Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड - ११
अर्थ- देवता के मुख पर ढके वस्त्र के समान ज्ञानावरण, द्वारपाल के समान दर्शनावरण, शहद लपेटी तलवार के समान वेदनीय, मदिरा के समान मोहनीय, हलि (खोड़ा) के समान आयु, चित्रकार के समान नाम, कुम्भकार के समान गोत्र और भण्डारी के समान अन्तरायकर्म है। जिस प्रकार इनके भाव होते हैं उसी प्रकार ज्ञानावरणादि कर्मों के भी जानना ।
विशेषार्थ - 'ज्ञानं आवृणोति' अर्थात् ज्ञान को ढके उसे ज्ञानावरणीयकर्म कहते हैं। इसका स्वभाव यह है कि जैसे देवता के मुख पर ढका वस्त्र देवता के ज्ञान को नहीं होने देता, उसीप्रकार ज्ञानावरणकर्म ज्ञान को आच्छादित करता है अर्थात् वस्तु का ज्ञान नहीं होने देता। जो दर्शन का आवरण करे अर्थात् वस्तु को नहीं देखने दे वह दर्शनावरण, इसका स्वभाव द्वारपाल के समान है। जैसे- द्वारपाल राजा को देखने से रोक देता है, वैसे ही यह कर्म राजारूप वस्तु-निज आत्मा का दर्शन नहीं होने देता । ( अन्तर्मुख चित्प्रकाश को दर्शन कहा है) जो इन्द्रियजनित सुख-दुःख का वेदन अर्थात् अनुभव करावे अथवा अव्याबाधगुण का घात करे वह वेदनीयकर्म है। इसका स्वभाव शहद लपेटी तलवार की धार के समान है, जिसको चखने से कुछ सुख का अनुभव तो होता है, किन्तु जीभ के कट जाने पर दुःख होता है उसी प्रकार साता और असाता सुख-दुःख उत्पन्न कराते हैं। जो मोहित करे- अचेत बनावे अर्थात् असावधान करे वह मोहनीयकर्म है। जैसे शराब पीने पर मनुष्य पागल हो जाता है, उसी प्रकार 'मोह' आत्मा को मोहित कर देता है।
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जो 'एति' अर्थात् पर्याय धारण का निमित्त हो वह आयुकर्म है। इसका स्वभाव सांकल या का यंत्र के समान है। जैसे - सांकल या काष्ठयंत्र पुरुष को अपने स्थान में ही स्थित रखता है दूसरे स्थानपर नहीं जाने देता उसी प्रकार आयुकर्म जीव को नर-नारकादि पर्यायों में रोके रखता है। जो 'नाना मिनोति' अर्थात् अनेक प्रकार के कार्य बनावे वह नामकर्म है। यह चित्रकार के समान है, जैसे चित्रकार अनेक प्रकार के चित्राम बनाता है उसी प्रकार यह नामकर्म जीव को नारकादि अनेक रूप धारण कराता है। जो 'गमयति' अर्थात् जीव के उच्च-नीचपने का ज्ञान करावे अथवा प्राप्त करावे वह गोत्रकर्म है। जैसे - कुम्भकार मिट्टी के छोटे-बड़े बर्तन बनाता है वैसे हो गोत्रकर्म भी जीव की उच्च-नीच अवस्था का ज्ञान कराता है। जो 'अन्तरं एति' अर्थात् दाता और पात्र में अन्तर या व्यवधान करावे वह अन्तरायकर्म है, इसका स्वभाव भण्डारी के समान है। जैसे भण्डारी दूसरे को दान देने में विघ्न डालता हैं- नहीं देने देता उसी प्रकार अन्तरायकर्म दान लाभादि में विघ्न करता है। इस प्रकार इन आठ मूल कर्मों का शब्दार्थ से स्वरूप कहा है ।
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आठ मूल कर्मों की उत्तरप्रकृतियों को कहते हैं --
पंच णव दोणि अट्ठावीसं चउरो कमेण तेणउदी । उत्तरं सयं वा, दुगपणगं उत्तरा होंति ॥ २२ ॥