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हरिवंशपुराणे
वर्धमानः सुरैः सेव्यो ववृधे स यथा यथा । पितृबन्धुत्रिलोकानामनुरागस्तथा तथा ।। ४६ ।। सुरासुरनराधीश मौलिमालातिक्रमः । त्रिंशद्वर्षप्रमाणोऽभूद् वीरो भोगैः परिष्कृतः ॥४७॥ शुद्धवृत्तं न भोगेषु चित्तं तस्य चिरं स्थितम् । कुटिलेषु यथा सिंहनखरन्ध्रेषु मौक्तिकम् ||४८|| शान्तचित्तं कदाचित् तं स्वयंबुद्धमबोधयन् । नत्वा सारस्वतादित्य मुख्याः लौकान्तिकाः सुराः ।। ४९|| सौधर्माद्यैः सुरैरेत्य 'कृताऽभिषवपूजनः । आरुह्य शिविकां दिव्यामुह्यमानां सुरेश्वरैः ||५०|| उत्तराफाल्गुनीष्वेव वर्तमाने निशाकरे | कृष्णस्य मार्गशीर्षस्य दशम्यामगमद्वनम् ॥ ५१ ॥ अपनीय तनोः सर्वं वस्त्रमाल्यविभूषणम् । पञ्चमुष्टिभिरुद्धृत्य मूर्धजानभवन्मुनिः ||५२ || केशकुण्डलसंघातं जिनस्य भ्रमरासितम् । प्रतिगृह्य सुराधीशो निदधौ दुग्धवारिधौ ॥५३॥ इन्द्रनीलचयेनेव क्षिप्तेनेन्द्रेण चात्यमात् । जिनेन्द्र केशपुञ्जेन रञ्जितः क्षीरसागरः ॥ ५४ ॥ जिननिष्क्रमणं दृष्ट्वा तुष्टाः सर्वे नरामराः । कृत्वा तृतीयकल्याणपूजां जग्मुर्यथायथम् ||५५॥ मनःपर्ययपर्यन्तचतुर्ज्ञानमहेक्षणः । तपो द्वादशवर्षाणि चकार द्वादशात्मकम् ||५६॥ विहरन्नथ नाथोऽसौ गुणग्रामपरिग्रहः । ऋजुकूलापगाकूले जृम्भिक ग्राममीयिवान् ॥ ५७॥ तत्रातापनयोगस्थः 'सालाभ्याशशिळातले । बैशाखशुक्लपक्षस्य दशम्यां षष्ठमाश्रितः ॥ ५८ ॥
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गये थे ||४५॥ देवोंके द्वारा सेवनीय वर्धमान भगवान् जिस-जिस प्रकार वृद्धिको प्राप्त हो रहे थे उसी-उसी प्रकार पिता, बन्धुजन तथा तीन लोकके जीवोंका अनुराग वृद्धिको प्राप्त हो रहा था - बढ़ता जाता था || ४६ ॥
अथानन्तर सुर, असुर और राजाओंके मुकुटोंकी मालाओंसे जिनके चरण पूजित थे तथा जो देवोपनीत नाना प्रकारके भोगोंसे युक्त थे ऐसे भगवान् महावीर तीस वर्ष के हो गये ||४७॥ फिर भी जिस प्रकार सिंहके कुटिल नखोंके छिद्रोंमें मोती चिर काल तक नहीं ठहर पाते हैं उसी प्रकार उनका निर्मल चरित्रको धारण करनेवाला चित्त भोगोंमें चिरकार तक नहीं ठहर सका ||४८ || किसी समय शान्त चित्तके धारक उन स्वयम्बुद्ध भगवान्को सारस्वत-आदित्य आदि प्रमुख लौकान्तिक देवोंने आकर तथा नमस्कार कर प्रतिबुद्ध किया || ४९|| प्रतिबुद्धविरक्त होते ही सौधर्मेन्द्र आदि देवोंने आकर उनका अभिषेक और पूजन किया । तदनन्तर देवोंके द्वारा उठायी जानेवाली दिव्य पालकीपर सवार होकर वे जबकि चन्द्रमा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रपर ही विद्यमान था तब मगसिर वदी दशमी के दिन वनको चले गये ॥ ५०-५१ ।। वहाँ जाकर उन्होंने शरीर से समस्त वस्त्रमाला तथा आभूषण उतारकर अलग कर दिये और पंचमुष्टियोंसे केश उखाड़कर वे मुनि हो गये ॥५२॥ भ्रमरोंके समूह के समान काले-काले भगवान् के घुँघराले बालोंके समूहको इन्द्रने उठाकर क्षीरसागरमें क्षेप दिया ॥ ५३ ॥ उस समय इन्द्रके द्वारा क्षेपे हुए जिनेन्द्र भगवान् के बालोंके समूहसे रँगा हुआ क्षीरसागर ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो इन्द्रनील मणियोंके समूहसे हो रंग गया हो ||५४ || जिनेन्द्र भगवान्की दीक्षाकल्याणक देख सन्तोषको प्राप्त हुए समस्त मनुष्य और देव तृतीय कल्याणककी पूजा कर यथास्थान चले गये ॥५५॥
तदनन्तरमति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय इन चार ज्ञानरूपी महानेत्रों को धारण करनेवाले भगवान् ने बारह वर्ष तक अनशन आदिक बारह प्रकारका तप किया || ५६ || तत्पश्चात् गुणसमूहरूपी परिग्रहको धारण करनेवाले श्री वर्धमान स्वामी विहार करते हुए ऋजुकूला नदी तटपर स्थित जृम्भिक गाँव के समीप पहुँचे || ५७|| वहाँ वैशाख सुदी दशमी के दिन दो
१. कृतोऽभिषवपूजन: म । २. निदध्यो म । ३. शालवृक्ष निकटस्थशिलोपरि । ४. दिनद्वयोपवासम् आश्रितः ।
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