Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुलभजनप्रथमाला नं. १०: श्रीपरमात्मने नमः । जैनबालबोधक चतुर्थ भाग । जिसको : सर्वसाधारण जैनी बालकोंके हितार्थ सुजानगढ निवासी : पन्नालालजी वाकलीवाल दिगंबरीजैनने संग्रह किया। और कलकत्तास्थ - भारतीय जैन सिद्धांतप्रकाशिनी संस्थाने अपने १. विश्वकोषलेन स्थित जैन सिद्धांतंप्रकाशक पवित्र प्रेस में श्रीलाल जैन काव्यतीर्थ प्रबंम से छपाकर प्रकाशित किया । प्रथमावृत्ति वी. नि. २४४९ { मूल्य एक रुपया दो आने Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूचना .: । विदित हो में मैने जैनबालबोधकके चार भाग बनाने की इच्छाकी... श्री किन्तु प्रमादसे बहुत दिन तक पूर्ति नहिं कर पाया । अर्यात प्रथमभाग - बी. नि० संवत् २४२६ सालमें बनाया था ! द्वितीय भाग वीर नि. सं २४४३ में और संशोधित द्वितीयंभाग १० वर्षवाद वीर नि० सं० २४४३ : में प्रकाशित किया था इससे ४ वर्षे वाद तृतीय भाग और उसके ६ माव: पाद यह चतुर्थ भाग लिख पाया हूं।... ...... - इस भागके. पाठोंकी सूची देखने या आयोपांत पनेसे आपको : मोबम होगा कि इसके. प्रत्येक पाठमें जैनथमैकी शिक्षा व साधारण नीति . ज्ञान यथापाकि भरा गया है। कारण इसका यह है कि-भाजकर प्रारंभ-.. ही जैनधर्मकी शिक्षा न मिलनेसें व पाश्चात्य विद्याकी प्रचुरतासे अंगरेजी, . ... पढनेवाले जैनी सडकों के पितमेसे जैनधर्मसंबंधी सदाचार और महत्त्वका : अंश क्रमशः निकलता जाता है । जिसका फल यह देखा जाता है-हमारे । - गनेक जैनी भाई प्रेजुयट होनेपर जैनधर्मसे सर्वधा मनमिझ होने के कारण .. जैनधर्मका एक दम लोट फेर करके एक नवीन ही संस्कार कर देनेमें . ... कटिबद्ध हो गये हैं। भविष्यतमें भी यदि प्रारंगसे ही जैनधर्मकी शिक्षा नहि मिलेंगी तो सब बालक प्रायः इस सनातन पवित्र जैनधर्मसे अनमिशः . तैयार होने से इस जैनधर्मका शीघ्र ही हान हो आयगा इस कारण समस्त जैनी बालकोंको प्रारंभ हो जैनधर्मकी और सदाचारताकी शिक्षा देनेके * लिये जैनधर्मसंबंधी पाठोंकीही बहुलता रवधी गई है। ..... ... इसके सिवाय इन भागोंमें यह भी विशेषता है कि-अनेक पाठ शालालोंमें खाल्ल्य, मा धर्मसंबंधी जीवाजीवविचार आदि विषयोंकी पुस्तकें .. .. . .. . . Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन । जनविद्यालयों और शिक्षाशालाओंमें पढने वाले छात्रोंको धार्मिक और लौकिक दोनों प्रकारकी शिक्षाका समुचित ज्ञान करानेक लिये सुप्रसिद्ध लेखक पं० पन्नालालजी बाकलीवाल कृत जैनवाल. बोधकका यह चौथा भाग सुलभजैनग्रंथमालामें उस्मानाबाद निवासी गांधी कस्तूरचंद्रजीके सुपुत्र बालचंदजीक स्मरणार्थ उनके सुपुत्र श्रीमान् शेठ नेमिचंदजी वकील द्वारा प्रदत्तद्रव्यसे छपाया जाता है आशा है हमारे बंधु इससे लाभ उठावेंगे. विनीत-श्रीलाल जैन मंत्री-भारतीयनसिद्धांतप्रकाशिनी संस्था ६ विश्वकोपलेन, वाघवाजार कलकत्ता। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ और विषयोंकी सूची । पाठ वा विषय मंगलाचरण १ स्तुति संग्रह २ धर्मोपदेश ३ इतिहासविद्या ४ लक्षण ५ पूजाधिकार ६ कालविभाग ७ प्रमाण ८ गुरु सेवाका उपदेश १ चौदह कुलकर १० नय ११ जिनवचन सेवाका उपदेश १२ त्रेसठ शालका पुरुष १३ निक्षेप १४ हिंसाका उपदेश १५ चौदहवे कुलकर महाराजा नाभिराय १६ द्रव्योंके सामान्य गुण : १७ सत्यवचन प्रशंसा १८ युगादिपुरुष भगवान ऋषभनाथ १६ पटू द्रव्यों के विशेषगुण २० सत्संगति पृष्ठ संख्या a y V १० ११ १३ १४ १६ २३ २५ ३० ३३ · ३५ ३८ ३६ કર ४६ ४८ ५० ६३ ६७ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ भरतचक्रवर्ती २२ जीवके गुण (१) २३. धर्मोपदेश २४ प्रजितादितीर्थकरोंका संक्षिप्त परिचय २५ जीवके गुण । २) २६ व्यवसाय चतुष्कसमस्यापूर्ति २७ पुष्पदंतादितीर्थंकरोंका संक्षिप्त परिचय २८ कर्मसिद्धांत (१) २९ गृह दुःख चतुष्क ३० श्रीकुंथुनाथतीर्थकरादिका संक्षिप्त परिचय ३. कर्मसिद्धांत (२.) ३२ सगरचक्रवर्ती और भगीरथ महार ३३ छहढाला प्रथमढाल ३४ दशरथ, राम. लक्ष्मण, सीता ३५ कर्मसिद्धांत (३) ३६ श्रीशैल, हनुमान ३७ छहंढालासार्थ-दुसरी ढाल । ३८ श्रीनेमिनाथ, कृष्ण और बलभद्र .. ३६ कर्मसिद्धांत (४) ४. श्रीपार्श्वनाथ भगवान :: ४१ छहढालासार्थ तीसरी ढाल ४२ श्रीवर्धमान भगवान और दीपमालिका ४३ कर्मसिद्धांत (५) ৪৪,বলঘষি १२१ ២ · १७० १७ १८३ । १४६ . : १८६. २२० २२० । . . . २४२ २४६ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( ३ ) ४५ वहढाला साथै - चौथीदाल ४६ इन्द्रभूति गणधर ४७ जीवके श्रसाधारण भावादि ४८ श्रीसमंतभद्राचार्य ४६ छहढाला सार्थ - पांचवींढाल ५० श्रीभट्टा कलंकदेव ५१ जीवोंके विषय भेदादि ५२ पात्र केशरी वा विद्यानन्द ५३ छहढालासार्थ - छठीढाल ५४ राखी पूर्णिमा ५५ जकड़ी (१) दौलतरामजी कृत ५६ विषयों में फसे संसारी जीवका दृष्टांत - ५७ जकड़ी ( २ ) पं० नौलतरामजीकृत ५६ सुकुमाल मुनि ५६ जकड़ी ( ३ ) भूधरदासकृत ६० श्रुत पंचमी पर्वकी उत्पत्ति ६१ जकड़ी (४) रामकृष्ण कृत ६२ सुकोशल मुनि ६३ जकड़ी ( ५ ) कविदास कृत ६४ कार्तिकेय मुनि ६५ जकड़ी ( ६ ) जिनदासकृत ' ६६ ब्रह्मगुलान्तमुनि ६७ जकड़ी (७) जिनदासकृत ષ્ટ २६० २६४ २७१ २७७ २६१ १६६ KEE ૨૦૮ ३१२ L ३१६ ३२० 33 ३३९ ३४०: ર ३४७. ३४८ ३५३ ३५६ ३५६ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुलमनथ गोठा नं ९ श्रीपरमात्मने नमः । जैनवालवोधक । चतुर्थ भाग । दोहा । देव धर्म गुरुको नम्रं, जिन चच चितमें धार । जैनवालबोधक तुरिय, संग्रह करूं विचार ॥ १ ॥ श्रीमहावीर जिन प्रार्थना | " ( न्यायालंकार पं० मक्खनलाल जैन कृत ) हे गुणसागर वीर प्रभो जिन, शुद्ध रूप हो जग ख्याता । राग द्वेष सब दोष दूर कर, जगत समस्त वस्तु ज्ञाता ॥ १६ इच्छा नहीं आपके स्वामी, जग अनादि है नियम यही । पुण्य पाप हम जो जब करते फल भोगें स्वयमेव वही ॥ २ ॥ तो भी ध्यान और गुण चिन्तन, करें आपका जो प्राणी । वे भी परमेश्वर हो जावें, यही बताया जिनवाणी ॥ ३ ॥ सरल चित्त हो शुद्ध भाव हो, अरु करुणा हो हितकारी । सब जीवोंका हित हो हमसे, लोक बन्धुता मति प्यारी ॥४॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालवोधकपरके दोष कहें नहि कय हूं, हित मित सत्य वचन बोले । करें कार्य निकाम सभी हम, हदय ग्रंथि मनसे खोलें ॥५॥ गुरुजन गुणीजनोंकी सेवा, करें हदयसे सुखकारी । इन्द्रिय विजय और संयमसे, कर निजातम बढ़वारी॥ वर्ण भेद रख मंत्री पूर्वक, भारतका उत्थान करें। शुद्ध स्वदेश वस्तु वत हम, सदा स्वपर कल्याण करें॥७॥ धम कर्ममें अटल रहें हम, यही भावना करते हैं। "लाल" वाल सिर नाय वीरको, ध्यान उन्हींका धरते हैं ८॥ १. स्तुतिसंग्रह। दोहा। तुम देवनके देव हो, सुख सागर गुनखान । भूरति गुन को कहि सके, करों कह युति गान ॥१॥ फले कल्प तरु वेल ज्यों, वास्ति सुर नर राज। चिंतामनि ज्यों देत है, चिंतित अर्थ समाज । २॥ स्वामी तेरी भक्तिसों, भक्त पुण्य उपजाय । तीन अरय सुख भोगवै, तीनों जगके राय ।३। तेरी थुति जे.करत है, तिनको थुति जग होय। जे तुम पूर्जे मावसों पूजनीक ते लोय ॥४॥ नमस्कार तुमको करे.विनयसहित शिरनाय । चंदनीक ते होत है, उत्तम पदको पाय ॥ ५ ॥ जे आशा पालें प्रभू, तिन आक्षा जगमांहि । - नाम जपैतिस नामका, जस फल जगमैं छोहि ॥ ६ ॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। सफल नयन मेरे भये, तुम मुख शोभा देख !, जीभ सफल मेरी भई, तुम गुन नाम विशेख ॥७॥ सफल चित्त मेरो भयो, तुम गुन चिंतत देव । पाय सफल आयें भये, हाथ सफल करि सेव ॥er सीस सफल मेरौ भयौ, नमो तुमै भगवान । नर भौ लाहो मै लहा, चरन कमल सरधान ॥ ६ ॥ गणधर इन्द्र न जात है, तुम गुन-सागर पार । कौन कथा मेरी तहां, लीजे प्रीति निहार । १० ॥ तातें बंदौं नाथ जी, नमौ सुगुन समुदाय । तीर्थकर पदकौं नमौं, नमौं जगत सुखदाय ॥ ११ ॥ पूजा थुति अरु वंदना, कीनी निज मन पान । .द्यानत करुनामावसौं, कीजे श्राप समान ॥१२॥ - इति स्तुति वारसी। . ब. ज्ञानानन्दजीकृत श्रीगुरु स्तुति । कुमति विदारी भवभयहारी, नग्न विहारी तप धनधारी । आनन्द-सागर शान उजागर, शांति सुधाकर हे सुखकारी। कर्म-विनाशी सुगुन प्रकाशी, जंग जीवनकै हितकारी। नित सुख दुखमें शत्रु मित्रमें, घर अरु वनमें हेसमधारी | मार्ग बताया पार लगाया. जो प्राया तव चरन शरनमें । इह जगवासी भव दुखियाके, हदय विराजो प्राइक छिनमैं। शीत पर है वर्षा भारी, अरु गरमीमैं भानु तपै जब । चौपय तरु तल परवत ऊपरि, निहचल है तुम ध्यान घरटुजब। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालवोथक भव तन भोग रोग लखि त्यागे, मोह मल्लको मार भगाया। याते ही क्या अनुपम आनंद, उर न समाकर तनपर छाया । कब ऐसा वह शुभ दिन आवे, अमर निरंतर जब निज ध्यावे । सुनि व्रत धरकरि कर्म खपावे,शिव रमनीको फिर जा पावै ॥३॥ ७० ज्ञानानंदजीकृत शारदास्तवन । केवलिकन्ये वाङ्मय गंगे, जगदंवे अघनाश हमारे । सत्यस्वरूपे मंगलरूपे, मन मंदिर में तिष्ठ हमारे ॥ जंवू स्वामी गौतम गणधर, हुए सुधर्मा पुत्र तुम्हारे । जगते स्वयं पार है फरके दे उपदेश बहुत जन तारे ॥ १ ॥ कुंद कुंद अकलंक देव अरु, विद्यानन्द आदि मुनि सारे । तव कुल-कुमुद चंद्रमा ये शुभ, शिक्षामृत दे स्वर्ग सिधारे। तूने उत्तम तत्व प्रकाशे, जगके भ्रम सब तय कर ढारे। तेरी ज्योति निरख लज्जावश, रविशशि छिपते नित्य विचारे । भवभयपीडित व्यथितचित्तजन, जवजो आये सरन तिहारे। छिन भरमें उनके तब तुमने, करुनाकरि सव संकट टारे ॥ जब तक विषयकपाय नशै नहि, कर्म शत्रु नहिं जांय निवारे । तव तक ज्ञानानंद रहै नित, सब जीवनत समता धारे ॥३॥ दर्शन दशक । छप्पय । देखे श्री जिनराज आज सव विघ्न विलाये। देखे श्री जिनराज, आज सब मंगल आये ।। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । देखे श्री जिनराज, काज करना कछु नाही । देखे श्री जिनराज, हौंस पूरी मन माही ॥ तुम देखे श्री जिनराज पद भौजल अंजुलि जल भया । चितामनि पारस कल्पतरु, मोह सबनिस उठ गया ॥ १ ॥ देखे श्री जिनराज, भाज अघ जांहिं दिसंतर। देखे श्री जिनराज काज सब होहि निरंतर 3 • देखे श्री जिनराज, राज मन वांछित करिये । देखे श्री जिनराज, नाथ दुख कबहु न भरिये ॥ तुम देखे श्री जिनराज पद, रोम रोम सुख पाइये । धनि आज दिवस धनि अव घरी, माथ नाथको नाइये : धन्य धन्य जिन धर्म, कर्मकौं छिनमें तोरे । धन्य धन्य जिन धर्म, परम पदसों हित जोरें ॥ धन्य धन्य जिन धर्म, मर्मकौ मूल मिटावे | धन्य धन्य जिन धर्म, कर्मकी राह बतावै ॥ जग धन्य धन्य जिन धर्म यह, सो परगट तुमने किया । भवि खेत पाप तप तपनकौं, मेघ रूप है सुख दिया ॥ ३ ॥ 0 तेज सूरसम कहूं तपत दुख दायक प्रानी । · कांति चंदसम कहूं, कलंकित मूरत मानी ॥ वारिधिसम गुन कहूं, खार में कौन भलप्पन | पारस सम जस कहूं, प्रापसम करै न परतन ॥ इन आदि पदारथ लोकमें, तुम समान क्यों दीजिये । तुम महाराज अनुपम दशा, मोहि अनूपम कीजिये ॥ ४ ॥ १ सुखकी, आत्म हितकी । ५ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनबाजवोधक तब विलंब नहिं कियौ, चीर द्रोपदिको बाढ्यो । तव विलंब नहि कियो, सेठ सिंहासन चाढ्यो । तब बिलंब नहिं कियो, सियातें पावक टारयो । तब विलंब नहिं किया, नीर मातंग उदारयौ । इह विध अनेक दुख भगतके, कर दूर किय सुख श्रवनि । प्रभु मोहि दुःख नासन विषै, अथ विलंब कारन कवनि ॥ ५ ॥ कियो भौनतें गौन, मिटी प्रारति संसारी । राह आनि देखे श्रीजिनराज, पाप मिथ्यात विलायो । पूजा श्रुति बहु भगति, करत सम्यक गुन प्रायौ ॥ तुम ध्यान, फिकिर भाजी दुःखकारी ॥ इस मारवाड़ संसारमैं, कल्पवृक्ष तुम दरस है । प्रभु मोह देहु भवभव विषै, यह वांछा मन सरस है ॥ ६ जय जय श्री जिनदेव, सेव तुमही श्रघ नाशक । जय जय श्री जिनदेव, भेव पट द्रव्य प्रकाशक ॥ जय जय श्री जिनराज, एक जो प्राणी घ्यावे जय जय श्री जिनदेव, देव प्रहमेव मिटावै ॥ जय जय श्री जिनदेव प्रभु, हेय कर्म रिपु दलनकौं । हुजे सहाय संघरायजी, हम तयार शिव चलनको ॥ ७ ॥ जय जिनंद श्रानंदकंद, सुरवृन्द वंद पद । ज्ञानवान सब जान, सुगुन मनि खान ध्यान पद ॥ दीन दयाल कृपाल, भविक भौजाल निकालक । श्राप बूक सब सूम, गुझ नहिं बहु जन पालक ॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। प्रभु दीन बंधु करुनामयी, जग उधरन तारन तरन । दुख रास निकास स्वदासकौं, हमें एक तुम ही सरन ॥ ८॥ देख नीक लखि रूप, बंदिकरि वंदनीक दुव । पूजनीक पद पूज, ध्यानकर ध्यावनीक धुव ॥ हरप वढाय बनाय, गाय जस अंतर जामी । दरब चढ़ाय अघाय, पाप संपति निधि स्वामी ॥ तुम गुण अनेक मुख एक सौं, कौन मांति बरनन करौं । मन वचन काय घटु प्रीतिलौं, राम नाम ही सों तरों ॥ चैत्यालय जो करै, धन्य सोश्रावक कहिये ।, तामै प्रतिमा धरै धन्य सो भी सरदहिये ॥ 7 जो दोनों विस्तरै, संघनायक ही जानौ । वात जीवकों, धर्म मूल कारण सरधानौ ॥ इस दुखम काल विकराल में, तेरो धर्म जहां चले । हे नाथ काल चौयौ तहां, इति भोति सर ही हलै ॥ १०॥ दर्शन दशक कवित्त, चित्त सों पढ़े त्रिकालं । प्रतिमा सन्मुख होया खोय चिंता गृहजाल । सुखमें निसिदिन जाय, अंत सुरराय कहावै । सुर कहाय सिवपाय; जनम मृति जरा मिटावे ॥ धनि जैन धर्म दीपक प्रगट, पाप तिमिर छयकार है। लखि 'साहिब राय' सु आंखि सौ,सरधा तारन हार है ॥११॥ १ साहिवराय नामके-द्यानतरायजीके एक मित्र थे, उन्हीका नाम "इनमें प्रेमसे सार्थ डाल दिया है। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालबोधक २. धर्मोपदेश । दोधकांतवेशरी छंद । सुपुरुष तीन पदारथ साधहि, धर्म विशेष जानि आराधहि । धर्म प्रधान कहै सब कोय, अर्थ काम धर्महित होय । ४ ॥ ་ धर्म करत संसार सुख, धर्म करत निर्वान । धर्म पंथ साधन विना, नर तिर्यच समान ॥ १० अर्थ- सुपुरुप धर्म अर्थ इन तीन पदार्थोंका साधन करते हैं इनमें से भी धर्मको विशेषतया जानकर प्याराधन करते हैं सब कोई धर्म को ही प्रधान कहते है क्योंकि अर्थ (धन) और काम एकमात्र धर्म साधनसे ही होते हैं । धर्म करनेसे सांसारिक सुख और धर्मसे ही मुक्ति होती है उस धर्म पंथको ( सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रको ) साधे विना मनुष्य पशुकी समान है ॥ १ ॥ कवित्त ३१ मात्रा | जैसे पुरुष कोई धनकारन हींडते दीप दीप चढ़ याने । आवत हाथ रतन चिंतामणि, डारत जलैधि जान पापान ॥ तैसैं भ्रमत भ्रमत भव सागर, पावत नर शरीर परधान । धर्म यत्न नहिं करत 'बनारस' खोवत वादि जन्म अज्ञान ॥२ ॥ मत्तगयंद सवैया । ज्यों मतिहीन विवेक विना नर, साजि मतंगज ईंधन ढोवै । कंचन भाजन धूलि भरै शठ, मूढ सुधारससों पग धोवै ॥ १ फिरता है. २ गाडी नौका रेल जहाज वगेरहमें ३ समुद्र, ४ व्यर्थ, Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । वाहित कागउडान कारण, डारि महामणि मूरख रोवे । त्यों यह दुर्लभदेह 'चनारसि' पाय अजान प्रकारथ खोत्रें ॥ ३ ॥ अर्थ- जो अज्ञानी अत्यंत दुर्लभ मनुष्य शरीरको पाकर धर्म साधन के बिना व्यर्थ ही खो देता है वह मतिहीन शठ विना विवेकके मानी हाथीको सजाकर उससे ईंधन ढोता है, या सोने के थालमें धूल भरता है, या अमृतले पांव घोता है या कौवेको उडानेके लिये चिंतामणि रत्न फेंककर न मिलनेसे रोता है ॥ ३ ॥ कवित्त ३१ मात्रा | ल्यों जरमूर रखारि कल्पतरु, चांवत मूढ कनकको खेत । ज्यों गजराज वेचि गिरवर सम, कूर कुबुद्धि सोल सर लेत । जैसे छांडि रतन चिंता मणि, मूरख काचखंड मनदेत । तैसें धर्म विसार 'बनारस' धावत अधम विषयसुख हेत ॥ २॥ जो अधम प्राप्त हुये धर्मको छोड़कर विषयसुख भोगनेके लिये दौडते हैं. वे बडे ही मूर्ख हैं. वे क्या करते हैं-मानो कल्प वृत्तको जड़मूल से उखाड़कर धतूरेका खेत वोते हैं अथवा वे क्ररबुद्धि पर्वत समान हस्तीको बेचकर गया मोल लेते हैं. अथवा वे मूर्ख चिंतामणि रत्नको छोड़कर काचके खंड लेते हैं । सोरठा । ज्यों जल वूडत कोई वाहन तजि पाहन है । त्यों नर मूरख होइ, धर्म छांड़ि सेवत विषय ॥ ५ ॥ जैसे कोई जलमें डूबता हुआ नावको छोड़कर पत्थरको ग्रहण Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालवोधककरता है तैसे ही जो नर मूरख हैं वे ही धर्म छोड़कर विषय सेवन करते हैं ॥५॥ ३. इतिहासविद्या। इतिहास उस विद्याको कहते हैं जिसमें प्राचीन कालके राज्य वराजा और तीर्थकर महात्माओंका यथार्थ वर्णन हो. ऐसा कौन मनुष्य है, जो अपने बाप दादोंका हाल सुनना और पटना न चाहे ? किन्तु इस वातके पढनेकी सबको चाह होती है कि हमारे वाप दादे व उनसे पहिलेके लोग कैसे थे और जिसप्रकार हम इस अंगरेजी राज्यमें सुखी है, उसप्रकार हमारे पूर्वजोंने भीपहि. लेके राज्यों में सुख भोगा था या दुःख ? देशकी दशा पहिलेके समय कैसी थी, कौन २ राजा प्रतापी व न्यायी हुये और कौन २ राजा अत्याचारी व अन्यायी हुये, पहिले समयमें किस २ विद्याके पारगामी कौन कौनसे महात्मा व विद्वान् हो गये. इत्यादि बातोंका जिस पुस्तकसे हाल मालूम हो, उसहीका नाम इतिहास है. फारसी पढे हुए इसको तवारीख और अंगरेजी पढे हुए इस को हिष्ट्री कहते हैं. हरएक देशके इतिहासोंके भिन्न २पुस्तक बने हुए हैं परन्तु इतिहासोंमें अनेक पुरानी बातोंका पता नहिं लगा है. तथापि अनेक इतिहास पूरे भी है. इतिहासके मुख्य तीन भाग हैं. पार्योका प्राचीन समय १ मुसलमानोंका समय २ और अंगरेजोंका समय ३. हे बालको! तुमको भी इतिहास अवश्य पढने चाहिये क्योंकि इतिहासोंके पढनेसे अनेक प्रकारकी शिक्षायें -- मिलती हैं। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। १. लक्षण। १. पदार्याको जाननेके लक्षण, प्रमागा, नय और निक्षेप ये चार उपाय हैं। २। बहुतसे मिले हुये पदामिसे किसी एक पदार्थको जुदा करने वाले हेतु (करण) को लक्षण कहते हैं। जैसे जीवका लक्षण चेतना। ३। लक्षणके दो भेद हैं एक प्रात्मभूत दूसरा अनात्मभूत । ४। जो लक्षण वस्तुके स्वरूपमें मिला हो उसे आत्मभूत लक्षण कहते हैं। जैसे, अग्निका लक्षण उपापना । ५. जो लक्षण वस्तुके स्वरूपमें न मिला हो उसे अनात्मभूत. लक्षण कहते हैं । जैसे-लठेतका लक्षण लाठीवात्ता । ६। सदोष लक्षणको लक्षणामास कहते हैं । लक्षणके दोर. तीन हैं एक अव्याप्ति दूसरा अतिच्याग्नि, तीसरा असंभव दोय । ७। जिस वस्तुका लक्षण किया जाय उसे लक्ष्य कहते हैं । ८ाजोलक्षण लक्ष्यके एकही देशमें व्यापैसव लक्ष्योंमें न पाया जावे उसे अव्याप्ति दोष कहते हैं। जैसे पशुका लक्षण (पहचान ) सींग कहना। जो लक्षण किया जाय वह लक्षण लक्ष्य और अलक्ष्य दोनों में व्यापै उसे अतिव्याति दोप कहते हैं । जैसे,-गांका लक्षण सींग करना। १०। लक्ष्यके सिवाय अन्य पदार्योंको अलक्ष्य कहते हैं।। ११ । जो लक्षणं लक्ष्य में सर्वया पाया ही नहि जावे उसे असंभव दोप कहते हैं। जैसे,-अग्निका लक्षण शीतलता करना : Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ 'जेनबालबोधक ५. पूजाधिकार । सवैया ३१ मात्रा | लोपै दुरित हरै दुख संकट, यापै रोग रहित नितदेह | पुण्य भंडार भरे जस प्रगटै, मुकतिपंथसों करें सनेह || रचै सुहाग देय शोभा जग, परभव पहुंचावत सुर गेह । कुगति वंध दलमलहि 'बनारस' वीतराग पूजाफल येह ॥ १ ॥ अर्थ - वीतराग भगवानकी पूजा पापको हरती है, दुखसंकटको दूर करती है हमेशह रोगरहित देहकरती है, पुरायके भंडार भरती है, यशको प्रगट करती है, मोक्षमार्ग में प्रीति करवाती है, सौभाग्य रचती व जगतमें शोभा देती है, परभव में स्वर्ग जाती है और कुगतिबंधको नष्ट करदेती है ॥ १ ॥ देवलोक ताकी घर प्रांगन, राज रिद्ध सेवहिं तस पाय । ताके तन सौभाग्य प्रादिगुन, केलि विलास करें नित आय ॥ सो नर तुरित तरै भवसागर, निर्मल होय मोक्षपद पाय । द्रव्य भाव विधिसहित 'वनारसि' जो जिनवर पूँजे मन लाय ॥ जो कोई द्रव्य से भाव विधि सहित मन लगाकर जिनेंद्रभगचानको पूजता है उसके लिये स्वर्ग तौ अपने घर के आंगनकी समान होजाता है और राजसंपदा उसके चरण पूजती है उस के शरीर में सौभाग्य आदि गुण नित्यकेलिये विलास करते रहते हैं और वह मनुष्य कर्ममलरहित होय शीघ्री भवसागर से तिर करके मोक्षपद पाजाता है ॥ २ ॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ माग। १३ ज्यों नर रहै रसाय कोप करि, त्यों चिंताभय विमुख यखान! ज्यों कायर शंकै रिपु देखत, त्यों दारिद्र भजे भय मान ! ज्यों कुनार परिहरै पंडपति, त्यो दुर्गति ठंडे पहिचान । हितुज्यों विभो त नहि सगति, सोसव जिनपूजा फलजान॥ जिस प्रकार कोई नर गुस्सा होकर विमुख हो वैठ जाता है उसी प्रकार जिनभगवान की पूजा करनेवालेके चिंता भय विमुख हो जाते हैं तथा शत्रुको देखकर जिस प्रकार कायर भयभीत होता है उसी प्रकार उसका दारिद्ध भय मान कर भाग जाता है और जिस प्रकार कुनार निर्वल पतिको छोड़ देती है उसी प्रकार उसको दुर्गति छोड़ देती है तथा संपदायें मित्र समान उस पुरुषका संग नहिं छोडती ॥३॥ जो जिनंद्र पूजै फूलनसौं, सुर नयनन पूजा तिस होय । चंदै भाव सहित जो जिनवर, पदनीक त्रिभुवनमें सोय ॥ जो जिन सुजस करे जन ताकी, महिमाद्र करे सुर लोय । जो जिन ध्यान करत वानारसि, ध्यावे मुनि ताकेगुनजोय ॥४॥ जो कोई जिनेंद्र भगवानको पुष्पोंसे पूजता है वह मनुष्य देवोंके नयनोंसे पूजा जाता है अर्थात् देव उसका हमेशह दर्शन करते रहते हैं और जो कोई भावसहित भगवानकी वंदना करता है वह तीन लोकमें वंदनीक हो जाता है अर्थात् तीर्थकर पद पा जाता है और जिनेंद्र भगवानके गुगा गाता है उसकी स्वर्गलोकमें इन्द्र प्रशंसा करता है तथा जो कोई जिनेंद्र भगवान का ध्यान करता है उस पुरुषका ध्यान मुनिगण किया करते है। अर्थात् वह सिद्धपदको पा जाता है जिसका ध्यान मुनिजन' हमेशह किया करते हैं ॥४॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनघालवोधक ६. कालविभाग, --::-- सृष्टि अनादि है। इसका कर्ता वा हा कोई नहीं है परन्तु भिन्न भिन्न कालमें इसका परिवर्तन होता रहता है। परिवर्तन भी दो प्रकारसे होता है अर्थात् एक तौ वृद्धिरूप एक ह्रासम्प। जिसका नाम उत्सर्पिणी काल और अवसर्पिणी काल है । उत्सर्पणीकाल क्रमसे उन्नतिरूप (विकाशरूप ) होता है अवस. पणीकाल ह्रासरूप (अवनतिरूप) होता है। उत्सर्पणीकालमें जीवोंकी आयु कायादि क्रम २ से एक खासहद तक बढते रहते है और श्रवसर्पणीकालमें क्रमसे घटते २ एक हदतक घट जाते हैं। प्रत्येक काल दश कोडाकोडी सागरका होता है सागरकी गिनती अंकोंसे नहिं कह सकते इस लिये इस संख्याका नाम असंख्यातवर्ष है । दानो कालोंको मिलाकर वीस कोडाकोड़ी सागरका एक कल्प काल होता है। प्रत्येक उत्सर्पिणीकालके छह छह विभाग माने गये हैं। अवनतिरूप अवसर्पियीकालके पहिले विभागका नाम सुपमा सुषमा काल है यह समय चार कोडाकोड़ी सागरका होता है। इस समयके मनुष्योंकी आयु तीन पल्यकी होती है । शरीरकी उंचाई तीन कोशकी (छह हजार धनुष या १२००० गजको) होती है। ये मनुष्य वडे ही सुंदर सरल चित्तके होते हैं। भोजन की इच्छा तीन दिन बाद होती है। और इच्छा होते ही कल्प वृत्तोंले प्राप्त हुवा भोजन वेरकी बरावर करते हैं । इनके मल Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ चतुर्य भाग । मुत्रकी बाधा वा कोई बीमारी नहिं होती। पुरुष स्त्री दोनों एक ही साथ एक ही उदरसे पैदा होते हैं । युवा होकर पति पत्नीवत् व्यवहार करते हैं. इस कालमें इस भूमिको भोगभूमि कहते है। मनुष्यको भोगभूमियोंमें बहन भाईकासा नाना मानना नहिं होता। यत्र आभूषण आदि भोगोपभागकी सामग्री दश प्रकारके कल्प वृक्षोंसे प्राप्त होती है। ये कल्पवृत्त पृथिवी जाति के परमाणुओंके होते है, वनस्पति जातिके नहिं होते । पुत्री पुत्रके पैदा होते ही माता पिता उसी वक्त मर जाते हैं। वालक अपने अंगूठेका रस चूस २ कर ४६ दिनमें पूर्ण युवा हो जाते हैं। स्त्री पुरुष दोनों साथ मरते हैं। मरते समय स्त्रीको छोक और पुरुषको जंभाई पाती है । इस समयमें कमसे सपको श्रायु कायादि कम होते जाते हैं। इस उत्तम भोगभूमिके पश्चात् तीन कोडाकोड़ी सागरका सुषमा काल पाता है इस कालमें मध्यम भोग भूमिको सी सव बातें होती है अर्थात् इस फालके प्रारंभ होनेके समय मनुष्योंकी ऊंचाई घटकर दो कोशकी आठ हजार गजकी) प्रायु दोपल्यकी होती है। यह भी क्रमशः घटती जाती है। भोजन दो दिन बाद बहेड़ेकी बराबर करते हैं। भोजनादि सामग्री सव कल्पवृक्षोंसे पाते हैं । इन दोनों कालोंमें कोई राजा महाराजा नहिं होता सूर्य चन्द्रमाका प्रकाश भी ज्योतिरंग जातिक फावृत्तोंके सामने प्रगट नहिं होता । सिंहादि र जन्तुओंका भी स्वभाव शांत रहता है। . इसके पश्चात् सुपमादुःपमा नामका तीसरा विभाग दो Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ जैनवालबोधक कोड़ाकोड़ी सागरका होता है। इस विभागके मनुष्योंकी प्रायुएक पल्यकी और ऊंचाई एक कोसकी (चार हजार गजकी ) होती है । इस कालके मनुष्य एक दिन बाद आंवले चरावर खाते हैं । इस कालमें भी आयुकायादि क्रमसे घटते जाते हैं, यद्यपि इतिहासका प्रारम्भ अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालके प्रथम विभागसे ही प्रारम्भ होता है, परन्तु प्रकृत इतिहासका प्रारंभ तीसरे विभाग के अंत से ही होता है क्योंकि इस तीसरे हिस्सेके अंत तक मनुष्यों को विना परिश्रम के भोगोपभोगकी सामग्री कल्पवृक्षों से हो प्राप्त होती रहती है और इनमें कोई धर्म कर्मका आचरण भी नहिं रहता जिससे कि मनुष्योंके जीवन चरित्रमें परिवर्तन हो । इस तीसरे फालके अंत में ही कुलकरोंकी (मनुओं की) उत्पत्ति होती है। कुलकरों की उत्पत्तिसे पहिले मनुष्योंका कोई नाम नहि होता, स्त्रियां पुरुषोंको प्रार्य और पुरुष स्त्रियोंको आर्य कहकर पुकारते हैं और इस समय में कोई वर्ण भेद भी नहिं होता सब एकसे होते हैं। चौथा विभाग व्यालीस हजार वर्ष कम एक कोडाकोड़ी सागरका होता है, इस कालका नाम दुपमासुषमा काल होता है । इसके प्रारंभ में मनुष्यकी आयु ८४ लाख पूर्वकी होती है । और शरीर की ऊंचाई ग्यारह सौ गजको होती है, इस कालके अंतमें जाकर शरीरको ऊंचाई ७ हाथकी रह जाती है, यह समय कर्म भूमिका कहलाता है, क्योंकि इस समय में मनुष्योंका जीवन धारण करनेके लिये व्यापारादि कार्य ( कर्म ) करने पड़ते हैं । राज्य, व्यापार, धर्म, विवाह, विद्याध्ययनादि समस्त कार्य इसी Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । १७ काल के प्रारम्भ से होने लगते हैं। इसी हिस्से में जीवन चलाने के अन्यान्य साधनोंकी उन्नतिका प्रारम्भ होता है । इसी कालमें चौवीस तीर्थकर (महा पुरुष ) उत्पन्न होते हैं और अपने शानसे सच्चे धर्मका प्रकाश करते हैं । इनकी उपाधि तीर्थकर हुआ करती है, इस चौथे काल तक ही मोक्षमार्ग जारी रहता है, इस के बाद मोक्ष जाना बंद हो जाता है इस कालको ही सत्युग कह सकते हैं। चक्रवर्ती, नारायण प्रतिनारायण आदि प्रसिद्ध शलाका पुरुष भी इसी चौथे कालमें होते हैं, जिनका कुछ वन आगे के पाठमें दिया जायगा । इसके पश्चात् अवसर्पिणी कालका पांचवा हिस्सा दुःपमा नामका होता है, यह इक्कीस हजार वर्षका होता है । इसमें मनुष्य शरीरकी आयु बल और ऊंचाई बहुत कम हो जाती है। इसके प्रारम्भमें तौ सात हाथका शरीर होता है और १२० वर्षकी आयु होती है । फिर प्रति हजार वर्षमें पांच वर्ष आयु घटती जाती है । अंत समय में दो हाथका शरीर और २० वर्षकी श्रायु रह जाती है उस समय मनुष्य मांसभक्षी और वृक्षोंपर बंदरोंकी समान रहने वाले होते हैं । धर्मका सर्वथा अभाव हो जाता है । छठे भाग में और भी अवनति हो जाती है, इस कुठे कालका नाम दु:पमादुपमा है, इस कालके जय उनचास दिन बाकी रह जाते हैं, धूल, हवा, पानी, अग्नि, पत्थर, मिट्टी, लकड़ीकी सात सात दिनों तक वर्षा होती है. अर्थात् प्रबलता होती है और इसकी प्रबलता के कारण प्रार्यखंडके संपूर्ण पशु, पक्षी मनुष्य नगर, ग्राम, देश, मकान आदि नष्ट हो जाते हैं। इसीको प्रजय २ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालवोधककाल कहते हैं । केवल ऐसे प्राणी जो माता पिताके संयोगसे उत्पन्न होते हैं, देवोंके द्वारा स्वयं पहाड़ोंकी गुफा वगेरह सुरक्षित स्थानों में जाकर अपनेको बचालेते हैं। यही समय अवनति रूप अवसर्पिणी नामकी पूर्णताका अंत समय है। इस प्रकार अवसर्पिणी काल पूरा हो जानेके पश्चात् उत्स र्पिणी कालका (उन्नति रूप कालका ) प्रारंभ होता है . इसके भी छह विभाग होते हैं । पहिला विभाग वही इक्कीस हजार वर्ष का दुःषमादुःपमा काल होता है, इस कालके प्रारंभमें जो मनुष्य पशु बच गये थे, वे आकर बसते हैं और क्रमसे उन्नति करते जाते हैं । २१ हजार वर्पके बाद फिर २१ हजार वर्षका दूसरा दुःपमा काल पाता है इसमें भी मनुष्योंकी वायुकायादि क्रमसे बढ़ते जाते हैं, इसके बाद तीसरा सुपमा दुःपमा चौथा दुषमासुषमा पांचवां सुपमा वा छठा सुषमासुपमा काल होता है। इनमें आयुकायादिकी वृद्धि होती जाती है । तीसरे कालमें मर्थात् अवसर्पिणोके चौथे कालकी समान फिर चौवीस तीर्थकरादि ६३ शलाका पुरुष ( महापुरुष । होते हैं और धर्मकी प्रवृत्ति बढ़ती २ जाती है । इस कर्मभूमिके वाद चौथे कालमें जघन्य भोगभूमि (श्रवसर्पिणीके तीसरे कालकी समान) पांचवेमें मध्यम भोगभूमि, बढेमें उत्तम भोगभूमि इस प्रकार होकर उत्सर्पिणी काल पूर्ण हो जाता है उसके बाद फिर प्रवसर्पिणी काल पूर्वकी समान प्रारंभ होता है। इस प्रकार प्रार्य खंडमें समयका परिवर्तन हमेशह होता रहता है। वर्तमान समय अवसर्पिणी कालका (अवनति रूप Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । મ कालका) पांचवां विभाग वर्क्स रहा है, इसके इक्कीस हजार वर्षमें से २४५० के करीब यीत चुके हैं। इसके पहिले चौथा काल ( जिसमें तीर्थकरादि ६३ शलाका पुरुष हो गये हैं। बीत चुका है, उस कालकी आदि अर्थात् तीसरे कालके अंत में जब एक पन्य रहजाता है, उसमें १४ कुलकर होते हैं वहाँसे इतिहासका प्रारंभ होता है । ७. प्रमाण । १ | सच्चे ज्ञानको प्रमाण कहते हैं, प्रमाणके दो भेद हैं, एक प्रत्यक्ष प्रमाण दूसरा परोक्ष प्रमाण । २। जो पदार्थोको स्पष्ट जाने उसको प्रत्यक्ष प्रमाण कहने है, प्रत्यक्ष प्रमाण दो प्रकारका है एक सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष, दूसरा पारमार्थिक प्रत्यक्ष | ३ | जो ज्ञान इंद्रिय और मनकी सहायता पदार्थको एक देश स्पष्ट जाने उसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं। ४ । जो ज्ञान बिना किसीकी सहायता के पदार्थको स्पष्ट जाने उसे पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं । ५ । पारमार्थिक प्रत्यक्ष दो प्रकारका है । एक विकल पारमार्थिक दूसरा सकल पारमार्थिक | ६ । रूपी पदार्थोको विना किसीकी सहायताके स्पष्ट जाने उसे विकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं । ७ । विकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष भी दो प्रकारका है। पकका नाम अवधिज्ञान, दूसरेका नाम मनःपर्यय ज्ञान है । ८ | द्रव्य क्षेत्र काल भावकी मर्यादा लिये जो रूपी पदार्थोको स्पष्ट जानें उसे श्रवधिज्ञान कहते हैं Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. जैनवालबोधक ६ | द्रव्य क्षेत्र काल भावकी मर्यादा लिये हुये जो दुसरेके मनमें तिष्ठते हुये रूपी पदार्थको स्पष्ट जाने उसे मन:पर्यय ज्ञान कहते हैं । १० । केवल ज्ञानको सकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं । ११ । जो त्रिकालवर्त्ती समस्त पदार्थों को युगपत् (एकसाथ) स्पष्ट जाने उसे केवलज्ञान कहते हैं । १२ । जो दूसरे की सहायता से पदार्थको स्पष्ट जाने उसे परोक्ष प्रमाण कहते हैं । १३ । परोक्ष प्रमाण पांच प्रकारका है। स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम | १४ | पहले अनुभव किये हुये पदार्थके याद करनेको स्मृति कहते हैं। १५ । स्मृति और प्रत्यक्षके विषय भूत पदार्थोंमें जोडरूप ज्ञानको प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। जैसे -- यह वही मनुष्य है जिसे कल देखा था । इसके एकत्व प्रत्यभिज्ञान, सादृश्य प्रत्यभिज्ञान यादि अनेक भेद हैं। १६ । स्मृति और प्रत्यक्षके विषय भूत पदार्थमें एकता दिखाते हुये जोडरूप ज्ञानको एकत्व प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। जैसे - यह वही मनुष्य है जिसे कल देखा था । १७ | स्मृति और प्रत्यक्ष के विषयभूत पदार्थों में सदृशता दिखाते हुये जोड़रूप ज्ञानको सादृश्य प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । जैसे - यह गौ गवयके ( रोजके ) सहश है । १८ । व्याप्तिके ज्ञानको तर्क ( चिंता ) कहते हैं । