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विकृतिविज्ञान
सितकोशाओं की व्रणशोथात्मक तरल में संचितिमात्र है । यह पूय प्रगाढ ( thick ) और तनु ( thin ) दोनों प्रकार का ( उपसर्ग के अनुसार ) हो सकता है । तनुपूय का कारण होता है जीवाणुओं द्वारा नास्त्यात्मक रासायक्रम ( negative chemiotaxis ) का प्रचलन जिसके कारण सितकोशा उधर को बहुत कम आकृष्ट होते हैं । इसी कारण पूय तनु रह जाता है । तनुपूय निर्माण में घातक माला गोलाणु (virulent streptococci ) प्रमुख भाग लेते हैं। तनुपूय में प्रायः रक्त भी मिला हुआ देखा जाता है । यह कोई आवश्यक नहीं कि पक्वावस्था सदैव आवे ही । एक स्थान पर बहुत से पुरुन्यष्टिकोशा होने पर भी पूयीभवन बिना हुए ही व्रणशोथ नष्ट हो है । कभी कभी पूरा बनने से पूर्व विष की तीव्र मात्रा शरीर को ही शव बना देती है । शैशव या वृद्धावस्था में ऐसा प्रायः होता है या जब उपसर्ग अत्यन्त घातक होता है तब भी पूयीभवन से पूर्व मृत्यु देखी जाती है । पुञ्जगोलाणु, फुफ्फुसगोलाणु और मस्तिष्कगोलाणुओं द्वारा प्रगाढ पूय बनता है । इतना आधुनिक ज्ञान लेने के उपरान्त हम प्राचीनों के द्वारा प्रदत्त वर्णन का उपयोग करते हैं
सकता
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वेदनोपशान्तिः पाण्डुताऽल्पशोफता वलीप्रादुर्भावस्त्वक्परिपुटनं निम्नदर्शन मङ्गुल्याऽवपीडिते प्रत्युन्नमनं बस्ताविवोदकसंचरणं पूयस्य प्रपीडयत्येकमन्तमन्ते वाऽवपीडिते, मुहुर्मुहुस्तोदः कण्डूरन्नतता व्याधेरुपद्रवशान्तिर्भताभिकांक्षा च पक्कलिङ्गम् । ( सु. सू. अ. १७-- ३, ४ ) पक्केऽल्पवेगता ग्लानिः पाण्डुता वलिसम्भवः । नामोऽन्तेषून्नतिर्मध्ये कण्डूशोफादिमार्दवम् ॥ स्पष्टे पूयस्य संचारी भवेदबस्ताविवाम्भसः । ( अ.हृ.सू. अ. २९-५ )
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शोथ के परिपक्क होने पर उसकी संरम्भावस्था ( वेदना, पीडन, दाहादि की तीव्रता ) का वेग घट जाता है, वेदना शान्त हो जाती है, त्वचा का वर्ण पाण्डुर हो जाता है, सूजन भी कम हो जाती है, उस अंग पर झुर्रियाँ पड़ जाती हैं, खाल फट जाती है, अंगुलि से दबाने पर गढ्ढा पड़ जाता है ( pitting on फिर अंगुलि हटा लेने से जगह भर जाती है जैसे मुशक में पानी होता है वैसे ही एक ओर दबाने से दूसरी ओर पूय का पीडन ( fluctuation ), रह रह कर तोद होता है, खुजली उठती है, सूजन का उभार घट जाता है, पच्यमानावस्था के सब उपद्रव हट जाते हैं, अरुचि दूर होकर भोजन पर इच्छा आ जाती है, व्रणशोथ का जो स्थान पत्थर सा कड़ा था वह मृदु हो जाता है । इन लक्षणों से परिपक्व व्रणशोथ का ज्ञान पूर्णतः हो जाता है ।
संचरण का ज्ञान मालूम पड़ता है
यदि हम ध्यानपूर्वक देखें तो ज्ञात होगा कि नवीनों ने जिस विकृति का ज्ञान शरीर के कोशा कोशा में पैठ कर प्रत्येक ऊति और धातु से सम्पर्क स्थापित करके किया प्राचीनों ने वही बाह्य लक्षणों को देखकर और आभ्यन्तर कष्ट का अनुभव करते दोनों की आवश्यकता है । पर प्राचीनों
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हुए किया, दोनों का ज्ञान पूरकानुपूरक है, का सम्पूर्ण दृष्टिकोण अभी समक्ष नहीं हुआ उसका भी विचार करने के बाद हम दोनों प्रयास करेंगे।
दोषों की दृष्टि से उनकी जो कल्पना है शास्त्रों में सामञ्जस्य स्थापित करने का
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