन प्रसिद्ध अतिशयोंसे सुशोभित हो रही थी ।।७२-७५।।
अथानन्तर जिस प्रकार चन्द्रमाके समीप गुरु अर्थात् बृहस्पति से अधिष्ठित शुक्रादि ग्रह सुशोभित होते हैं उसी प्रकार श्रीवर्धमान जिनेन्द्रके समीप प्रथम कोणमें गुरु अर्थात् अपने-अपने दीक्षागुरुओं अधिष्ठित, निर्दोष दिगम्बर मुद्राको धारण करनेवाले अनेक मुनि सुशोभित हो रहे थे ||७६ || तदनन्तर द्वितीय कोठामें कल्पलताओंके समान भुजाओंको धारण करनेवाली कल्पवासिनी देवियाँ स्थित थीं और वे जिनेन्द्र के समीप इस प्रकार सुशोभित हो रही थीं जिस प्रकार कि सुमेरु के समीप भोगभूमियाँ सुशोभित होती हैं ॥७७॥ तदनन्तर तृतीय कोठामें नाना प्रकार के अलंकारोंसे अलंकृत स्त्रियोंके साथ आर्यिकाओंकी पंक्ति इस प्रकार सुशोभित हो रही थी जिस प्रकार कि चमकती हुई बिजलियोंसे आलिंगित शरदऋतुकी मेघपंक्ति सुशोभित होती है ||७८|| इनके बाद चतुर्थ कोठामें उज्ज्वल शरीरकी धारक ज्योतिष्क देवोंकी स्त्रियाँ सुशोभित हो रही थीं । वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो समवसरणरूपी सागरमें प्रतिबिम्बित तारा ही हों ||७९ || उनके बाद पंचम कोठामें हस्तरूपी कुण्डलोंको धारण करनेवाली व्यन्तर देवोंकी स्त्रियाँ साक्षात् वनकी लक्ष्मी के रामान सुशोभित हो रही थीं ॥ ८० ॥ तत्पश्चात् षष्ठ कोठामें नागलोकसे आयी हुई नागवेलके समान उज्ज्वल फणाओंको धारण करनेवाली नागकुमार आदि भवनवासी देवोंकी देवियाँ सुशोभित हो रही थीं ॥८१॥ तदनन्तर सप्तम कोठामें पाताललोक में रहनेवाले एवं उज्ज्वल वेषके धारक अग्निकुमार आदि दस प्रकारके भवनवासी देव सुशोभित हो रहे थे ॥ ८२॥ तत्पश्चात् अष्टम कोठामें किन्नर, गन्धर्व, यक्ष तथा किम्पुरुष आदि आठ प्रकारके व्यन्तर देव सुशोभित हो रहे थे || ८३ || उसके बाद नवम कोठामें प्रकीर्णक, नक्षत्र, सूर्य, चन्द्रमा और ग्रह ये पाँच प्रकारके विशाल शरीरके धारक ज्योतिषी देव सुशोभित हो रहे थे ॥८४॥
१. स्रजाचक्र ख. । २. गुरुभिराचार्येरन्यत्र बृहस्पतिना । ३. जातरूपं यथा जातं अन्यत्र जातरूपं स्वर्ण तद्वदच्छा निर्मला विग्रहा येषां ते । ४. -राश्लिष्टशारदीव म. ।
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