Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-१३ अर्थ - प्रचलाकर्म के उदय से यह जीव आँखों को कुछ-कुछ उघाड़कर सोता है और सोता हुआ भी थोड़ा-थोड़ा जानता है, बार-बार मन्दशयन करता है।
विशेषार्थ - यह निद्रा श्वाननिद्रा के समान है तथा अन्य सभी निद्राओं की अपेक्षा अल्पघातक है। इस प्रकार दर्शनावरणीयकम के कुछ भेदों का कार्य कहा। ताड़पत्रीय मूल गो. क. से उद्धत सूत्र
वेदणीयं दुविहं सादावेदणीयमसादावेदणीयं चेइ । मोहणीयं दुविहं दंसणमोहणीयं चारित्तमोहणीयं चेइ। दसणमोहणीयं बंधादो एयविहं मिच्छत्तं, उदयं संतं पडुच्चतिविहं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तिं सम्मत्तं चेइ।
सूत्रार्थ - वेदनीयकर्म दो प्रकार का है - सातावेदनीय, असातावेदनीय। मोहनीयकर्म दोपकार का है - दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय। दर्शनमोहनीय बंध की अपेक्षा एक प्रकार का है - मिथ्यात्वरूप; उदय व सत्त्व की अपेक्षा तीन प्रकार का है - मिथ्यात्व, सम्यग्मिध्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति।
जंतेण कोद्दवं वा, पढमुवसमसम्मभाव जंतेण।
मिच्छं दव्वं तु तिधा, असंखगुणहीणदव्वकमा ॥२६॥ अर्थ - चक्की से दले हुए कोदों के समान प्रथमोपशमसम्यक्त्वपरिणामरूप यन्त्र से मिथ्यात्व रूपी कर्मद्रव्य, द्रव्यप्रमाण में क्रमसे असंख्यातगुणा - असंख्यातगुणा हीन होकर तीन प्रकार का हो जाता
विशेषार्थ - जैसे कोदों - धान्य विशेष को दलने पर तन्दुल, कण और भूसी, इस प्रकार तीन रूप हो जाते हैं, उसी प्रकार मिथ्यात्वरूपी कर्मद्रव्य भी प्रथमोपशमसम्यक्त्वरूपीयंत्र के द्वारा मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वरूप परिणमन करता है। इनमें सबसे अधिक मिथ्यात्व का द्रव्य है। उससे असंख्यातगुणाहीन सम्यग्मिथ्यात्व का द्रव्य है और उससे भी असंख्यातगुणाहीन सम्यक्त्व का द्रव्य है।
आयुकर्म बिना सातकर्मों के परमाणुओं का प्रमाण कुछकम डेढगुणहानि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण है। इसमें सात का भाग देने पर जो प्रमाण आवे उतने मोहनीय के परमाणु हैं, इनमें अनन्त का १. "जंतएण दलिज्माणकोहवेसु कोद्दव्य-तदुलद्धतंदुलाणं व दसणमाहणीयस्स अपुवादिकरणेहिं दलियस्स तिविहनु बलभा ।" अर्थात् जाते से दले गए कोदों में कोदों, तंदुल और अर्ध तंदुल, इन तीन विभागों के समान अपूर्वकरणादि परिणामों के द्वारा दले गए दर्शनमोहनीय के त्रिविधता पाई जाती है (धवल पु. ६ पृ. ३८ व ३९) इस सम्बन्ध में ध. पु. १३ पृ. ३५८ भी देखो।