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य माग। १६ । साध्यसाधनके अविनामाव संबधको व्यानि कहते हैं। अर्थात्-जहाँ जहां साधन ( हेतु ) हो, वहां वहां सायका होना और जहां२ साध्य नहीं हाय वहां २ साधनके भी न होनेको अविनाभाव संबंध कहते हैं। जैसे-जहां २ वृम है यहां २ अग्नि है और जहां २ अग्नि नहीं है वहां वहां धृम भी नहीं है। २० जो माध्यके विना न दो उसे साधन (हेनु) कहते हैं। जैसे-अग्निका हेनु ( साधन ) धूम है। २१ । इष्ट अवाधित और असिद्ध पदार्थको साध्य कहने हैं। २२ । वादी प्रतिवादी दोनों ही जिसको सिद्ध (निश्चय) करना चाहे उसको इष्ट कहते हैं। २३। जो दूसरे प्रमाणोंसे वाधित न हो अर्थात् पंडित न हो उसे अबाधित कहते हैं। जैसे, अग्निमें ठंडापन साधना प्रत्यक्ष प्रमाणसे बाधित है इस कारण यह ठंडापन साध्य नहीं हो सकता। २४। जो दूसरे प्रमाणोंसे सिद्ध न हो अथवा जिसका निश्चय न हो उसे प्रसिद्ध कहते हैं। २५॥ साधनके द्वारा ( हेतुसे ) साध्यके प्रान होनेको अनु. मान कहते हैं। संसदीप हेतुको हेवामास कहते हैं। हत्यामास चार प्रकारका है, १ असिद्धहेत्वाभास.२ विरुद्धहेत्वाभास, ३ अनेकांतिफहेत्वामास ( व्यभिचारी हेत्वाभास )और ४ अकिंचित्कर. इत्यामास। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जैनवालबोधक___ २७ । जिस हेतुके अभावका (न होनेका) निश्चय हो अथवा उसके सद्भाव (होने में ) संदेह (शक ) ही उसको प्रसिद्ध हेत्वाभास कहते हैं । जैसे,-"शब्द नित्य है, क्योंकि शब्द नेत्रका विषय है" परंतु शब्द कर्णका विषय है, नेत्रका विषय नहिं हो सकता इस कारण 'नेत्रका विषय यह हेतु देना प्रसिद्धहेत्याभास है। २८॥ साध्यसे विरुद्ध पदार्थके साथ जिस हेतुकी व्यानि हो उसे विरुद्धहेत्वाभास कहते हैं। जैसे,-"शब्द नित्य है क्योंकि परिणामी (क्षण क्षणमें पलटनेवाला ) है. इस अनुमानमें परिणामी हेतुकी व्याप्ति अनित्यफे साथ है, नित्यके साथ नहीं इस. लिये नित्यत्वका परिणामी हेतु देना विरुद्धहेत्वाभास है। ___ २६ । जो हेतु पक्ष, सपत्न, विपक्ष इन तीनोंमें व्यापं उसको अनेकांतिक ( व्यभिचारी) हेत्वाभास कहते हैं। जैसे,-"इस कमरेमें धूम है क्योंकि इसमें अग्नि है।" यहां अग्नि हेतु पत्त सपक्ष विपक्ष तीनोंमें व्यापक होनेसे अनेकांतिकहेत्वाभास हो गया। ३० । जहां साध्यके रहनेका शक हो उसे पक्ष कहते हैं। जैसे ऊपरके दृष्टांतमें कमरा। ३१ । जहां साध्यके सद्भावका (मोजूदगीका ) निश्चय हो उसे सपक्ष कहते हैं. जैसे धूमका सपक्ष गीले ईधनसे मिली हुई अग्निवाला रसोई घर है। ३२ । जहां साध्यके प्रभावका (गैर मोजूदगीका ) निश्चय हो उसे विपक्ष कहते हैं जैसे अग्निसे तपा हुवा लोहेका गोला। ३३ । जो हेतु कुछ भी कार्य (साध्यकी सिद्धि) करनेमें Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ चतुर्य भाग। समय न हो उमे अकिंचिकाइन्यानाम करने हैं। इसके अनेक मेढ़ हैं नो दूसरे ग्रंथोंसे जानना । ३८ । निथ्यानानको प्रमाणामास कहते है। प्रमाणामास तीन प्रकारका है । संशय, विपर्यय, और धनव्यवसाय । ३१ । विन्द अनेक कोटीके स्पर्श करनेवाले मानका संगम कहते हैं। जैसे,- यह सीप है या चांदी। विपरीत एक कोटीके निश्चय करनेवाले मानको विप. यंय कहते हैं : जैले.-सोपको चांदी जान लेना। ३७ । 'यह क्या है' ऐसे प्रतिमासको अनध्यवसाय कहते हैं। जैने.--मार्ग चलते हुयेको तृण बगेरहका स्पर्श होनेका अनिश्चित झान होना। ८. गुरुसेवाका उपदेश. अदिल्ल उंद। पाप पंथ परिहरहिं. धरहि शुम पंथ पग। पर उपकार निमित्त. बखानहि मोक्ष मग । सदा प्रबंहित बित्त. तु तारन तरन जग। पेले गुल्का सेवत, भागहि करम ठगा | जिन्होंने पापका मार्ग छोड़ दिया और पुग्यमार्गमें चलने ? तथा परोपकारके लिये मोतमार्गका उपदेश करते हैं. चिच किसी भी प्रकारको बांद्यान रखकर जगसे आप तरते और इस को तारते हैं, ऐसे गुरुकी सेवा पूजा करनेसे कर्मरूपी ठग भाग जाते है १६ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जैनवालवोधक हरिगीतिका छंद। मिथ्यात दलन सिद्धांतसाधक, मुकति मारग जानिये । करनी अकरनी सुगति दुर्गति, पुण्य पाप वखानिये । संसार सागर तरन तारन, गुरु जहाज विशेखिये ! जगमांहि गुरुसम कह वनारसि, और कोउ न देखिये । मिथ्या ज्ञानको दलनेवाले और सिद्धांत वा मुक्तिमार्गको साधनेवाले सुगति दुर्गति करनी अकरनी तथा पुण्य पापको वर्णन करनेवाले संसार सागर तरने और तारनेवाले गुरु एक प्रकारके जहाज हैं। इस कारण जगतमें गुरुको समान अन्य कोई हितु नहीं है। __ मत्तगयंद मातु पिता सुत बंधु सखी जन, मीत हितू सुख कामन पोके । सेवक साज मतंगज वाज, महादल राज रथी रथनीक । दुर्गति जाय दुखी विललाय, परै सिर आय अकेलहि जीके। पंथ कुपंथ गुरू समझावत, और सगे सव स्वारथ होके ॥३॥ माता, पिता, पुत्र, भ्राता, सखीजन, हितैपी मित्र, सुखदायक स्त्री, तथा सजे हुये सेवक, हाथी, घोड़े, रथ, रथचढ़े राजा वा सेनापति ये सव अपने २ मतलवके हैं, जब कि यह जीव दुर्गतिमें जाकर दुखी होकर विलविलाता है तो अकेला ही दुःख भोगता है कोई काम नहीं पाते, गुरु ही एक ऐसे हैं, जोपापमार्ग व मोक्षमार्ग समझाकर कुगतिले बचाते हैं । ३.॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। वस्तुछंद। ध्यान धारन ध्यान धारन विषय सुत्र न्याग । करुना रस पादरन, भूमि सैन इंद्रीनिरोधन ॥ व्रतसंयम दान तप, भगति भाव सिद्धांत साधन । ये सब काम न पावहि, व्यों विन नायक सेन । शिव सुख हेतु बनारसी, फर प्रतीति गुरुवन४॥ ध्यानकाधारन करना, विषयसुखका त्याग करना, करुणारस का आदर करना, जमीनपर सोना, इन्द्रियोंको यशमें करना, व्रत, तप, संयम, दान, भक्ति भाव, सिद्धांतका पठन पाठन, ये सब कार्य विना नायकके सेनाकी तरह गुरुके विना कोई काम नहीं हैं, इसकारण शिवसुनके लिये गुरुके वचनानुसार ही प्रतीति करके चलना चाहिये।४। ---- --- ९ चौदह कुलकर। जब तीसरे कालके अंत होने में एक पल्यका पाठयां भाग वाकी रहा तब पापाढ़ सुदी २पूर्णमासीकै दिन नायंकालको पश्चिम में तो सूर्य अस्त होता दिखाई दिया और पूर्वमें चन्द्रमाको उदय होता दिखाई दिया । यधपि सूर्य चंद्रमा अनादि कालसे प्रस्त उदय होते रहते हैं परन्तु इन तीनों कालोंमें ज्योतिरंग जातिके कल्पवृत्तोंके प्रकाशमें दिखाई नहि देते थे, सो तीसरे कालफा जब अंत हो गया तो कल्पवृत्तोंका प्रकाश कम होने से सूर्य चंद्रमा Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ जैनवालवोधकदीखने लगे। इनको देखकर उस समयके भोगभूमिया लोग बहुत डरे और डरकर उनमेंसे जो अधिक प्रतापशाली काल परिवर्तनके नियमों को जाननेवाले प्रतिश्रुत नामके एक महाशय थे. सबजनोंने उन्हीके पास जाकर सूर्य चन्द्रमाको दिखाकर अपने भयका हाल कहा। उन्होंने सवको समझाया-ये सूर्य चंद्रमा हमेशहसे रहते हैं कल्प वृत्तोंका प्रकाश क्षीण होनेसे अब दीखने लगे हैं। इनसे डरनेका कोई कारण नहीं है और भविष्यमें जीवन निर्वाह कैसा होगा ये सव वति भी बताकर उनका भय दूर कर दिया, ये ही प्रतिश्रुत पहिले कुलकर हुये। इनके असंख्यात करोड़ों वर्ष बाद सन्मनि नामके दुसरे कुलकर हुये, इनके समयमें ज्योतिरंग जाति के वृक्षों का प्रकाश इतना मंद हो गया कि नक्षत्र और तारोंका प्रकाश भी नहिं दवा जिससे श्राकाशमें चारों तरफ तारे दिखाई देने लगे, उन्हें देखकर उस समयके मनुष्योंको फिर भय हुश्रा और इनके पास आकर भयका कारण कहा तो उन्होंने और नक्षत्रोंके (ज्योतिष चक्रके) हमेशह रहनेका तत्त्व समझाया और रात्रि दिन सूर्य ग्रहगा चंद्र ग्रहण सूर्यका उत्तरायन दक्षिणायन होना आदि सब भेद समझा ज्योतिष विद्याकी प्रवृत्ति की। इनके भी असंख्यात करोड वर्षांवाद क्षेमकर नामके तीसरे कुलकर हुये । अवतक सिंहादि क्रूर जंतु शांत थे पर इनके समयमें उनके क्रूरता आगई और वे मनुप्योंको तकलीफ देने लगे। पहिले मनुष्य इन पशुओंके साथ रहते थे, प्यार करते थे परन्तु Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । २७ क्षेमंकरके समझाने से श्रव उन पशुओंसे जुदे रहने लगे और उनका विश्वास करना छोड दिया । इनके प्रसंख्यात करोड वर्ष बाद चौथे क्षेमंधर नामके कुलकर हुये। इनके समय में सिंहादि जंतुओं की क्रूरता और भोवढ़ गई थी और इनसे बचनेके लिये इन्होंने लाठी सोटा रखनेकी सम्मति दी । इनके पश्चात् असंख्यात करोड वर्षवाद पांचवें सीमंकर नामके कुलकर हुये । इनके समयमें कल्पवृत्त वहुत कम हो गये थे और फल भी थोड़ा देने लगे थे इस कारण मनुष्यों में विवाद होने लगा. इन्होंने अपनी बुद्धिसे कल्पवृक्षोंकी हद्द बांधदी थी और अपनी हद्दके अनुसार उससे फल लेकर काम चलाने लगे । इनके पश्चात् श्रसंख्यात करोड वर्ष बीते वाद सीमंधर नाम के छठे कुलकर हुये। इनके समय में कल्पवृक्षों के लिये विवाद और भी अधिक होने लगा। क्योंकि कल्पवृक्ष बहुत घट गये थे और (वस्त्रादिवस्तुएं ) फल भी बहुत कम देते थे । अतएव इन कुलकरने उनका विवाद दूर किया और फिर नये प्रकार से वृक्षोंकी हद्द बांधी। इनके पश्चात् फिर सातवें कुलकर विमलवाहन हुये । इन्होंने हाथी घोडा ऊंट वैल आदि सवारी करने योग्य पशुओं पर सवारी करना बताया । इनके पश्चात् असंख्यात करोड वर्षचाद आठवें कुलकर चतुमान् नामके हुये । इनके समय से पहिले तौ माता पिता Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालवोधकसंतानकी उत्पत्ति होनेके साथ ही मर जाते थे परंतु अब इनके समयमें मातापिता संतानकी उत्पत्ति होनेके क्षण भर बाद मरने लगे सो इन्होंने सव समझाया कि संतान क्यों होती है ? इनके असंख्यात करोड वर्षवाद नवमे कुलकर यशस्वान् नामके हुये। इनके समयमें मातापिता कुछ समय संतानके साथ उहर कर मरने लगे। इन्होंने संतानको आशीर्वादादि देनेकी विधि बताई। इनके पश्चात् असंख्यात करोड वर्षवाद दशवे मनु अभिचंद्र हुये । इनके समयमें प्रजा अपनी संतानके साथ क्रीडा करने लगी थी। इन कुलकरने क्रीडा करने वा संतान पालनेको विधि बतलाई थी। . इनके सैकडों वर्षवाद चंद्राभ नामके ग्यारहवेंकुलकर उत्पन्न हुये । इनके समयमें प्रजा संतानके साथ पहिलेसे और भी अधिक दिनों तक रह कर मरने लगी। ___ इनके पश्चात् वारहवें कुलकर मरुदेव नामके हुये। उस समय की व्यवस्था सब इनके ही अधीन थी। इन्होंने जलमार्गमें गमन करनेके लिये छोटी वडी नाव चलानेका उपाय बताया, पहाडों पर चढनेके लिये सीढियां बनाना बताया। इन्होके समयमें छोटी चडी कई नदियां और उप समुद्र उत्पन्न हुये (मेघभी न्यूनाधिक • रीतिसे बरसने लगे) यहां तक स्त्री और पुरुष दोनों युगल उत्पन्न होते थे। इनके कुछ समय बाद तेरहवें प्रसेनजित नामके कुलकर हुये। इनके समय संतान जरायुसे ढकी हुई उत्पन्न होने लगी। इन्होंने Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य भाग। २६ उसको फाडकर संतान निकालनेका उपाय बताया। प्रसेनजित् अपनी माताके युगल उत्पन्न नहीं हुये थे। अकेले ही उत्पन्न हुये। इनके पिताने जिसके अकेली पुत्री पैदा हुई उससे विवाह करके विवाह करनेकी पद्धति प्रचलित की थी। इनके पश्चात् चौदहवे नाभिराय कुलकर हुये, जिनका हाल अगले पाठमें जुदा बताया जायगा। इन कुलकरोंमें किसीको अवधिज्ञान व किसीको जातिसरण होता था । प्रजाको जीवनका उपाय बतानेके कारण ये मनु कहलाते हैं और इन्होंने कई कुलोंकी स्थापना की अतः इनको कुलकर भी कहने लगे। इन्होंने दोषी मनुष्योंको दंड देनेका विधान भी बताया था और वह इस प्रकार था पहिलेके प्रतिश्रुत, सन्मति, क्षेमकर, मंधर, सीमकर इन पांच कुलकरोंने दोष होने पर दोपियोंको 'हा' इस प्रकार पश्चातापरूप वोल देना ही दंड रक्खा था। इतने दंडसे ही वे फिर कभी दोष नहिं करते थे। और सीमंधर, विमलवाहन, चक्षुमान् , यशस्वान् , अभिचंद्र इन पांचोंने 'हा' 'मा' इस प्रकार दो शन्दोंको बोलना ही दंड रक्खा था और अंतके चार कुलकरोंने 'हा' 'मा' 'धिक्' इस प्रकार तीन शब्द वोलकर दंड देना निश्चय किया था। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालवोधक १०. नय। १। वस्तुके एक देशको जाननेवाले ज्ञानको नय कहते हैं। २।नय दो प्रकारका है। एक निश्चयनय दूसरा व्यवहार'नय । व्यवहारनयको उपनय भी कहते हैं। __३. वस्तुके किसी असली अंशको ग्रहण करनेवाला झान 'निश्चय नय है । जैसे-मिट्टीके घड़ेको मिट्टीका घड़ा फहना । ४। किसी निमित्तके वशसे एक पदार्थको दूसरे पदार्थ रूप जाननेवाले ज्ञानको व्यवहारनय कहते हैं । जैसे, मिट्टीके घड़ेको घी रहनेके निमित्तसे घीका घड़ा कहना। ५। निश्चय नय दो प्रकारका है। एक द्रव्यार्थिकनय, दुसरा पर्यायार्थिकनय। ६। द्रव्य अर्थात् सामान्यको ग्रहण करै उसे द्रव्याथिकनय कहते हैं। ७। जो विशेष अर्थात् द्रव्यके किसी गुण या पर्यायको विषय करै उसे पर्यायार्थिकनय कहते हैं। द्रव्यार्थिकनय, नैगम, संग्रह और व्यवहारके भेदसे तीन 'प्रकारका है। ___ दो पदार्थों में से एकको गौण और दूसरेको प्रधान करके भेद अथवा अभेदको विषय करनेवाला ज्ञान नैगम नय है । तथा पदार्थके संकल्पको ग्रहण करनेवाला ज्ञान नैगम नय है। जैसे,कोई आदमी रसोई घरमें चावल लेकर वीनता था। किसीने Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। उससे पूछा कि क्या कर रहे हो ? वव उसने उत्तर दिया किभात वनः रहा हूं। यहां चावल और भातमें अभेद विवक्षा है। अथवा चावलोंमें भातका संकल्प है। १० । अपनी जातिका विरोध नहिं करके अनेक विषयोंका एकपनले ग्रहण करे उसको संग्रह नय कहते हैं। जैसे-जीवके कहनेसे चारों गतिके सव जीवोंका ग्रहण होता है। ११ । संग्रह नयसे ग्रहण किये हुये पदार्थको विधिपूर्वक भेद करै सो व्यवहार नय है। जैसे जीवके भेद बस स्थावर आदि करने । १२ । पर्यायार्थिक नय चार प्रकारके हैं, अनुसूत्र.शब्द,सनभिसढ़ और एवंभूत। १३ । भूत भविष्यतकी अपेक्षा नहिं करके वर्तमान पर्यायमात्रको ग्रहण करै सो ऋजुसूत्र नय है। १४। लिंग, झारक, वचन, काल, उपसर्ग आदिके मेदसे जा पदार्थको भेदरूप ग्रहण कर उसे शब्द नय कहते हैं । जैसे-दार, भाया, कलत्र ये तीनों भिन्न २ लिंगके शब्द एक ही स्त्री पदार्थके वाचक है सो यह नय स्त्री पदार्थको तीन भेदरूप ग्रहण करता है इसी प्रकार कारकादिकके दृष्टांत जानने। १५। अनेक अर्थोको कोड़कर जो एक ही अर्थमें रुद (प्रसिद्ध) हो, उसको जाने वा कहै सो समभिरूढ़ नय है । जैसे-गो शब्द के पृथ्वी गमन आदि अनेक अर्थ होते हैं तथापि मुख्यताले गो नाम गाय वा वैलका ही ग्रहण किया जाता है सो उसको चलते, वैठते सोते सव अवस्थामें सब लोग गो ही कहते हैं तथा पीला Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ W ३२ अनवालवोधक कपड़े पहरने वाले को पीतांबर कहते हैं परंतु पीले कपड़े पहरने वाले सबको ही पीतांबर नहिं कहके श्रीकृष्णको ही पीतांबर कहते हैं क्योंकि यह शब्द श्रीकृष्ण में ही रूह या प्रसिद्ध हो गया है । १६ । जिस शब्द का जिस क्रियारूप अर्थ है उसी क्रियारूप परिणमे पदार्थको ग्रहण करै वा कहै सो एवंभूत नय है । जैसेपुजारीको पूजा करते समय ही पुजारी कहना अन्य समयमें नहि कहना । १७ । व्यवहार नय ( उपचार वा उपनय ) तीन प्रकारका है सद्भूत व्यवहार नय, असद्भूत व्यवहार नय, और उपचरित व्यवहार नय, इसका दूसरा नाम उपचरितासद्भूत व्यवहार नय भी है। १८ | एक अखंड द्रव्यको भेदरूप विषय करनेवाले ( जानने वाले) ज्ञानको सद्भूत व्यवहार नय कहते हैं। जैसे जीवके केवल ज्ञानादिक वा मतिज्ञानादिक गुण हैं. अथवा जीवको रागादिभावोंका कर्त्ता कहना क्योंकि जीवकी सत्ता में ही रागादिक भावरूप पर्याय होती हैं । १६ । जो मिले हुये भिन्न पदार्थों को प्रभेदरूप ग्रहण करै वा कहै सो प्रसद्भूत व्यवहार नय है। जैसे - यह शरीर मेरा है । श्रथवा मिट्टी के घड़ेको घीका घड़ा कहना, तथा जीवको द्रव्यकर्म या शरीरादिक नोकर्मीका कर्त्ता कहना । १६ | अत्यंत भिन्न पदार्थोंका जो श्रभेदरूप ग्रहण करै वा कहै सो उपचरित व्यवहार नय है । जैसे- हाथी, घोड़ा, महल मकान मेरे हैं तथा जीवको घटपटादिका कर्त्ता कहना । : Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । ૩૩ २० । जो शुद्ध द्रव्यको ग्रहण करे उसे शुद्ध निश्चय नय कहते हैं । जैसे- जीवको शुद्ध दर्शन ज्ञान अर्थात् केवल दर्शन केवल ज्ञानका कती कहना | २१ । जो अशुद्ध द्रव्यको ग्रहण करें उसे अशुद्ध निश्चय नय कहते हैं। जैसे जीवको क्षयोपशमरूप मतिज्ञानादिकका क कहना | -५०: ११. जिन वचन सेवाका उपदेश । कुंडलिया छन्द । देव अदेव नही लखै, सुगुरु कुगुरु नहि लुक | धर्म अधर्म गिनै नही, कर्म कर्म न चूक ॥ कर्म अकर्म न वूझ, गुण रु श्रगुण नहि जानहि । हित अनहित नहि सधै, निपुण मूरख नहि मानहि ॥ कहत बनारसि ज्ञान दृष्टि, नहि अघ श्रवेवहि । जैन वचन इगहीन, लखे नहि देव अदेव हि ॥ १ ॥ अर्थ-जिन वचन रूपी नेत्रोंसे रहित अज्ञानी अंधे होते हैं। उनके ज्ञान दृष्टि नहिं होती इस कारण वे मूर्ख न तो देव कुदेव को पहिचानते, न कुगुरु सुगुरुको जानते, न धर्म अधर्मको गिनते और न कर्म अकर्म ही समझते, न उनसे हित अहित ही सधता मूरख पंडितमें भी भेद नहिं मानते श्रतएव जैन शास्त्रोंका स्वाध्याय ( पठन पाठन ) करते रहना चाहिये ॥ १ ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनबालवोधक सवैया ३१ माया। ताको मनुज जनम सब निष्फल, मन निष्फल निष्फल जुगकान। गुण पर दोष विचार भेद विधि, ताहि महा दुर्लभ है हान ॥ ताको सुगम नरक दुख संकट, अगम्यपंथ पदवी निर्वान । जिनमत वचन दयारस गर्भित, जे न सुनत सिद्धांत बखान ॥ अर्थ-जिनमत वचन दयारस पूरित हैं ऐसे जैन सिद्धांत. को जो नहिं सुनता उस मनुस्यका जन्म पाना व्यर्थ है । उसका मन वा कान पाना भी व्यर्थ है। उसके लिये गुणदोपोंका विचार करनेको विवेक मिलना भी दुर्लभ है तथा उसके लिये नरकमें जाकर दुख संकट सहने तो सुगम है किंतु मोक्षपद पाना बहुत मुस्किल है ॥२॥ परपद ( छप्पय )। अमृतको विप कहैं, नीरको पावक मानहिं । तेज तिमिर सम गिनहि, मित्रको शत्रु बखानहिं ॥ पहुपमाल कहिं नाग, रतन पत्यर सम तुलहि। चंद्र किरण प्राताप स्वरूप, इहि मांति जु भुलहि ॥ • करूणा निधान अमलान गुण, प्रगट बनारसि जैनमत। परमत समान जो मन धरत, सो अजान मूरख अपत । ३॥ .. अर्थ-जैनमत (जैनागम) प्रगटतया निर्मल गुणवाली करुणाको (दयाकी ) खानि है। इसको जो कोई अन्य मतोंकी समान जानता है वह मूर्ख वा भवानी अमृतको तो विष कहता है और जलको मनि मानता है, प्रकाशको अंधकारके समान गिनता है तथा मित्रको शत्रु कहता है। पुष्पोंकी मालाको सर्प Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! चतुर्थ भाग । २५ और रतनको पत्थरको समान तुलना करता है। तथा चंद्रमाकी शीतल किरणोंको प्रतापकारी समझकर भूलता है ॥ ३ ॥ मरहटा छंद । शुभधर्म विकाश, पाप विनाशै, कुपथ उद्यप्पन हार मिथ्यामत खंडै, कुनय विहंडे, मंडै दया अपार ॥ तृष्णामद मारै. राग विडारै, यह जिन आगम सार । जो पूजे व्यावै, पढे पढावै, सो जगमाहि उदार ॥ ४ ॥ अर्थ--जो सार जिनागमको पढता पढाता है मनन करता वा पूजता है वह जगतमें उदार पुरुष है और वह शुभ धर्मको प्रकाशता है पापको नष्ट करता है कुमार्गको उत्थापन करनेवाला हैं, मिथ्यामतको खंडन करता है कुनयोंको दलता है अपार दया का मंडन करता है, तृष्णामदको मारकर राग द्वेपको छोड़ देता है ॥ ४ ॥ 4 १२. त्रेसठ शलाकापुरुष ( उत्तमपुरुष ) -:०:- ------ इस भरतक्षेत्रमें वर्त्तमान अवसर्पिणीकालके ६ विभाग में से वर्ष कम एक चौथा-दुखमासुखमा नामका काल ४२ हजार कोडाकोडी सागरका होता है। इसी कालमें २४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती ६ नारायण १ प्रतिनारायण और ६ बलभद्र इसप्रकार ६३ उत्तम पुरुष ( शलाकापुरुष) जगत्पूज्य होते हैं । इनके शिवाय ९ नारद ११ रुद्र और २४ कामदेव भी जगन्मान्य उत्तम } .11. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ जैनवालवोधकपुरुष होते हैं वे भी परंपराय मोक्षगामी होते हैं । सो गत चतुर्य फालमें नीचे लिखे ६३ उत्तम पुरुष होगये है। . . तीर्थकर उन्हें कहते है कि जो धर्मतीर्यके प्रवर्तक हों और स्वमिसे वा सर्वार्थसिद्धि प्रादिक उपरिके विमानमिसे (देवं. योनिसे ) चयकर किसी राजाधिराजकी पटराणीक गर्भ प्रा। और जिनके चार प्रकारके देवदेवांगनावोंद्वारा गर्भ, जन्म, तप, शान और मोक्ष कल्याणक हों । केवलझान प्राप्त होनेपर समस्त देशोंमें धर्मोपदेश द्वारा असंख्य जीवोंको मोक्ष मार्गमें लगाकर वा मुक्तकरके स्वयं मोक्षको प्राप्त होते हों। ऐसे तीर्थकर वर्तमानमें ऋषभनाथ १ अजितनाथ २ शंभवनाथ ३ अभिनंदन ४ सुमतिनाथ ५ पमप्रभ ६ सुपार्श्वनाथ ७ चंद्रप्रभ ८ पुष्पदन्त : शीतलनाथ १० श्रेयांसनाथ ११ वासुपूज्य १२ विमलनाथ १३ अनन्तनाथ १४ धर्मनाथ १५ शान्तिनाथ १६ कुंथुनाथ १७ अरनाथ १८ मल्लिनाथ १६ मुनिसुव्रत २० नमिनाय २१ नेमिनाथ २२ पार्श्वनाथ २३ और वर्द्धमान ये २४ हो गये हैं। चक्रवर्ति-वे होते हैं कि जो छह खंड राज्य करके अन्त में तपश्चर्यापूर्वक स्वर्ग मोक्षादिक उत्तम गातेको या नरक प्राप्त हों। ऐसे चक्रवर्ति १ भैरत २ सगर इमघवा ४ सनत्कुमार शान्ति. नाथ ६ कुंथुनाथ ७ अरनाथ ८ सुभौम : पद्मनाथ १० हरिपेण ११ जयसेन और १२ ब्रह्मदत्त ये बारह हो गये हैं। ___• कोई कोई तीर्थंकर नग्कसे भी मनुष्य योनिमें आते हैं । • में भारत चक्रवर्ति आदि तीर्थकर ऋषभनाथजीके सौ पुत्रोंमसे बड़े पुत्र थे । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ चतुर्य भाग। नारायण-तीन खंडके राजाधिराज होते हैं। नारायण दीक्षा 'धारण नहिं करते । उनका राज्यावस्थामें ही मरण होता है इस कारण वे नरकगामी होते हैं। नरकसे निकलकर फिर तीर्यकगदि होकर मोक्षपदको प्राप्त होते हैं। ऐसे नारायण वर्चमानमें अर्थात् गत चतुर्थ कालके अंतमें १ त्रिपिष्ट २ द्विपिष्ट ३ स्वयंभू ४ पुरुपोत्तम ५ नरसिंह ६ पुंडरीक ७ दचदेव ८ लक्ष्मण और ६ कृपण ये नव हो गये हैं। प्रतिनारायण-भी तीन खंडके अधिपति होते हैं। जिनकी मृत्यु राज्यावस्थामें ही सुदर्शन चक्रसे नारायणके हायसे होती है और फिर नारायण उन्ही तीनों खडोंका राज्य करता है । प्रतिनारायण भी नरक जाकर परंपरा मोक्षपदको प्राप्त होते हैं। ऐसे प्रतिना. . रायण १ अश्वग्रीव २ तारक ३ मेरुक ४ निशुम ५ मधुकैटभ ६ प्रहलाद ७ वलि ८ रावण और ६ जरासिन्धु ये नव हो गये हैं। वलभद्र-नारायणकी अपर माताके उदरसे उत्पन्न हुये नियमसे वडे भाई होते हैं । नारायण और बलभद्रमें अनन्यप्रीति होती है। नारायणकी मृत्युके पश्चात् बलभद्र मुनि होकर स्वर्ग अथवा मोक्ष ही जाते हैं। ऐसे वलभद्र १ विजय २ अचल ३धर्म. प्रभ ४ सुप्रभ ५ सुदर्शन ६ नंदि ७ नंदिमित्र ८ पद्म अर्थात् रामचन्द्र और ६ कृष्णके भाई बलदेवजी ये नव हो गये हैं। ___ इसी प्रकार : नारद ११ रुद्र और २४ कामदेवादिक भी हो गये हैं। इन सब उत्तम पुरुषोंका जिसमें चरित्र लिखा हो उस को पुराण वा प्रथमांनुयोग (इतिहास) कहते हैं। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालवोधक१३. निक्षेप। - १ युक्तिद्वारा सुयुक्त मार्ग होते हुये कार्यवशतः नाम स्थापना द्रव्य और भावमें पदार्यका न्यास (स्थापन) करना सो निक्षेप है। नितेप चार प्रकारके हैं-नामनिक्षेप, स्थापनानिक्षप, द्रव्यनिक्षेप और भावनिक्षेप। २।गुण जाति द्रव्य क्रियाको अपेक्षा विनाही अपनी इच्छानुसार लोकव्यवहारके लिये किसी पदार्थकी संज्ञा करनेको नाम निक्षेप कहते हैं। जैसे,किसीने अपने लड़के का नाम हाथी सिंह रख लिया। परंतु उसमें हाथी और सिंहके समान गुण जाति द्रव्य क्रिया कुछ भी नहीं है। ___३। धातु काष्ठ पाषाण आदि साकार वा निराकार पदार्थमें 'वह यह है' इसप्रकार अवधान करके निवेश (स्थापन ) करने को स्थापना निक्षेप कहते हैं। जैसे, पार्श्वनाथ भगवानकी प्रतिमाको पार्श्वनाथ कहना अथवा सतरंजके मोहरोंको हाथी घोड़ा, वजीर, वादशाह वगेरह कहना । नामनिक्षेपमें भूल पदार्थ की तरह पूज्य अपूज्य बुद्धि नहीं होती, स्थापना निक्षेपमें होती . है । जैसैं,-किसीने अपनेलड़केका नाम पार्श्वनाथ रख लिया तौ उस लड़केका सत्कार पार्श्वनाथकी तरह नहीं होता परन्तु पार्श्वनाथकी धातुपाषाणमयी प्रतिमा पार्श्वनाथ भगवानकास सत्कार होता है। ४। जो भूत भविष्यतकी पर्यायकी अपेक्षा वा मुख्यतालेकर वर्तमानमें कहना सो द्रव्यनिक्षेप है। जैसे,—राजाके पुत्रको . Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य भाग। ३६ (युवराजको ) राजा कहना । तथा भूतकालमें डिपुटी साहब थे उनका श्रीधा चले जानेपर भी डिपुटी साहव कहना। ५। वर्तमान पर्याय युक्त वस्तुको उसी रूप कहना सो भाव निक्षेप है । जैसे, राज्य करते पुरुषको राजा कहना। १४. आहिंसाका उपदेश । घनाक्षरी छंद । सुकृतकी खान इन्द्रपुरीकी नसनी ज्ञान, पापरजखंडनको पौनिरासि पेखिये। । भवदुख गवक वुझाइवेको मेघमाला, कमला मिलायवेको दूतीज्यों विशेखिये। सुगतिबधूसों प्रीति, पालवेको पालीसम, कुगतिके द्वारदृढ़ पागलगी देखिये। ऐसी दया कीजे चित, तिहलोक प्राणी हित. और करतूत काहू, लेखैमै न लखिये ॥१॥ अर्थ- जो दया पुण्य कार्योंकी खानि है, स्वर्गपुरी जानेके लिये नलैनीकी समान है, पापरूपी धूल उड़ानेके लिये आंधी है, संसारके दुखरूपी अग्निको वुझानेके लिये मेघमाला है, लक्ष्मीसे .(धनसे) मिलाप करानेके लिये होलियार दुती है। उत्तमगति सपी वधूसे प्रीति पालन करनेके लिये सखी समान है, कुगति Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालवोधकका द्वार बंद करनेके लिये मजबूत अर्गल समान है ऐसी तीन लोकके प्राणियोंकी हित करनेवाली दयाको ही चित्तमें धारण करो इस दयाधर्मके सिवाय दुसरोंकी किसी भी करतूतको हिसावमें ही मत लावो ॥