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व्रणशोथ या शोफ कूटपाद ( pseudopodia ) बढ़ा देते हैं। अन्तश्छद के सूजे हुए दो कोशाओं के बीच के मार्ग से कूटपाद बढ़ाते हुए वे प्रायशः देखे जाते हैं। कूटपाद बढ़ाते हुए और अपनी न्यष्ठीलाओं को भी घसीटते हुए केशालप्राचीर को पार करके वहाँ पहुँचते हैं जहाँ ऊति में जल भरा है या उपसर्गकारी जीवाणुओं का अड्डा जमा है। इस प्रकार ये सितकोशा लगातार रक्त की धारा से उन्मुक्त हो होकर उपसर्ग से युद्ध करने के लिए बड़ी से बड़ी संख्या में एकत्र होते चले जाते हैं। उनका जन्मस्थल अस्थिमज्जा होने के कारण वहाँ पर इनकी उत्पत्ति का कार्य जोरों से चलने लगता है और रक्त में इनकी संख्या पर्याप्त बढ़ जाती है। इसी को सितकोशोत्कर्ष (leucocytosis ) कहते हैं।
सितकोशाओं के आकर्षण का कारण-ये सितकोशा क्षतिग्रस्त स्थान के पास क्यों दौड़कर पहुँचते हैं इसके दो कारण उपलब्ध हुए हैं-एक तो यह कि क्षति प्राप्त ऊतिकोशाओं से या उपसर्गकारी जीवाणुओं से कुछ ऐसे पदार्थ उत्पन्न होते हैं जिनको प्राप्त करने की लालसा सितकोशाओं में बढ़ जाती है और वे बड़ी से बड़ी संख्या में वहाँ पहुँचने लगते हैं इसे हम रासायक्रम ( chemio-taxis ) कहते हैं। दूसरा यह कि क्षतिग्रस्त स्थान में ताप पर्याप्त हो जाता है और तापयुक्त स्थान की ओर भी इनका आकर्षण पर्याप्त होता है इसे तापक्रम ( thermo-taxis) कहते हैं। प्राचीनकाल में क्षतिग्रस्त स्थान के स्वेदन और उपनाहन के जो तरीके अपनाए जाते थे उसका अर्थ उस स्थान के तापांश की वृद्धि करके अधिक से अधिक सितकोशाओं को वहाँ एकत्र करना था। कच्चा व्रण शीघ्र पक सके इसके लिए उष्णोपचार का कारण भी यही तापक्रम है। क्षतिप्राप्त कोशाओं में उत्पन्न अतितिक्तोसम पदार्थ या मेनकिन की ल्यूकोटैक्जीन भी सितकोशाओं को अपनी ओर आकृष्ट करती हैं। __कौन कौन सितकोशा व्रणशोथ स्थान में पहुँचता है ?-यह जानना भी लाभप्रद है कि कौन सितकोशा इस कार्य में अधिक भाग लेता है। पुरुखण्डन्यष्टिकोशातीतोपसर्गजन्य व्रणशोथों में यह सितकोशा प्रमुखतया भाग लेता है। साधारणतया रक्त के एक घन सहस्त्रिमान स्थान में ८००० सितकोशा स्वस्थ व्यक्ति में देखे जाते हैं। इनमें से ६५ प्रतिशत पुरुन्यष्टिकोशा होते हैं। पर जब सितकोशोत्कर्ष ( leucocytosis) होती है तब प्रतिघन सहस्रिमान रक्त में २०००० तक सितकोशा बढ़ जाते हैं और उनमें पुरुन्यष्टियों की संख्या ९० प्रतिशत तक मिलती है ऐसा तीव्र व्रणशोथों में प्रायशः देखा जाता है। पुरुन्यष्टिकोशाओं का कार्य जीवाणुओं का भक्षण ( phagocytosis ) है भक्षण करने के बाद उनका विनाश करना भी उन्हीं का काम है । पर कभी कभी वे अपने उदर में सजीव रोगाणु रख तो लेते हैं पर उन्हें नष्ट नहीं कर पाते। ऐसे पुरुन्यष्टिकोशा जब एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमन करते हैं तो वहाँ एक नये स्थान पर एक नवीन उपसर्ग केन्द्र स्थापित कर देते हैं। इनका प्रभवस्थल अस्थि की मजा है। मेनकिन का कथन है कि अस्थिमजा में पुरुन्यष्टियों की उत्पत्ति में साधारण वृद्धि तो ल्यूकोटैक्जीन के कारण हो सकती है
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