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विकृतिविज्ञान परन्तु तीव्र पूयात्मक व्रणशोथों में कोई अन्य भी पदार्थ बनता है जो रक्त में प्रवाहित होता हुआ अस्थिमज्जा को अधिकाधिक पुरुन्यष्टिकोशाओं के निर्माण के लिए बाध्य करता है। मनुष्यों में भक्षककोशाओं की उत्पत्ति जालकान्तश्छदीयसंहति ( reticulo endothelial system ) के द्वारा होती है । इस संहति का जन्म गर्भ के मध्यस्तर ( mesoblast ) से हुआ है । इस संहति के कोशाओं में अनेक पैतृक गुण विद्यमान रहते हैं जिनमें भक्षकायाणूत्कर्ष (phogocytosis ), कोशाओं की सीमाओं का अभाव जिसके कारण दो तीन कोशा कभी भी मिलकर एक हो सकते हैं, अति शीघ्र एक से दो, दो से चार होने की महती शक्ति, तथा विविध प्रकार से कोशाओं को निर्माण करने की योग्यता महत्व के गुण हैं। ___ जीवाणुभक्षण कार्य को सितकोशा करते हैं । जीवाणुओं को सुस्वादु बनाने के लिए अतिकोशाओं से सुस्वादि ( opsonin ) नामक पदार्थ निकलता है जो जीवाणुओं को स्वादिष्ट कर देता है जिन्हें पुरुन्यष्टिकोशा बड़े प्रेम से उदरस्थ कर जाते हैं। ____एकन्यष्टीय सितकोशा ( mononuclear leucocytes)-इनको एकन्यष्टिभक्षिकोशा ( mononuclear phagocytes ) या प्रोतिकोशा ( histiocytes) भी कहते हैं । ये जालकान्तश्छदीय संहति के कोटराभ (sinusoidal ) या वेला ( littoral ) कोशाओं से उत्पन्न होते हैं। इनका निर्माण गर्भ की योज्यूतिकर ( mesenchyme ) के अभिन्नक स्तार (undifferentiated sheet ) से भी होता है जिनसे कि लसीकाग्रन्थियों की आधारोति (ground substance ) का विकास होता है। व्रणशोथ क्षेत्रों का अपवहन करने वाली ग्रन्थियों के अन्दर कोटराभों ( sinusoids ) के आस्तरक कोशा ( lining cells) अत्यधिक उपचित होने के कारण कितने ही स्तर मोटे हो जाते हैं। यही स्वतन्त्रतया चलने फिरने वाले कोशा बड़े और अण्डाकृतिक होते हैं इनमें पर्याप्त प्ररस होता है एक न्यष्टीला होती है जो आकृति में विषम एवं कुछ कटी सी होती है। इन एकन्यष्टिकोशाओं का कार्य भी भक्षण का है परन्तु ये मृतकोशाओं और मृतऊति को ही खाते हैं। प्रायशः जीवाणुओं को वे नहीं खाते या केवल उन जीवाणु या परजीवियों ( parasites ) को ठिकाने लगाते हैं जिन्हें पुरुन्यष्टिकोशा सेवन करने में असमर्थ होते हैं। ये विचरणशीलकोशा हैं और कामरूप्याभ गति (amoeboid movement) करते हैं । ऊतियों में ये स्वच्छकों ( scavengers ) के समान कार्य करते हैं । वहाँ के मृतकोशाओं को हटाते हैं, इधर उधर घूमते हुए जीवाणुओं को पकड़ लेते हैं, कोई रंग द्रव्य हो तो उसे निगल लेते हैं । विदेशी पदार्थों को तथा अन्य अपद्रव्यों को ( वे चाहे स्थूलरूप में हो या विलेय में ) हजम कर जाते हैं । जब इनकी विचरणशीलता समाप्त हो जाती है तो इनमें तान्तुक प्रवर्ध ( fibrillar process ) निकल आते हैं और ये तान्तव ऊति के कोशाओं में परिणत होने में समर्थ हो जाते हैं । जब व्रणशोथ की तीव्रता समाप्त हो जाती है तो ये अपनी स्वच्छता का कार्य प्रारम्भ करते हैं। ये तन्तु-रुहो ( fibro
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