१॥ अमानक छंद । जो पश्चिम रवि उगै, तिरे पापाणं जल । श्रो उलटै भुवि लोक, होय शीतल अनल ॥ जो मेरू डिग मगै, सिद्धि कहँ होय मल । तवहू हिंसा करत न उपजत पुण्य फल ॥ २॥ अर्थ-सूर्य कदाचित् पश्चिममें उदय हो जाय, जलपर पत्थर तिर सकता है, पृथिवी भी उलट सकती है, अग्नि शीनल स्वभाव वाली होना सहज है, सुमेरु पर्वत चलायमान हो सकता है, सिद्धि कदाच निष्फल हो सकती है। परन्तु जीवोंकी हिंसा करनेसे ( यज्ञादिकसे ) पुण्यकी प्राप्ति कदापि नहिं हो सकती ॥३॥ घनाक्षरी छंद । अगनिमें जैसे अरविंद न विलोकियत. ... सूर अथवत जैसे वासर न मानिये । सांपके वदन जैसे अमृत न उपजत, ... कालकूट खाये जैसे जीवन न जानिये । .. कलह करत नहिं पाइये सुजस जैसे . . . . . . . वाढत रसांस रोग नाश न वखानिये।. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । प्राणीवधमाहिं तैसे धर्मकी निसानी नाहि, याही वनारसी विवेक मन आनिये ॥ ३ ॥ अर्थ-अग्निमें कमल पैदा होते जैसे नहिं दीखते, सूरज के अंत होनेसे जैसें दिन नहिं माना जाता, सर्पके मुखसे कभी अमृत पैदा नहिं हो सकता, कालकूट विष खानेसे किसीका जीवन हो गया नहीं जाना गया, तथा कलह करनेसे जैसे किसी को सुयश मिला नहिं सुना गया, और शरीर में रसांस ( सूजन ) बढ़ने से किसीका रोग नाश हुवा जैसें नहि कहा जा सकता उसी प्रकार प्राणीवध ( जीवहिंसा ) में धर्मका नाम निशान भी नहिं हो सकता इसकारण मनमें विवेक लाकर पशुहिंसासे विरक्त ही रहना चाहिये ॥ ३ ॥ सवैया ३१ मात्रा | दीग्घ आयु नाम कुल उत्तम, गुण संपति आनंद निवास ! उन्नति विभत्र सुगम भवसागर, तीनभवन महिमा परकास ॥ भुजबलवंत नंतरूप छवि, रोग रहित नित भोग विलास । जिनके चित्त दयाल तिन्होंके, सब सुख होंय चनार सिदास ॥४॥ अर्थ- जिनके चित्तमें दया है अर्थात् जो दयालु हैं उनको दीर्घायु कुल उत्तम गुण संपत्ति, ध्यानंदका निवास, विभवकी उन्नति, भवसागर से तरना सुगम, तीन भुवनमें महिमाका प्रकाश होना, भुजामें बल, सुंदर रूप, रोग रहित शरीर, नित्य नये भोग विलास आदि समस्त प्रकारके सुख होते हैं ॥ ४ ॥ . ર Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालबोधक१५. चौदहवें कुलकर महाराज नाभिराय. --- --- तेरहवें कुलकरके कुछ ही समय बाद महाराजा नाभिराय हुये । ये चौदहवें कुलकर थे। इनके सामने कल्पवृक्ष प्रायः नष्ट हो चुके थे। क्योंकि तेरह कुलकरोंका समय भोगभूमिका था। जिस समयमें और जहां विना किली व्यापारके भोगोपभोगकी सामग्री प्राप्त होती रहती है उस समयको भोगभूमिका समय कहते हैं । यह भोगभूमि महाराज नाभिरायके सम्मुख नष्ट हो गई और कर्मभूमिका प्रारम्भ हुआ अर्थात् जीविकाके लिये व्यापार आदि कर्म ( कार्य) करनेकी श्रावश्यकता हुई। ___ इस समयके लोग व्यापारादिक कार्योंसे विलकुल अपरि। चित थे। खेती आदि करना कुछ नहिं जानते थे और कल्पवृक्ष नष्ट हो जाने के कारण अपनी भूख वा अन्य जरूरतें पूर्ण करनेके लिये बड़ी चिंता हुई तव व्याकुलचित्त होकर महाराजा नाभिरायके पास आये। ___यह समय युगके परिवर्तनका था। कल्पवृक्षोंके नष्ट हो जाने के साथ ही जल, वायु, आकाश, अग्नि, पृथ्वी श्रादिके संयोगसे धान्योंके अंकुर स्वयं उत्पन्न हुये और बढ़कर फलयुक हो गये तथा अन्यान्य फलवाले अनेक वृत्त भी उत्पन्न हुये । जल पृथ्वी आदिके परमाणु इस परिमाणमें मिले थे कि उनसे स्वयं ही वृक्षोंकी उत्पत्ति हो गई परंतु उस समयके मनुष्य इन वृत्तोंका उपयोग करना नहिं जानते थे। इस कारण महाराजा नाभिरायके Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य भाग। पास जाकर उन लोगोंने अपने सुधादिक दुःखोंको कहा और स्वयं उत्पन्न हुये वृत्तोंका प्रयोजन पूछा। महाराज नाभिरायने उनका भय दूर कर उपयोगमें आ सकने वाले धान्य वृत्त और फलके वृत्तोंको बताया और उनको उप. योग लानेकी रीति भी बताई । तथा जो वृक्ष हानि करनेवाले थे जिससे जीवन में बाधा आती और रोग आदिउत्पन्न हो सकते थे उनसे दूर रहनेके लिये उपदेश दिया। वह समय कर्मभूमिके उत्पन्न होनेका था । उस समय लोगों के पास वर्त्तन प्रादि कुछ भी नहीं थे अतएव महाराजा नाभिरायने हाथोके मस्तकपर मिट्टीके थाली आदि वर्तन स्वयं बनाकर अग्निमें पकाकर काममें लानेकी विधि बताई तथा नाभिराय के समयमें वालककी नाभिमें नाल लगी हुई दिखाई दी उसको काटनेकी विधि बताई। ___हाथोके माथेपर वर्तन बनाने तथा भोजन बनाना न जानने आदिके कारण इस समयके लोगोंको प्राज कलके मनुष्य विचारे असभ्य वा जंगली कहते और इसी परसे इतिहासकार परिवर्तन के इस कालंको दुनियांका बाल्यकाल समझते हैं परंतु जैन इति. हासकी दृष्टिसे उसं समयके लोग असभ्य वा जंगली नहीं थे, क्योंकि वह समय काल परिवर्तनका था। जिस प्रकार एक समाजके मनुष्योंको दुसरी समाजके चाल चलन अटपटे मालूम होते हैं और वे उनको अच्छी तरहसे संपादन नहिं कर सकते उसी प्रकार भोगभूमिके समयमें भोगोफ्भोग पदार्थ कल्पवृक्षोंसे स्वयं प्राप्त होते थे और वे मिलने बंद हो गये तो उन्हे अपना Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ जैनवालवोधकजीवन निर्वाह करना कठिनसा हो गया इस कारण महाराज नाभिरायका वह समय बड़ा विकट वा अटपटा मालूम दिया सो यह समयका प्रभाव था इस कारण जैन इतिहास उस समयके मनुष्योंको असभ्य नहिं कह सकता न वह जगतका बाल्यकाल था किंतु कर्म भूमिका बाल्यकाल था, उस समय जीवन निर्वाह के साधन बहुत ही अपूर्ण थे। महाराजा नाभिरायकी महारानीका नाम मरुदेवी था, मरुदेवी बड़ी ही विदुपी रूपवती पुण्यवती थी । महाराज नाभिराय फर्मभूमिकी प्रवृत्ति करनेवाले तथा सबसे पहिले धर्म मार्गको प्रकाशित करनेवाले भगवान् ऋपभदेवके पिता थे। भगवान् ऋषभनाथके उत्पन्न होनेके पंद्रह महीने पहिले महा राजा नाभिराय और महारानी मरुदेवीके रहनेके लिये इंद्रकी श्राज्ञासे कुवेरके देवोंने एक बड़ा सुन्दर नगर बनाया था। वह नगर ४८ कोश लंवा और ३६ कोश चौड़ा बनाया गया था। इस नगरका नाम अजोध्या रक्खा गया । वर्तमानमें यह नगरी बहुत छोटी और उजाड़ रह गई है : जिस देशमें यह नगर था, उसका नाम आगे जाकर सुकोशलदेश पड़ा था, इस कारण अजोध्याका एक नाम सुकोशला भी है । इस नगरीमें जो लोग भिन्न २ इधर उधरके प्रदेशोंमें रहते थे उन्हे लाकर देवोंने वसाया महाराज नाभिरायके लिये इस नगरके मध्य भागमें बहुत ही सुन्दर राजभवन बनाया गया था। इस नगरमें शुभ मुहर्त्तसे राजा .....का प्रवेश कराया गया । भगवान् ऋषभदेव इनके यहां उत्पन्न Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ चतुर्थ भाग। होनेवाले थे, इसलिये महाराज नाभिरायका इन्द्रोंने राज्याभिषेक कराया था। भगवान् ऋषभनायके उत्पन्न होनेके पूर्व पंद्रह मास तक महाराज नाभिरायके आंगनमें तीन वक्त रलोंकी वर्षा कुवेर किया करता था। __भगवानके गर्भ में आनेसे पहिले भगवानकी माता मरुदेवीने इस प्रकार सोलह सुपने देखे । १ सफेद ऐरावत हाथी, २ गंभीर आवाज करता हुआ एक बडा मारी बैल, ३ सिंह, ४ लक्ष्मीदेवीका कलसोंसे स्नान, ५ दो पुष्प मालायें, ६ तारों सहित चंद्रमंडल, ७ उदय होता हुआ सूर्य, कमलोंसे ढके हुये दो सुवर्ण कलश, ६ सरोवरमें क्रीड़ा करती हुई मछलियां, १० एक वडा भारी तालाब, ११ समुद्र, १२ हासन, १३ रत्नमय विमान, १४ पृथिवीको फाड़कर पाता हुआ नागेंद्रभवन १५ रत्नोंकी राशि, १६ विना धूयेकी जलती हुई अग्नि । इन सोलहों स्वप्नोंके देखे वाद माताने एक महान वैलको अपने मुख में प्रवेश करते हुये देखा। ये स्वप्न रात्रिके पिछले पहरमें देखे । प्रात:काल उठते ही मरुदेवी स्नानादिके पश्चात् महाराज नाभिरायके पास गई। महाराजने महारानीको अपने निकट सिंहासनपर विठाया। और महारानीने अपने स्वप्न कहकर सुनाये तव महाराजने अपने अवधिमानसे जानकर कहा कि तुम्हारे गर्ममें प्रथम तीर्थंकर १ प्रत्येक तीर्थकरके जन्मसे पहिले जन्मनगरकी रचना इन्द्रकी भाज्ञासे कुवेर बनाता है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जैनवालबोधक आये हैं। आषाढ़ सुदी २ उत्तराषाढ़ नक्षत्र के दिन भगवान ऋषभदेव महारानी मरुदेवी के गर्भमें आये । जब मगवान ऋषभ - देव गर्भमें प्राये तीसरे कालके ( अवनतिरूप परिवर्तन के ) चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष साढ़े आठ माह बाकी रह गये थे अर्थात् इतने वर्ष तीसरे कालके शेष बचे थे उस समय भगवान ऋपमदेव गर्भमें आये भगवानके गर्भ में आते ही इन्होंने व चार प्रकारके देवोंने प्राकर अजोध्या नगरीकी प्रदक्षिणा दी और माता पिताको नम-स्कार करके उत्सव ( गर्भ कल्याणकी क्रिया किया और देवियोंने माताकी सेवा करना प्रारंभ कर दी । -10% sorts १६. द्रव्योंके सामान्य गुण । १। गुणोंके समूहको द्रव्य कहते है । २ । द्रव्य के पूरे हिस्से में और उसकी समस्त पर्यायोंमें हालतों में) जो रहे उसको गुण कहते हैं। ३। गुणं दो प्रकारके होते हैं । एक संमान्य गुण, दूसरा विशेषगुण । ४। जो गुण समस्त (द्रव्योंमें ) व्यापै उसको सामान्यगुण कहते हैं । ५ । जो समस्त द्रव्योंमें न व्यापै उसे विशेषगुण कहते हैं । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। ४७ ६ । समान्यगुण अनेक हैं परंतु उनमें मुख्य गुण ६ हैं जसेअस्तित्व, वस्तुत्व. द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, गुरुलघुत्व. प्रदेशवत्व । ७ । जिस शक्तिके निमित्तसे न्यका कभी नाश न हो उसको अस्तित्वगुण कहते हैं। जिस शक्तिक निमित्तसे द्रव्यमें अर्थक्रिया हो उसको वस्तुत्वगुण कहते हैं । जैसे-घड़ेकी अर्थक्रिया जलधारण है। ___EI जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्य सदा एकसा न रहै और जिसकी पर्याय (हालत) बदलती रहें उसको द्रव्यत्वगुणा कहते हैं। ... १० जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्य किसी न किसी शानका विषय हो उसे प्रमेयत्वगुण कहते हैं। ११। जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्यका द्रव्यपणा कायम रहे अर्थात् एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप नहिं परिणमै और एक गुण दुसरे गुणरूप न परिणमै तथा एक द्रव्यके अनेक वा अनन्तगुण विखर कर जुदे २ न हो जावें उसको अगुरुलधुत्व गुण कहते हैं। · १२। जिस शक्तिके निमित्तसे द्रब्यका कुछ न कुछ प्राकार अवश्य हो उसे प्रदेशत्व कहते हैं। १३ । जिनमें उपर्युक्त गुण हैं वे द्रव्य कुल छह हैं जैसे, जीव पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 કેટ जैनवालबोधक १७. सत्यवचन प्रशंसा. छप्पय । गुणनिवास विश्वास वास, दारिद दुख खंडन । देव अराधन योग, मुक्ति मारग मुख मंडन | सुयश केलि आराम, धाम सजन मन रंजन । नाग वाघ वश करन, नीर पावक भय भंजन ॥ महिमा निधान संपति सदन, मंगल मीत पुनीत मग । सुखरासि वनानि दास भन, सत्य वचन जयवंत जग ॥ १ ॥ अर्थ- सत्य वचन जगतमें जयवंत हो क्योंकि - सत्य वचन गुणों का निवास है, विश्वासका स्थान है, दरिद्रोंका दुःख खंडनेवाला है । देवोंके द्वारा प्राराधनीय है । मुक्तिमार्ग मुखका मंडन यानी शोभा है। सुयशरूपी केलिके आरामका धाम ( घर ) है । सज्जनोंका मनरंजन करनेवाला है। सांप व्याघ्रको वश करनेवाला है । जल अनिका भय दूर करनेवाला है । महिमाका खजाना, संपदाका घर, मंगलकारक मित्र या पंवित्रताका मार्ग और सुखकी राशि है ॥ १ ॥ सवैया ३१ मात्रा | जो भस्मंत करें निज कीरति, ज्यों वन अग्नि दहै वन सोय!. जाके संग अनेक दुख उपजत, बढै वृक्ष ज्यों सींचत तोय ॥ जामैं धरम कथा नहिं सुनियत, ज्यों रवि वीच छांहिं नहि होय । सोही मिथ्या वचन बनारसि, गहत न ताहि विचक्षण होय ॥२॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। ४६ अर्थ-जिस प्रकार दावाग्नि वनको भल करती है उसी प्रकार जो असत्य वचन अपनी कीर्तिको भल कर देता है और जिस प्रकार जलके सींचनेसे वृक्ष बढ़ता है उसी प्रकार जिस के कारण अनेक दुख उपजते हैं तथा जिस प्रकार सूर्यके और पदार्थके वीचमें वह नहिं होती उस प्रकार जिसमें धर्मकी कया नहिं सुनी जाती ऐसे मिथ्या वचनको विचक्षण लोग कदापि नहिं अपनाते ॥२॥ रोडक छंद । कुमति कुरीत निवास, प्रीत परतीत निवारन । रिद्धसिद्ध सुख हरन, विपत दारिद दुखकारन ॥ परवंचन उतपत्ति, सहज अपराध कुलच्छन । सो यह मिथ्या वचन, नाहि श्रादरत विचच्चन ॥३॥ अर्थ-मिथ्या वचन कुरीतियोंका घर है, प्रीति और परतीतका नाशक है, रिद्धिसिद्धि और सुखका हरन करनेवाला है, दारिद और दुःखोंका कारण है, दुसरोंको ठगाई फरनेका उत्पत्ति स्थान है, स्वाभाविक अपराध व कुलच्छन है इस कारण वित्रक्षण पुरुष मिथ्या वचनका कदापि प्रादर नहिं करते ॥३॥ घनाक्षरी कविता। पावकतें जल होय, वारिधते थल होय, शस्त्रते कमल होय ग्राम होय बनतें । कूपते विवर होय, पर्वतते घर होय। वासवते दास होय हितू दूरजनते। . C Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालवोधकसिंहत कुरंग होय व्याल स्याल अंग होय, विष पियूप होय, माला अहिफणते। विषमतें सम होय संकट न व्यापै कोय, एते गुण होय सत्यवादीके वचनते ॥४॥ अर्थ-सत्यवादीके सत्य वचन कहनेसे अग्नि तो पानी हो जाती है, समुद्र सूखकर जमीन निकल पाती है, शस्त्र फूल हो जाता है, जंगल में गांव वस जाता है, कुया छोटासा छेद हो जाता है, पर्वत घर बन जाता है, इन्द्र नौकर बन जाता है, शत्रु मित्र हो जाता है,सिंह हाथीके समान सीधा और व्याल गीदड़के समान डरपोक बन जाता है, इसके सिवाय विप अमृत, सांपका फण फूलमाल, टेडा सीधा हो जाता है और किसी तरहका भी संकट नहीं आता। १८. युगादि पुरुष भगवान ऋषभनाथ। छप्पय। ऋषभदेव रिषिनाथ चूपम लच्छन तन सोहै। नाभिरायकुल कमल मात मरुदेवी मोहै ।। चौरासी लख पुन्य प्राव, शतपंचधनुष तन । नगर अयोध्या जनम कनकवपु वरन हरन मन । सर्वार्थसिद्धि गमन पदमासन केवल ज्ञानवर। शिरनाय नमौं जुगजोरि कर भोजिनंद भवतापहर ॥१॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य भाग। ५१ १। तीर्थंकरका नाम ऋषभदेव २१चरणोंमें चिन्ह वृपभ (बैल) ३। पिताका नाम नाभिराय ४। माताका नाम मरुदेवी। . ५। आयु चौरासी लाखपूर्वका ६ । शरीरकी ऊंचाई पांचसौ धनुप ७जन्मनगरी अयोध्यापुरी ८। शरीरका वर्ण सुवर्णसम ६। पूर्वजन्मस्थान सर्वार्थसिद्धि। १० । निर्वाणसमयका श्रासन पद्मासन महाराजा नामिरायके भगवान ऋषभनाथका जन्म चैत्र कृष्णा नवमी उत्तरापाढ़ नक्षत्रके पिछले भाग अभिजित् नक्षत्रमें हुवा। भगवानको जन्मसे ही मतिज्ञान श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान था। भगवानका जन्म होते ही स्वर्ग प्रादि देवोंके स्थानों में कई ऐसे कौतूहल पूर्ण कार्य हुये जिनसे चौंककर देवोंने अपने अवधिज्ञानसे भगवानका जन्म हुवा जान लिया और वे लव बड़ी धूमधामके साथ ऐरावत हाथीको लेकर अयोध्या आये। प्रथम तो अयोध्या नगरीकी तीन प्रदक्षिणा दी फिर इन्द्राणीको प्रसूतिघरमें भेजकर भगवानकोमगाया । इंद्राणी माताको मायामयी निद्रामें मग्नकरके भगवानको उठा लाई और इन्द्रको ला सौंपा इन्द्रने भगवानका रूप निरीक्षण करनेके लिये एक हजार नेत्र वनाये तौभी वह तृप्त न हुवा फिर ऐरावत हाथी पर विठा कर गाजे बाजे सहित समस्त देव सुमेरु पर्वत पर ले गये। भगवान Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जैन बालबोधक प्रथम स्वर्गके सौधर्म इन्द्रकी गोदीमें मेरु पर्वतपर गये थे और सनत्कुमार और महेंद्रस्वर्गके दो इन्द्र भगवान पर चमर ढोरते थे । ईशान स्वर्गका इन्द्र भगवानके शिरपर छत्र लगाये हुये था । सुमेरु पर उत्तर की तरफ पांडुक वनमें अर्धचन्द्राकार पांडुकशिला है उसपर भगवानको सिंहासनपर विराजमान किया और क्षीर सागर के जल भरे एक हजार आठ कलशोंसे अभिषेक कराकर इन्द्राणीने वस्त्राभूषण पहराये। अनेक प्रकार से नृत्य गीतादिसे सवजने भक्ति दिखाकर फिर गाजे बाजे सहित ऐरावत हस्तापर विठाकर भगवानको अयोध्या नगरी में लाये और नाभिराय महाराजकी गोदीमें देकर तांडवनृत्य करके सब इन्द्रादिक देव अपने २ स्थान गये फिर नाभिराय महाराजने भी पुत्र जन्मका बड़ा उत्सव किया । ऋषभदेव धर्मके सबसे पहिले प्रकाशक थे इस कारण इनका नाम वृषभस्वामी ( वृपभधर्मके, स्वामी - नाथ) रक्खा । माता पिता इन्हें वृषभ कह कर पुकारते थे । वालक भगवानकी सेवाके लिये इन्द्रने अनेक देव देवियां सेवामें रख छोड़ी थीं उनके द्वारा लालन पालन वा खेल करते हुये दोजके चंद्रमा के समान बढ़ते थे। भगवान बड़े सुंदर थे सवको मनभावते थे । देवगण भगवानको बरावरही अपना बालक शरीर बनाकर भगवान के साथ खेलते थे । भगवान के लिये समस्त वस्त्र प्राभूषण नित्य नये स्वर्ग से आया करते थे । भगवान् ऋषभ स्वयंभू थे उन्होंने विना पाठशाला में पढ़े ही समस्त प्रकारका ज्ञान वा विद्यायें प्राप्त करली थीं । भगवानने Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । ५३. गणित ज्योतिष, छंद शास्त्र, अलंकार, व्याकरण, चित्रकला, लेखनप्रणाली संगीतशास्त्र श्रादि समस्त विद्याओंमें पारदर्शिता प्राप्त की थी । देवबालकों के साथ समस्त प्रकारके खेल खेलते वा जल क्रीड़ा तैरना आदि मनोविनोद करते रहते थे । भगवानको वाल चेष्टायें सबको मनोमुग्धकर होती थीं । उनके समस्त प्रकारके कार्य वा चेष्टायें परोपकारार्थ ' ही हुवा करती थीं । युवावस्था होनेपर भगवानके पिता नाभिरायने विवाह करनेको कहा | भगवानने भी समस्त पृथिवीको अपने आदर्श चरित्रसे चलाने के लिये विवाहादि समस्त प्रवृत्ति करने के लिये विवाह की सम्मति दी । वह सम्मति केवल 'न' शब्द बोलकर - ही दो थी और महाराजने कच्छ महाकच्छ नामके दोनों राजाओंकी दो कन्या यशस्वती और सुनदासे उनका विवाह करा दिया एक दिन महारानी यशस्वतीने पिछली रात्रिमें चार स्वप्न देखे - प्रथम स्वप्न में मेरुपर्वतद्वारा समस्त पृथिवीको निगलते हुये देखा दूसरे स्वप्न में चंद्र और सूर्य सहित मेरुपर्वत देखा । तीसरे स्वप्न में कमलों सहित एक तालाब देखा और चौथे स्वम समुद्र देखा । प्रातः काल उठकर महारानी यशस्वतीने भगवान् ऋषभ के पास जाकर स्वप्नोंका फल पूछा तौ भगवानने इन स्वप्नोंका फल छह खंडपर राज्य करनेवाले चक्रवर्ती पुत्रका गर्भ में आना बताया । • चैत्रकृष्ण नवमी के दिन जब ब्रह्मयोग उत्तरापाढ़ नक्षत्र तीनं लग्न और चंद्रमा धनराशिपर था तब भगवान के प्रथमपुत्र भरत Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ जनवालवोधक चक्रवर्तिका जन्म हुआ और भगवानने अपने पुत्र भरतके अन्नप्राशन, मुंडनकर्म कर्णछेदन यज्ञोपवीतधारण आदि समस्त ( षोड़श संस्कार ) संस्कार विधिपूर्वक कर समस्त लोगोंको दिखाये | भरतके पश्चात् भगवानके वृपभसेन, अनंत विजय, महासेन, अनंतवीर्य, प्रच्युत, वीर, वीरवर, श्रीपेण, गुणसेन, जयसेनादिक १२ पुत्र और हुये, तथा इसी यशस्वतीदेवी से एक कन्या हुई जिसका नाम ब्राह्मी था । इनके सिवाय दुसरी स्त्री सुनंदासे बाहुवली नामके एक पुत्र मौर सुंदरी नामकी एक कन्या उत्पन्न हुई । सब मिलाकर भगवान १०३ पुत्र कन्यायोंके पिता थे । एक दिन भगवानका चित्स जगतमें अनेक भिन्न २ प्रकारको कलाओं और विद्याओंके प्रचारके लिये उद्विग्न होने लगा उसी समय उनके पास उनकी दोनों कन्यायें ब्राह्मी और सुन्दरी आई इनकी इस समय युवावस्था प्रारंभ ही हुई थी। दोनों को भगवानने अपनी गोदी में बिठाया और अ आ इ ई, यदि स्वरोंसे प्रारंभ करके अक्षरज्ञान प्रारंभ कराया और इकाई दहाई यादि से अंकगणित पढ़ाना प्रारंभ किया। भगवान ऋषभदेव के चरि त्र में अपने पुत्रोंके पढ़ानेका हाल कन्यायोंके पढ़ानेके बाद आया है इससे अनुमान होता है कि भगवानने स्त्री शिक्षाका महत्व विशेष प्रगट करने के लिये ही ऐसा किया था कि स्त्रीशिक्षा ही पुरुषशिक्षाका मूल कारण है । इन दोनों कन्याओंको व्याकरण छंद न्याय काव्य गणित प्रलंकार संगीतादि अनेक विषयोंकी ܢ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। शिक्षा दी थी। इन दोनों कन्याओंको पढ़ाने के लिये ही भगवानने स्वायंभुव नामका व्याकरण बनाया था। इसके शिवाय ईद अलंकार तर्क श्रादि शास्त्र भी बनाये थे। पुत्रियोंको पढ़ानेके वाद मरतादि १०१ पुत्रोंको भी भगवानने समस्त विद्यायें पढ़ाई । इनमें कई पुत्रोंको खास करके कोई २ विद्या विशेषताके साथ पढ़ाई । जैसे-भरतको नीतिशास्त्र नृत्य शास्त्र, वृषभलेनको संगीत शास्त्र और वादन शास्त्र, अनंतविजयको चित्रकारी नाट्यकला और मकान बनानेकी विद्या विशेष प्रकारसे पढ़ाई थी। बाहुवलीको कामशास्त्र वैद्यकशास्त्र धनुर्वेद विद्या और पशुओंके लक्षणोंका जानना व रत्न परीक्षाका ज्ञान कराया था। इसी प्रकार अन्यान्य समस्त विद्यायें प्रजामें प्रचार करनेके लिये अपने पुत्रोंको पढ़ाई थीं। नाभिरायके समय जो धान्य फल स्वयं प्राकृतिक उत्पन्न • हुये थे उनमें भी रस आदि कम होने लगा और वे सब वृक्ष क्षीण होने लगे तब समस्त प्रजा महाराज नाभिके पास आई और अपने इन कष्टोंको कहा तो महाराजने सबको भगवानके पास पहुंचाया तव भगवानने आर्यखंडकी प्रजाके कष्ट दूर कर नेको और उनके कृपि आदि व्यवहार बनानेके लिये इन्द्रको आज्ञा करी और इंद्रने कृपिकार्य वा वाणिज्यादि समस्त कार्य प्रजा जनोंको वताये अर्थात् जिनमंदिरोंकी रचना की, देश प्रदेश नगर श्रादिकी रचना की, सुकोशल, अवंती, पुंद्र, अंध्र, अस्मक, रम्यक, कुरु, काशी, कलिंग, अंग, वंग, सुहन्न,समुद्रक, कश्मीर उसीनर, प्रानर्त्त, वत्स, पंचाल मालव दशार्य कच्छ मगध वि. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपालवोधकदर्भ कुरुजांगल करहाट महाराष्ट्र सौराष्ट्र आभीर फोकण वनवास प्रांध्य कर्णाट कौशल चौल केलर दास अभिसार सौवीर सुरसेन, अपरांत, विदेह, सिंधु,गांधार, पवन, चेदि पल्लव कांबोज आरद वालीक तुरुष्क शक और केकय इन घावन देशोंका विभाग किया। ___ इन देशों से कई देश ऐसे थे जिनमें अन्नकी उत्पत्ति नदियोंसे जल सींचकर की जाती थी और कई ऐसे थे जिनमें वर्षा के जलसे खेती हो सकती थी और कई देश दोनों प्रकारके थे परंतु कश्योंमें जलकी बहुलता व कईयोंमें कमी थी। प्रत्येक देशके राजा लोग भी नियत कर दिये थे। कई देश ऐसे थे जो लुटेरों शिकारी और पशुओंको पालनेवाले शूद्रोंके अधीन थे प्रत्येक देशमें राजधानी वनाई गई थी। छोटे वडे गावोंकी रचना इस प्रकार बनाई थी। जिनमें कांटों की बाडसे घिरे हुये घर थे और जिनमें बहुधा किसान शूद्र रहते थे ऐले १०० घरोंकी वस्तीको छोटा गांव और ४०० घरों की वस्तीवालेको बडा गांव बताया। छोटे गांवकी सीमा एक कोशकी बड़े गांवकी दो कोशकी रक्खी गई और गावोंकी सीमा श्मशान, नदी, वडके झुंड, ववूल आदिके कांटेदार वृत्तोंसे तथा पर्वत गुफाओंले बांधी गई थी। गांवोंको बसाना, उपभोग करना गांव निवासियोंके लिये नियम बनाना, गांवकी अन्य आवश्यक. ताओंको पूरा करने श्रादिका अधिकार राज्यके अधीन रक्खा । जिन वडे गावोंमें बडे २ महल हवेलियां थी, वडे २ दरवाजेथे और जिनमें वडे २ प्रसिद्ध पुरुष वसाये थे उनका नाम नगर (शहर ) रक्खा गया। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। नदियों और पर्वतोंसे घिरे हुये गावोंको खेड (जिनको आजकल खेड़ा कहते हैं) और पर्वतोंसे घिरे हुये स्थानोंको खर्चट नाम दिया गया । जिन गावोंके पास पास पांव सौ घर थे उन्हें मांडव और समुद्रके पास पासवाले स्थानोंको 'पत्चन ( पट्टण ) तथा नदीके पासवाले ग्रामोंतो द्रोणमुख संज्ञा दी । राजधानियों के पाठ श्राप लौ गाव, द्रोणमुख गावोंके अधीन चार चार सौ गांव और खटोंके अधीन दो दो सौ गांव रखे गये। भगवानने प्रजाको शस्त्रधारण करना उनका उपयोग करना खेती करना, लेखन, व्यापार विद्या शिल्प कला, हस्तकौशल आदि समस्त कारीगारी बताई। उस समय जिन्होंने शस्त्रधारा कर प्रजासी रक्षाका काम स्वीकार किया उनको तो क्षत्रिय और जिन्होंने नेती, व्यापार, पशुपालनका कार्य स्वीकार किया उन्हें वेश्य और इन दोनोंकी सेवा करनेका कार्य स्वीकार किया उन्हे शूद्रवर्ण स्थापन किया । पहिले वर्णव्यवहार न था, यहोंसे वर्णव्यवहार चला। इस प्रकार कर्मयुग वा कर्मभृमिक्षा प्रारंम भगवान् अपमेंश्वरने पापाढ कृष्णा प्रतिपदाको किया था। इस कारण भगवान कृतयुगके करनेवाले युगादि पुत्य कहलाते हैं और इसी लिये समस्त प्रजा उन्हें विधाता, नष्टा, विश्वकर्मा आदि नामोस पुकारने लगी थी। ___ इस युगके प्रारंभ करनेके कितने हीचर्पवाद नाभिराजमदाराजके द्वारा भगवान् अपभदेव सम्राट् पदवीसे विभूपित किये Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनबालबोधकगये और राज्याभिषेक किया सब क्षत्रिय राजाओंने भगवानको अपना स्वामी माना। भगवानने भी अपने पिताके समान ही 'हा' 'मा' 'धिक्' इन शब्दोंके वोलनेको ही दंड विधान रक्खा था क्योंकि उस समय की प्रजा वडी सरल शांत और भोली थी इस कारण इतने ही दंडको बहुत कुछ समझती थी। फिर भगवान्ने एक एक हजार राजाओंके ऊपर चार महा मंडलेश्वर राजाओंकी स्थापना की। इनके नाम-हरि, अकंपन, काश्यप और सोमप्रभ थे । इन चारों ही राजाओंने चार चार वंशोंकी स्थापना की। हरिने हरिवंश, अकंपनने नाथवंश, काश्यप ने उग्रवंश और सोमप्रभने कुरुवंश चलाया । वे उक्त चारों ही वंशोंके नायक हुये । तथा अपने १०१ पुत्रोंको भी पृथिवी तथा अन्यान्य संपत्ति वांटी। सबसे पहिले भगवान्ने इक्षुके (सांटेके) रसको संग्रह करनेका उपदेश दिया था इससे भगवान् इक्ष्वाकु कहाये और इसी कारण आपके वंशका नाम इक्ष्वाकुवंश प्रसिद्ध हुआ। और कच्छ महाकच्छ आदि नरेशोंको अधिराज पद दिया। और अपना समय सदा परोपकारमें ही लगाया और लोगोंकी इच्छानुसार दान दिया। . एक दिन भगवान्के सन्मुख इन्द्रने मनो विनोदकेलिये गंधर्व देव तथा नीलांजना आदि देवांगनाओंका नाच करवाया उस समय नीलांजनाकी नाचते नाचते ही प्रायु पूर्ण हो गई, इन्द्रने तत्काल ही उसकी जगह दूसरी अप्सरा नाचनेको खडी कर दी Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ चतुर्थ भाग। । सर्वसाधारणको तो इस फेर फारकी बात मालूम न हुई परंतु भगवान् अवधिज्ञानी थे, इनसे क्यों छिप सकती थी । वश ये इस प्रकार नीलांजनाकी आयु पूरी होते देख अपने शरीरादि संसारकी अनित्यता समझ वैराग्यको प्राप्त हो गये उसी वक्त पांचवे स्वर्गसे लोकांतिक देव पाये और नमस्कार पूजादि करके भगवान्की प्रशंसा की एवं उनके वैराग्यको दृढ कर चले गये इन्द्रादि देव भी पालकी लेकर आगये भगवान्ने भरतका राज्या. भिषेक किया और फिर आप तपोधारण करनेको पालकीमें बैठ कर सिद्धार्थ नामक वनको (जिसको प्रयागारराय भी कहते थे) जो अयोध्याले न तो पास ही था न बहुत दूर था, चल दिये।