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विकृतिविज्ञान
जीर्ण रोगों में बहुत मिलते हैं जैसे फिरंग में । इनकी उत्पत्ति लसीकोशाओं से होती है । कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि इनका निर्माण सीधा लसाभऊतियों के स्थिर जालिका कोशाओं से होता है। ये ऊतियों में ही देखे जाते हैं और रक्त में ये स्वभावतः नहीं पाये जाते हैं ।
इस प्रकार व्रणशोथावस्था में (१) रक्त के प्रवाह की प्रारम्भिक तीव्रता फिर ( २ ) मन्दता और फिर (३) वाहिनियों में निश्चलता जिसके कारण जारक की कमी जिसके द्वारा (४) केशालों के अन्तश्छद के कोशाओं का आघातित होना । (५) क्षतियुक्त भाग में होकर रक्त के जल का ऊतिओं में चले जाना (६) लसिका वहाओं द्वारा अपवहन कार्य में मन्दगति और (७) शोथ का बढ़ना (८) विभिन्न कोशाओं का आना और जीवाणुओं एवं क्षतिप्राप्त कोशाओं का भक्षण करते हुए उपसर्ग को नष्ट करना तक बतलाया गया है ।
व्रणशोथ की प्राचीन कल्पना
उपरोक्त वर्णन व्रणशोथ सम्बन्धी आधुनिक खोजों पर आधारित है । इसकी प्राचीन कल्पना यह है कि प्रत्येक प्रकार का शोथ आमावस्था, पच्यमानावस्था और परिपक्वावस्था में आता है । हम नीचे इन्हीं का वर्णन करते हैं
व्रणशोथ की आमावस्था
तत्र मन्दोष्मता त्वक्सवर्णता शीतशोफता स्थैर्य मन्दवेदनताऽल्पशोषता चामलक्षणमुद्दिष्टम् । ( सु. सू. अ. १७-६ ) व्रणशोथ अपनी प्रारम्भिक अवस्था में 'मन्दोष्मता ( very little production of heat at the site of inflammation) त्वक्सवर्णता (no change in the colour of the skin of the inflammed part ) 'शीतशोफता ( beginning of the inflammation | part swollen_and_cold )' स्थैर्य ( very hard ), मन्दवेदनता ( very little pain ), अल्पशोफता ( little swelling ) नामक ६ लक्षण देखे जाते हैं । हम इस अवस्था को व्रणशोथ की उस प्रारम्भिक अवस्था से मिला सकते हैं। जिसमें नवीनों ने रक्त का अधिक वेग से लाना लिखा है। जिसमें केशालों के अन्तश्छद
अधिक विकार नहीं हो पाया, केवल क्षतिग्रस्त ऊतियों में स्थानिक प्रतिक्रिया उत्पन्न होने लगी होती है । जिसके कारण थोड़ी गर्मी थोड़ा दर्द और थोड़ी सूजन और कड़ापन प्रकट हो जाता है । यदि प्रयत्न किया गया तो इस अवस्था को यहीं रोक कर व्रणशोथ को बिल्कुल बैठाया जा सकता है ।
शोथ की पच्यमानावस्था --
सूचीभिरिव निस्तुद्यते दश्यत इव पिपीलिकाभिस्ताभिश्च संसर्प्यत इव द्विद्यत इव शस्त्रेण भिद्यत इव शक्तिभिस्ताड्यत इव दण्डेन पीडयत इव पाणिना घट्यत इव चङ्गुल्या, दह्यते पच्यत इव चाग्निक्षाराभ्याम्, ओषचोषपरीदाहाश्च भवन्ति, वृश्चिकविद्ध इव च स्थानासनशयनेषु न शान्तिमुपैति, आध्मातबस्तिरिवाततश्च शोफो भवति, त्वग्वैवर्ण्य शोफाभिवृद्धिर्ज्वरदाह पिपासाभक्तारुचिश्च पच्यमानलिङ्गम् । ( सु. सू. अ. १७-७ )
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