वनमें जाकर पंचमुष्टि लोच करके सिद्धोंको नमस्कार कर मुनिपद धारण कर लिया। दीक्षाके बाद भी देवोंने भक्ति पूजा करके तपः कल्याणक किया। भगवानको तप धारण करते ही मन:पर्यय ज्ञान हो गया। - भगवानके तप धारण करनेके समय साथमें अनेक राजा लोग आये थे, भगवानकी देखा देखी चार हजार राजाओंने भी नग्नमुद्रा धारण कर ली थी। भगवान्ने तो एकदम ईमहिनेका उपचास धारण कर कायोत्सर्ग ध्यान करना प्रारंभ कर दिया ये एकदम निश्चल हो कर तिष्टे परंतु राजाओंने जो दीक्षा ली थी वे सुधादि परीपह सहने में असमर्थ होकर बनके फल मूल खाने लगे, नदी नालाओंका जल पीने लगे। वन देवताओंने यह क्रिया जैनमुनिकी क्रियाले विरुद्ध देखकर उनको धमकाया तब नग्न. पन छोड वृत्तोंकी छाल वगेरहके कपड़े पहर कर नाना प्रकार के Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [: ६० जैनवालबोधक भेष उनने धारण कर लिये । उसी समय भगवानके पोते मरीचिने सांख्य शास्त्रकी रचना करके लोग अपनी ओर मकाये उसी समय सब मिलाकर तीन सौ तिरेसठ ३३ प्रकार के मत उन्होंने धारण किये थे । भगवानने ६ महीनेका उपवास पूर्ण करके भोजनार्थ विहार किया, लोग मुनिके प्रहारकी विधि नहिं जानते थे इस कारण कोईने कुछ कोईने कुछ ला ला कर भगवानको देना चाहा परंतु भगवान् उनकी ओर देखते तक नहि थे । इस प्रकार फिरते २ छह माहसे कुछ ऊपर हो गये तब फुरुजांगल देशके हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभके छोटे भाई श्रेयांसको भगवान् के दर्शन होते ही जातिस्मरण हो गया और पूर्व जन्ममें मुनिको आहार दिया था उस समयकी विधि याद आने से भगवानको त्वरित ही नवधाभक्तिपूर्वक श्रद्धान करके वैशाखमुदी ३ तृतीयाको इतुरसका दान किया जिससे उस राजाके घर इन्द्रादि देवोंने पंचाश्चर्य किये और उसी दिन अक्षय तृतीया पर्व प्रारंभ हुआ उस दिन भी इक्षुरसका ही भोजन बनाया जाता है ! एक दिन भगवान् विहार करते २ पुरिमलात नामक नगरके पासवाले शक्र नामक वनमें जाकर ध्यानारूढ़ हुये थे सो फागुण वदि एकादशी के दिन चार घातिया कर्मोका नाश करके केवलज्ञान प्राप्त किया और भगवान् अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान अनंत सुख श्रौर अनंतवीर्ययुक्त हो गये । भगवान्को केवलज्ञान प्राप्त होते ही इन्द्रादि चार प्रकारके देवोंको प्राकृतिक रीतिसे खबर हो गई । वे सबके सब ज्ञान कल्याण Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। करनेको श्राये, कुवेरने भगवान् जहां पर ये वहीं पर ४८ कोश लंवा चौड़ा एक सभामंडप बनाया जिसको समवशरण कहने है। समवसरण सभाने १२ समा थीं उसके बीचमें तीन कटनी. दार वेदी पर सिंहासन पर भगवान अधर विराजमान थे। दारह सभासे पहिली सभा भगवानक ८४ गणधर थे। दूसरी में कल्पवाली देवोंकी देवांगनायें, तीसरीमें श्रायिका प्रादि मनुप्योंकी स्त्रियां, चौथी में ज्योतिषी देवोंकी देवांगनायें, पांचवीने व्यंतरणी, वडोमें भवनवासिनी देवियाँ, सातवी सभा भवन चासी देव, आठवीनं व्यंतर देव, नवमीमें ज्योतिकदेव, दशवीमें कल्पवासी देव, ग्यारहवी सभामें चक्रवर्ती, राजा, महाराजा, और सर्वसाधारण मनुष्य और बारहवी सभाम सिंह गाय बैल हिरण सर्प आदि समस्त पशु पक्षी थे। भगवानके समवसरणमें किसीको भी पानेको मनाही नहीं थी, सब ही जीव धर्मोपदेश सुननेको आते थे । भगवानकी तीन वक्त सबेरे टुपहर सामको वाणी खिरती थी। वह अनतरमयी मेघगर्जनावत् दिव्यध्वनि होती थी सो समस्त प्रकारके जीव अपनी २ भाषामें समझ लेते ये जो मनुष्य नहि समझते थे वा विशेष कोई धर्म कथा सुनना होती थी, वह गणधरोंसे प्रश्न करके सब संशय दूर कर लेते थे। भगवानके वृपभसेनादि ८४ गणधर थे। शकट वनसे उठकर भगवानने कुरुजांगल, कौशल, पुंद्र, चेदि अंग वंग मगध अंत्र कलिंग आदि समस्त देशोंमें विहार करके अपने उपदेशसे असंख्य जीवोंको मोक्षमार्गमें लगाया। जब छोटे भाइयोंने भरतकी आक्षा न मान भगवानसे प्रार्थना Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जैनवालवोधककी कि आप हमारे स्वामी हैं आपहीने हमें राज्य दिया है हम अव भरतको नमस्कार नहिं कर सकते तब भगवानने उपदेश देकर समझाया कि अभिमानकी रक्षा तो केवल मुनिव्रत धारण करनेसे ही हो सकती है सो तुम्हे भरतकी आहा मानना अस्वीकार है तो मुनिदीक्षा ग्रहण कर लो तव भगवानसे ही दीक्षा लेकर सब भाई मुनि हो गये। एकमात्र बाहुवलीने दाना नहि ली। भरतने जब चौथे ब्राह्मण वर्णकी स्थापना की थी तब भगवानसे पूछा कि मैंने एक ब्राह्मणवर्ण स्थापन किया है सो इस. काकुल खोटा परिणाम तो नहिं होगा तब भगवानने उत्तर लिया था कि चतुर्थकालमें तो ये सब ठीक रहेंगे परंतु पंचम कालमें ये सब ब्राह्मण जैनधर्मको छोड़कर जैनधर्मके द्वेषी हो जांयगे। भगवान ऋषभदेवने एक हजार वर्ष चौदह दिन कम एक लाख पूर्वतक समवशरण सभामें उपदेश दिया था। जब आयु के १४ दिन रह गये तव उपदेश देना बंद हो गया और आपने पोपसुदी १५ को कैलास पर्वतपर जाकर शुक्ल ध्यान घर दिया । श्रानन्द नामके पुरुप द्वारा भगवानका कैलास पर्वतपर जाना सुन भरत चक्रवर्ती भी कैलास पर गया और १४ दिनों तक भगवानकी सेवा पूजा की, अंतमें माघ वदी १४ के दिन सूर्योदयके समय अनेक मुनियों सहित भगवान ऋपभदेव मोक्षको पधार गये और देवोंने अाकर निर्वाण महोत्सव किया। भगवानके मोक्ष चले जाने पर भरतको बड़ा शोक दुवा था । · परंतु वृषभसेन गणधरके समझानेसे शोक शांत हो गया। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । १९. षद्रव्योंके विशेषगुण। १ । जिसमें चेतना गुण पाया जाय उसको जीवद्रव्य कहते हैं। २। जिसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ग पाये जाय उसको पुदगल कहते हैं । पुदगलके दो भेद है । एक परमाण दूसरा स्कंध । ३। सबसे छोटे पुदगलको परमाणु कहते हैं । अनेक परमाणुओं के बंध (पिंड ) को स्कंध कहते हैं। . ५अनेक चीजोंमें एकपनेका छान करानेवाले सबंध विशेष को बंध कहते हैं। ६। आहार वर्गणा, तैजसवर्गणा, भापावर्गणा, मनोवर्गणा, कार्माणवर्गणा आदि २२ प्रकारके स्कंध होते हैं। ७। औदारिक क्रियिक, आहारक, इन तीन शरीररुप परिणमै उसको श्राहारवर्गणा कहते हैं। ८। मनुष्य तिर्यचके स्थूल शरीरको औदारिक शरीर कहते हैं। जो छोटे वडे.एक अनेक आदि नाना क्रियायोंको करै ऐसे देव नारकियोंके शरीरको वैक्रियिक शरीर कहते हैं। १०। छठे गुणस्थानवार्ती मुनिक तत्वोंमें कोई शंका होनेपर केवली वा श्रुतकेवलीके निकट जानेके लिये मस्तकमसे एक हाथका पुतला निकलता है उसको पाहारक शरीर कहते है Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालवोधक११ । औदारिक और वैक्रियक शरीरोंको कांति देनेवाला तेजस शरीर जिस वर्गणासे वनै उसको तैजसवर्गणा कहते हैं। १२। जो वर्गणाय शब्दरूप परिणमै उनको भापावर्गणा कहते हैं। १३ । जिन वर्गणाओंसे अष्ट दलाकार पुप्पको समान द्रव्यमन बनै उनको मनोवर्गणा कहते हैं। १४। जो कार्माण शरीररूप परिणमैं उसको कार्माणधर्गणा कहते हैं। १५ । ज्ञानावरणादि अष्टकर्मों के समूहको कामांण शरीर कहते हैं। · १६ तेजस और कार्माण शरीर समस्त संसारी जीवोंक होता है और ये दोनों शरीर दूसरी पर्याय या गतिम साथ जाते हैं। १७। गतिरूप परिणमें जीव और पुद्गलको जो गमनमें सहकारी हो, उसको धर्मद्रव्य कहते हैं । जैसे मछलीको चलनेके लिये सहायक जल है। १८ गतिपूर्वक स्थितिरूप परिणमे जीव और पुदगलको जो स्थितिमें सहायक हो उसे अधर्मद्रव्य कहते हैं। १६ जो जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल इन पांचों द्रव्योंको ठहरनेके लिये जगह दे उसको आकाशद्रव्य कहते हैं। २० । जो जीवादिक द्रव्योंके परिणमनेमें सहकारी हो उसको कालद्रव्य कहते हैं। जैसे कुम्हारके चाकके घूमनेके लिये लोहे. की कीली। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। २१ । कालद्रव्य दो प्रकारका है एक निश्चयकालद्रव्य दूसरा व्यवहार काल। • २२ । कालद्रव्यको अर्थात् लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेशमें एक एक कालाणु स्थित है उन सबको निश्चयकाल कहते हैं । २३ । कालद्रव्यको घड़ी दिन मास आदि पर्यायोंको व्यवहारकाल कहते हैं। २४ । गुणके विकार (पलटने )को पर्याय कहते हैं । २५ । द्रव्यमें नवीन पर्यायको प्राप्तिको उत्पाद कहते हैं। २६ । द्रव्यको पूर्व पर्यायके त्याग वा नष्ट होनेको व्यय कहते हैं। ___ २७ । प्रत्यभिज्ञानको कारणभूत, द्रव्यको किसी अवस्थाकी नित्यताको ध्रौव्य कहते हैं। २८। जीव द्रव्यमें चेतना सम्यक्त्व, चारित्र आदि विशेष गुण है । पुद्गल द्रव्यमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि विशेष गुण है । धर्म द्रव्यमें गतिहेतुत्व वगेरह, अधर्म द्रव्यमें स्थितिहेतुत्व वगेरह, आकाश द्रव्यमें अवगाहनहेतुत्व वगेरह और कालद्रव्यमें परिणमनहेतुत्व वगेरह विशेष गुण हैं। २६ । प्राकाश एक ही सर्वव्यापी अखंड द्रव्य है। ३० । जहांतक जीव पुदगल, धर्म, अधर्म, काल ये पांच द्रव्य हैं उसको लोकाकाश कहते हैं और लोकसे बाहरके प्राकाशको अलोकाकाश कहते हैं। ३१ । लोककी मोटाई उत्तर और दक्षिण दिशामें सब जगह सात राजू है। चौड़ाई पूर्व और पश्चिम दिशामें मूलमें ( नीचे Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालवोधकजड़में ) मात राज है । ऊपर क्रमसे घटकर सातराजुकी ऊंचाई पर चौड़ाई एक राजू है । फिर क्रमसे बढ़कर साढे दश राजूकी ऊंचाईपर चौड़ाई पांच राजू है। फिर क्रमसे घटकर चौदह राज, की ऊंचाई पर एक राजू चौड़ाई है और ऊर्ध्व और अधादिशा 'में ऊंचाई चौदह राजू है। ३२। धर्म और अधर्म द्रव्य एक एक अखंह द्रव्य है और दोनों ही समस्त लोकाकाशमें व्याप्त हैं। ___३३ । आकाशके जितने हिस्सेको एक पुद्गल परमाणु रोक उतने श्राकाशके क्षेत्रको एक प्रदेश कहते हैं। ३४ । पुदगन्त द्रव्य ( परमाणु ) अनंतानंत हैं और वे सम लोकाकाशमें भरे हुये हैं। ___३५ । जीव द्रव्य भी अनंतानंत हैं और वे सब लोकाकाशमें भरे हुये है। ___३६ । एक जीव, प्रदेशोंकी अपेक्षा तो लोकाकाशके वरावर परंतु संकोच विस्तारके कारण अपने शरीरके प्रमाण है और मुक्त जीव अंतके शरीर प्रमाण है। मोक्ष जानेसे पहिले समुद्धात करनेवाला जीव ही लोकाकाशके वरावर होता है। ३७ । मूल शरीरको बिना छोड़े जीवके प्रदेशोंके बाहर विकलनेको समुद्धात कहते हैं। ___३८ । बहुप्रदेशी द्रव्यको अस्तिकाय कहते हैं। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और श्राकाश ये पांच द्रव्य तौ अस्तिकाय हैं। काल द्रव्य वहुप्रदेशो नहीं है इसलिये काल द्रव्य अस्तिकाय नहीं है। . ३६ । पुद्गल परमाणु भी एक प्रदेशी है परंतु वह मिलकर Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । ६७ बहुप्रदेशी हो सकता है इसकारण शक्तिकी अपेक्षा उपचारसे पुदुगल परमाणुको बहुप्रदेशी कहा गया है 1 '४० 1 भावस्वरूप गुणों को अनुजीवी गुण कहते हैं । जैसे-सम्यक्त्व, चारित्र, सुन, चेतना, स्पर्श, रस, गंध, वर्णादिक । '२१ | वस्तुके श्रभावस्वरूप धर्मको प्रतिजीवी गुण कहते हैं, जैसे -- नास्तित्व, अमूर्त्तत्व, श्रचेतन वगेरह | ४२ । अभाव चार प्रकारका है । प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और प्रत्यंताभाव . ४३ । वर्तमान पर्यायका पूर्व पर्यायमें जा प्रभाव है उसको प्रागभाव कहते हैं । ४४. आगामी पर्यायमं वर्त्तमान पर्याय के प्रभावको प्रध्वंसा भाव कहते हैं । ४५ | पुद्गल द्रव्यकी एक वर्त्तमान पर्यायमें दूसरे पुद्गल की वर्तमान पर्यायके अभावको अन्योन्याभाव कहते हैं। ४६ । एक द्रव्यमें दूसरे द्रव्यके अभावको अत्यंताभाव कहते हैं । २०. सत्संगति. :c' मत्तगयंद सो करुगानि धर्म विचारत, नैन विना लखिको उमाहै । -सो दुरनीति धेरै यश हेतु सुधी विन आगमको अगादे || Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालवोधकसो हिय शून्य कवित्त कर, समता विन सो तपसों तनदाहै। सो थिरता विन ध्यान धरै शठ, जो सतसंग तजै हित चाहै। अर्थ-जो मनुष्य सतसंगतिको छोड़कर हित चाहता है सो मानो, दयाके विना धर्म चाहता है, अथवा अंधा होकर देखने को तैयार होता है, अथवा यश पानेकी इच्छासे दुर्नीति (अन्या. याचरण ) करता है अथवा विना बुद्धि के आगमका अवगाहन करना चाहता है, अथवा हृदयशून्य होकर कविता करना चाहता है अथवा समताके विना तपस्या करके शरीरको जलाता है, तथा थिरताके विना ध्यान लगाता है। घनाक्षरी। कुमति निकंद होय महामोह मंद होय, जगमगे सुयश विवेक जगै हियसों। नीतिको दृढाव होय, विनैको बढ़ाव होय, उपजै उछाह ज्यों प्रधान पद लियेसों ॥ धर्मको प्रकाश होय दुर्गतिको नाश होय, वरतै समाधि ज्यों पियूप रस पियेसों। तोष परि पूर होय, दोप दृष्टि दूर होय एते गुण होहिं सतसंगतके कियेसों। ___कुंडलियां। 'कौंरी ते मारग गहैं, जे गुनिजन सेवंत । १। कौंरा-कुंवरपाल नामके बनारसीदासजीके एक मित्र ये यह कुंडलियां उन्हीका बनाया हुआ मालूम होता है। - - Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । ज्ञानकला तिनके जंगे, ते पात्रहिं भव अंत ॥ ते पावहिं भव अंत, शांतरस ते चित धारहिं । ते पद हरहिं, धर्मकीरति विस्तारहिं ॥ होय सहज जे पुरुष, गुनी वारिजके भौंरा । तै 'सुर संपति लहैं, गर्दै ते मारग कौंरा ॥ ३ ॥ छप्पय । जो महिमा गुन हनहि, तुहिन जिम वारिज वारहिं । जो प्रताप संहरहि, पवन जिम मेघ विडारहिं . जो समदम दलमल हि, दुरिद जिय उपवन खंडहि । जो सुछेम छय करहि, वज्र जिम शिखर विहंडहि ॥ जो कुमति अनि ईंधन सरिस, कुनयलता हृदमूल जग । सो दुष्टसंग दुखपुट करि, तजहि विचक्षणता सुमग ॥ ४ ॥ -10%- -- २१. भरत चक्रवती. महाराज भरतका जन्म चैत्र कृष्णा नवमीके दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्रमें हुआ था । भरतका सर्वत्र राज्य होनेसे ही इस श्रार्य खंडका दूसरा नाम भारतवर्ष पड़ा है। भरतका शरीर बहुत हो सुन्दर और वह ५०० धनुष ऊंचा था. इनमें सब गुण भगवान ऋषभदेव ही के समान थे। छहों खंडके मनुष्य पशु और देवादिकों में जितना घल था उससे कई गुणा अधिक वल चक्रवर्ती Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालवोधककी भुजामें था । भरतको भगवान ऋषभ देवने स्वयं पढ़ाया था, प्रधानतया ये नीतिशास्त्रके बड़े विद्वान थे। ___एक दिन भरत महाराजके धर्माधिकारी (कर्मचारी )ने पाकर भगवानको केवलशान उत्पन्न होनेकी खबर सुनाई और उसी वक्त शस्त्रशालाके अधिकारीने आयुधशालामें चैकरन उत्पन्न होनेकी खबर सुनाई और महारानीके सेवकने प्रथम पुत्रोत्पत्तिकी खवर दी । ये तीनों ही हर्षदायक समाचार एक साथ सुनकर महाराज भरत विचार करने लगे कि पहिले किसका उत्सव मनाना चाहिये, अंतमें धर्म कार्यको मुख्य समझकर अपने छोटे भाइयों वा राजकर्मचारियों और प्रजाके साथ भगवान ऋपभदेवके दर्शन पूजनार्थ उनकी शरणमें गये । पूजा बंदना भक्ति करके व केवली भगवानके मुखसे धर्मोपदेश श्रवण करके सुदर्शनचक रत्नकी पूजा की और उसे ग्रहण किया । तत्पश्चात् १। यह चक्र रत्न १००० देवोंकी रक्षामें रहता है देवोपनीत आयुध है यह चर्म शरीरी और अपने मालिकके कुटुंवियोंको छोडकर सब पर चलता है इसके अधिकारी चक्रवर्ती वा नारायण वा प्रतिनारायण ही होते हैं, चक्रवर्ती छहखंडके राजा होते हैं और नारायण प्रतिनारायण तीन खंडके राजा होते हैं इन्हींके पुण्य प्रतापसे ही यह रत्न देवोंके द्वारा आयुधशालामें आ जाता है। परंतु नारायणके पास जव कि प्रतिनारायण इस चक्रको चलाता है तव ही नारायण की परिक्रमा देकर नारायणके हाथमें आ नाता है नारायण प्रतिनारायणको इसी चक्रसे मारकर उसीके त्रिखंडका । . . राज्य करता है। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । १ पुत्र जन्मका उत्सव मनाया इन तीनों हो उत्सवोंमें भरतने किमिच्छा दान दिया । सड़कों और गलियों में यत्र तत्र रत्नादि : पदार्थ रखकर सबको वाँटे 1 ܕ ; जब श्रायुत्रशालामै चक्ररत्न उत्पन्न हो गया तब भरत महाराजने दिग्विजय के लिये शरद ऋतु चढ़ाई की। सबसे आगे पैदल सेना, उसके पीछे घुड़ सवार, उसके पीछे रथ और ¿ रथोंके पीछे हाथी चले । . अजोध्या से चलकर महाराज भरतको सेनाने गंगा नदीके किनारे पार सबसे पहिले डेरा किया सेनाके लिये तंबू लगाये गये घोड़ों के लिये भी कपडे ही की घुड़शालायें बनाई गई । वहां से फिर गंगाके किनारे २ ही चलकर समुद्रपर्यंत समस्त देशोंक राजाको आज्ञाकारी बनाया। लड़ाई तौ बहुत ही कम करनी पडती थी क्योंकि भरत के पुण्यके प्रतापसे और असंख्य सेना सहित भारी चढ़ाई देखकर प्रायः सवही राजा लोग भेट ले ले कर चक्रवतके पास श्राते और उनकी आज्ञा शिरोधारण कर धनुयायी बनते जाते थे। जो राजा श्रधिक कर लेता वा प्रजाको पीड़ाकारी होता उसे केंद्र करके दूसरा राजा स्थापन कर देता था। तत्पश्चात् समुद्र के निवासी मगधदेवको प्राज्ञाकारी बनाकर रत्नोंके हार व दो कुंडल भेटमें लेकर श्रागेको चलें । उसीप्रकार दक्षिण समुद्र तक और तत्पश्चात् पश्चिम समुद्र तक पश्चिम Fors खंडको जीतकर सिंधुनदी के किनारे किनारे चलते हुये विजयार्द्ध पर्वतके निकट पहुंचे और विजयार्द्ध पर्वतके स्वामी व्यंरनदेवको भेट लेकर श्राहाकारी वना लिया तव भरतकी साधी Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ जैनघालवोधकविजय हो गई क्योंकि विजयार्द्धके इस तरफ पूर्वम्लेच्छ खंड पश्चिम म्लेच्छ खंड और वीचका आर्य खंड ये तीन खंडामाकारी हो गये इसी कारण इस पर्वतका नाम विजयार्द्ध पर्वत पड़ा है। अब इस विजयार्द्ध पर्वतमें सिंधु नदी जहांसे निकलती है वहां गुफा है उस गुफासे विजयार्द्ध के उत्तरतरफकेतीनम्लेच्छ खंडोंको जीतनेके लिये तैयारी की। प्रथम तौ चक्रवर्तीके चौदह रत्नोंमेंसे दंडरत्न लेकर सेना पतिने गुफाके द्वारको 'चक्रवर्तीकी जय' इस शब्दको वोलते हुये खोला। गुफामेंसे इतनी गर्मी निकली कि वह छह महीनेमें शांत हुई । इस गुफाका नाम तमिला है। इसकी ऊंचाई पाठ योजन और चौड़ाई वारह योजन की है इसके किवाड बज्रमई है इसको चक्रवर्तीके सेनापति सिवाय और कोई खोल ही नहि सकता । इस गुफाकी गर्मी निकले वाद चक्रवर्ती जानेको तैयार हुवा परंतु अंधकार होनेले कांकिणी और चूड़ामणि इन दोनों रत्नोंसे दोनों तरफकी दीवालोंपर चंद्र सूर्य के प्रतिविंद बनाये सो दिनमें सूर्यकी रोशनी और रात्रिमें चांदकी चांदनी सी हो गई । इस गुफामें सिंधु नदीके दोनों किनारों पर प्राधी२ सेना चलती रही। रास्तेमें दोनों दीवारोंसे दो नदिये श्राकर सिंधु में मिली हुई मिली । एकका नाम निमग्नजला और दुसरीका नाम उन्मग्नजला था । भरतने इन्ही नदियों पर डेरा डालकर सिलावट रत्नको इनपर पुल बनानेका हुकम दिया। पुल वनजाने पर सब सेना पार हुई और गुफासे निकलकर पश्चिम म्लेच्छ .... , खंडको तत्पश्चात् बीचके म्लेच्छ खेडको जीतकर पूर्वम्लेच्छखंड Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग! जीता। समस्त राजाओंको आवाकारी बनाकर फिर वृषभाचलपर्वतके पास पहुंचे। जितने चक्रवती होते हैं अपनी दिग्विजय पूरी होनेपर इस पर्वतपर अपना नाम पता अंकित कर जाते हैं सोभरत चक्रवती भी अपना नाम अंकित करने लगा तो उस पर्वतपर पूर्व कालमें हुये चक्रवर्तियोंके नामोंसे कोई जगह खाली नहिं मिली तव एक चक्रवतीका लिखा नाम मेटकर अपना नाम अंकित करना पड़ा। तत्पश्चात् विजयाई की तलहटी में आये तो विजयाद्धकी दोनों श्रेणियों के स्वामी नमि विननि इनके आधीन हुये और अपनी सुभद्रा बहनका भरतके साथ विवाह किया । तत्पश्चात् गंगा नदी वाली पूर्वगुफाका दरवाजा खोलकर अपने देश आर्य खंडमें आये और समस्त दिग्विजय पूर्ण हो गई। परंतु चक्ररत्न (आयुध)ने आयुधशालामें प्रवेश नहिं किया जिससे निश्चय हुआ कि अभी तक विजय पूर्ण नहिं हुई, कोई न कोई राजा भरतकी आमा मानना स्वीकार नहि करता है। ऐसा निश्चय होने पर मंत्रियोंने विचार किया तो मालूम हुवा कि भरतके अन्य छोटे भाईयोंने तो भगवानकी प्राशासे मुनिदीक्षा लेली थी परंतु भरतकी अपर माताके पुत्र बाहुबनी जिनका शरीर १० धनुप ऊंचा है वे अपनेको स्वतंत्र राजा मानते हैं और भरताना शिरोधारण करनेकी कुछपरवाह नहिं रखते । भरतने वावलिको समझाया परंतु बाहुबलि नहिं माने । श्रतमें दोनों नरफको सेना युद्धके लिये तैयार हुई। __जब दोनों तरफसे युद्धका निश्चय हो गया और युद्ध प्रारंभ होनेका समय बिलकुल पास आ गया तो दोनो भाइयकि Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ जैनबालबोधकमंत्रियोंने विचार किया कि-भरत और बाहुवली दोनों ही चर्मशरीर है दोनों ही मोक्षमें जानेवाले हैं अतएव इन दोनोंकी तौ कुछ हानि नहिं होगी किंतु सेना व्यर्थ हो कटेंगी। इसलिये मंत्रियोंने निश्चय किया कि-सेनाका युद्ध नहिं कराकर इन दोनों भाईयोंका ही युद्ध करायाजाय । दोनों राजावोंने यह बात स्वीकार करली तक मंत्रियोंने तीन युद्ध ठहराये । १ दृष्टियुद्ध, २ जलयुद्ध, और ३ मल्लयुद्ध । इन तीनों युद्धोंमें ही वाहुवलीने चक्रवर्तीको हरादिया। चक्रवर्तीने क्रोधित होकर बाहुवलीपर चक्र चलाया परंतु चक्र कुलघात नहिं करता सो बाहुवलीके पास जाकर वापिस चला पाया जिससे भरत बड़ा लज्जित हुआ उसको लज्जित देखकर बाहुबली संसारसे विरक्त हो गये और भरत को कहा कि मैं इस पृथिवीका राज्य नहिं चाहता इसे तुम ही रक्खो मैं तप करूंगा। __बाहुबलीके दीक्षा ले लेने पर भरतने राजधानीमें प्रवेश किया और समस्त राजा महाराजाओं द्वारा भरतका राज्याभिषेक हुआ। इस समय भरतने बड़ाभारी दान किया। भरत चक्रवर्तीकी सम्पत्ति इस प्रकार थी-नौ निधि-काल १ महाकाल २ नैसर्प ३ पांडुक ४ पटुम ५ माणव ६ पिंगल ७ शंख ८ सर्वरत्न है । चौदह रत्न-चक्र, छत्र, दड, खड्ग, मणि, चर्म, कांकणी, ये सात तो निर्जीव और लेनापति, गृहपति, गज, अश्व, स्थपति, पटराणी, पुरोहित, ये सात सजीव रत्न थे। इनके सिवाय चौरासी लाख हाथी चौरासी लाख रथ अठारह करोड़ घोड़े चौराली फरोड़ पैदल सेना तीन करोड़ गउये एक .. लाख करोड़ हल इत्यादि थे। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। भरतकी मात्रामें बत्तीस हजार मुकुटवद्ध राजा और पत्ताल हजार ही देश थे तथा १८ हजार म्लेक्षखडके राजा थे। ज्यानवे हजार रानियां थी जिनमें बत्तीस हजार भूमिगोचरी राजाओंकी ३२ हजार विद्याधरोंकी और दत्तीस हजार म्लेक्ष जावोंकी कन्यायें थी। इनमें प्रधान पटगानीका नाम सुभद्रा 'स्त्रीरत्न ) था। इस रानी में इतना बल था कि यह चुटकियोंसे रत्नोंका चूर्ण कर देती थी। __ भरतने अपनी लक्ष्मीका दान करनेके लिये ब्राह्मण वर्णकी स्थापना की थी अपनी अयोध्याकी प्रजामसे जो व्रती, कोमलचित्त धर्मरूप दयायुक्त गृहस्थ थे उन सबको परीक्षा द्वारा छांटउनकी ब्राह्मणके समस्त कर्म यताकर ब्राह्मण नाम रख दिया और उनको सवके श्रादर सत्कारका अधिकारी ठहराया। ___ भरतने कैलास पर्वत पर ७२ जिन मंदिर बनवाये थे। भरतचक्रवर्ती छहखंड राज्य और अटूट सुखसंपत्तिके प्रांधकारी और विषय भोगोंकी अति सामग्री होनेपर भी ये कामपुरुषार्थ साधनमें लवलीन न होकर धर्मपुरुषार्थ में लवलीन रहते और श्रात्मस्वरूपसे विमुख कभी नहिं होते थे इसीनिये लोग इन्हें (भरतजीको घरहीम वैगगी कहते थे। इसप्रकार तीन पुरुषार्थोझा साधन करते हुये अपना जीवन बड़े सुखसे विता दिया। एक दिन दर्पणमें अपना मुख देख रहे थे कि अपने बालोंमें एक सफेद बाल दिखाई दिया उसे देख अपना बुढ़ापा आया ज्ञान अपने पुत्र अर्ककीर्तिको राज्य देकर दीक्षा धारण की। बैगग्य तो गृहस्थावस्थामें ही बढ़ा चढ़ा था Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालवोधकइसलिये दीक्षा लेते ही थोड़े दिन बाद केवलज्ञान प्राप्त हो गया और हजारों वर्ष तक सर्वज्ञावस्थामें संसारको उपदेश देकर मोक्ष पधारे। २२. जीवके गुण (१) १। सम्यक्त्व, चारित्र, सुख, वीर्य, भव्यत्व, जीवत्व, वैभा. विक, कर्तृत्व, भोक्तृत्व वगेरह जीवके अनुजीवी गुण अनंत । २१व्यानाध, अवगाह, अगुरुलघु, सूक्ष्म, नास्तित्व आदि अनेक जीवके प्रतिजीवी गुण है। ३। जिसमें पदार्थोंका प्रतिभास (जानना ) हो उसे चेतना कहते हैं। ४। चेतना दो प्रकारकी है एक दर्शनचेतना, दूसरी ज्ञानचेतना। ५।जिसमें महासत्ताका (सामान्यज्ञा) प्रतिभास (निराकार झलक ) हो उसे दर्शनचेतना कहते हैं। ६। समस्त पदार्थोके अस्तित्व गुणके ग्रहण करनेवाली सत्ताको महासत्ता कहते हैं। ७। अंवातर सत्ताविशिष्ट विशेप पदार्थको विषय करनेवाली चेतनाको ज्ञानचेतना कहते हैं। ८। किसी विवक्षित पदार्थकी सत्ताको अवांतर सत्ता कहते हैं। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। दर्शन चेतना चार प्रकारकी है, चतुर्दर्शन प्रचक्षुर्दर्शन अवधिदर्शन, और केवल दर्शन । १० । धानचेतनाके पांच मेद हैं-मतिमान, श्रुतक्षान, अव. विज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, और केवलज्ञान । ११ । इंद्रिय और मनकी सहायतासे जो ज्ञान ही, उसे मतिप्रान कहते हैं। १२ मतिमान दो प्रकारका है एक सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और परोक्ष । परोक्षमतिक्षानके चार मेद है । स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान । १३ । मतिज्ञान दुसरी तरहसे ४ प्रकारका है. अयग्रह, ईहा अवाय और धारणा. १४। इंद्रिय और पदार्थके योग्य स्थानमें (मोजूद जगहमें) रहनेपर सामान्य प्रतिभासरूप दर्शनके पश्चात् अवांतरसत्ता सहित वस्तुके विशेष ज्ञानको अवग्रह कहते हैं. जैसे-यह मनुष्य है। १५। अवग्रहसे जाने हुये पदार्यके विशेषमं उत्पन्न हुये संशय को दूर करते हुये अभिलाप स्वरूप भानको ईहा कहते हैं जैसेये ठाकुरदासजी हैं । यह शान इतना कमजार है कि किसी पदार्थ की ईहा होकर छूट जाय तो उसके विषयमें कालांतरमें संशय और विस्मरण हो जाता है। १६ ईहासे जाने हुये पदार्थमें यह वह ही है अन्य नहीं है ऐसे मजबूत शानको अवाय कहते हैं। जैसे ये ठाकुरदासजी ही है और Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ जैनबालवोधकनहीं है । अवायसे जाने हुये पदार्थमें संशय तो नहिं होता किंतु विस्मरण हो जाता है। १७। जिस ज्ञानसे जाने हुये पदार्थमें कालांतरमं संशय तथा विस्मरण नहिं होय उस धारणा कहते हैं। २८१ मतिज्ञानके विषयभूत पदार्य व्यक्त और अव्यक्त दो प्रकारके होते हैं। १६ । व्यक्त पदार्थके अवग्रहादि चारों होते हैं परंतु अव्यक्त पदार्यका सिर्फ अवग्रह ही होता है। २० । व्यक्त पदार्थके अवग्रहको अर्थावग्रह और अन्यक्त पदार्थके अवग्रहको व्यंजनावग्रह कहते हैं । किंतु व्यंजनावग्रह चक्षु और मनसे नहिं होता है। ___ २१ । व्यक्त अव्यक्त पदार्थों के बारह बारह भेद होते हैं । जैसे-बहु, एक, बहुविध, एकविध, क्षिप्र, अक्षिण, निःसृत, “अनिःसृत, उक्त, अनुक्त, ध्रुव, अध्रुव २३. धर्मोपदेश। मत्तगयंद । चैतन जी तुम चेतत क्यों नहिं, आवघटै जिमि अंजुलपानी । सोचत सोचत जात सवै दिन, सोवत सोवत रैन विहानी ॥ "हारि जुवारि चले कर झार", यहै कहनावत होत अज्ञानी । -छाडि सवै विषया सुख स्वाद, गहो जिनधर्म सदा सुखदानी ॥१॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ चतुर्थ भाग । पुन्य उदै गज वालि महारथ, पाइक दौरत है अगवानी । कोमल अंग स्वरूप मनोहर, सुंदर नारि तहां रतिमानी ।। दुर्गति जात चलै नहिं संग, चलै पुनि संग जु पापनिदानी । यों मनमांहि विचारिसुजान, गहो जिनधर्म सदा सुखखानी ॥२॥ मानुष भौ जहिके तुम जो न, कलो कछु तो परलोक करोगे। जो करनी भवकी हरनी, सुखकी धरनी इस माहि बरोगे॥ सोचत हो अब वृद्धि लहैं, तब सोचत सोचत काठ जरोगे। फेर न दाव चली यह श्राव, गहो निजभाव सु श्राप तरोगे ॥३॥ आव घटै छिन ही छिन चेतन, लागि रह्यो विपया रस ही को फेरि नहीं नर आव तुमै, जिम छाड़त अंध घटेर गहीको । आगि लगे निकलै सोई लाभ, यही लखिकै गहु धर्म सहीको श्राव चली यह जात सुजान, गई सु गई अव राख रहीको ॥४॥ . कुंडलियां। . यह संसार श्रसार है, कदली वृत समान । यामें सारपनो लखै, सो मूरख परधान ॥ सो मूरख परधान मान, कुसुमनि नभ देखै । सलिल मथै घृत चहै, शृंग सुन्दर खैर पैखै ॥ अवनिमाहि हिम लखै, सर्पमुखमांहि सुधा चह । जान जान मनमाहि, नांहि संसार सार यह ॥ ५ ॥ ____ कवित्त ३१ मात्रा। तातमात सुत नारि सहोदर. इन्है आदि सवही परिवार । इनमें वास सराय सरीखो, नदी नाव संजोग विचार ॥ . १ आकाशके फूलोंको । २ गधेके सुन्दर सींग । ३ वरफ। . Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालबोधक यह कुटुंब स्वारथके साथी, स्वारथ विना करत हैं खार। तातें ममता छाड़ि सुजान, गहो जिनधर्म सदा सुखकार ॥ ६ ॥ चेतन जो तुम जोरत हो धन, सो धन चलें चलें नहि लार । जाको श्राप जानि पोपत हो, सो तन जरिके है है द्वार विषय भोग सुख मानत हो, ताकी फल है दुःख अपार । यह संसार वृक्षसेमरकों, मान को मैं कहूं पुकार ॥ ७ ॥ सवैया इकतीसा | ८० सीस नाहि नम्यो जैन कान न सुन्या सुर्वेन, देखे नाहि साधु नैन, ताकी नेह भान रे । चाल्यो नाहि भगवान करते न दयो दान. उरमें न दया आन, यों ही परवान ने ॥ पापकरि पेट भरि, पोठ दीन तीय पर, पांव नांहि तीर्थ करि सहीसेती जान रे । स्याल कहै बार बार अरे सुनि श्वान यार, इसको तू डारि डारि देव निंद्य खान रे ॥ ८ ॥ देखो चिदानंद राम ज्ञान दृष्टि खोल करि, तू तात मात भ्रात सुत स्वारथ पसारा है । तौ इन आपा मानि ममता मगन भयो, बह्यो भ्रममाहि जिनधरम विसारा है ॥ यह तो कुटुंब सब दुःख ही को कारन है, १ सेमरके वृक्षमें फल तो सुन्दर होते हैं परंतु फलोनें निःखार रूई होती है । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । तजि मुनिराज निज कारज विचारा है । तातै गहो धर्मसार, स्वर्ग मोक्ष सुखकार, सोई लहै भवपार जिन धर्म धारा है ॥ ६ ॥ सोचत हो रैन दिन किहि विधि आवै धन, सो तौ धन धर्म विन किनह न पायो है। यह तौ प्रसिद्ध बात जानत जिहान सब, धर्मसेती धन होय पापसों बिलायो है । धर्मके कियेतें सब दुःखको विनास होत सुखको निवास परंपरा मोख गायो है। तांत मन वच काय धर्मसों लगन लाय, यह तो उपाय वीतराग जी बनायो है ॥ १० ॥ भम्यो तू अनंती वार सम्यक न लह्यो सार, ता देव धर्म गुरु तीनों ठहराय रे । लागि रह्यो धन धाम इनसों है कहा काम, जपै क्यों न जिननाम तलों सहाय रे । क्रोध है कठिन रोग छिमा औपवी मनोग, ताको भयो है संयोग संगत उपाय रे. पूरव कमायो सो तौ इहां प्राय खायो अब, करि मनलाय जो पै आगें जाय खाय रे ॥ ११६ ॥ वाग चलनेको त्यार ढीलो तीरथ मकार, झूठ कहनकों हुंस्यार सांचे ना सुहाय रे । देखत तमासा रोज दर्शनको नांहि खोज, ६ ८१ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालबोधकविकथा सुनन चोज, शास्त्रको रिसाय रे । खान पानकों खुस्याल व्रत सुनै विकराल, श्रावकको कुलचाल भूल्यो बहु भाय रे । पूरव कमायो सो तौ इहां आय खाया अव, करि मनलाय जो पै श्रागे जाय स्वाय रे ॥ १२ ॥ ३४. श्रीअजितादितीर्थंकरोंका संक्षिप्त परिचय । २। अजितनाथ तीर्थकर । छप्पय । अजित अजित रिपु अजित हेमतन गज लच्छन भन । पिताराय जित शत्रु, अत्र खरगासन आसन ॥ लाख वहत्तर पुत्र आव पुर जनम अजोध्या। धनुष चारसे साठि गाढ वच बहुप्रतिवोध्या ।। तजि विजय थान परधान पद, बसे विजै सैना उदर । शिर नाय नमौ जुग जोरिकरि भो जिनंद भवतापहर ॥२॥ १श्री अजितनाथ । २ पिता-जितशत्रु । ३ माता-विजतसेना ४पायु-चहत्तरलाखपूर्व । ५शरीरका वर्ण-सुवर्णका । ६कायकी उंचाई-चारसे साठ धनुष । ७ जन्म नगरी-अजोध्या । ८ लक्षण हस्ती। पूर्व जन्मका स्थान विजय विमान । १० खड्गासनसे मुकिगमन। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। ३ । संभवनाय तीर्थकर। संभव संभव हरन, पुरी सावत्ती जानौ। मात सुसैना रूप, भूप दिढ राज प्रवानौ ॥ खर्गासन सुख स्वादि, आदिग्रीवक्ते पाये। चिन्ह तुरंग उतंग रंग कंचन मय गाये ॥ थिति साठि लाख पूरव भुगति, धनुप चारि से लाख चर। शिर नाय नमौ जुग जोरिकरि, भो जिनंद भवताप हर ॥ ३ ॥ श्रर्थ-१ श्री संभवनाथ २ पिता-दिढरथराय ३माता-सुसना देवी ४ लच्छन-घोड़ा ५ आयु-साठ लाख पूर्व ६ शरीरकी ऊंचाई चारसै धनुष ७ जन्म स्थान-श्रावस्ती नगरी ८ पूर्व जन्म का स्थान-प्रथम प्रैवेयक शरीरका वर्ण कंचनमय १० खड्गासनसे मुक्ति गमन ॥३॥ ४। अभिनन्दन नीर्थंकर। अभिनंदन अभिनंद, कंद मुख भूप स्वयंवर । माता सिद्धारया कथा सुवरन तन मनहर ॥ तीनशतक पंचास धनुष तन नगरि विनीता। पुब लाख पंचास तास कपि लांछन मीता ॥ खर्गासन विजय विमानते, करम नास परकासकर । शिर नाय नमो जुग जोरि करि, भो जिनंद भवतापहर nam नाम-अभिनंदन तीर्थंकर । पिता-स्वयंवर। माता-सिद्धारया । शरीरका वर्ण सुवर्ण । कायकी ऊंचाई ३५० धनुष । जन्म नगरी-विनीता। प्रायु-पंचास लाख पूर्व । लन्छन-चंदरका । पूर्व जन्म स्थान--विजय विमान । खड्गासनसे मुक्ति गमन ॥en Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालवोधक मुमतिनाय तीर्थकर । सुमति सुमति दातार, सार बस वैजयंत मन । भूप मेघरयतात, मात मंगला कनक तन ॥ . पुल्व लाख चाळीस, ईस तन धनुष तीन सै। चक्रवाक लखि चिन्न खर्ग श्रासन सुख बिलसै। छह मास अगाऊ गरमत, भयो विनीता सुर नगर। शिर नाय ननौ जुग जोरिकर, भो जिनंद भवताप हर ॥ ५ ॥ नाम--सुमतिनाय तीर्यकर। जन्म स्थान-विनीता · पिता-मेध. एयामाता-मंगलादेवी । पूर्वजन्मस्थान-वैजयंत विमान । शरीर वर्ण-कनक । आयु वालीस लाख पूर्व । कायकी ऊंचाई-तीन सौ धनुष । लक्षण-चक्रवाक । खर्गासनले मुक्ति गमन ॥५॥ ६ । पद्मप्रभ तीर्थकर। पदम पदम भरि भमर, पदम लांचन सुखदाई । धरन भूप गुन कृष, स्वम्प सुसीमा माई ।। अंतिम ग्रीवक वास, दुस पंचास चाप तन। खासन बहुसकत, रकत तन हरख करन मन । यिति तीस लाख पूरव पुरी, कौसंबी सबजन सुबर । शिर नाय नमों जुग जोरिकर, मी जिनंद भवतापहर । नाम-पद्मप्रमतीर्थकर । जन्म स्थान कौसांबी । पिता-घरनि। भाता-सुसीमादेवी । पदचिन्ह-कमल । पूर्व जन्म स्थानमंतिम ग्रैवेयक । शरीरकी ऊंचाई-दो से पंचास धनुष । प्रायुतीस लाख पूर्व । शरीरका वर्ण-लाल ! खड्गासनसे मुक्ति नमन ॥६॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य भाग। ७। सुपार्श्वनाय। देत सुपास सुपास, पंचग्रीवकतें आये । सुपरतिष्ठ भूपाल, पृथी सैना मन भाये ॥ नगर वनारसि धाम, स्वाम खगासन राजै। चिन्न सांथिया वीस, लाख पूरव थिति छाजै ॥ तन हरितवरन दो सै धनुप, सुर ढारें चौंसठ चमर। ' शिर नाय नमों जुग जोरिकरि भोजिनद भवताप हर ॥ ७ ॥ नाम-सुपार्श्वनाथ तीर्थकर । जन्म स्थान-बनारस । पितासुप्रतिष्ठित । माता-पृथ्वी सेना। आयु-वीस लाख पूर्व। शरीरं की ऊंचाई-दो सौ धनुप । चरणचिन्ह-सांथिया । पूर्व जन्म स्थान-पांचवां ग्रेवेयक । शरीरका वर्ण हरा । खगासनसे मुक्ति गमन ॥७॥ ८। चंद्रप्रमतीर्थकर। चंदप्रभू प्रभचंद, चंदपुर चंद चिन्नगन । महा सेन विख्यात, मात लछमना स्वेत तन । वैजयंततै आय काय, खर्गासन धारी। आव पुन्ध दश लाख, भये सबको सुखकारी ॥ डेढ़ सै धनुष तन भविक जन, हंसपाय तुम मानसर । सिरनाय नौं जुग जोरिकर, भो जिनंद भवताप हर ॥ नाम-चंद्रप्रभ तीर्थकर । पिता-महासेन । माता-लछमना । चरनचिन्ह-चंद्रमा ! जन्म नगरी-चंद्रपुरी । शरीरका रंग सफेद । पूर्व जन्म स्थान-वैजयंत विमान । आयु-दश लाख पूर्व । शरीर की ऊंचाई-डेढ सौ धनुष । खर्गासनसे-मुक्ति गमन ॥ ८॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालवोधक२५. जीवके गुण । (२) २२।मतिक्षानसे जाने हुये पदार्थसे संबंध लिये हुये किसी दूसरे पदार्थके ज्ञानको श्रुतक्षान कहते हैं। जैसे-घट शब्दके चुननेके अनंतर कंबुग्रीवादि रूप घटका ज्ञान ।। २३ । ज्ञानसे पहिले दर्शन होता है, विना दर्शनके अल्पजनों के ज्ञान नहिं होता परंतु सर्वश देवके शान और दर्शन साथ २ होते हैं। २४ । नेत्रजन्य मतिज्ञानसे पहिले सामान्य प्रतिभास या अवलोकनको चतुर्दर्शन कहते हैं । २५ । चनु ( नेत्र के सिवाय अन्य इंद्रियों और मनके सम्बंधी मतिज्ञानके पहिले होनेवाले सामान्य अवलोकनको अचतु दर्शन कहते हैं। २६ । अवधिशानसे पहिले होनेवाले सामान्य अवलोकनको अवधि दर्शन कहते हैं। २७। केवल ज्ञानके साथ होनेवाले सामान्य अवलोकनको केवल दर्शन कहते हैं। ___ २८ । वाह्य और अभ्यंतर क्रियाक निरोधसे प्रादुर्भूत भात्मा की शुद्धि विशेषको चारित्र कहते हैं। ___२६ । हिंसा करना, चोरी करना, झूठ बोलना, मैथुन करना और परिग्रह संचय करना वाहा क्रिया कहलाती है। - ३० । योग और कषायको आभ्यंतर क्रिया कहते हैं । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । ८७ ३१ | मन वचन कायके निमित्तसे आत्माके प्रदेशोंके चंचल होनेको योग कहते हैं । ३२ । क्रोध मान माया लोभ रूप आत्माके विभाव ( मोहकर्म जनित ) परिणामोंको कपाय कहते हैं । 1 ३३ | चारित्र चार प्रकारका है - स्वरुपाचरण चारित्र, देशचारित्र, सकल चारित्र, और यथाख्यात चारित्र । ३४ | शुद्धात्मानुभव के अविनाभावी चारित्र विशेषको स्वरूपाचरण चारित्र कहते हैं । ३५ | श्रावक के व्रतोंको देशचारित्र कहते हैं । ३६. मुनियोंके चारित्रको ( पांच पापोंके सर्वथा त्यागको ) सकल चारित्र कहते हैं । ३७ | कपायों के सर्वथा अभाव से प्रादुर्भूत श्रात्माकी शुद्धिविशेषका यथाख्यात चारित्र कहते हैं । ३८ । प्राहाद स्वरूप आत्मा के परिणाम विशेषको सुख कहते हैं । ३६ | आत्माकी शक्तिको (बलको ) वीर्य कहते हैं । ४० । जिस शक्तिके निमित्तसे आत्मा के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र प्रगट होने की योग्यता हो उसे भव्यत्व गुणा कहते हैं । ४१ । जिस शक्तिके निमित्तसे आत्मा के सम्यग्दर्शनादि के प्रगट होनेकी योग्यता न हो उसे प्रभव्यत्व गुण कहते हैं ।: ४२ | जिस शक्तिके निमित्तसे आत्मा प्राण धारण करे उसे जीवत्व गुण कहते हैं । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ जैनवालबोधक ४३ । जिनके संयोग से यह जीव जीवन अवस्थाको प्राप्त हो और वियोग से मरण व्यवस्थाको प्राप्त हो उनको प्राण कहते हैं। ४४ । प्राण दो प्रकारका है. द्रव्य प्राण और भाव प्राण | द्रव्य प्राण दश प्रकारके हैं जैसे- मन, वचन, काय, स्पर्श इंद्रिय, रसना इंद्रिय, घाण इंद्रिय, चक्षुरिंद्रिय, श्रोत्र इंद्रिय, श्वासोच्छ्वास, आयु । ४५ | प्रात्माको जिस शक्तिके निमित्तसे इंद्रियादिक अपने कार्यमें प्रवर्ते उसे भावप्राण कहते हैं । ४६ | एकेंद्रिय के कुल चार प्राशा - स्पर्शेद्रिय, कायवल, स्वासोच्छ्वास और प्रायु होते हैं । द्वींद्रियके स्पर्शनंद्रिय, कायवल श्वासोच्छ्वास प्रायु रसनेंद्रिय और वचन ये ६ प्राण होते हैं. श्रींद्रिय जीवके पूर्वोक्त छह और घ्राणेंद्रिय मिलकर सात प्रागा होते हैं, चतुरिंद्रिय जीवोंके पृवोंक सात और चनुं मिलाफर ग्राठ प्रागा होते हैं । पंचेंद्रिय असेनी जीवों के पूर्वोक्त आठ और एक थोनेंद्रिय मिलाकर नौ प्रागा होते हैं और सैनी पंचद्वियके मन सहित दश प्राण होते हैं। ४७ । भावेंद्रिय पांच और मनोबल, वचनवल, कायवल मिलकर भावना याठ प्रकारका है । ४८ । वैभाविक गुण उस शक्तिको कहते हैं जिसके निमित्त से दुसरे द्रव्य के संबंध होनेपर श्रात्मामें विभाव परिणति हो । ४९ | साता और असातारूप प्राकुलताके प्रभावको अन्यावाघ प्रतिजीवी गुण कहते हैं । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । ८६. ५० । परतंत्रताके अभावको श्रवगाह प्रतिजीवी गुण कहते हैं। ५१ | उच्चता और नीचताके प्रभावको अगुरुलघुत्व प्रतिजीवी गुण कहते हैं। ५२ । इंद्रियोंके विषयरूप स्थूलताके अभावको सूक्ष्मत्व प्रतिजीवी कहते हैं । २६. व्यवसायचतुष्कसमस्यापूर्ति । -::-- सवैया इकतीसा | केई सुरे गावत है केई तौ बजावत है, केई तो बनावत है, भीड़े मिट्टी सानके । केई खाक पटकै है, केई खाक शटकै है, केई खाक लपटें है, केई स्वांग यानिके ॥ केई हाट बैटत है, अर्धिमें पैठत हैं, केई कान पेठत है, आप चूक एकसेर नाज काज आपनों शरीर त्याज, डोलत है लाज काज धर्मकाज हानिके ॥ ११ ॥ शिष्यको पढ़ावत है देहको बढ़ावत है, हमको गलावत हैं. नाना हल ठानिके । कौड़ी कौड़ी मांगत हैं, कायर है भागत हैं . १ राग । २ वर्तन | ३ समुद्रमे । ४ सोनेको गलाता है । जानिके । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालवोधकप्रात उठ जागत हैं स्वारथ पिछानिके । कागदको लेखत है केई नख पेखत हैं, केई कृपि देखत हैं, अपनी प्रवानिक ! एक सेर नाज काज अपनों स्वरूप त्याज, डोलत हैं लाज काज धर्म काज हानिकै ॥ २॥ केई नट कला खेलै केई पटकला बेलै, . केई घट कला मेलै श्राप वैद्य मानिक । केई नाचि नाचि पावें केई चित्रको बनावें, केई देश देश धावें दीनता पक्षानिकै । मूरखको पास चहै नीचनकी सेवा है, चौरनके संग रहै लोक लाज मानिके । एक सेर नाज काज श्रापनो स्वरूप त्याज, डोलत है लाज काज धर्म काज हानिकै ॥ ३ ॥ केई सीसको कटावै केई सीस बोझ लावै, केई भूप द्वार जावें चाकरी निदानकै । केई हरी तोरत हैं पाहनको फोरत हैं, केई अंग जोरत हैं हुनर विनानकै । केई जीव घात करै केई छंदकों उचरें, नाना विध पेट भरै, इन्हे श्रादि गनिके। एक सेर नाज काज प्रापनी स्वरूप त्याज, . डोलत हैं लाज काज धर्म काज हानिकै ॥ ४ ॥ १ खेतीकी । २ चाकरी आशा करके । ३ विज्ञान । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग! २७. श्रीपुष्पदंतादि तीर्थंकरोंका संक्षिप्त परिचय । ९ पुष्पदंत. छप्पया सुबुघि सुबुधि करतार, सार प्रानतके थानी। महा भूप सुग्रीव जीव, जयवामा रानी॥ उलल वरन शरीर, धीर खर्गासन जानौ । काकंदी पुरसाख, लाख दो पूरव मानौ ॥ तन धनुप एक सौ भौरहित सहित चिन्ह जल चरम कर । सिरनाय नमो जुग जोरि कर. भो जिनंद भवताप हर ॥ ६ ॥ नाम-सुविधिनाथ वा पुष्पदंत । पिता-सुग्रीव । माता-जयबामा ! पदचिन्ह-मगरकच्छ । जन्मस्थान-काकंदापुर । पूर्वजन्मस्थान प्रानत स्वर्ग। शरीरका रंग-उजल ( सफेद ) । शरीरकी ऊंचाई-एकसौ धनुष ! आयु-दोलाख पूर्व ः खर्गासनले मुक्रिगमन १० श्रीशीतलनाथ, सीतल सीतल वचन भद्रपुर पारन स्वरवर । दिवरथ तात विख्यात, सुनंदा माता अवतर । निवै धनुपको देह, धीर कंचनमय गायो। श्राव पुत्र इकलाख, सरग आसन सुख पायो । श्रीवृच्छचिन्न केवल प्रगट, भिन्न भिन्न भाख्यो सुपर । सिरनाय नमो जुग जोरकर, भो जिनद भवताप हर ॥ १०॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनबालबोधक नाम - श्रीशीतलनाथ पिता-हढरथ, माता-सुनंदा, जन्मस्थान - भल्लपुरि । चरनचिन्ह - श्रीवृत्त । पूर्वजन्मस्थान- प्रारनस्वर्ग । आयु — एकलाखपूर्व । शरीरकी ऊंचाई - नव्वेधनुष । शरीरका रंग-कंचनमय । खर्गासन से मुक्तिगमन ॥ १० ॥ ११ । श्रशंसनाय नीर्थकर । भज श्रेयांस श्रेयांस, स्वर्ग सोलमके वासी । विष्णुराज महराज, मात नंदा परकासी ॥ असी चाप तन माप, श्राप गडेको लच्छन । खग्गासन भगवान, सिंहपुर कनक वरन तन चौरासी लाख बरस भुगत, दुखदावानलमेघ भर । सिरनाथ नमो जुग जोरिकर, भोजिनंद भवताप हर ॥ ११ ॥ नाम-श्रेयांसनाथ, पिता विष्णुराज महाराज : माता-नंदादेवी, जन्मस्थान-सिंहपुरी ( सारनाथ ) । चरनचिन्ह-गड़ा । शरीरकारंग --- कनकमय, शरीरकी ऊंचाई अस्ती धनुष, प्रायु चौरासीलाख वरस पूर्व । जन्मस्थान -- सोलहव स्वर्ग, खड़गासनसे मुक्तिगमन ॥ ११ ॥ H १२ । वासुपूज्य तीर्थंकर । वासु पूज्य वसु पूज्य, भूप वसु विधितों पूजौं । दशम लोकतें प्राय. रकत शुभकाय न दूजो ॥ सत्तर चाप शरीर, धीर चंपापुर आये । लंडन महिप मनोग, जोग पद्मतन गाये ॥ १ भद्दलपुर यह नगर मेरा नामसे ग्वालियर रियासत प्रसिद्ध है । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । थिति लाख बहतरि बरसकी, जयावती माता सुमर । सिरनाय नमों जुग जोरिकरि भी जिनंद भवताप हर ॥ १२ ॥ नाम - श्रीवासुपूज्य | पिता-वसुराजा । माता - जयावती, अन्मस्थान - चंपापुर | पद चिन्द - महिप शरीरका रंग - लाल । पूर्वजन्मस्थान-शवां स्वर्ग शरीरको ऊंचाई - सत्तर धनुष, श्राडु वहत्तरलाख वर्ष, पद्मासन से मुक्ति गमन १२४ १३ | श्रीविमलनाथ तीर्थकर | · ર विमलविमल अवलोक, लोक द्वादश बस स्वामी । कंपिल्लापुर श्राय, काय कंचन जगनामी ॥ कृतवर्मा भूपाल, भात जयश्यामा माता । सुकर चिन्ह निसान, साठधनु तन प्रविस्राता || थिति साठि लाख वरसन सुखी, खरगासन सत्र जु वर । सिरनाय नमीं जुग जोरिकर, भी जिनंद भवतापहर ॥ १४ ॥ ---- नाम - विमलनाथ । पिता - कृतवर्मा : माता -जयश्यामा | नगरी - कंपिलापुर | चरनचिन्ह - सूर | आयु -- घाउलाख बरस । कायकी ऊंचाई - साठधनुष । पूर्व जन्नस्थान - बारहवां स्वर्ग । शरीरका रंग-कंचनमय । खड्गासन से मुक्तिगमन ॥ १३ ॥ १४ | श्री अनंतनाथ तीर्थकर | सुगुन अनंत अनंत, अंतसुर सोल जिनेश्वर । सिंहसेन नृपराय, माय जयश्यामाके घर कनक वरन परकांस, तास पंचास चाप तन । श्राव लाख है तीस, ईस को सेहो लच्म ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनवालबोधक खरगासन कौसलपुर जनम, कुशल तहां भाठों पहर । सिरनाय नमः जुग जोरिकर, भो जिनंद भवताप हर ॥ १४ ॥ नाम - श्रीमनंतनाथ | पिता सिंहसेन । माता - - जयश्यामा | 1 Sap जन्मनगरी - कौशलपुर । लच्छन-सेही । शरीरका रंग- कनकसा। शरीर की ऊंचाई पचास धनुष । आयु-तीस लाख वरस | पूर्व जन्मस्थान - सोलहवां स्वर्ग । मुक्ति-खड्गासन से ॥ १४ ॥ १५ | श्रीनाथ तीर्थकर । ૪ „ धर्म धर्म परकास, वास सरवारथ सिध भुव । भान राज जसख्यात, मात सुप्रभा देवि हुव ॥ खरगासन निहपाप, चाप चालीस पंचतन | आव लाख दशवरस, सरस कंचनमय है तन ॥ लखि वज्र चिन्ह शुभ रतनपुर, पार न पावै सुर निकर । सिर नाय नम जुग जोरिकर, भो जिनंद भवताप हर ॥ १५ ॥ नाम --- श्रीधर्मनाथ । पिता भानुराज माता - सुप्रभा देवी । जन्म नगरी - रतनपुर। पूर्व जन्मस्थान - सर्वार्थसिद्धि । लच्छनबज्रका । शरीरका रंग- सुवर्णमय । शरीरकी ऊंचाई- पैतालीस धनुष । प्रायु-दश लाख वरस । मुक्ति-खड्गासन से ॥ १५ ॥ १६ | शांतिनाथ तीर्थंकर । शांति जगत सब शांति भोगि सरवारथ सिधि रिवि । काम देव तन कनक, रतन चौदों नवों निधि ॥ विश्वसेननृप तात, मात ऐरा मृग लच्छन । हथनापुर मैं श्राय, पाय चालीस धनुष तन ॥ • Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । ६५ थितिलाख वरस यासन पद्म, नाम रहे श्रघ जाय हर । सिरनाय नमीं जुग जोरिकर, भो जिनंद भवतापहर ॥ १६ ॥ नाम - श्री शांतिनाथ श्रागमन - सर्वार्थसिद्धिसे । जन्म नगर- हस्तिनापुर | पिता- विश्वसेन राजा । माता पेरा देवी । लच्छन- हिरनका । वरन - सोनेका सा । शरीरकी ऊंचाईचालीस धनुप । प्रायु-एक लाखवरस | पद्मासनले मुक्ति गमन | ये भगवान् चौदह रत नवनिधिके स्वामी पाचवें चक्र वर्त्ती और कामदेव भी थे ॥ १६ ॥ 4 २८. कर्मसिद्धांत ( १ ) --:: १ । संसारी और मुक्तके भेदसे जीव दो प्रकारके हैं। २। कर्मसहित जीवको संसारी और कर्मरहितको मुक्त जीव कहते हैं। ३। जीवके रागद्वेषादिक परिणामोंके निमित्त से कार्माणवर्गणा रूप जो पुद्गल स्कंध जीवके साथ बंधको प्राप्त होते हैं उनको कर्म कहते हैं । ४। बंध चार प्रकारका है। प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध, स्थितबंध और अनुभाग बंध | ५। प्रकृति बंध और प्रदेशबंध तौ योगोंसे होते हैं। स्थितिबंध और अनुभाग बंध कषार्योंसे होते हैं : ६ | मोहादिजनक तथा ज्ञान दर्शनादि घातक स्वभाववाले Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालवाधरकार्माण पुद्गलस्कंधका प्रात्मास संबंध होनेको प्रकृतिबंध कहते हैं। . ७। प्रकृति वंध आठ हैं,-शानावरण १. दर्शनावरण २, वेद. नीय ३, मोहनीय ४, प्रायु ५, नाम ६, गोत्र ७, और अंतराय ८॥ जो कर्म आत्माके ज्ञान गुणको घाने, उसको ज्ञानावरण कर्म कहते हैं। ज्ञानावरण फर्म पांच प्रकारका है-मतिक्षानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपयर्यशानावरण, और केवलक्षानावरण। ___! जो आत्माके दर्शन गुणको घातै, उसे दर्शनावरण कर्म कहते हैं। दर्शनावरण कर्म नौ प्रकारका है । धनदर्शनावरण, प्रचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचला प्रचला, और स्त्यानगृद्धि । १०। जिसकर्मके फलसे जीवकै आकुलता हो, अर्थात् जो अव्यावाध गुणको घातै, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं । वेदनीय कर्म साता वेदनीय असाता वेदनीयके भेदसे दो प्रकार है। ११ । जो आत्माके सम्यक्त्व और चारित्रगुणको घातै उसे मोहनीय कर्म कहते हैं । मोहनीय कर्म दो प्रकारका है, एक दर्शन मोहनीय, दूसरा चारित्र मोहनीय । १२ । जो आत्माके सम्यक्त्वगुणको घातै, उसे दर्शनमोहनीयकर्म कहते हैं। : १३ । दर्शनमोहनीयकर्म तीन प्रकारका है। मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व, सम्यकप्रकृति । . .... : . . . Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . चतुर्थ भाग। १४ जिस कर्मके उदयसै जीवके अंतत्त्वश्रद्धान हो, उसे मिथ्यात्व कहते हैं। :: :: :: :: : * १५। जिसकर्मके उदयंसे मिले हुयें परिणाम हों, अर्थात् जिनको न तौ सम्यक्त्वरूप कह सकते हैं और न मिथ्यात्वरूप उसको सम्यक्मिथ्यात्व कहते हैं। . ." · २६ । जिस कर्मके उदयसे सम्यक्त्व गुणका मूलघात तो न हो चलमलादिक दोष उपजै, उसको सम्यक्प्रकृति कहते हैं। _१७ । जो प्रात्माके चारित्र गुणको घात उसको चारित्र मोहनीय कहते हैं। . . १८॥ चारित्र मोहनीयके मूल दो भेद हैं, एक कषाय और दूसरा नोकषाय । ....... १६ । कषाय सोलह प्रकारका है। अनंतानुबंधी क्रोध,अनंतानुवंधी मान, अनंतानुबंधी माया,अनंतानुबंधी लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध. अप्रत्याख्यानावरण मान,अप्रत्याख्यानावरण माया, अप्रत्याख्यानावरण लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, प्रत्यासानांवरण मान, प्रत्याख्यानावरण माया प्रत्याख्यानावरण लोभ, संज्य. लन क्रोध, संज्वलनमान, संज्वलन माया. और संज्वलन लोम। ___२० । नोकषाय नवःप्रकारका है, हास्य, रति, परति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेदानपुंसकवेदा:: २१ । जो आत्माके स्वरूपाचरण:चारित्रको घातें उनको अनंतानुबंधी क्रोध,मान: माया लोम कहते है।. २२ जो प्रात्माके देश चारित्रको घात उनको अप्रत्याख्याना Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ जैनवालबोधक : चरस कोष मान माया लोभ कहते है ।. २३ । जो आत्माके सकल चारित्रको धार्ते उनको प्रत्यास्था नाव कोध मान माया लोभ कहते हैं 1 २४ | जो प्रात्माके यथाख्यात चारित्रको धातै उनको संज्वलन क्रोध मान माया लोभ और नोकपाय कहते हैं। २५ । जो कर्म आत्माको नारक, तिर्येच, मनुष्य और देवके शारीरमें रोक रक्खै उम्रको धायुकर्म कहते हैं अर्थात आयुकर्म मा अवगाह गुणको घातता है। २६ | प्रायुकर्म चार प्रकारका है। नरकायु, तिर्यचायु, मनुस्वायुः और देवायुः । २९ गृहदुःखचतुष्क । 1 सवैया ३१वा | बजगार बने नाहि धन तौ न घरमादि, खानेकी फिकर बहु नारि चाहे गहना । : बैनेवाले फिर जाहिं मिले तो उधार नाहि, 2 साभी मिले चौर, धन भावे नाहि लहना । कोऊ पूत ज्वारी भयो घरमांहि सुत थयो, एक पूत भर गयो ताको दुख सहना 1 पुत्री पर जोग भई, दाही सुता जम लई, IF - एते दुःख सुख जाने तिसे कहा कहना ॥ १ ॥ • • : Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य भाग। देह माहि रोग प्रायो चाहिजै जिया भरायो, __ फटगये अंदर चरण-दासी है नहीं। .. नारीमन जार भायो तासों चित प्रतिलायो, यह तौ निवल वह देव दुख प्रतिही। गृहमाहि चौर पर प्रागी लगै सब जरै, राजा लेहि लूट बांधै मारै सीस पनही। इटको वियोग ौ अनिष्टको संजोग होइ, एते दुःख सुख मानै सो तौ मूहमति ही ॥२॥ जेठ मास धूप परै प्यास लगै देह जरै, कहीं सुनी सादी गमी तहां जायो चाहिये। वर्षा में बुचात भोन लकरी निवरि गई, ताको चल्यो लैन पांव डिग्यो दुख लहिये ॥ . 'शीतके समयमांहि, अंबर मवीन नाहि, भूख लगै मात, मिलै नाहि कष्ट सहिये। जे जे दुःख गृह माहि, कहाँलों, बलाने जादि, तिन्दै सुख जानै सो तो महा मूद कहिये ॥३ तिनको पुरानो घर कौडिसौ न धान जामें, मूसे विल्ली सांप बी न्योले जुरहत है। भाजन तौ मृत्तिकाके फूटे खाली धान नाहि, टूटी जो खैरी खाटमल्लिका लहत हैं। १ कपडे । २ जूतियां । ३ पासको । ४ कोडीमर । ५ विना नियोनेबुमनेवाली। जिसमें खटमल है। . . - - Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनबालवोधक कुटिल कुरूप नारी कानी काली कलिहारी, कर्कश वचन वोलैं औगुन महत है। हा हा मोहकर्मको विडवना कही न जा, ऐसो गृह पाय मूढ़ त्याग्यो ना चहत है ॥ ४॥ ३०. श्रीकुंथनाथ तीर्थंकरादिका संक्षिप्त परिचय। i. १७ । श्रीकुंथुनाथ । 'छप्पय। कुंथु कुंथु रखवार, सार सरवारथ सिधिवस । ___ हस्तिनागपुर आय, काय चामीकर हर सस ॥ . . सूर सैन नृप जैन, ऐन श्रीकांता शुम मन' ' . श्रायु चानवे हजार वरस, पैंतीस धनुष तन ॥ खरगासन लच्छन छाग शुभ, तारे जिन बैरागधर। सिरनाय नमौं जुग जोरिकर, 'भो जिनंद भव तापहर। १७॥ नाम-श्रीकुंथुनाथ । पूर्वस्थान - सर्वार्थसिद्धि जन्मस्थानहस्तिनापुर । पिता-सूरसैन राजा। माता-श्रीकांता । लन्छन बकरा। शरीरका वरनं ताये सोनेकासा । शरीरकी ऊंचाई३५ धनुष । आयु-पंचानवे हजार वरस।मुकिगमन-खड्गासनसे । ये तीर्थंकर भी छठे-चक्रवर्ती ये ॥१७॥ . १८॥ श्रीअरनाथ तीर्थकर। पर परि करि-हर सिंह, जयंतविमान जानि जन । . . ." Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । भूप सुदरसन सार, मित्रसैना माता भन ॥ 'हस्तिनागपुर प्राय, चापतन तीस विराजै । · • • १०१ थिति चौरासी सहस वरस, कंचन छवि छाजै ॥ खरगासन लंकन मीन शुभ, चैन जलदसर भविक भर । . सिरनाय नमीं जुग जोरिकर, भो जिनंद भवताप हर ॥ १८ ॥ नाम - धरनाथ । पिता - सुदरसनराय । माता -मित्रसैना । आये - जयंत विमानसे । जन्मनगर- हस्तिनापुर जच्छन- मीन । · शरीरका रंग - कंचनमय शरीरकी ऊचाई- तीस धनुष ! आयु चौरासी हजार चरस । मुक्ति-खड्गालनसे। ये भी चक्रवर्ती थे ॥ १८ ॥ १९ । श्रीमल्लिनाथ तीर्थकर । मल्लिकर मरिपुमल्ल. थान अपराजित जानो । 1. मिथिलापुर अवतार, सार घंट चिन्ह पिछानो ॥ - कुंभराजमहराज, खरग आसन सरदहिये । धनुप पचीस शरीर, सहस पचपन थिति लहिये । देवी प्रजावती कनकतन, अमल अचल अविकल अजर । शिरनाय नमौ जुग जोरिकर, भो जिंनंद भवताप हर ॥१६॥ नाम - श्रीमल्लिनाथ, पिता-कुंभराज महाराज, माता-प्रजावतीदेवी | आये - अपराजित विमानसे । जन्मस्थान- मिथिलापुर, लच्छन: घटका । शरीरका रंग सुनहरी । शरीरको ऊंचाई- पचीस धनुष । आयु पचपन हजार वर्षकी । मुक्तिगमन - खड़गासन से ॥११॥ २० । श्रीमुनिसुव्रत तीर्थंकर | मुनि सुव्रत व्रतवर्ग, स्वर्ग प्रानतके थानी ।. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालबोधक भूप सुमित्र पवित्र, मित्र शुभ सोमा रानी ॥ राजगृहीमैं चाय काय कजल छवि छाजे । बरस सहसपिति तीस बीस तन चाप बिराजै । लद्दन कछुवा आसन खरग, दीनदयाल दया नजर । सिरनाथ नमो जुग जोरिकर, भो जिंनद भवतापहर ॥ २० ॥ नाम - श्रीमुनिसुत । पिता सुमित्र महाराज | मातासोमादेवी । पूर्वस्थान- प्रानतस्वर्ग । जन्मनगर - राजगृही । . लच्छन- कछुआ : शरीरका रंग- कज्जल श्याम । आयु-सीस. हजार वरसकी । शरीरको ऊंचाई- बीस धनुष । मुकिखड्गासनसे । २० ॥ १०२ २१ | श्रीनमिनाथ तीर्थकर | नमि नमि सुरनरराज, राज सरवारथसिधकर विजयराज महराज, विप्पुलारानी उर घर ॥ आव वरस दशसहस. पुरी मिथिला सुखदाई । पंद्रह धनुष शरीर, खरगभासन जौलाई || तन कनक वरन लच्छन कमल, ज्ञानभान भ्रमतिमर हर । सिरनाय नम जुग जोरिकर, भो जिनंद भवतापहर ॥ २१ ॥ नाम - श्रीनमिनाथ । पिता- विजयराज माता - विपुलारानी । लच्छन -लाल कमल । शरीरका रंग- सोनेकासा : पूर्वस्थान - सर्वार्थसिद्धि । जन्मस्थान - मिथिलापुरी । शरीरकी ऊंचाई - पंद्रह धनुष आयु- दशहजार बरस । मुक्तिखड्गासनसे ॥२१॥' Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य भाग! १०३. २२ । श्री नेमिनाय तीर्थकर। . नेमि धरमरयनेमि, अयंतविमान वास किय । समुदायज महाराज, सिवादेवी जानो जिय । नगर द्वारिकानाम, श्यामतन जनमत हारी। आव वरस इक सइस, चापदश रजमति छारी । खरगासन प्रासन मोखको, संखचिन्ह हरिवंशनर । . सिरनाय नौं कर जोरिकर, भो जिंनद भवतापहर ॥ २२ ॥ नाम-श्रीनेमिनाथ । पिता-समुद्रविजय । माता-सिवादेवी। नगरी द्वारिका । शरीरका रंग-श्याम । पूर्वस्थानजयंतविमान । लच्छन-शंख । मायु-एक हजार वर्ष । शरीर की ऊंचाई-दशधनुष । खड्गासनसे मुक्तिगमन । २२॥ २३ । श्रीगवनायतीर्यकर। पास पास अघनास, बास पानत करि आये। अश्वसैन अवदात, मात वामा मन भाये-4 नगर बनारसि थान, जानि फनि लच्छन स्वामी । प्राव एकसौ वरस, खरगप्रासन शिवगामी ॥ तन हरित वरन नवकर धरन, वज्र प्रगट संवरशिखर । सिरनाय नमौ जुग जोरिकर, भोजिनंद भवतापहर । २३॥ नाम-श्रीपाश्वनाथ । पिता-प्रश्वसेन । माता-बामादेवी लन्छन-सर्प । जन्मनगरी-बनारस । पूर्वस्थान-आनत. स्वर्ग। शरीरका रंग हरिताभ । शरीरकी ऊंचाई ६ हाथ । आयु सौ वर्ष । मुकिगमन-खड्गासनसे ॥ २३॥ . Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.४ जैनवालबोधक२४. श्रीवर्द्धपान भगवान । वर्द्धमान जसवर्द्धमान अच्युत विमान गति । नगर झुंडपुर धार, सार सिद्धारथ भूपति । रानी-प्रियकारिणी, वनी कंचन विकाया । . . श्राव बहत्तर घरस, जोग खरगासन ध्यावा ॥ तनसात हाथ मृगनाथपति तुमते अवजौं घरम जर! सिरनाय नमो जुग जोरिकर, भो जिनंद भवताप हर ॥ २४ ॥ नाम-श्रीवर्द्धमान वा महावीर । पिता-सिद्धारयराजा । माता-प्रियकारिणी अपरनाम त्रिशलादेवी । लन्छनसिंहका । जन्मस्थान- कुंडलपुर। पूर्वजन्मस्थान अच्युत स्वर्ग! शरीरका रंग: कंचनमय । आयु-बहत्तरवरस । शरीरकी ऊंचाई सात हाय ! खड्गासनसे मुक्तिगमन ॥ २४॥ २५ । समुच्चयत्तीर्यकर नाप स्मरण । रिपभ अजित संभव अभिनंद सुमति पदमसम । जिन लुपास प्रभुचंद, सुविधि सीतल श्रेयांस नम : वासुपूज्यजी विमल, अनंत धरम पंदरमा । शांति कुंथु, अर मरिज सु मुनिसोधिरत वीसमा। नमि नेमि पास वीरेसपद, प्रष्टसिद्धि नवरिद्धि घर । . सिरनाय नमो जुग जोरिकरि भो जिनंद भवतापहर ! २५ .....पांच बालब्रह्मचारी तीर्थकर। . ..: . वासुपूज्य सुरपूज्य, मल्लि विधिमल्ल जयंकर। . . . ___नेमि देह यमनेम, पास भौ पास इयंकरः । ; . : 1 - 4 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चनुय भागा १०५ महाबीर महावीर, धीर परपीर निवारन । वड़े पुरुष संसार, सार संपति सुखकारन । .ए पंच कुमर पदई सुमर, कठिन शील-बालक उमर · . सिरनाय नमो जुग जोरिकर, भो जिनंद भवताप हर।सं। ३१. कमसिद्धांत । (२) ... (नाम कर्म ) . - २७i जो कर्म जीवको गनि प्रादिक नानारूप परिणमावै . अथवा शरीरादिक बनावै उसको नामकर्म कहते हैं। नामकर्म आत्माके सूक्ष्मत्वगुणको धातता है। - २४ा नामकर्म तिरानवे प्रकारका है चारगति (नरक, तिर्यक् मनुष्य देव ) पांच जाति (एकेंद्रिय, बौद्रिय, त्रीद्रिय, चतुरिद्रिय पंचेंद्रिय) पांच शरीर ( औदारिक, वैक्रियिक, आहारक. तेजस, कार्माण, तीन आंगोपांग (प्रौदारिक वैक्रियिक आहारक) एक निर्माण कर्म पांत्र बंधनकर्म (ौदारिकयन्धन, वैक्रियिकबंधन. श्राहारक बंधन, तेजसबंधन, कार्माणवंधन ) पांच संघात (ौदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस, कार्माण छहसंस्थान (समचतुरखसंस्थान, न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान, स्वातिसंस्थान, कुन्जकसंस्थान, नामसंस्थान, हुंडकस्थान ) इह संहनन (वनवृषमनाराच संहनन वज्रनाराच संहनन नाराचसंहननं, अर्द्धनाराव: संहनन, कीलकसंहनन, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन ) पांचवर्ण Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ È जैन बालबोधक कर्म (कृष्ण, नील, रक्त, पीत, श्वेत) दो गन्धकर्म (सुगंध, दुर्गंध ) पांच रसकर्म - ( खट्टा, मीठा, कडवा, कपायला, चर्परा ) आठ स्पर्श ( कठोर, कोमल, हलका, भारी, ठंडा, गरम, चिकना रूखा ) चार श्रानुपूर्व्य ( नरक, तिर्यच, मनुष्य, देव ) एक अगुरु लघुकर्म, एक उपघात कर्म, एक परघात कर्म, एक उद्योत कर्म, दो विहायोगति ( एक मनोत दूसरा अमनोश ) एक उच्छवास, एक सक्रर्म, एक स्थावर, एक बादर, एक सूक्ष्म, एक पर्याप्तकर्म, एक अपर्याप्तकर्म, एक प्रत्येक नामकर्म, एक साधारण नाम कर्म, एक स्थिरनामकर्म, एक अस्थिरनाम कर्म, एक शुभनामकर्म, एक - शुभनाम कर्म, एक सुभगनाम कर्म, एक दुर्भगनाम कर्म. एक सुस्वरनाम कर्म, एक दुःस्वरनाम कर्म, एक आदेयनाम कर्म. एक अनादेयनामकर्म, एक यशस्कीर्तिनाम कर्म, एक प्रयशःकीर्तिकर्म, एक तीर्थकरनामकर्म | २६ । जिस कर्मके उदयसे जीव नारकी, तियेच मनुष्य और देवके गतिमेंसे किसी एक गतिको छोड़कर दूसरी गतिमें जाय उसको गति नाम कर्म कहते हैं । ३० । अव्यभिचारी सदृशतासे जो पदार्थोको एक तरहका बतलावे उसे जाति कहते हैं। ३१ | जिस कर्मके उदयसे एकेंद्रिय द्वीन्द्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, पंचेंद्रिय, कहा जाय उसको जातिनामकर्म कहते हैं। ३२ । जिस कर्मके उदयसे श्रात्माके प्रौदारिक आदि शरीर बनै उसको शरीरनाम कर्म कहते हैं। . Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। ३३ जिस कर्मके उदयसे भंग उपांगोंकी ठीक २ रचना हो उसको निर्माण कर्म कहते हैं। ३४ाजिस कर्मके उदयसे श्रौदारिकादिक शरीरोंके परमाणु परस्पर संबंधको प्राप्त हों उसको बंधननाम कर्म कहते है। ३५ जिस कर्मके उदयसे औदारिकादि शरीरोंके परमाणु. छिद्ररहित एकताको प्राप्त हों उसे संघात नाम कर्म कहते हैं। ३६ । जिस कर्मके उदयसे शरीरकी प्राकृति (शकल नै उसे संस्थाननाम कर्म कहते हैं। ३७ । जिस कर्मके उदयसे शरीरकी शकल ऊपर नीचे वीच. में समभागले बने, उसे समचतुरस्रसंस्थान कहते हैं। • ३८ जिस कर्मके उदयसे जीवका शरीर पड़के वृक्षकी तरह नाभिसे नीचेके अंग छोटे और ऊपरसे बड़े हों उसे न्यग्रोध परिमंडल संस्थान कहते है। ३६ जिस कर्मके उदयसे नाभिसे ऊपरके अंग छोटे और नीचेके बड़े हों उसे स्वातिसंस्थान कहते हैं। ४० । जिस कर्मके उदयसे कुबड़ा शरीर हो उसे कुन्जक संस्थान कहते है। ४१। जिस कर्मके उदयसे बौना (छोटा) शरीर हो उसे बामनसंस्थान कहते हैं। ४२॥ जिस कर्मके उदयसे शरीरके आंगोपांग किसी खास शकलके न हों उसे हुंडक संस्थान कहते हैं। • ४३ । जिस कर्मके उदयसे हाड़ोंका बंधन विशेप हो उस्ले संहनननाम कर्म कहते हैं। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जेनवालवोधक - ४४। जिस कर्मके उदयसे वज्रके हाड़, वज्रके वेठन, और वज्रकी ही कीलियां हो उसे वजूर्षभनाराच संहनन कहते हैं। * ४५ । जिस कर्म के उदयसे वजूके हाड़ और वज्रकी कीली म्हों परंतु वेठन वज्रके न हों उसे वजूनाराच संहनन कहते हैं। 4:3 ४६ । जिस कर्मके उदयसे वेठन और कोली सहित हाड़ हों उसे नाराचसंहनन कहते हैं । : ४७ । जिस कर्मके उदयसे हाड़ोंकी संधि, अर्द्धकीलित हो उसे प्रर्द्धनाराचसंहनन कहते हैं । ४८ । जिस कर्मके उदयसे हाड ही परस्पर कीलित हों उसे कीलक संहनन कहते हैं । ४६ | जिस कर्मके उदयसे जुदे हाड नसोंसे बंधे हों, परस्पर कीले हुये न हों उसे प्रसंप्राप्त पाटिकासंहनन कहते हैं। ५० । जिस कर्मके उदयसे शरीर में रंग हो उसे वर्णनाम कर्म कहते हैं । : ५१ । जिस कर्मके उदयसे शरीरमें गंध हो, उसे गन्धनाम कर्म - कहते हैं । : ५२ | जिस कर्मके उदयसे शरीरमें रस हो उसे रसनाम -कर्म कहते हैं । • ५३ | जिस कर्मके उदयसे शरीर में स्पर्श हो उसे स्पर्शनाम .: कर्म कहते हैं । ५४ | जिस कर्मके उदयसे श्रात्मांके प्रदेश मरण के पीछे और जन्म से पहिले रास्तेमें अर्थात् विग्रहगतिमें मरण से पहिले'के शरीर के आकार रहे, उसे आनुपूर्वी कर्म कहते हैं ! Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भांग | To -५। जिस कर्मके उदयसे शरीर लोहे के गोलेके समान भारी और प्राककी रूईके समान हलका 'न हो उसे अगुरुलघु नाम कहते हैं । ५६ । जिस कर्मके उदयसे अपने ही घात करनेवाले अंग i दों उसे उपघात नाम कर्म कहते हैं । - - ५७। जिस कर्मके उदयसे दूसरेका घात करनेवाले अंग उपांग हों, उसे परघात नाम कर्म कहते हैं । 2 " ५८ । जिस कर्मके उदय से प्रातापरूप शरीर हो उसे आताप कर्म कहते हैं । जैसे सूर्यका प्रतिविंव । ५६) जिस 'कर्मके उदयसे उद्योतरूप शरीर हो उसे उद्योत नाम कर्म कहते हैं। ६० । जिस कर्मके उदयसे श्राकाशमें गमन हो उसे विहा योगति नाम कर्म कहते हैं। इसके शुभविहायोगति और अशुभविहायोगति दो भेद हैं। ÷ :: ६१ | जिसे कर्मके उदयसे श्वासोच्छवास हों उसे उच्छवास नाम-कर्म कहते हैं। ६। जिस कर्मके उदयसे द्वींद्रिय आदि जीवोंमें जन्म हो उसे स नाम कर्म कहते हैं। • ६३ । जिस कर्मके उदयसे पृथिवी श्रप तेज वायु और वनस्पतिमें जन्म हो उसे स्थावर नाम कर्म कहते हैं । ६४ । जिस कर्मके उदयसे अपने २ योग्य पर्याप्ति पूर्ण हों उसे पर्याप्त नाम कर्म कहते है Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जैनवालबोधक ६५ । श्राहार धर्मणा, भाषावर्गणा और मनोवर्गयाके परमात 'ओंको शरीर इंद्रियादिरूप परिणामावने की शक्तिकी पूर्णताको 'पर्याप्ति कहते हैं । ६६ । पर्याप्त छह प्रकारकी है-आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ्वासपर्याति, भाषापर्याप्ति, मनःपर्याप्ति, ६७ । श्राहारवर्गणाके परमाणुओं को खल और रसमान- रूप परिणामावनेको कारणभूत जीवकी शक्तिको पूर्णताको श्राहार 'पर्याप्ति कहते हैं। ६८ | जिन परमाणुओं को खलरूप परिणमाया था उनके. हाड वगेरह कठिन अवयवरूप और जिनको रसरूप परिय भाषा - था उनको रुधिर यदि द्रव्यरूप परिणमावनेको कारबभूत 'जीवकी शक्तिको पूर्णताको शरीरकी पर्याप्ति कहते हैं। ६६ । प्राहारवर्गणाके परमाणुओंको इन्द्रियके आकारपरिवमावनेको तथा इन्द्रियद्वारा विषय ग्रहण करनेको कारणभूत 'जीवकी शक्तिकी पूर्णताको इंद्रियपर्याप्ति कहते हैं। ७० | आहारवर्गणाके परमाणुओंको श्वासोच्छ्वासरूप परि- मावनेको कारणभूत जीवको शक्तिकी पूर्णताको श्वासोच्छवास - पर्याप्त कहते हैं। .७१ । भाषावर्गलाके परमाणुओं को वचनरूप परियमायने के 'लिये कारणभूत जीवकी शक्तिकी पूर्णताको भाषापर्याप्ति कहते हैं। 1 ७२ । मनोवर्गलाके परमाणुओंको हृदयस्थानमें भाठ पांदुरी Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग! : . के कमलाकार मनरूप परिणेमावनेके तथा उसके द्वारा यथावत् विचार करनेके लिये कारणभूत जीवकी पूर्णताको मनम्पर्याप्ति ७३ । पकेंद्रिय जीवके भाषा और मनके विना चार पर्याप्ति होती है। दींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिट्रिय और असैनी पंचेंद्रियके मनके विना पांव पर्याप्ति होती है और सैनी पचेंद्रियके छहो पर्याप्ति होती है। इन सब पर्याप्तियोंके पूर्ण होनेका काल अंत. मुहर्त है और एक एक पर्याप्तिका काल भी अन्तर्मुहूर्त है और सवका मिलकर भी अंतर्मुहूर्त काल है। परंतु पहिलेसे दुसरेका दुसरेसे तीसरेका इसी प्रकार छठे तकका काल क्रमसे बड़ा बड़ा अंतर्मुहर्त है। अपने २ योग्य पर्याप्तियोंका प्रारंभ तो एकदम होता है किंतु पूर्णता क्रमसे होती है। जबतक किसी जीवकी शरीर पर्याप्ति पूर्ण न हो परंतु नियमसे पूर्ण होनेवाली हो तबतक उस जीवको निवृत्त्यपर्याप्तक कहते हैं और जिसकी शरीरपर्याप्ति पूर्ण हो गई हो उसे पर्याप्तक कहते हैं। जिसकी एक भी पर्याति पूर्ण न हो तथा श्वासके अठारहवें भागमें ही भरण होनेवाला हो, उसको लन्यपर्याप्तक कहते हैं। . . ____७४: जिस कर्मके उदयसे लब्ध्यपर्याप्तक अवस्था हो उसको अपर्याप्तिक नाम कर्म कहते हैं। . . .. . .७५ जिस कर्मके उदयसे एक शरीरका. एक ही स्वामी हो. उसे प्रत्येक नाम कर्म कहते है। , ७६ जिस कर्मके उदवसे.एक शरीर के अनेक जीव स्वामी Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ जैनवालबोधः(मालिक) हों, उसे साधारण नामकर्म कहते हैं। - ७७ जिस कर्मके उदयसे शरीरके धातु उपधातु अपने ठिकाने रहैं उसको स्थिर नामकर्म कहते हैं और जिस कर्मसें शरीरके धातु उपधातु अपने अपने ठिकाने नरहें उसकोअस्थिर नामकर्म कहते हैं। . . . . . . . ७८ । जिस कर्मके उदयसे शरीरके अवयव सुन्दर हो उस को शुभंनाम कर्म कहते हैं। .. ___७ । जिसके उदयसे शरीरके अवयव सुन्दर न हों उसको अशुभ नामकर्म कहते हैं। . .८० । जिस कर्मके उदयसे दुसरे जीव अपनेसे उसको सुभग नाम कर्म कहते हैं | । जिस कर्मके उदयसे दूसरे जीव अपनेसे दुश्मनी या वैर करें .उसको दुर्भग नामकर्म कहते हैं। ८२ जिस कर्मके उदयसे अच्छा स्वर हो उसे सुस्वरनाम. कर्म कहते हैं। ' ८३। जिसके उदयसे स्वर अच्छा न हो उसे दुःस्वर नामकर्म कहते हैं। । जिस कर्मके उदयसे कांति सहित शरीर पैदा हो उसको आदेय नामकर्म कहते हैं। ५। जिसके उदयसे कांति सहित शरीर न हो उसे प्रनादेय नामकर्म कहते हैं। : . . . . ८६ जिस कर्मके उदयसे संसारमें जीवको प्रशंसा हो उस Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । ११३ को यशः कीर्ति नामकर्म कहते हैं । ८७ | जिस कर्मके उदयसे जीवकी प्रशंसा न हो उसे श्रयश: कीर्ति नामकर्म कहते हैं। तीर्थकर भगवानके पदके कारणभूत कर्मको तीर्थकर नाम कर्म कहते है | ३२. सगर चक्रवर्त्ती और भगीरथ महाराज । ፡ 1 भगवान अजितनाथक समयमें इक्ष्वाकुवंशमें दूसरे चक्रवर्ती महाराज सगर हुये । इनके पिताका नाम समुद्र विजय, माताका नाम सुवाला था । इनकी प्रायु सत्तर लाख पूर्वको और शरीर साढ़े चार सौ धनुष ऊंचा था, ये अठारह लाख पूर्वतक महामंडलेश्वर राजा थे । इसके बाद इनकी आयुधशाला में चक्ररल को उत्पत्ति हुई तब छहों खंडोंको विजय करके चक्रवर्ती हो गये । प्रथम भरत चक्र के समान इनके यहां भी चौदह रत्न नवनिधि ६६ हजार स्त्रिय वगेरह समस्त संपदायें पकसी थीं, इनके साठ हजार पुत्र थे । एक दिन श्रीचतुर्मुख नामक केवलज्ञानधारीके ज्ञान कल्याके उत्सव स्वर्गो देव श्राये और सगर भी गया था तो उन देवोंमें सगरचक्रवर्तीका एक मित्र मणिकेतु नामका देव था, उसने सगर महाराज से प्रार्थना की कि जब तुम स्वर्गमें थे तव तुमने हमने प्रतिक्षा की थी कि दोनोंमेंसे जो कोई प्रथम मनुष्य भवमें -- Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जैनवालवोधकजावै उसको स्वर्गस्थ देव संवोधन करके तप ग्रहण करावे सो अव संसारके भोग बहुत भोग चुके, स्वर्गाकेसे भोग तो इस मनुष्य भवमें है ही नहीं, इसकारण इन भोगोंसे विरक्त होकरतप ग्रहण कीजिये । परन्तु सगरने यह स्वीकार नहिं किया । देवने अनेक यत्न किये परन्तु समय निष्फल हुये दूसरी बार मणिकंतु देव चारण मुनिका रूप धरकर सगरके यहां आया और बहुत कुछ समझाया परंतु पुत्रादिकोंके मोहमें मग्न हुये सगरचक्र. वर्तीने गृस्थावस्था नहिं छोड़ी। सगरके साठ हजार पुत्रोंने एक दिन अपने पितासे कहाकि हम सब जवान हो गये, हमारे लिये किसी भी प्रसाध्य कार्यकी आक्षा दें तो हम वह साध लावें । चक्रवर्तीने कहा कि-पृथिवी तो हमने जीत ली है अब कोई कार्य नहीं है, इसलिये तुम लीग खाओ पीओ और संसारके सुख भोगी। उसवक्त तो सब कुंअर चले गये परंतु कुछ दिनों बाद फिर वही प्रार्थना की कि-हमें कुछ काम बताइये, तव चक्रवर्तीने कहा कि कैलास पर्वतपर भरत महाराजने ७२ जिनमंदिर बनवाये हैं आगे निकृष्ट काल आता है सो उनकी रक्षाके लिये तुम लोग ऐसा करो कि- कैलास पर्वतके चारों तरफ खाई खोदकर उसमें गंगाकी नहर लाकर भरदो । तव समस्त पुत्र आक्षा शिरोधारण कर कैलासपर गये और दंडरत्नकी सहायतासे कैलासके चारों तरफ खाई खोदकर गगाके प्रवाहसे भर दिया। इसी समय उपर्युक्त सगरके मित्र मणिकेतु देवने अपने Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य भाग । ११५ मित्रको समझाकर संसारसे उदासीन होनेका अच्छा मोका देख कर सर्पका रूप धारण करके अपनी फुंकारसे सगरके समस्त पुत्रोंको वेहोश कर दिया । फिर एक लड़केकी लास कंधपर लेकर वृद्ध ब्राह्मणका रूप धारण करके सगरके पास गया और कहने लगा कि महाराज ! आप सबके रक्षक हैं, यमराजने मेरे जवान पुत्रको अकालमें ही मार दिया सो श्राप इसकी रक्षा करें इसपर सगर, चक्रवतींने कहा कि संसारमें यमकी दाढसे जीव को निकालनेवाला कोई नहीं है इसलिये हे वृद्ध ! तुम इस लासका मोह छोड़कर तप धारण करो, नहीं तौ प्राज कलमें तुमको भी यमकी दादमें जाना पड़े तौ प्राचर्य नहीं । तत्र ब्राह्मणने कहा कि आपका कहना यथार्थ है परंतु मैंने रास्ते में अभी २ सुना है कि- कैलासकी खाई खोदते २ आपके सब पुत्र मर गये, धाप - क्यों नहीं तप धारण करते ? इसको सुनते ही चक्रवर्त्ती वेहोश हो गया और शीतोपचार से जब चेत या गया तो एक राजदूतने आकर सव पुत्रोंके मरनेकी खबर सुनाई जिससे चक्रवत्तको संसारकी अनित्यतासे बड़ा भारी वैराग्य हो गया और उसीवक्त 'विदर्भा रानी के पुत्र भगीरथको राज्य देकर आपने तप धारण -कर लिया । तत्पश्चात् मणिकेतु देवने उन साठ हजार पुत्रोंको सचेतकर 'के कहा कि--तुमारे पिताने तुम सबका मरण समाचार सुनकर भगीरथको राज्य देकर तप धारण कर लिया है। यह बात सुनते ही उन सबको वैराग्य हो गया और जो मार्ग हमारे पिताने Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालवोधकलिया यही हम भी लेगें सो वे दीक्षा ले गये और भगीरथ महा. राजने अणुव्रत लिये । चक्रवर्ती और उनके पुत्र सवको यथासमय केवलज्ञान प्राप्त हुश्रा और सव मोक्षमें गये। भगीरथ महाराजने जव पिताके मोक्ष जानेका समाचार सुना तौ शिवगुप्त मुनिके पास कैलासपर गंगाके किनारे मुनिदीक्षा धारण कर ली। देवोंने आकर उसी गंगाके जलसे भगीरथका अभिषेक किया। भगीरथके चरणोंसे गंगाके जलका संयोग होने के कारण गंगा नदी पवित्र हो गई और भागीरथीके नामसे प्रसिद्ध हुई और उसी दिनसे लोग इसे तीर्थ मानने लगे। भगी. स्थ महाराजको भी केवलझान हुआ और कैलास पर्वतसे मोक्ष को पधार गये। ३३. छहढाला प्रथमढाल । सोरठा। तीनभवनमें सार, वीतराग विज्ञानंता । शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिक ॥ १ ॥ मैं (दौलतराम) तीनलोकमें सार कल्याण करनेवाली मोक्षस्वरूप वीतराग विज्ञानताको (निर्दोषवानरूपी विद्याको) मन वचन कायको सम्हालकर नमस्कार करता हूं ॥१॥ चौपाई १५ मात्रा। जे त्रिभुवनमें जीव अनंत । सुख चाहे दुखते भयवंत ।। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ चतुर्थ भाग । ता दुखहारी सुखकार । कहें सीख गुरु करुणा धारि ॥ ताहि सुनह पविपन थिर धान । जो चाहे अपना कल्यान ॥ तीन लोकमें जो अनंत जीव हैं. वे सबही सुख चाहते हैं दुख से भयभीत रहते हैं । इसकारण दयाकरके श्रीगुरु दुखको हरनेवाली सुखको करनेवाली शिक्षाको ( श्रागें ) कहते हैं । उसे मनको स्थिर करके सुनो । मोहमहापद पियो अनादि । भूल आपको भरमत वादि || तास पनकी है बहु कथा । पै कछु कहू कही मुनि जया ॥ यह जीव अनादि काल से अज्ञानरूपी मदिराको पीकर असली स्वरूपको भूलकर व्यर्थही संसारमें भ्रमण करता है। इस भ्रमण करने की बहुत बड़ी कहानी है उसको जैसी - पूर्वाचार्यों ने कही है, मैं भी कुछ कहता हूं । काल अनन्त निगोद मकार । वीत्यो एकेंद्रिय तन धार ॥ एकस्वासमें अठदश वार | जन्म्यो मरयो भरयो दुखभः ॥ निकसि भूमि जल पावक भयो । पवन प्रत्येक वनस्पति थयो दुर्लभ लहिये चितामणी । त्यों परजाय लही त्रसती || लट पिपल अलि आदि शरीर । घर घर मरयो पही बहु पीर प्रथम तौ इस जीवने अनादिकालसे एकेंद्रियका शरीर धारण करके अनंतकाल निगोदमें ही विताया सो वहां एक श्वासमें १ | एक मुहूर्त दो घडी अर्थात् ४८ मिनिटका होता है । इस एक मुहूर्तमें ३७७३ श्वासोच्छ्वास होते हैं ऐसे एक श्वासमें । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जैनवालवोधकअठारहवार जन्म मरन करके बहुत ही दुख भोगा। निगोदसे निकलकर फिर पृथिवीकाय, अलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, और प्रत्येक वनस्पतिकायमें एकेंद्रिय स्थावर जीव होकर नाना प्रकारके दुख बहुत काल तक भोगे । तत्पश्चात्-जिसप्रकार चिंतामणिरत्न बड़ी कठिनतासे मिलता है उसीप्रकार असपर्याय पड़ी कठिनतासे प्राप्त हुई। उस सपर्यायमें लट, विवटी.भ्रमर. वगेरहके शरीर धारण करके मरा और अनेकप्रकारके दुख सहे ॥६॥ कवहूं पचेंद्रिय पशु भयो । मनविन निपट अज्ञानी थयो। सिंहादिक सैनी है कूर । निवल पशु हति खाये भूर ॥ कवह भाप भयो बलहीन । सवलनिकरि खायो अति दीन।। छेदन भेदन भूख पियास । भारवहन हिम आतप त्रास ॥ वघ बंधन आदिक दुख घने । कोटि जीमतें जात न भने। प्रतिसक्लेशमावत परयो । घोर शुभ्रसागग्में परयो।। देव योगसे कभी पंचेद्रिय पशु हुवा तौ मन विना निपट प्र. झानी हुवा, मनसहित सैनी पंचेंद्रिय हुवा तौ सिंह व्याघ्र प्रादि करहिंसक जीव हुआ सो अनेक निवल पशुवोंको मारकर पेट भरा। कभी स्वयं बलहीन दीन पशु हुवा तौ सकल पशुवों द्वारा साया गया इसके सिवाय छेदन, भेदन, भूख मरना, वोझा ढोना: सीत सहना, गर्मीका सहना, मारना बांधना वगेरह अनेक प्रकार के ऐसे दुख सहे जो करोड़ जीभोंसे भी वर्णन करनेमें नहि श्रावै। तत्पश्चात् संक्लेश भावोंसे मरकर घोर नरकरूपी समुद्र में जाकर Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ चतुर्थ भाग । तां भूमि परसत दुख इस्यो । बीछू सहम डसें तन तिसौ ॥ तहां राध शोणित वाहिनी । कृमिकुलकलित देहदाहिनी || उस नरक में पृथिवी ऐसी है कि उसके छूनेसे ऐसा दुख होता है जैसा कि हजार विच्छूके काटनेसे होता है। उस नरकमें राध (पीव ) और लोहूकी नदी अनेक प्रकारके कोड़ोंले भरी हुई देहको जलानेवाली बहती है ॥ १० ॥ तथा . सेमरतरु जुतदल असि पत्र । असि ज्यों देह विदारै तत्र ॥ मेहसमान लोह गलि जाय। ऐसी शीत उष्णता थाय ॥ 1 उस नरक में तलवार की धारके समान तोखे पत्तेवाले सेमरके वृक्ष हैं उनके नीचे जाते ही वे पत्ते गिरकर तरवारकी माफिक शरीरको काट देते हैं वहां शीत और गर्मी भी ऐसी है कि जिसमें सुमेरुकी वरावर लोहेका पिंड डाला जाय तौ तत्काल गल जाय ॥ ११ ॥ तिल तिल करहिं देहके खंड । असुर भिडावें दुष्ट प्रचंड ॥ सिंधु नीरतें प्यास न जाय । तो पण एक न बूंद लहाय ॥ पसे नरकमें नारकी जीव एक दूसरेकी देहके तिल तिल भर टुकड़े कर देते हैं । तथा दुष्ट असुर कुमार देव भी उनके पूर्व जन्मके वैर याद कराकर लड़ाते हैं । नरकमें प्यास इतनी है कि समुद्रका जल पीने पर भी नहि मिडै परंतु कभी एक बूंद पानी भी नहि मिलता ॥ १२ ॥ तीन लोकको नाज जु खाय । मिटै न भूख कणान लहाय ।। ये दुख बहु सागरलों सहै । कर्मयोग नरतन" लहै ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जैनवालवोधक.. उस नरक में भूख ऐसी है कि तीन लोकका समस्त नाज खाले तो भी न मिटै परंतु वहां पर एक कण भी खानेकों नहिं मिलता इस प्रकारके दुःख यह जीव सागरों तक सहता है। तत्पश्चात् किसी शुभ कर्मके निमित्तसे मनुष्य शरीर प्राप्त करता जननी उदर वस्यो नवमास | अंग मानते पाई त्रास ॥ निकसत जे दुख पाये घोर । तिनको कहत न आवै ओर ।। बालपने में ज्ञान न लयो । तरुणसमय तरुणीरत रह्यो । अमृतक सम वृद्धापनो। कैस रूप लखै आफ्नो ॥ १५ ॥ ' मनुष्य जन्ममें यह माताके पेटमें नवमास रहा सो वहां शरीर सुकडा हुआ रहनेसे बहुत दुख पाया। तत्पश्चात् पेटसे निकलते हुये जो भयानक दुःख भोगे उनको तौ जीभसे कहने में अंत ही नहिं आता । बालकपनमें तो हिताहितका ज्ञान ही नहिं होता और जवानीमें स्त्रीमें मग्न रहा, तीसरी अवस्था बूढ़ापन है सो वह अधमरे मनुष्यकी समान वेकाम होती है। ऐसी अव. स्थामें यह जीव अपने स्वरूपको किस प्रकार पहचान ? : १५० की अकाम निर्जरा करै । भवनत्रिको सुरतन धरै ।। विषय चाह दावानल दह्यो। मरत विलाप करत दुख ह्यो। जो विमानवासी हू थाय । सम्यग्दर्शन विन दुख पाय || तहत चय यावर तन थरै । यों परिवर्तन परे करे ॥ १७ ॥ कभी यह जीव अकाम निर्जरा करता है तो भवनवासी १ समतासे कोका फल भोगनेसे जो कर्म झड जाना, वह अकाम निर्जरा है। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। यंतर या ज्योतिषी देवोंका शरीर धारण करता है परंतु वहां भी हर समय विषयोंकी चाहरूपी अग्निमें जलता रहा और मरा तव अनेक प्रकारके विलाप करके दुख पाया। जो कभी स्वर्गका भी देव हुआ तौ सम्यग्दर्शन विना सदा दुख ही पाता है। ऐसी दशामें स्वर्गसे मरकर फिर एकद्रियका शरीर धारण करता है और इसी प्रकार यह जीव संसारमें (चारों गतियोंमें ) भ्रमण करता फिरता है । १७॥ ३४. दसरथ राम लक्ष्मण सीता। भगवान् ऋषभदेवसे इक्ष्वाकुवंश चला था जिसका दूसरा नाम सूर्यवंश भी है। इस वंशमें भगवान् ऋषभदेवके पश्चात् बड़े २ राजा महाराजा चक्रवर्ती अनेक महापुरुष (पुरुषरत्न) हो गये इसी वंशमें अजुध्या नगरीमें एक सर्वरथ उनके द्विरद रथ, द्विरदयके सिंहदमन, सिंहदमनके हिरणकश्यप, हिरणकश्यपके पुंजस्थल और पुंजस्थलके रघु बडा पराक्रमी पुत्र हुवा । रघुके अरण्य नामका पुत्र हुवा । अरण्यकी पृथिवीमती रानीके दो पुत्र हुये । एक अनंतरथ, एक दशरथ । __महिष्मती नगरीका राजा सहस्ररश्मि अरण्यका परम मित्र था। जब लंकाधिपति रावणने युद्ध में सहलरश्मिको जीत लिया और सहस्ररश्मि संसार शरीर भोगोंसे विरक्त होकर दीक्षा लेने लगे तो अपने मित्र अरण्यको पूर्वमें की हुई प्रतिज्ञाके अनु Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनवालवाधकसार अपने दीक्षित होनेके समाचार भेजे। यह समाचार सुन महाराज अरण्य भी अपने लघुपुत्र दशरथको राज्य देकर बड़े पुत्र अनंतरथ सहित मुनिदीक्षा धारण करके महान तपके द्वाप समस्त कर्मोको नष्ट कर निर्वाणको प्राप्त होगये। इधर राजा दशरथ अयोध्यामें रह कोशल 'देशका राज्य करने लगे और नवयौवनको प्राप्त होकर पृथिवीमें प्रसिद्ध हो गये। महाराज दशरथने दरभस्थल नगरका राजा कौशल, रानी अमृतप्रभाकी पुती कौशल्या जिसका दूसरा नाम अपराजिता था, व्याही । तत्पश्चात् एक कमलसंकुल नामक बड़े नगरके राजा सुवंधु, रानी-मित्राकी पुत्री सुमित्राको व्याहा । तीसरेकिसी अन्य नगरके महाराजतिलक नामक राजा, रानी सुलभाकी पुत्री-सुप्रभा व्याही । राजा दशरथने राज्यका परम उदय पाकर सम्यग्दर्शनको रत्न समान जान दृढ़तासे धारण किया और राज्यको तृण समान मानने लगा। क्योंकि राज्यको नहि त्यागै तो नरक गति हो और त्याग दे तो स्वर्ग वा मोक्ष प्राप्ति हो। पूर्वकाल में जो अनेक चैत्यालय मंदिर चक्रवर्ती भरत महाराजने धनवाये थे उन सबका जीर्णोद्धार राजा दशरथने कराया जिससे नवीनसे दीखने लगे । तथा. तीर्थंकरोंके कल्याणक स्थानोंकी रत्नोंसे पूजा करता हुवा। एक दिन महाराज दशरथ प्रतापसहित अपनी सभामै वि: राजता था सो नारदजी (ब्रह्मचारी) आकाशमार्गसे उतरते हुवे आये उन्होने महाराज दशरथको अपने सुमेरुपर्वत विदेहक्षेत्र Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुथ भाग । १२३ आदि समस्त जगहके दर्शन यात्रा व उत्सव देखनेका वृतांत } कहकर एकांत में ले जाकर कहा कि "मैं दर्शनके लिये पर्यटन करता २ लंकामें रावणको सभामें गया था वहां एक ज्योतपीसे रावणने पूछा कि मेरी मृत्यु किस कारणसे होगी तब ज्योति-पीने कहा कि - राजा दशरथके पुत्र और राजा जनककी पुत्रीके कारणसे होगी सो रावण बड़ा घबड़ाया। विभीषणने कहा- आपको धवड़ानेकी जरूरत नहीं, मैं इन दोनोंके पुत्र पुत्रीके पैदा होने-से पहिले ही उनका सिर काट लाऊंगा । फिर मेरेसे पूछा कि महाराज ! आप सर्वत्र विहार करते हैं सो इन दोनों राजावका हाल जानते होंगे। तव मैंने कहा कि- मैं बहुत दिनोंसे इनके यहां गया नहीं सो वहां जाकर दोनोंकी खबर कहूंगा ऐसा कह कर मैं दौड़कर तुमारे पास आया हूं सो महाराज ! आप कुछ.दिनतक भेष बदलकर देशांतर में चले जांय तौ ठीक है। विभीपण यापके मारने को अवश्य श्रावैगा, मुझे शीघ्रही राजा जनक कभी यह खवर देनी है ।" ऐसा कहकर नारदजी श्राकाशमार्गसे तुरंत ही मिथिलापुरी पहुंचे और महाराज जनकको भी सावधान कर दिया। सो दोनोही राजावोंके मंत्रियोंने राजावोंको तौ भेष बदलकर देशाटन करनेको भेज दिया और दोनों ही महाराजावोंका एक एक नकली पुतला बनाकर सतखने महलमें रख दिया और महाराज बीमार हैं सो महलोंमें ही रहते हैं, यह. प्रसिद्ध कर दिया और यहांतक गुप्त प्रबंध किया कि दोनों मंत्रीऔर राजांयोंके सिवा पांचवा मनुष्य कोई भी इस भेदको नहि : 1 जानता था । . Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनवालवांधक तत्पश्चात् प्रतिशानुसार विभीषणने कई सुभट भेजे परंतु उनको खवर न मिलने से स्वयं विभीषणाने ही अनुध्या और मिथ लापुरी जाकर दोनों जगह महलोंमें अपने खास मनुष्यको मेज. कर दोनोंका माथा कटवाकर रावगाको दिखाया । तत्र रावण निश्चित हुआ, परंतु विभीषणने यह कार्य करके बड़ा पश्चाताप किया कि मैंने बड़ा अन्याय किया जो दो राजाओं के व्यर्थ ही प्रागा लिये उसके प्रायश्चित्तार्थ जिनमंदिरमें जाकर बड़ा पूजन महोत्सव करके पुण्योपार्जन किया और इस महा पापको बालो चना करके फिर ऐसा कार्य कदापि नहीं करूंगा ऐसी प्रतिशाकी । महाराज दशरथ और महाराज जनक दोनों मिलकर अकेले देशाटन करने लगे । सो एक दिन उत्तर दिशामें कौतुकमंगल नामक नगर के समीप आये। यहां पर राजा शुभमति राज करता "था, उसकी रानी पृथुश्रीसे केकई नामकी महागुणवती सुंदर 'पुत्री समस्त प्रकारकी विद्या और कलाओंमें चतुर थी। उसके योग्य वर न मिलने से राजाने स्वयंवरमंडप रचा था सो देश 'देशके सैकड़ों राजकुंवर अपने विभवसहित आये थे. ये दोनों राजा भी अपने दीन भेषसे इस स्वयंवरको देखने के लिये खड़े थे। सो मनुष्योंके समस्त लक्षणोंकी ज्ञाता के कईने समस्त राजा वा राजकुंवरोंको उलंघन कर एक किनारे खड़े हुये दशरथ राजा- को हृदय कमल और नेत्रदृष्टिरूपी मालासे वरण कर लोक-दिखाऊ रत्नमाला से वरण किया। जिसको देखकर न्यायी राजा तौ प्रसन्न हुये कि बहुत ही योग्य वरको प्राप्त हुई और घनेक राजाओंने उदास हो अपना २ रास्ता लिया परन्तु अनेक राजा १२४ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । १२५. वी राजकुामर वोले कि इतने बड़े २ राजा महराजाओं को छोड़कर एक अज्ञातकुलशील विदेशीको वरमाला पहनाई सो कन्या i मूर्ख है इस दोनको मारकर कन्या छोन लो । तब कन्याके पिता | महाराज शुभमतिने राजा दशरथ से कहा कि हे भव्य ! मैं इन । दुष्टोंको निवारण करता हूँ तुम कन्याको रथमें बिठाकर अन्यत्र जानो । तब दशरथ महाराजने हंसकर कहा कि आप निश्चित रहिये मैं अभी आपके देखते २ इन सब गीदड़ों को भगाये देता हूं - ऐसा कहकर रथपर चढ़ गये और केकई सर्व कला में चतुर रथः हांकने लगी सो समस्त प्रधान २ राजाओंको युद्ध करके सगा : दिया । केकईके रथ हांकनेकी चतुराईसे हो अकेले दशरथने समस्त राजाओंको जीतकर विजयलक्ष्मी प्राप्त की तत्पश्चात् कौतुकमंगल नगर में केकईका पाणिग्रहण करके गाजे बाजे और मंगलाचार सहित प्रजोध्या प्राये और राजा जनक मिथलापुरी गये और फिरसे जन्मोत्सव व राज्याभिषेक हुआ। महाराज दशरथने समस्त रानियोंके सामने केकईसे कहा कि-तेरी रथ हांकने की चतुराईसे मैं बहुत ही प्रसन्न हुआ सो तूमन चाहा वर मांग, तब के कई विनयपूर्वक प्रार्थना की कि मेरा वर अपने पास जमा रक्खे, जब मुझे जरूरत होगी तब मांग लूंगी। तब राजाने कहा कि-ठीक है । तेरा वर जमा है जब जरूरत हो तब मांग लेना । : इसप्रकार महाराज दशरथ चारो रानियों सहित नाना प्रकार के विषय भोग करते हुये सुखसे राज्य करने लगे । तत्पश्चात् क्रमसे कौशल्याके उदरसे रामचन्द्र सुमित्राके लक्ष्मण और केक के भरत तथा सुप्रभाके शत्रुघ्न इसप्रकार चार पुत्ररत्न: 1 . Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · ·१२६ जैनबालवोधकउत्पन्न हुये। चारों ही के जन्म समय नाना प्रकारके उत्सव हुये ‘दरिद्रोंको किमिच्छा दान दिया और जिनमंदिरों में मंडलविधान श्रादि परम उत्सव किये । जब चारो भाई बड़े हो गये ना समस्त प्रकारको विद्यायें पढ़ाई गई विशेषकर धनुर्विद्याके जान कार विद्वानसे धनुर्विद्या सिखाई, जिससे चारो दी भाई समस्त विद्याभोंके पारगामी हो गये । चंपापुरके राजा चक्रध्वज रानी मनस्विनीके चित्रोत्सवा 'नामकी सुंदर कन्या थी सो कुमारी चटशाला में पढ़ती थी। उसी राजाका पुरोहितका पुत्र पिंगल भी उसी पाठशालामें पढ़ता था तो इन दोनोंके परस्पर प्रीति हो गई। पिंगलने चित्रोत्सवाको कहा कि महाराज मेरे साथ तेरा विवाह हरगिज न करेंगे इस कारण चलो, कहीं भग चौने । तर वह पिंगल राजपुतीको लेकर जहां अन्य राजाओंकी गम्य नहीं ऐसे विदर्भ नगरमें आकर नगर के बाहर कुटी बनाकर रहने लगा और दोनों जने तृण काष्ट पंच कर बड़े कटसे गुजारा करने लगे । उस नगरके राजा प्रकाश सिंहका पुत्र कुंडलमंडित एक दिन चित्रोत्सवाको देख कर मोहित हो गया सो अपनी दुती भेजकर चित्रोत्सवाको अपने महलमें बुला लिया सो नाना भोग भोगने लगा। इधर पिंगल स्त्रीके हरण से पागलासा हो गया परंतु भ्रमता २ एक दिन आर्यगुप्तमुनिके दर्शन हो गये, उपदेश पाकर दिगम्बर मुनि हो गया सो मरकर भवनवासी देव हुश्रा और चित्रोत्सवा और कुंडलमंडित श्रावक के व्रत धारकणर मरे सो दोनों ही राजा जनककी रानी विदेहाके “गर्भ आये । भवनवासी देवने अवधिज्ञानसे विचारकर देखा Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग! १२५ । तौ मालूम हुवा कि-चित्रोत्सवा और कुंडल मंडित मेरा शत्रु विदेहाके गर्भ में है । इसको मेरी स्त्रीके हरणका दंड अवश्य देना ' चाहिये सो विदेहाके पैदा होते ही वह देव पुत्रको उठाकर ले गया • परंतु पीछे पापले भयभीत हो उसके कानोंमें कुंडल पहनाकर पर्णलब्धि नामक विद्याके द्वारा आकाशसे पृथिवीपर छोड़ दिया सो विजयाचके दक्षिणश्रेणीके रथनूपुरके राजा चंद्रगति नामक विद्याधरने आकाशसे पड़ा देख उसको उठा लिया और इसे प्रभावशाली बालक समझ अपनी पुष्पावती रानीकी जांघोंमें रखकर तेरे पुत्र हुवा कहकर जगाया और यह किसी बड़े कुलका पुत्र है कहकर समझा बुझाकर रानीकों पालनेके लिये राजी किया और पुत्रजन्मोत्सव करके विद्याधरने उसका नाम भामण्डल रक्खा। इधर पुत्र हरा जान राजा जनक और विदेहाने बड़ा दुःख किया, सर्वत्र खोज कराई पता नहिं लगा। परंतु कन्याकी सुंद: रता देख संतोष किया। और इसका नाम सीता रक्खा । कुछ दिनों वाद वैताढ्य पर्वतके दक्षिण कैलास पर्वतके उत्तर भागमें अनेक अंतर देश हैं उनमें एक अर्द्धववर देशमें असंयमी जीवोंकी ही वसती है । वह देश महा गृह म्लेच्छोंसे भरा है । उस -देशमें मयूरमाला नगरीका म्लेच्छ प्रातरंगल नामकार राजा अनेक म्लेच्छोंकी सैना लेकर प्राया । देशोंको लूटता हुआ जनक राजाके देशोंको भी लूटनेकेलिये आया।महाराजा जनकने म्जेच्छोंको प्रवल समझकर महराज दशरथके पास दूत भेजकर राम लक्ष्मणकोवुलाया सो इन दोनों भाइयोंने पाकर समस्त म्लेच्छोंको Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवालवांधकजीतकर भगा दिया और राजा जनकको निर्भय कर दिया। इसी • उपकारसे प्रसन्न होकर जनकने श्रीरामचंद्रको सीता व्याह देने का विचार पक्का करके दशरथ वा रामको प्रार्थना की और इन्होंने भी यह संबंध स्वीकार कर लिया। नारदजी, रामचंद्रजी को सीता देनेकी है, सुनकर सीताको देखनेके लिये जनकके यहां पाये। इनको परम शील व्रतके धारी होनेसे सब राजाओं के यहां रणवासमें जानेकी छुट्टी थी सो ये जनकके रणवासमें गये उस समय सीता दर्पणमें मुख देख रही थी सो नारदजीकी जटा पा दादीकी छाया दर्पणमें पड़नेसे भय चकित हो मातासे पुकारने जगी-हाय माता!कौन था गया । सो डरके मारे भीतर महलमें चली गई नारदजी भी जाने लगे तो पहरेदार खोजेने रोक दिया और दुसरे पहरेदार-'कौन है ? कौन है ? पकड़ लो' इत्यादि कह कर नारदजीको पकडने लगे परंतु नारदजी के पास प्राकाशगामिनी ऋद्धि थी सो वे तुरंत ही आकाश मार्गले चल दिये। सीताको एक दृष्टि देख पाये थे. सो अपना अपमान समझ उसपर बड़ा कोप किया और किसी न किसी प्रकार इसे कष्टमें डालना चाहिये ऐसा विचारकर सीताका चित्रपट लिखकर रथनूपुर गया सो भामंडल बागमें बैठा था उसके सामने वह चित्रपट डाल दिया। देखते ही वह मोहित हो गया और इसके व्याहे बिना कुमारका जीना मुसकिल है यह जानकर चंद्रगति विद्याधरने मंत्रीसे मंत्र करके जनकको लाने के लिये एक विद्याधरको भेजा। वह विद्याधर अपनी विद्यासे मायामयी घोड़ा बनाकर जनकको घोडेपर बिठाकर उड़ा लाया और रयनपुरके घनमें एक जिनमः । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य भाग। दिरके पास छोड़ दिया । जनक महाराज प्रसन्न होकर जिनमंदिर में गये, दर्शन किया चंद्रगतिने भी खबर पाकर तुरंत ही ज़िनमंदिर में श्रायकर भावसहित पूजन स्तुति की । फिर जनकले मिलकर प्रसन्न होकर बोला कि.तुम अपनी पुत्री सीता हमारे पुत्र भामंडलको व्याह दो ।जनकने कहा कि-उसको तो मैंने दशरथके पुत्र रामचंद्रको देना स्वीकार कर लिया है क्योंकि उन्होंने म्लेच्छराजाको हराकर मेरे राज्यकी रक्षा की ।चंद्रगतिने बहुत समझाया पर जनकने एक न मानी रामचंद्र लक्ष्मणके पराक्रमकी प्रशंसा ही करता रहा। तव चंद्रगतिके मंत्रियोंने कहा कि हमारे यहां वज्रावर्त और सागगवत दो धनुष है सो रामचंद्र लक्ष्मण इन्हें चढ़ा सके तब तो सीता रामचंद्रको व्याह देना अगर नहिं चढ़ा सकें तो हम बलात्कार' सीताको लाकर भामंडलको व्याह देंगे। जनकने यह बात स्वीकार कर ली तव अनेक विद्याधर सुभट दोनों धनुषोंको लेकर मिथिलापुरी आये और नगरके बाहर एक श्रायुधशाला बनाकर वहां दोनों धनुप रख दिये। - महाराज जनकने श्रीरामचंद्र लक्ष्मण आदि समस्त देशोंके राजा और राजकुमारोंको निमंत्रण देकर बुलाया और स्वयंवर मंडप रचा। जबसब देशोंके राजा-आ गये तव सीताको वरमाला देकर कहा गया कि हे पुत्री!जो वीर इन दो धनुषोंको चढा सके उसीके गक्षेमें वरमाला डालना । सो उन धनुषों की अनेक देव रक्षा करते.थे और उनमें से अग्निकी ज्वाला निकलती थी। तब और सब राजा तो उन्हें देखते ही इताशं होगये परंतु रामचन्द्रजी Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवानबोधकइन धनुषोंके पास आये। इनके पुण्यके प्रतापसे अग्नि शीतल हो गई और वज्रावर्त धनुषको चढ़ाया जिसके शब्दसे समस्त राजा प्रजा भयकंपित हो गये। तत्पश्चात् लक्ष्मणने दूसरा सागरावर्त धनुष चढ़ाया तब विद्याधर वगेरह सब ही उदास हो गये और सीताने रामके गलेमें वरमाला पहनादी और उन्हीके साथ विवाह हो गया। दोनों भाई दोनों धनुष और जानकीको लेकर अयोध्या गये। इधर धनुषके साथ जो विद्याधर आये थे सो उनने रथुनूपुर जाकर चंद्रगतिसे सब समाचार कहे । उस परसे भामंडल कुपित होकर सीताको छीनकर लानेके लिये विमानोंमें बैठकर चन दिया परंतु जब अपने पूर्वजन्मके स्थान विदर्भनगर पर पाया तौ उसे पूर्वजन्मका स्मरण हो पाया और यह जानकी तो मेरी सगी वहन है यह जानकर बड़ा खिन्न हुआ और अपनेको बड़ापापी समझ धिक्कारने लगा फिर शांतचित्त हो अपने घर पाया। माता पिताने उसे मलिनमुख देख'प्यारसे पूछा कि क्या बात है ? तर उसने कहा कि मैंने बड़ा पाप किया सीता तो मेरी सगी बहन । है। मैं और वह दोनो विदेहाके गर्भसे एक साथ पैदाहुये । मुझे शत्रु देव ले गया सो उसने पटक दियातव आप ले आये पालन किया तत्पश्चात् अजोध्या जाकर यहन सीतासे मिला । वह भ्राता को पाकर बड़ी प्रसन्न हुई फिर रामचंद्र आदि सबसे मिलकर परम आनंदकेसाथ मिथिलापुरी जाकर माता पिताके दर्शन कर उनको प्रसंन किया, नगरमें बडाभारी उत्सव हुवा । जनकने बड़ेभारी दान पूजनादि किये। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भांग। एक दिन राजा दशरथने सर्वभूतहित मुनि महाराजसे अपने पूर्वभव पूछे सो सुनकर वैराग्यको प्राप्त हुवा । मंत्रियोंको बुला कर कहा कि मैं अब जिनदीक्षा ग्रहण करूंगा सो मंत्री श्रादि सवही यह बात सुनकर उदासीन हो गये । भरतने सुनकर वडा 'आनन्द माना और पिताके साथ मैं भी मुनिदीक्षा धारण करूंगा ऐसा प्रगट किया। चारों रानियां भी बड़ी उदासीन हुई विशेष कर केकईने विचारा कि पति और पुत्र दोनों ही दीक्षा लेनेको 'उद्यमी हो गये अव मेरा जीना कैसे होगा फिर अपने वरकी याद आई तब महाराजके पास जाकर विनयपूर्वक बोली-कि महाराज! आपने समस्त स्त्रियोंके सम्मुख वर देनेको कहा था। वह मेरा जमा है सो अाज मुझे देवो । तव दशरथने कहा किजो तुमारी इच्छा हो सो मांग लो। तव रानी केकई अांसुडारती 'हुई कहने लगी कि हमने क्या अपराध किया है जो हम लोगों "पर कठोरचित्त होकर हम लोगों को छोड़ना चाहते हो। हम तौ - आपके श्राधीन हैं। यह जिनदीक्षा बड़ी दुर्द्धर है उसे धारण करनेको कैसे यह मति हो गई, ये इन्द्रसमान भोग इनमें मग्न रहते थे सो यह आपका कोमल शरीर किस प्रकार विषम मुनिबत पाल सकेगा इत्यादि बहुत कुछ कहा। तब महाराजने कहा कि समयको कुछ भी विषम नहीं है। मैं अवश्य ही मुनिव्रत धरूंगा 'तेरे जो अभिलापा हो सो मांग ले। तब रानी चिंतावान हो नीचे मुंहकरके कहती हुई कि-हे नाथ! मेरे पुत्र भरतको राज्य दीजिये। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालवोधकतव दशरथने कहा-इसमें क्या संदेह है ? तूने वरकी धरोहर हमारे पास रक्खी थी सो ले ले, मुझे स्वीकार है ।मैं ऋणरहित हो गया। . ... तत्पश्चात् रामचंद्र लक्ष्मणको बुलाकर कहा कि यह केकई अनेक कलाकी पारगामी है। मुझे घोर युद्धमें इसने रथ चलाकर जिताया या बचाया था सो मैंने प्रसन्न होकर इसे वर दिया था। वह वर मेरे पास धरोहर रक्खा था सो आज यह कहती है किमेरे पुत्रको राज दीजिये । सो इसके पुत्रको राज न दूं तो इसका पुत्र संसारका त्याग करता है यह पुत्रके शोकसे प्राण तज देगी और मेरे वचन चूकनेकी अपकीर्ति जगतमें विस्तरेगी। और यह कार्य नीतिसे विरुद्ध दीखता है कि बड़े पुत्रको छोड़कर छोटे पुत्रको राजदेना । और भरतको समस्त पृथिवीका राज्य दे दिया जाय तो फिर तुम लक्ष्मण सहित कहां रहोगे तुम दोनों भाई परम क्षत्रिय तेजके धरनहारे हो ! सो वत्स ! मैं अब क्या करू ? दोनों ही कठिन कार्य है ।मैं अत्यंत दुःखरूप चिंताके सागर में हूं। तव श्रीरामचंद्र पिताके चरणकमलोंमें दृष्टि रखते हुये विनयके साथ बोले कि-पिताजी! आप अपने वचनका पालन करें हमारी चिंता छोड़ दें। जो आपके वचन चूकनेकी अपकीर्ति हो और हमारे इंद्रकी संपदा आवै तो किस काम की ? जो सुपुत्र हैं वे ऐसा ही कार्य करते हैं, जिससे माता पिताको रंचमात्र भी खेद न हो। पुत्रका यही पुत्रपना है, नीतिके पंडितजन यही कहते हैं कि-जो पिताको पवित्र करै वा कष्टसे रक्षा Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करे वही पुत्र सम्मुख करें। चतुर्थ भाग ' १३३ है । पवित्र करना यही है कि-पिताको धर्मके इस प्रकार दशरथ और राम लक्ष्मणके वार्तालाप होता था कि इसी बीचमें भरत महलसे उतरा और "मैं तो मुनिव्रत धारणा करके कर्मोंको काटूंगा " ऐसा कहकर चलनेको उद्यत हुआ तव सब लोगोंने " हैं ! हैं !! यह क्या करते हैं " ऐसा शब्द किया / तव पिताने विह्वल चित्त होकर बनमें जाते हुये भरतको रोका और गोद में लेकर हृदयसे लगाकर प्यारसे मुखचुम्बन करके कहा- ' हे वत्स ! कुछ दिन राज्य करो, यह नवीन वयस है वृद्धावस्था में तप धारण करना । तव भरतने कही पिताजी ! यह मृत्यु है सो बालक वृद्ध तरुणको नहीं देखती, न मालूम कव आ जाय आप वृथा ही मुझे मोहमें क्यों फँसाते हैं ? तब पिता ने कहा- हे पुत्र ! गृहस्थाश्रममें भी धर्मसंग्रह हो सकता है । कायर पुरुष ही धर्मसे रहित होते हैं । तब भरतने कहा कि - "हे नाथ! इंद्रियों के वशीभूत काम क्रोधादिसे गृहस्थों को मुक्ति कहाँ " । तब महा राजने कहा कि- " हे भरत ! मुनियों को भी तद्भव मुक्ति नहीं होती इस कारण तुम कुछ दिन गृहस्थ धर्म ही धारण करके रहो । तब भरतने कहा कि - हे देव आपने कहा सो सत्य है परंतु गृहस्थों को तौ नियमसे मुक्ति नहिं होती, मुनियोंमें किसीको होती है किसीको नहीं। गृहस्थपदसे परंपरा मुक्ति होती है साक्षात् नहि होती । इस कारण होनशक्तिवालोंके लिये ही गृहस्थाचार है । मुझे इसकी रुचि नहीं है, मैं तौ महाव्रत धारण करनेका ही Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जैनवालवोधकअभिलाषी हूं । गरुड़ क्या पतंगोंकी रीति आचरण कर इत्यादि बहुत कुछ युक्त प्रार्थना की जिससे दशरथ महाराज बहुत प्रसन्न होकर भरतसे वोले-हे पुत्र तू धन्य है.भव्यों में प्रधान है, जिनशासनका रहस्य जानकर प्रतिबुद्ध हुआ है सो जो तू कहता है सब सत्य है। परंतु हे धीर! तूने अवतक मेरी प्राक्षा भंग नहिं की। तू विनयवान पुरुषों में प्रधान है, मेरी बात ध्यानसे सुन । तेरी माताने युद्ध में मेरा सारथीपना करके मुझे जिताया। मैंने प्रसन्न होकर मुहमांगा वर देना चाहा उसने वह वर उस धक न लेकर मेरे पास जमा रक्खा था सो आज उसने यह वर मांगा है कि मेरे पुत्रको राज दो, सो मैंने स्वीकार कर लिया है इस कारण हे गुणनिधि ! इंद्रके राज्य समान इस राज्यको निष्कंटक चलाकर मेरी प्रतिज्ञा भंगकी अपकीर्ति जगतमें न हो, सो कर। जो यह पात न मानेगा तो यह तेरी माता शोकसे ततायमान होकर मर जायगी । पुत्र उसेही कहते हैं जो माता पिताको शोक समुद्रमें न डारकर सुखी करै । इस प्रकार समझानेपर श्रीरामचंद्रने भी कहा भाई ! पिताजी कहते हैं सो अवश्य स्वीकार करना योग्य है। तेरी उमर इस समय तप करने योग्य नहीं है कुछ दिन राज्य कर । जिससे पिताकी कीर्ति आज्ञापालनेसे चंद्र. माके समान निर्मल हो । तेरे सरीखे गुणवान पुत्रके होते हुये माता शोकसे ततायमान होकर मरण करै सो योग्य नहीं । और मैं समस्त राज ऋद्धि छोड़कर देशांतरमें किसी पर्वत या वनम ऐसी जगह पर रहूंगा, जो कोई नहीं जानेगा । तू निश्चित हो Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग राज्य कर । इस प्रकार श्रीराम, समझाकर पिता और केकई माताको विनयसहित नमस्कार करके लक्ष्मणसहित वहांसे चल दिये, पिताको मूर्छा प्रा गई । राम तर्कसबांध धनुष हायमें लेकर माताको नमस्कार करके कहने लगा कि हे माता! अब मैं अन्य देशको जाता हूं।तू चिंता नहीं करना ! तब माताको भी मूर्छा आ गई। थोड़ी देर बाद सचेत होकर अनुपात करने लगी हाय पुत्र ! तुम मुझे शोक समुद्र में डालकर कहां जाते हो? माताके पुत्र ही आलंबन हैं । विलाप करती माताको धीरज बंधा कर रामने कहा कि-हे माता ! तू विषाद मतकर । मैं दक्षिण दिशामें कहीं पर भी स्थान बनाकर तुझे अवश्य ले जाऊंगा । हमारे पिता ने केकई माताको वर दिया था सो उसके अनुसार भरतको राज्य दिया, अब मैं यहां नहीं रहूंगा । तव माताने पुत्रको उदर से लगा लिया और रोकर कहा कि मैं तेरे साथ ही चलूंगी तेरे देखे विना मैं प्राण रखनेको समर्थ नहीं। जोकुलवंती स्त्री हैं वे पिता पति या पुत्रके ही प्राधीन रहती हैं। सो पिता तो कालग्रस्त हुआ। पति जिनदीक्षा ले रहे हैं। अब तेरा ही प्रालंवन है सो तू छोड़कर चला, मेरी अब क्या गति होगी ? तव रामचन्द्र बोले-माता! मार्गमें कंकर पत्थर कांटे बहुत होते हैं, तुम पैदल कैसे चल सकती हो इसलिये मैं कोई सुखका स्थान निश्चय करके फिर रथमें विठाकर लेजाऊंगा। मुझे तेरे चरणोंकी शपथ है मैं. तुझे अवश्य ले जाऊंगा । इसप्रकार कहकर माताको शांतिप्रदान कर फिर पिताके पास गये, उन्हे नमस्कार करके केकई सुमित्रा Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जैनवालवोधकसुप्रभादि समस्त माताओंको नमस्कार करके निराकुलचित हो भाई बंधु मित्र अनेक राजा उमराव परिवारके समस्त लोगोस मिल भेंटकर सबको दिलासा देकर छातीसे लगाय सबके आंसू पोंछे सपने रहनेको बहुत कहा परंतु नहीं मानी। सामंत हाणे घोड़े रथ सवकी तरफ कंपा दृप्टिसे देखा बड़े २ सावंत हाथी घोड़े मेंटमें लाये परंतु हम तो पैदल ही जावेंगे ऐसा कहकर फेर दिये। ___ सीताजी अपने पतिको विदेशगमन करते देख वह भी सासु ससुरको प्रणाम करके पतिके साथ चली और लक्ष्मगा, रामको विदेशगमनमें उद्यमी देख क्रोधके साथ विचारता हुआ कि-पिताने स्त्रीके कहनेसे यह क्या अन्याय किया ? जो रामको छोड श्रन्यको राज्य दिया। यह बड़ा ही अनुचित है ! मैं एसा समर्थ हूं कि अभी समस्त दुराचारियोंका पराभव करके श्रीरामके चरणों में राजलक्ष्मीको प्राप्त करूं परंतु यह वात उचित नहीं, क्रोध वड़ा दुखदायक है। पिताजी दीक्षा लेनेको तत्पर हैं ऐसे समयमै कुपित होना योग्य नहीं । मुके ऐसे विचारसे मतलब ही क्या? योग्य अयोग्य पिताजी या बड़े भाई जानें इस प्रकार विचार कर कोप छोड़ धनुष वाण हायमें लेकर पिता मातादि समस्त गुरुजनोंको नमस्कार करके रामके साथ चल दिया। दोनों भाई जानकीसहित राजमंदिरसे निकले। माता पिता भरत शत्रुधन आदि समस्त जन अनुपात करते संग चने दोनों भाइयोंने संघको समझाकर धीरज बंधा Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। कर बड़ी मुसकिलसे फिरायो। प्रथम दिन रात्रि होजानेसे चैत्यालयके ही समीप रहे। रात्रिमें कौशल्या प्रादि मातायें फिर आई, समझा बुझाकर उन्हें फिराया। पिछली रात्रिमें दोनों भाई व सीताजी उठ कर भगवान के दर्शन करके. चल दिये तौभी कई स्नेही सुभट इनके साथ चल दिये। इन्होंने बहुत समझाया तौभी लौटे नहीं। अंतमें असराल नामकी एक बड़ी भारी नदी आई तव रामचंद्र लक्ष्मण और जानकीने नदीमें प्रवेश किया सो इनके पुण्यके प्रतापसे नदीका जल कमर तक हो गया। परंतु साथमें आये हुये लोग विलाप कर कहने लगे-हमें भी पार उतारो। परंतु रामने समझा कर कहा कि-आगे भयानक जंगल है। अब तुम वापिस चले जावो, हमारा तुम्हारा यहीं तक साथ था तब लाचार हो वापिस चले गये । इन तीनोंने नदीको पार कर भयानक वनमें निर्भय हो प्रवेश किया। रामके वन चले जानेके पश्चात् दशरथ, भरतका राज्याभिषेक कर सर्वभूतहित स्वामीके निकट वहत्तर राजावोंके साथ मुनिदीक्षा ग्रहण करके. एकांतविहारी जिनकल्पी मुनि हुये और नाना प्रकारके तप करके कर्मोको काटने लगे : . " इधर कौशिल्या सुमित्रा पतिके दीक्षित होने व पुत्रोंके वि. देश गमनले बड़ी दुखित हुई । अहोरात्र अथुपात करि रुदन करती रहीं। इन्हे देख भरत राजविभूतिको विषसमान मानता और केकईके हृदयमें भी सपत्नियों के दुःखसे बड़ा दुःख होने लगा । सो भरतसे कहा-हे पुत्र! तूने राज्य पाया, बड़े'२ राजा Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ जैनबालबोधक सेवा करते हैं । परंतु राम लक्ष्मण के बिना यह राज्य शामता नहीं । वे दोनों भाई बडे विनयवान थे और सीता हमेशा फूलशय्यापर सोनेवाली पत्थर कंटकमय मार्गमें बिना सवारी कैसे चलेगी सी शीघ्रगामी घोडेपर चढ़कर शीघ्रही जा और उन्हें लौटा ला | मैं भी तेरे संग चलूंगी उन सहित चिरकाल राज कर | यह बात सुन प्रसन्न हो एक हजार घुड़सवार सेनासहित चल पड़े। जो सामंत अमराल नदी पार न कर सकनेके कारण रामके पाससे लौट आये थे उनको साथ लेकर चला। रास्ते में जो मनुष्य मिला उसीसे पूछता गया कि राम जत्रमयाको कहां देखा है ? लोग कहते नजदीक ही हैं। सी पूछते १ वनमें एक तालाब के पास सीतासहित दोनों भाईयोंको बैठे देख घोडेसे उतर कर पैदल चलकर रामके पांवों में पड़कर मूर्चित गया। रामने सचेत किया तब हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हुआ कि - हे नाथ ! राज्य देकर मेरी क्या विडंबना की ? तुम न्याय मार्गके जानकार बडे प्रवीण, मुझे इस राज्यले क्या मतलव और आपके विना मेरे जोनेका कुछ प्रयोजन नहीं । हे प्रभो ! उठो आप नगर चलकर राज्य करो, मैं तुमारे पर छत्र लेकर खड़ा रहूंगा शत्रुघन आपके ऊपर चमर ढोरेगा । लक्ष्मणा भइया मंत्रित्व करेगा । मेरी माता पश्चातापरूप अग्निसे जल रही है । श्रापकी और लक्ष्मणकी माता बडा शांक करके अहोरात्र रुदन करती रहती हैं । इस प्रकार भरत कह रहा था कि माता के कई भी श्रा पहुंची और राम लक्ष्मणको उरसे लगा कर रुदन करने लगी । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । १३६. रामचंद्रने धीर वंधाया तब के कई कहने लगी कि --हे पुत्र 1 उठो, अजोध्या चलो, सुखसे राज्य करो। तुम्हारे बिना मेरे सव नगर वन समान है। तुम बुद्धिमान हो, भरतको समझा दो, हम - स्त्रिये नष्टबुद्धि हैं, मेरा अपराध क्षमा करो। तब रामचंद्रने कहा कि-- हे माता ! तुम तौ सब बातों में प्रवीण हो । क्षत्रियोंका यही प्रण है कि जो वचन कहैं सो न चुकै । जो विचार किया उसके विरुद्ध न करें। हमारे पिताने जो वचन कहा सो हमको तुमको सवको शिरोधार्य करना चाहिये । इसमें भरतको कोई अपकीर्त्ति नहीं है । भरत से कहा- भाई चिंता मत कर । माता पिताकी तथा मेरी आज्ञा पालन करनेमें कोई भी दोष नहिं दे सकता। इसप्रकार समझा कर समस्त सामंत और मंत्रियों के सन्मुख फिरसे भरतका राज्याभिषेक करके हृदयसे लगा बहुत दिलासा देकर सबको विदा किया । अजोध्या पहुंच भरत रामकी आज्ञानुसार पिता के समान प्रजाका पालन करने लगा । और मट्टारक नामके मुनिमहाराजके पास ऐसी प्रतिज्ञा भी कर ली किअब राम के दर्शन होते ही दीक्षा ग्रहण करूंगा । राम लक्ष्मण सीता उस वनसे चलकर सामको एक तापसियोंके प्राश्रममें पहुंचे । ये तापसी स्त्री पुत्र कन्या सहित वनमें ही रहकर अनेक प्रकारका कायक्लेश करते थे सो इन लोगोंको पुरुषोत्तम जान फल जल शय्यादिसे वहुत ही अतिथि सत्कार किया और वहीं पर रहनेका आग्रह किया परंतु ये वहांसे चल दिये । अनेक तापसियोंकी स्त्रियें और कन्या, पुष्पादि ग्रहण करने . Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० 'जैनवालबोधक के बहाने साथ २ आई और कहने लगीं कि तुम हमारे श्राश्रममें ही रहो। यहांसे धागे सिंह' व्याघ्रोंसे भरा हुआ भयानक वन हैं सो वहां जाना ठीक नहीं इत्यादि बहुत कुछ कहा परंतु ये सबको समझा कर चले गये। · चलते २ जंगह जगह विश्राम करते करते एकदिन मालव देशमें चित्रकूटकी तलेटीमें श्रां निकले. वह जंगल बहुत ही रमशोक थां बहुत दूर तक निकल जाने पर भी कोई वस्ती च मनुष्य नहि मिला तवं एक वटवृक्षके नीचे बैठ गये और लक्ष्मण से कहा कि - इस वृत्तपर चढ़कर देखो कि कहीं आसपासमें गांव नगर भी है या नहीं ? तब लक्ष्मणने चढ़कर देखा और कहा कि हे नाथ! निकट ही एक नगर तौ प्रवश्य हीं दीखता है परंतु उजाड़सा दीखता है। एक ददि मनुष्य इधर आ रहा है। उस दरिद्रको बुलाकर पूछा तो मालूम हुआ कि राजा सिंहांदरका सावंत वज्रकरण इस दशांगं नगरका राजा बड़ा धर्मात्मा है । देवशास्त्र गुरुके सिवाय किसीको नमस्कार नहिं करता सो अंगूठी में जनप्रतिमा को रखकर सिंदोदरको नमस्कार करता था, • सो यह छल कपट मालूम होजानेसे कुपित होकर सिंहोदर इसके नगरको घेर कर पड़ा है। वज्रकिरणको तंग कर रहा है। वह छिपकर शहर में बंदोवस्तीसे बैठा है इस लिये यह नगर उजा इसा दीखता है। तत्पश्चात् रामकी आलासे जंक्ष्मण नगर में गया · नगर के दरवाजेपर वज्रकरणसे भेट हो गई । लक्ष्मणको प्रभावशाली समझकर श्रतिथिसत्कार किया भोजन के लिये प्रार्थना Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। १४१ की तवं लक्ष्मणने कहा कि मेरे बड़े भ्राता और भोजाई नगरके: बाहर ठहरे हुये हैं। उनके विना मै भोजन नहिं कर सकता, तब वजकरणने नाना प्रकारके भोजन व्यंजन अपने मनुष्योंके हाथ भेजे। इन तीनोंने आनंदके साथ भोजन किया । फिर रामचंद्र 'बोले कि-यह वज्रकरण वड़ा धर्मात्मा सजन है सो इसकी सहायता करना चाहिये 'लो तुम सिंहोदरके पास जाकर इन दोनोंमें मित्रता करा दो। - तव लक्ष्मण सिंहोदरके पास जाकर कहता हुआ कि मैं मरतराजाका दुत हूँ। भरत राजाकी आशा है कि-तुम बजूकरणसे मित्रता कर लो । सिंहोदरने कहा कि मेरा श्राक्षाकारी सामंत है । मैं चाहे जो करूं । हम दोनोंके वीचमें भरतके पड़नेकी क्या जरूरत है ? लक्ष्मणने बहुत कुछ समझाया पर सिंहोदर की समझ में नहिं पाया । सामंतसुभटोंको पकड़नेके लिये प्राक्षा की तो लक्ष्मणने सबको भगा दिया, शेपमें सिंहोदर युद्ध करनेको आया तो उसे पकड़कर वांध लिया। सिंहोदरकी सेना भाग गई. सिंहोदरंकी रानी पतिके छोडनेकी प्रार्थना करने लगी . लक्ष्मण सवको रामचंद्र के पास ले गया। सिंहोदरने प्रार्थना की कि हे देव ! आपकी जो प्राक्षा हो वही मुझे शिरोधार्य है, मुझे छोड़ दीजिये। तब रामचंद्रजीने वजूकरणको बुलाया। वज्रकरणने भी छोडनेकी प्रार्थना की तब सिंहोदरको छोड दिया । वजकरणसे संधि करा कर सिंहोदरसे प्राधाराज दिलवाया। • वजूकरणने अपनी आठ कन्याओंका और सिंहोदर. आदि Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કર્ जैनवालबोधक 'ने ३०० कन्यायोंका लक्ष्मण के साथ विवाह करनेको प्रार्थना की। तब इन्होंने कहा कि अभी हम विवाह नहि कर सकते । कहीं स्वतंत्र स्थान बनाकर रहेंगे तब हम विवाह करेंगे। ये जहां · · जाते सब वहीं रहने की कहते सो इन्होंने भी यहीं रहनेका बहुत कहा परंतु ये दशांगपुरसे रात्रिमें बिना किसीको कहे चल दिये वहांसे चलकर नलकूवर नगर के पास वनमें आकर ठहरे । नलकूवर नगर में बाल्यखिल्यकी पुत्री कल्यागामाला पुरुषवेश में राज्य करती थी सो लक्ष्मण जब एक सरोवर पर पानी लेनेको गये तो उसी वनमें कल्याणमाला भी वस्त्रावास (तंबू) तान कर हवा खाने को आई थी सो उस सरोवरी पर लक्ष्मणको देखकर मोहित हो गई । उसने अपने आदमी भेजकर लक्ष्मणको बुलाया और वहीं पर रहने को कहा। लक्ष्मणने कहा- मेरे भाई भोजाई बनमें हैं । तब उनको भी लक्ष्मणसहित जाकर बुलाया और खूब आदर सत्कार किया । भोजनके पश्चात् कल्याण मालाने पुरुष मेप छोडकर स्त्री वेश धारण कर सबको प्रणाम किया । पुरुष भेषका कारण पूछने पर कल्याणमालाने कहा कि यह राज्य सिंहोदरके आधीन है। उससे मेरे पिताके साथ यह संधि हो गई थी कि -अव तेरे पुत्र होगा तो उसे राज्य मिलेगा अन्यथा पिताके बाद राज्य सिंहोदर के लेगा। सो जब मेरा जन्म हुआ तो मेरे पिताने पुत्र होनेकी प्रसिद्धि की, इस कारण मैं पुरुषवेश में रहती हूं। मेरे पिताको म्लेच्छ लोग पकड कर ले गये हैं इस समय राज्यकार्य मैं हो चला रही हूं । पिताके वियोग . Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। से माता बहुत ही दुःखी हैं यदि आप सहायता करें तो बड़ी कृपा होगी यह कहते कहते कल्याणमाला दुःखके आवेशमें मूर्षित हो गई ! सीताने गोदीमें लेकर शीतोपचार किया मू दूर होने 'पर राम लक्ष्मणने धैर्य बंधाया और कहा कि तेरे पिता शीघ्र ही छूटकर पा जायगे तीन दिन वहां रहे फिर अचानक ही गुप्तरीति से चल दिये। वहांसे चलकर मेकला नामक नदीको पार करके विंध्याटवीमें पहुंचे वहां म्लेच्छोंसे (भीलोंसे) युद्ध करके बाल्यखिल्यको छुड़ाया । रौद्रभूत म्लेच्छराजाको वाल्यखिल्यका मंत्री बनाकर उसे समीचीनमार्गमें लगाया। रौद्रभूतके मंत्री होनेसे भीलों पर भी बाल्यखिल्यकी श्राक्षा चलने लगी जिसे देख सिंहोदर भी वात्यखिल्यसे डरकर रहने लगा। तत्पश्चात् वहांसे चलकर जिस देश ताप्ती नदी वहती थी उस देशमें पहुंचे । एक ब्राह्मणके घर सीताको पानी पिलाया । वहांसे चलकर वनमें आये तो वहांके यक्षने एक नगर बनाकर इन्हे रक्खा, बड़ी सेवाकी फिर वहांसे चले जानेपर विजयपुर नगरके पास वालोद्यानमें ठहरे । वहाँके राजा पृथिवीधरकी पुत्री बनमाला पहिले हीसे लक्ष्मणपर श्रासक थी सो पिता द्वारा दूसरे के साथ सगाई करनेपर वह इसी बनमें फांसीसे लटककर मरने -लगी तब लक्ष्मणने वचाई और अपना परिचय दिया। सब नगर में गये. बड़ा आदर सत्कार हुआ । वहांपर सुना कि-नंद्याचर्चके राजा अतिवीर्य और भरतमें खटपट हो जानेसे अतिवार्य और भरतमें युद्ध होनेवाला है । प्रतिवीर्य बड़ा बलात्य राजा Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जैनवालबोधक है इसकारण रामचंद्र, भरतको निश्चित करनेके लिये युद्ध: न करके युक्तिसे वशमें करनेका विचारकर नृत्यकारिणोका वेश बनाकर गये और प्रतिवीर्यको बांधकर ले आये। सीताने उसको छोड़ देने को कहा तौ छोड़ दिया परंतु संसारसे उदास हो अपने पुत्र विजयरथको राज्य देकर उसने जिनदीक्षा धारण करली | विजयरथने अपनी परम सुन्दरी रत्नमालाका लक्ष्मण के साथ और भरतके साथ अपनी दूसरी वहन विजय सुन्दरीका विवाह करके भरतकी श्राज्ञा मानना स्वीकार किया । भरतको मालूम न होने पाया कि राम लक्ष्मणाने हो नृत्यकारिणी वनकर यह हमारा उपकार किया। तत्पश्चात् लक्ष्मणने वनमालाको समझा दिया और यहांसे तीनों जने विना कहे ही चल दिये ! चलते २ खेमांजलि नगर के पास आकर ठहरे ! भोजन बनाकर लक्ष्मण शहरमें गया वहांके राजा शत्रुदमनकी पांच शक्ति. योंको झेलकर उसको पुत्री जिनपद्मा के साथ विवाह किया ।. वहाँ से आदर सत्कार पाकर चले सो वंशस्थल नगरके पास वंशधर पर्वतपर आकर ठहरे। इस पर्वतके ऊपर दो मुनियोंपर दैत्य रात्रिमें उपसर्ग करता था सो उपसर्ग दूर कर दिया तो दोनों को केवल ज्ञान हो गया। इस पर्वतपर रामचन्द्रने अनेक जिनमंदिर बनवाये थे | फिर वहांसे चलकर दंडक वनमें करनखा नंदी, पर पहुंचे वहां पर मिट्टी और वांसके वर्तन बनाकर फूलोंका भोजन बनाया। मुनियोंके आहारका समय होनेसे.. मुनिमा गमनकी प्रतीक्षा करने लगे । भाग्य योगसे भवधिज्ञानी गुप्तिः Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। सुगुप्ति नामके दो चारण ऋद्धिधारी मुनि मासोपत्रासके पारने की इच्छाले आकाशमें पा रहे थे सो इन्होंने नवधा भक्तिपूर्वक पड़गाहा और आहार दान किया । उसी समय पासके वृत्तपर बैठे हुये गृध्र पक्षीको जातिस्मरण हो गया सो वह मुनियोंके चरणों में श्रा पड़ा । उस पक्षीका वर्ण भी सुवर्ण और वैड्डूय मणिकासा हो गया। मुनियोंने आहार ग्रहण करनेके बाद उस पक्षीको उपदेश देकर श्रावकके त्रत ग्रहण कराये और राम लक्ष्मणके साथ रहनेकी प्राज्ञा दी । रामने इसका नाम जटायु रक्खा। यहां पर रामने एक रथ बनाया और तीनों इसीपर यात्रा करने लगे। ....... . - वहलि.चलकर क्रौंचरवा नदी पार करके दंडक गिरीकेपास जाकर ठहरे । इन दिनों मुख्य आहार फलादिकका ही था। यहां पर एक नगर वसानेका विचार था परंतु वर्षाऋतुके बाद बनाने की इच्छासे वहींपर रहने लगे। ___ एक दिन लक्ष्मण वनमें टहलते समय एक तरफसे सुगंध आ रही थी उस तरफ गया तौ वांसके वोडेपर सूर्यहास्यखड्ग दिखाई दिया । लक्ष्मणने उसको ग्रहण कर लिया और उसकी धारकी परीक्षार्थ बांसके बीड़ेपर चलाया तो वासका वीड़ा कट गया उसी चीड़ेमें खरदूषणका पुत्र ( रावणका भाणजा ) शंबूक उसी सूर्यहास्य खड्गकी प्राप्तिके लिये तपस्या कर रहा था, सो उस वीड़े के साथ उसका माथा भी कट गया । शंबूककी माता चंद्रनखा प्रतिदिन पुनको भोजन देनेके लिये आया करती थी, सो पुत्रका शिर कटा देख बड़ी शोकित हुई और उसके मारने Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जनवालबोधक चालेको वहीं खोजने लगी तो राम लक्ष्मण दोनों भाईयोंको 'देखा तब पुत्र शोकको भूलकर उनपर प्रासक्त हो गई और अपनेको कुमारी कन्या बताकर पाणिग्रहणकी इच्छा प्रगट की परंतु ये दोनों भाई इसकी बातोंमें नहीं प्राये । जाचार खरदूषण के पास जाकर कहा कि - राम लक्ष्मणने पुत्रको मारकर सूर्यहास्य खड्ग ले लिया है और मुझे वेइज्जत करनेकी ठानी थी, सो मैं बचकर चली आई हूं। यह सुनकर खरदूषणाने युद्धको तैयारी की और अपने शाले रावणको सहायतार्थ यानेकी प्रार्थना की । इस खरदूषण के युद्ध में राम जाने लगे यह देख लक्ष्मणने कहा- प्राप यहीं बैठिये, सीताकी रक्षा कीजिये, में हो उसे जीतकर आता हूं, यदि जरूरत पड़ेगी तो मैं सिंहनादकर संकेत करूंगा सो श्राप आ जाना। उधर रावण खरदूपणकी सहायताके लिये पुष्पक विमानमें बैठकर पा रहा था सो रास्तेमें सीताको देखकर मुग्ध हो गया, लड़ाई में जाना भूलकर सोताको प्राप्त करनेकी फिकर पड़ गई। उसने अपनी अवलोकिनी विद्यासे जान लिया कि लक्ष्मण सिंहनाद करेगा तौ राम उसकी सहायतार्थ चल देगा सो यह संकेत जानकर रावणने ही दूर जाकर नकली सिंहनाद में राम राम शब्द किया । राम भाईपर आपत्ति जानकर सीताको पुष्पवाटिका में छिपाकर जटायुको रक्षाका भार देकर चल दिया । रावण, मोका पाकर सीताको विमानमें रख चला गया। जटायु ने रावण के साथ युद्ध किया परंतु थप्पडको खाकर अधमरा हो गिर पड़ा. उधर समको लक्ष्मणने देखकर कहा कि आप क्यों ܐ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। १४७ 'आये १ रामचन्द्र ने कहा-मैं तेरा सिंहनाद सुनकर आया हूं। लक्ष्मणने कहा-मैंने सिंहनाद नहि किया किसीने धोका दिया होगा : आप शीघ्र ही वापिस जाइये । मैं शत्रुको जीतकर पाता हूं। राम तुरत ही लौटकर स्थानपर आये तो सीताको न देखकर विह्वल हो ढूंढ़ने लगे। जब सीता न मिली तो और भी अधीर हो पागलसे हो गये ! वृक्ष नदो श्रादिसे सीताका पता 'पूछने लगे । इतनेमें लक्ष्मण भी खरदूषणको मारकर पाताललंकाका राज्य अपनी तरफसे विराधितको देकर रामके पास आया। क्योंकि विराधितने युद्ध में सहायता दी थी। लक्ष्मणने रामको जमीनपर लेटा देख सीताको न देखकर पूछा-सीता कहाँ है ? तब राम वैठकर लछमनको घावरहित देख कुछ हर्ष को प्राप्त हुआ । लक्ष्मणको छातीसे लगाकर वोले-भाई! में नहिं जानता कि-जानकी कहां गई। कोई हरकर ले गया अथवा 'सिंह व्याघ्र खा गया बहुत खोजा कहीं नहीं पाई । तब क्रोध रूप होकर लक्ष्मण वाला-हे देव ! चिंता करनेसे कुछ लाभ नहीं । यह निश्चय करना चाहिये कि कोई न कोई दैत्य ले गयाहै, वहां अवश्य होगी। मैं जाकर लाऊंगा। संदेह नहि करें, इसप्रकार प्रियवचन कहकर धैर्य बंधाया और निर्मल जलसे मुख धुलाया। तत्पश्चात् विशेष शब्द सुनकर रामने कहा-ये शब्द काहेकाहै ? लक्ष्मणने कहा-कि हे नाथ! चंद्रोदर विद्याधरके पुत्र विराधितने मुझे युद्धमें बड़ो सहायता दी थी सो आपके निकट पाया है उसकी सेनाक शब्द है । इतनेमें विराधितने आकर मंत्रीसहित रामको प्रणाम किया और प्रार्थना की कि-आप मेरे स्वामी हैं। हम Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालबोधक १.४८ आपके सेवक हैं जो कार्य हो उसकी प्राज्ञा दें । तब लक्ष्मणने कहा कि हे मित्र ! किसी दुराचारीने छन मेरे प्रभुकी स्त्री हरली है उसके विना शोकके मारे ये प्राण छोड़ देंगे तो मैं भी प्रग्निमें प्रवेश करूंगा इनके प्राणोंके श्राधार ही मेरे प्राण हैं । यह तू निश्चय जान । इसलिये जो उचित समझे सो कर : तव विराधितने सुनते ही अपने मंत्री आदिको श्राज्ञा दी कि - प्रभुकी स्त्री जहां हो, खोजकर पता लावो परंतु सबके सब चारों तरफ दूर २ तक देख प्राये, कहीं भी पता नहीं लगा । तब रामचंद्र बड़े दुःखित हुये । विराधितने कहा- नाथ ! आप इतनी चिंता करके अधीर न हों, प्राप पाताल लंकामें चलिये वहां बैठकर विशेष प्रबंध किया जायगा और शीघ्र ही जनकसुताको लाकर आपके सम्मुख हाजिर करूंगा यहां वनमें विशेष भय है, कारण खरदूपणके मरने की खबर सुनकर रावण, सुग्रीव हनुमान यादि मिलकर प्रावेंगे। पाताल लंका शत्रुले अगम्य है, वहां गये विना कोई उपाय होना सम्भव है । तब सबने रथ में बैठकर पाताल लंकामें प्रवेश किया । परंतु खरदूषण चंद्रनखाका दूसरा पुत्र सुन्दर नगर के बाहर इनसे लड़नेको आमा सो उसे हराकर जाना पड़ा । सुन्दर और चंद्रनखा दोनों परिवार सहित लंकाको चले गये । पाताल लंकामें रामचंद्रजीने समस्त चैत्यालयों व मंदिरों में बड़े विनय भक्ति से पूजा स्तुति करके चित्तको कुछ शांत किया। इधर रावण - सीताको विमानमें विठायेलिये जाता था। सीता हाय राम ! हाय लक्ष्मण ! कहकर रोती जाती थी सो रोने की आवाज भामंडल के सेवक अर्कजदीके पुत्र रत्नजटीने सुनी Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । १४६ तौ रावण के विमानके पास आया। सीताको विलाप करती बैठी देखकर क्रोध से रावणको कहा- हे पापिष्ठ दुष्ट विद्याधर ! ऐसा अपराध करके कहां जायगा ? यह भामंडलकी बहिन श्रीरामदेव की रानी है । मैं भामंडलका सेवक हूं। हे दुर्बुद्धि ! जीना चाहता है तो इसे छोड़ दे । तव रावणने रत्नजटीसे युद्ध करना उचित न समझ उसकी विद्यायें छीनकर जमीनपर पटक दिया और सीताको ले जाकर अपने देवरमण नामक उपवनमें ( वाग में रखकर अपने महलमें गया। रास्तेमें सोताको बहुत कुछ समझाया परंतु सीताने मुहतोड़ जबाव दिया । सीता जबतक रामचंद्र के सुख समाचार नहीं मिले तवतक यनजलका त्याग कर मौन से बैठी । इधर रावण महलमें गया। चंद्रनखा पति पुत्रके शोकमें कंदन कर रही थी। उसे सुन मंदोदरीके पास गया तो उसने अतिशय उदासीन देख उपदेश देकर कहा कि-खरदूषण के मरनेका वीर पुरुपको इतना शोक करना उचित नहीं । रावणने कहा- मुझे उसका शोक नहीं है। मेरे प्राणनाशकी शंका हो गई है। मैं एक अद्वितीय सुंदर सोता नामकी स्त्रीको लाया हूं यदि वह न इच्छेगी तो मैं अवश्य मर जाऊंगा । मंदोदरीने कहाबलात्कार क्यों नहिं करते ? तब रावणने कहा कि-जो स्त्री मुझे न चाहेगी उसे मैंने बलात्कार न करनेकी मुनिके पास प्रतिशा की थी सो मेरा जीना चाहती हो तो उसे जाकर प्रसन्न करो । तब मंदोदरी यादि अठारह हजार रानियोंने देवरमण वनमें जाकर बहुत कुछ समझाया। सीताने एक न सुनी। फिर रावण धव कर आया, उसी समय खरदूषण के शोकशमनार्थ विभीषण Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जैनवालवोधकमंत्री श्रादि आये। सीताका रुदन सुन विभीषणने कहा-यह कौन रोती है ? बड़ी दुखिया है । सीताने पूछनेपर उसे अपना परिचय दिया। विभीपणने रावणको इस प्रान्यायसे दूर रहनेकी बहुत कुछ प्रार्थना की तथा मारीच मंत्रीने भी कहा परंतु रावणने एक न सुनी । पृथिवीमें जो २ उत्तम पदार्थ हैं वे मेरे हैं और मेरे ही उपभोग्य हैं तुम लोग परस्त्रा क्यों कहते हो इत्यादि कहकर चल दिया तत्पश्चात् सीताको देवरमण वनसे लेजाकर फुल्लगिरी पर्वत पर प्रमद नामका अति मनोहर उद्यान (वाग ) था उसमें अशोकमालिनी वापिकाके निकट अशोक वृक्ष के नीचे विठा दिया। सैकड़ों विद्याधर स्त्रियां नाना प्रकारको भोगोपभोग सामग्री लिये हाजिर थीं परंतु सीताने कुछ न छुपा इधर विभीषणने मंत्रियोंसे सम्मति करके लंकाको नाना प्रकारके मायामयी यत्रोंसे सुरक्षित करके सर्वत्र पहरा विठा दिया जिससे परराष्ट्रका कोई मनुष्य कामें प्रवेश न कर सके। इधर रावणकी पतके वानरवंशियोंके अधिपति किपकिया के वलाढ्य राजा सुग्रीवको स्त्री सुतारापर साहसगति नामा विद्याधर पहिले होसे प्रासक्त था सो वांछितरूपदायिनी विद्या को साधकर ठीक सुग्रीवका रूप बनाकर सुताराके महलमें पहुंच गया। असल सुग्रीवके आनेपर वह कहे-मैं सुग्रीव हूं, वह कहे मैं सुग्रीव हूं । इसप्रकार झगड़ा लगनेसे दुःखी होकर तथा पाताल लंकाके बड़े योद्धा खरदूषणको मारनेवाले रामचन्द्र लक्ष्मणकी शरणमें जाकर अपना दुःख निवेदन किया कि-हे नाथ! मैं बड़ा Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । १५१ दुःखी हूं, मेरा राज्य स्त्री सब ही दूसरा लिये लेता है, मुझे राज्य स्त्री दिला दें तो मैं आपकी सीताका सात दिनमें पता लगा दूंगा और रावणका पक्ष छोड़ आपका सेवक हो जाऊंगा। मेरे साथी समस्त वानरवंशी रावणका पक्ष छोड़ आपके श्राज्ञाकारी हो जायेंगे । तव रामने साहसगति से युद्ध प्रारंभ किया परंतु. रामचंद्रको पुरायाधिकारी समझ साहसगतिकी विद्या भाग गई और साहसगतिका असली रूप प्रगट हो गया। रामचन्द्रने उसको तुरत ही यमालय पहुंचा दिया उसकी सेना सब तितर वितर हो गई । अब क्या था - सुग्रीव राज्य स्त्री पाकर सुखी हो गया और नल नील आदि अनेक वानरवंशी रामको पक्षमें हो गये । फिर रत्नजटीके द्वारा सीताका पता भी लग गया कि उसे रावण हरकर ले गया है । तब सीता के भाई भामंडल को भी यह खबर देकर बुलाया और सब जने मिलकर किषकिधामें सलाह करने लगे कि क्या करना चाहिये ? अनेक विद्याधरोंने लक्ष्मणको समझाया कि- रावण बड़ा भारी बलवान है, उसके साथ युद्ध करना ठीक नहीं । सो प्राप यहाँ रहिये हम आपकी सेवा करेंगे। सीताकी प्राशा छोड़ दें । हम विद्याधरोंकी सैकड़ों कन्यायें व्याह देंगे | तब रामने कहा कि और स्त्रिये यदि इन्द्राणो की समान हों तो भी हमारे किस कामकी ? हमारे सीता सिवाय दूसरी स्त्रियोंकी बांका नहीं है । जो हम पर तुम लोगों की प्रीति है तो सीताको हमें शीघ्र ही दिखाओ । जांबूनद आदि विद्याधरोंने कहा कि-रावणने एकवार अनंतवीर्य मुनिसे अपने मृत्युका कारण पूछा था सो सुनिमहाराजने . Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२. जैनवालबोधक कहा था कि जो मनुष्य कोटिशिला को उठावैगा उसीके द्वारा तेरी मृत्यु होगी। तब लक्ष्मणने कहा कि चलो वह कोटिशिला कहां हैं, सो बतायो । तव सवजने विमानमें बैठकर कोटि शिलाके पास गये । सवने नमस्कार किया, चंदन से पूजा करके तीन प्रदक्षिणा दीं । तत्पश्चात् लक्ष्मणने कमर बांधकर उस शिलापर से मुक्ति प्राप्त भये अनंत सिद्धों का स्मरण स्तुति करके घुटनों तक उस शिलाको उठाया। आकाशसे देवोंने जय जय शब्द किये और पुष्प वरसाये | तब सबको निश्चय हो गया कि --- रावणकी मृत्यु इन्होके हाथसे होगी यही आठवें नारायण हैं । वहांसे चलकर सम्मेद शिखर और कैलासकी यात्रा करके सामको किपकिंधा पुरमें सब प्रा पहुंचे । तत्पश्चात् सुग्रीवादिने फिर भी सलाहको कि-रावण एक बड़ा बलवान राजा है उससे सबका युद्ध करना ठीक नहीं । इसकारण एक चतुर द्रुत विभीषण के पास भेजा जावे विभीषण धर्मात्मा चतुर है सो रावणको समझाकर सीताको वापिस भिजवा देगा तव महोदधि नामा विद्याधरने कहा कि यह सलाह तौ ठोक है। परंतु रावणके मंत्रियोंने लंकाके चारोओर मायामयी यंत्र रच दिया है, सो आकाश मार्गले वा स्थल मार्ग से कोई भी मनुष्य नहिं जा सक्ता । हां ! पवनंजयके पुत्र हनुमान याचना करके भेजे जावै तौ वह सव यंत्रों को तोड़ ताड़कर भी जा सकते हैं तथा रावण के परम मित्र हैं सो सीधे भी जाकर रावणको समझा सकते हैं । तब श्रीशैल (हनुमान) के पास दूत भेजा । सुग्रीव का दुःख राम लक्ष्मणके द्वारा नष्ट हो जाने, पाताल लेकाके Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३. चतुर्थ भाग। । अधिपतिको मारने व विराधितको पाताल लंका देने आदिके । सव समाचार कहे तो हनुमान अपने श्वसुर सुग्रीवकी आज्ञानुi सार सेनासहित तत्काल किपकिंधाको चल दिये और सलाह । कर लंकाकी तरफ भी रवाना हो गये। . हनुमान लंकामें सुखसे प्रवेश करके प्रथम ही विभीषणके • पास गया और रावणकी अनीति कहकर उससे विरत करनेके लिये कहा तो विभीषणने कहा कि-माई ! मैंने बहुत वार रावणको समझाया परंतु वह मानता नहीं और जिस दिनसे मैंने उसको इस अन्यायसे विरक्त होनेको प्रार्थना की है तबसे मुझसे वार्तालाप ही नहि करता। तुमारे कहनेसे फिर भी एकबार जोर देकर समझाऊंगा परंतु मुझे भरोसा नहीं कि वह अपना इठ छोड़ेगा । आज सीताको अन्न जल छुये ११ दिन हो गये तौभी उसे दयानहिं पाती । यह सुनते ही श्रीशैल तत्काल ही प्रमद उद्यानमें पहुंचा। उसकी शोभा देखता र सीताके पास पहुंचा। देखा तो अश्रुपातसे नेत्र भरे हैं जमीनको कुचरती हुई अत्यंत कृश शरीर सीता चिंतारूपी समुद्र में डूब रही है तो भी सुं. दरतामें इसकी समान कोई भी नहीं है । इसे शीघ्र ही श्रीरामसे मिलाऊं तो मेरा जन्म सफल है। फिर धीरे धीरे आगे जाकर सीताके सन्मुख रामचंद्रकी दी हुई मुद्रिका डाली। मुद्रिकाको देखते ही रोमांच हो पाया । कुछ मुख हर्पित हो गया। सीताको कुछ प्रसन्न हुई देख पास बैठी हुई दुतीने तुरंत ही सीता की प्रसन्नताका समाचार पहुंचाया, उसे वहुतसा इनाम दिया और मंदोदरीको समस्त रानियों सहित सीताको समझानेके Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ : जैनबालबोधक लिये भेजा | मंदोदरीने प्रसन्न देख समझाया तौ सीताने कहा कि मैंने आज प्रपने पतिकी खबर पाई है इसलिये प्रसन्नता है । यह अंगूठी कौन लाया है सो प्रगट हो, जब यह कहा तो हनुमानने हाथ जोड़कर नमस्कार किया। सीताको रामचंद्रजी के सव समाचार कहे । तद विशेष प्रसन्न हुई । मंदोदरीने कहा- बड़े की बात है तुम तौ रावण के भागजी जवांई ( खरदूषणके जवाई) और रावणके परम भक्त आज्ञाकारी सेवक हो । तुम विद्याधर होकर भूमिगोचरीकी तरफदारी करके दूत वनकर आये हो,क्या तुम्हें अपने स्वामीका कुछ भी खयाल नहिं हुआ ? हनुमानने जवाब दिया कि- आश्चर्य तौ इस बातका है कि तू राजा मयकी पुत्री तीन खंडके अधिपति रावणकी पटरानी पतिव्रता होकर भी रामकी पतिव्रता स्त्रीको वहाकर अपने पतिको नरक में और अपनेको दुखमें डालने के लिये दूतीपना करने को आई है। तुझे शर्म नहिं श्राती ? हनुमानके वचन सुन मंदोदरी क्रोधसे लाल नेत्र करके बोली कि - अरे हनुमान ! तेरा बचनालाप व्यर्थ है निर्लज सुग्री वादिक अपने स्वामी रावणको छोड़कर भूमिगोचरियोंके सेवक बने हैं सोच सकी मौत आ गई है। सीतासे यह सहा नहीं गया। उसने रामचंद्रकी शक्तिकी प्रशंसाकी । रावणकी निंदा की और कहा कि मेरा पति और लक्ष्मण आवैगा तौ तू शीघ्र ही विधवा हो जायगी । यह सुन कर वे सब सीताको मारनेके लिये उद्यत हुई हनुमानने वीचमें पड़कर सबको भगा दिया । जि ससे मानद्दीन और उदास होकर रावणके पास गई। हनुमानमे Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग | १५५ सीताजी को आहारके लिये कहा । भोजन करनेके वाद कहाकि माता तुम मेरे कंधे पर बैठ जावो तो मैं अभी रामचंद्रजी के पास पहुंचा दूं । परंतु सीताने कहा कि--विना स्वामीकी श्राज्ञाके मैं नहिं जा सकती । सो अब तुम स्वामीके पास जाकर सव समाचार कहो । सीताने रामको विश्वास करने के लिये चार पांच एकांतविहारकी बातें कहकर शिरका चूड़ामणिरत्न दिया । इधर मंदोदरीने हनुमानके सब समाचार रावण से कहे तौ रावणने हनुमानको पकड कर लाने के लिये अनेक सुभट भेजे, परंतु हनुमानने सबको मार भगाया । तच मेवनाद इंद्रजीत आदि सबको भेजा सो हनुमानने लंकासे बाहर खूत्र युद्ध करके शत्रुसेनाका ध्वंस किया परंतु शेपमें इन्द्रजीत नागपाशसे बांधकर रावण के पास ले गया । रावणने बहुत कुछ बुरे बन्न कहे। हनुमानने भी खूब अच्छा जवाब दिया तत्पश्चात् लोहसंकल से बांधकर शहर में फिरानेको भेजा परंतु हनुमान सकल तोडकर श्राकाशमार्ग से चल दिये। जानेसे पहले रावण के सुंदर महल अच्छे २ अन्योंके मकान, बाग, कोठा, दरवाजे वगेरह अपने पावों से चूर्ण करके लंकाकी सब शोभा नष्ट भ्रष्ट कर दी और तत्काल ही विमानसे रामचन्द्र के पास आकर सीताके कुशल समाचार कहे । लंका के समाचारोंको सुनकर रामचंद्र लक्ष्मण क्रुद्ध हो युद्ध करनेको तैयार हो गये । इधर विभीषणने फिर रावणको समझाया चौरावण विभीपणको मारनेके लिये उठा सो विभीषण रावण से नाराज होकर तीस प्रक्षौणी सेना लेकर रामको पक्षमें आया । इधर सीता के Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ जैनवाल बांधक भाई भामंडल को दूत भेजकर बुलाया सो वह एक हजार भत्तौहणी सेना लेकर आया । रामचंद्र लक्ष्मणकी कुल सेना दो हजार अक्षौहिणी हो गई और रावणकी कुल सेना चार हजार भक्षौ - हणी थी जिसमें अढ़ाई करोड़ निर्मलवंशमें उत्पन्न हुये राक्षसवंशी कुमार थे 1 रणभेरी बजते ही दोनों तरफकी सेना सजधज कर रणभूमि में विधिपूर्वक खड़ी हो गई । इशारा करते ही वाणोंकी वर्षा होने लगो, दोनो तरफके सुभट अपना २ बल दिखाने लगे। राम लक्ष्मणने कुंभकरणका घेरकर नागपाश से बांध लिया। लक्ष्मणने - इन्द्रजीत को पकड़ लिया । रावण विभीषण पर तीर छोड़ता ही था कि लक्ष्मणको तीर ताने सन्मुख देखकर लक्ष्मण पर शक्तिवाण चलाया जिसके लगते ही लक्ष्मण वेहोश हो जमीन पर गिर पड़ा। भाईको गिरा देखकर रामचंद्र के होश हवाश जाते - रहे और साहस टूट गया और उस दिन वे युद्ध बंद करके लक्ष्मणका शिर गोद में लेकर रोने लगे-हाय लक्ष्मण ! तू बोलता क्यों नहीं ? तुझे यह कैसी निद्रा आई । तूने अबतक तौ साथ दिया । अव क्यों रूठ गया ? भैया ! उठ आखें खोल देख तो कैसा • तड़फ रहाहूं मुझे अकेला यहां क्यों छोड़ दिया ? भैया तेरी माने तू मुझे धरोहररूप सौंपा था अब मैं उसे जाकर क्या दिखाऊंगा। ३ एक अक्षाहणीसेनामें इक्कीस हजार भाठसौ सत्तर रंथ, इतने ही -हाथों, पैंसठ हजार छह सेा दश घोडे और एक लाख नव हजार तीन सौ - पंचास - पियादे होते हैं । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ चतुर्थ भाग। भैया! देर न कर उठ खडा हो, मैं क्षणभर भी तेरा वियोग नहीं सहन कर सकता, सीता विछड़ी तो क्या तू भी विछुड गया ? इत्यादि प्रकारसे श्रीराम विलाप करकं रोने लगे। __ सीताको भी यह समाचार मिल गये, वह भी बहुत विलाप कर करके रोने लगी। इधर सारी सेनामें कोलाहल मच गया। इसी बीच में एक मनुष्यने आकर लक्ष्मणके वचनेका यह उपाय बताया कि-अजोध्याके अधीन द्रोणमेघ राजाकी पुत्री विसल्याके स्नानका जल मगावो तो अभी लक्ष्मण खड़े हो जाय। हनुमानने तत्काल ही अजोध्या जाकर भरतले यह हाल कहाभरतने द्रोणमेघको वुलाया तौ विसल्यास्वयं ही जानेको तैयार हो गई सो हनुमान विमानमें विठाकर लिवा लाया । विशल्याके आते ही शक्ति लक्ष्मणके शरीरमेंसे निकल भागी । लक्ष्मण चैतन्य हो गया और उसके स्नानके जलका छोटा दे, अन्यान्य घायल योद्धावोंके घाव भी अच्छे कर दिये गये। तभी इन्द्रजीत कुम्भकरण श्रादि शत्रु पक्ष के योद्धावोंके घाव भी अच्छे कर दिये। दोनों ओरसे धनघोर युद्ध हुआ। बहुतसा युद्ध होनेके पश्चात् रावणने लक्ष्मण पर चक्र चलाया । रामजी तरफसे चक्र से लक्ष्मणको बचाने के लिये कई योद्धा उद्यत हुये परंतु वह प्रतिनारायणके हाथका चक स्वयं ही अपने नियमानुसार लक्ष्मण नारायणको तीन प्रदक्षिणा देकर लक्ष्मणके हाथ पर आ गया। फिर लक्ष्मणने उस चक्रको रावण पर चलाया तो रावणका उरस्थल छेदकर रावणको प्राणरहित कर दिया। रावणने प्रथम तो लंकाका आधा राज्य देकर सीताको रख Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालवांधक'कर संधि करना चाहा परंतु रामने सीताके सिवाय हमें कुछ नहि चाहिये ऐसा कहकर दूतको लोटा दिया । तब रावणने युद्धसे “पहिले महुरूपिणी विद्या शांतिनाथके मंदिरमें बैठकर साध ली तव सीताके पास जाकर उसे राजी होनेको बहुत कुछ समझाया। परंतु एक न मानी। शेपमें रावणले वोली कि-श्रीराम यदि तेरे 'हाथसे मारे ही जांय नौ मरनेसे पहिले इतना अवश्य कह देना कि-"शोक है ! तुमारी प्यारी सीता अंत समयमें तुमारे दर्शन न कर सकी। अब तुमारे मरणको सुनते ही वह भी अवश्य प्राण त्याग देगी।" इतना कहकर सीता वेहोश हो गई । रावणने सीताकी यह दृढ़ता देखकर निश्चय कर लिया कि यह मुझे कदापि न चाहेगी। शोक है कि-संसारमें कलंकका टीका (पर स्त्री हरणका लगा, कुलको कलंकित किया और सीता भी न मिली, वंशमर्यादाको नष्ट किया, भाई वन्धुओंको भी हाथमे खो बैठा, मित्रोंको शत्रु बना लिया, इत्यादि विचार करके मंदोदरीके महलमें गया और कहने लगा कि-याज न जाने युद्धसे बच. कर आऊं ग न आऊं श्रतएव यह अंतिम भेट है जीता रहा तो श्रा मिलूंगा । इस प्रकार कहकर फिर युद्ध में चल दिया। रावणके गिरते ही उसकी सेना तितर बितर हो गई । राव. 'णका पराजय हुमा । विभीषणने रावणके शोकमें अपधात कर प्राण तजना चाहा परंतु राम लक्ष्मणने समझाकर शोक शांत किया और पद्मसरोवरके तटपर सुगंधित.द्रव्योंसे रावणका शव दाह किया । तथा रावणके भाई कुंभकरण इंद्रजीत आदिको छोड दिया। रावणके मरणसे इन लोगोंके परिणाम संसार Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग १५३ शरीर भोगोंले उदास हो गये। रामने राज्यादि संपदा लेकर सुखसे रहने को बहुत कुछ कहा पर इन्होंने नहीं माना उसी दिन छप्पन हजार सुनियोंके संघसहित अनंतवीर्याचार्य लंका प्राये थे, उसी दिन उन्हें केवलज्ञान हुआ । रामचंद्र के साथ वानरवंशी और राक्षसवंशी सबही वंदनाको गये । कुम्भकरण इंद्रजीत और मेघनादने दीक्षा ली। साथ ही मंदोदरीने भी अडतालीस -हजार राणियों सहित शशिका आर्यिकासे आर्याके व्रत लिये । केवलकी वंदना के पश्चात् रामलक्ष्मणने साथियों सहित लंका में प्रवेश किया। सीतासे मिले । लक्ष्मणने चरणोंमें शीस धरा । सुग्रीव हनुमान यादिने सीताको नमस्कार कर भेटे दीं । तत्प'श्चात् रावण के महजमें शांतिनाथ के मंदिर में वंदना करने को गये । वहां विभीषण ने अपने पितामह सुमाली और माल्यवानको तथा पिता रत्नश्रवाको रावण के शोकशमन करने के लिये समझाया और अपने महलोंमें जाकर अपनी विदग्धा नामक पटरानी सहित श्रीरामलक्ष्मण के पास जाकर भोजनका निमंत्रण दिया । उनके 'साथही जाकर राम लक्ष्मण सीताने भोजन किया । विभोपणने - खूब सत्कार किया । तत्पश्चात् - रामलक्ष्मणके अभिषेक करने की तैयारियां हुई तौ दोनों भाइयोंने इनकार कर कहा कि - हमारे पिता भरतको राज्य दे गये हैं इसलिये हम जो राज्यप्राप्त करेंगे वह भरतका ही होना चाहिये । परंतु जब सबने हट किया और कहा किदोनों भाई नारायण बलभद्र हैं तव स्वीकार किया । अभिषेक के पश्चात् लक्ष्मणने जिन २ कन्यावोंसे मार्गमें विवाह किया था Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६० जैनवालबोधकउनको लाने के लिये विराधितको भेजा और रामचंद्रका भी चंद्रवर्धन प्रादि राजाओंकी कन्याओंसे विवाह हुआ। तत्प श्चात् लकाका राज्य विभीषणको देकर उसे सुखी किया और छहवर्पतक वहां रहकर अयोध्याको चल दिये। अजोध्यामें इनके आगमन पर खूब उत्सव दान धर्मादिक हुआ । इन्हे देखकर सब प्रजा खुसी हुई । भरत, अपनी प्रतिक्षानुसार १००० राजाओं सहित मुनिदीक्षा लेकर प्रात्मकल्याणमें लग गया, कुछ दिन बाद केशईने ३०० स्त्रियों सहित प्राधिकाकी दीक्षा ली। इधर रामका राज्याभिषेक करनेको कहा। रामने. कहा-लक्ष्मण नारायण है इसीका अभिषेक होनाचाहिये लक्ष्मण ने नहिं माना तब दोनों भाइयोंका तथा सीता और विसल्याका राज्याभिषेक हुआ। सब राजावोंको उन उनका राज्य दिया. जिनका राज्य छिन गया था उनको वापिस दिलाया। शत्रुधनको मथुराका राज्य दिया। मथुराका राजा मधु स्त्रोमें श्राशक्त था उसे राज्यकाजकी कुछ चिंता नहिं थी, अहोरात्र विषयभोंगोंमें लवलीन था सो उसे जीतकरके शत्रुघ्नने मथुराका राज्य लिया है. ___ कुछदिन राम लक्ष्मण बड़े आनंदसे रहने के बाद सीताके. गर्भ रहा उस समय सीताको तीर्थ और मंदिरों के दर्शनकी अभिलाषा हुई · कभी वीचमें एक दिन अजोध्याकी प्रजाके प्रधान २, मनुष्य एकत्र होकर रामके निकट प्रार्थना करने आये परंतु भय खाने लगे शेषमें कहा कि प्रभो नगरमें बड़ाभारी अन्याय होने लगा है। सबल निर्वलकी स्त्रीको छीन लेता है कुछ दिनके वाद. वह किसी कामकी सहायतासे अपनी स्त्रीको वापिस ले पाता . Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। है। लोग कहते सुनते हैं तो वे लोग कहदेते हैं कि-यथा राजा तथा प्रजा, हमारे राजाके घरमें ही ऐसा होता है तो हमें क्याभय है ? इत्यादि कहकर उच्छृखलतामें और भी बढ़ जाते हैं सो श्राप हमारे रक्षक है. श्राप इसका प्रबंध करें।" श्रीरामने सोचा-यह वात सीताके कारण होने लगी है। और हमारे फुलको कलंक लगाती है इसलिये सीताको देश निकाला देने से ही यह कलंक दूर होगा । यह विचार लक्ष्मणसे प्रगट किया तो लक्ष्मणने कुपित हो कर सीतापर कलंक लगाने वालोंको दंड देनेका प्रस्ताव किया। श्रीरामने समझा कर ठंडा किया और सीताको निकाल देनेका ही प्रस्ताव ठीक किया। फिर कृतांतवक सेनापतिको बुलाकर प्राज्ञा दी गई कि सीताको समस्त तीर्थ और मंदिरों के दर्शन कराके फिर सिंह वनमें शेड़ आना । - कृतांतवक पराधीन दास विचारा क्या करता?लाचार होकर' वैसा ही करना स्वीकार किया। सीताजीको रथमें विठाकर' समस्त तीर्थोके दर्शन कराके सिंहवनमें ले जाकर रथ थाम दिया। कृतांतवकको बडा दुःख हुअा। वह रोने लगा। सीताने कहा-भाई. तू इतना व्याकुल होकर क्यों रोता है ? इस वक्त तुझे बहुत घबराया हुआ देखती हूं! शीघ्र कहो,क्या बात है ? मेरा हृदय फटा' जाता है। आर्यपुत्रका (श्रीरामका) कुछ अमंगल तो नहिं हुप्रा ? . . . . . . . . । • सीताजीको इस प्रकार व्याकुल देख सेनापतिने अपने चित्त को स्थिर करके कहा- 'माता ! क्या कहूं कहते मेरीछाती फटती । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जैनबालबोधक है। प्राप इतने दिन रावण के यहां रहीं. इस कारगा नगर निवासी लोग आपके विषयमें संदेह कर रहे हैं उन्होके वचनोंको सुनकर श्रीराम प्रभुने दया स्नेह और ममताको छोडकर अकीतिके भय से आपको इस वनमें छोड देनेकी आशा दी है। लक्ष्मण जीने बहुत कुछ समझाया परंतु स्वामीने थापको निर्दोष स्त्रीकार करके भी यह कार्य किया है । हे माता ! अव तुमको एक धर्म ही शरण है ।" -- यह दज्रपातके समान वचन सुनते ही सीता मूर्छा खाकर जमीन पर गिर पडी । थोड़ी देर में गदगद होकर कहने लगो 'सेनापति ! स्वामी ने यह अच्छा नहिं किया । अस्तु, उनकी इच्छा, वे प्रसन्न रहें मुझे उनकी आशा शिरोधार्य है। तुम जावो, प्रसन्न दहो । स्वामी से यह अवश्य कह देना कि मेरे त्यागका कोई विषाद न करें, धैर्यका अवलम्वन कर प्रजाकी सदा रक्षा करें परंतु यह ख्याल रक्खे कि -लोक निंदासे मुझे तौ छोड दिया परंतु प्रजा यदि आपके धर्मकी निंदा करें तो मेरी समान परीक्षा किये बिना कहीं धर्म न छोड बैठें। मेरे अपराधोंको क्षमा करें और धर्ममें लवलीन रहें । इत्यादि कहकर फिर सीताजी वेहोश हो गई । कृतांत उसी प्रकार निर्जन भयानक वनमें छोडकर नोकरी पेलेकी निंदा करता हुआ चला आया । सीता जब सचेत हुई तो अनेक विलाप करके मनमें विचारने लगी- मैंने पूर्व जन्ममें बडा भारी पाप किया है। किसीका अवश्य वियोग किया है । उसीका यह फल है। हाय ! मैं राजा जनककी पुत्री वलभट्टको पटरानी स्वर्ग समान महलोंकी रहनेवाली Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग . १६३, हजारों सहेली सेवा.करती थीं कोमत्त शय्यापर शयन करती नानाप्रकारके गीत सुनती थी, वह अब इस भयानक वनमें अकेली रहूंगी। वीणा मृदंगादिके सुंदर शब्दोंकी जगह सिंह, व्याघ्रों के शब्द सुन रही हूं । हाय ! इस भयानक वनमें अकेली कैसे रहूंगी इत्यादि विलाप करती थी। इसी समय पुंडरीकपुरका स्वामी राजा वजूजंघ हाथी पकडने के लिये इस वन प्राया था सो सीताजीका रुदन सुनकर पाया और पूछा कि-वहन ! तू कौन है ? इस भयानक वनमें किस पाषाणहृदय मनुष्यने तुझे 'अकेली छोड दिया है, पुण्यरूपिणी! अपनी इस अवस्थाका कारण शीघ्र कह ! शोक तज, धीरज धर, किसी वातका भय मत कर। मैं पुंडरीकपुरका राजा वजूजंघ हूं। तव सीताने कठिनाईसे शोक दवाकर अपना सब हाल कहा। वनजंघने कहा-तू मेरी धर्मकी बहन है। तू मेरे घर चलकर भाईके घरको पवित्र कर । ऐसा कह कर वह रयमें विठाकर ले गया । रानियोंने बड़े भादर "सत्कारसे इनकी सेवा प्रारंभ कर दी। कुछ दिन बाद सीताजीके एक साथ दो पुत्र हुये-एकका नाम अनंग लवण, दूसरेका मदनांकुश रक्खा गया । नगरमें चिरंजीव चिरंजीव जय जय शब्द सुनाई देने लगे । जव ये दोनों कुमार बड़े हुये तो मामा वनजंघने राजकुमारोंके योग्य समस्त विद्यायें पढ़ाई, युद्ध विद्यामें बड़े चतुर हो गये।। एक दिन ये कुमार बनमें कीड़ा करते थे, कि नारदजी दिखलाई दिये । कुमाने नमस्कार किया। नारदजीने पाशीर्वाद दिया-"तुम दोनों भाई राम लक्ष्मणकी तरह. फलो फूलो!' Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालबोधककुमारोंने पूछा कि-महाराज रामलक्ष्मण कौन है, कहां रहते हैं ? क्या उनकी राज्य विभूति हमसे भी जियादा है ? नारदजीने आदिसे लेकर सीताजीके त्याग पर्यंतका सब हाल कह दिया मदनांकुशने कहा-निःसन्देह राम लक्ष्मण बड़े पराक्रमी बलधारी हैं परंतु लोकापवादके कारण सीताको त्याग दिया सो अच्छ नहिं किया। अनंगलवणने पूछा-महाराज ! अजोध्या यहाँसे कितनी दूर है ? नारदने कहा-यहांसे ६४० कोश उत्तरकी तरफ है क्यों किसलिये पूछते हो? अनंग लवणने कहा कि-हमराम लक्ष्मणसे लड़ेंगे और देखेंगे कि उनका बलवीर्य कितना है? कुमारोंने घर श्राकर कहा-माताजी ! हम अयोध्या पर चढाई करेंगे। सीताने सुनकर नारदजीसे कहा कि-महाराज ! यह क्या स्वांग रच दिया क्यों बैठे विठाये वापबेटेमें वजवादी । मैं दुखिया बहुत दिनोंसे शोक दवाये बैठी थी. अब न पापका कुछ विगडेगा न इन वाप वेटेका, आफत श्राई तो मेरे पर । नारदजीने कहा यहन ! मैंने तो कुछ नहिं किया। इन्होंने प्रणाम किया, मैंने श्राशीर्वाद दिया कि तुम राम लक्ष्मणसे फलो फूलो । इन्होंने पूछा तो सव पूर्वका हाल कह दिया। लवण अंकुशने माताका दुःख सुन मातासे प्रार्थना की। माताने कहा-कि वेटो ! तुम लोगोंकी वीरता पर तो मुझे अभिमान है परंतु प्रेमानुगग भी तो दोनों तरफ है। तुम लोगोंमें किसोका भी हानि पहुंची तो मुझे मरी समझोक्यों कि तुमसे प्यारे मुझे राम लक्ष्मण हैं और उनसे प्यारे तुम हो। यह सुनकर कुमार आश्चर्य से बोले-यह कैसे ? तब सीताने कहा कि-श्रीरामातुमारे पिता हैं और लक्ष्मण तुमारे चाना हैं। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । " · १६५ दोनों तुमारे पूज्य गुरुजन हैं । कुमारोंने कहा-तब तौ हम जरूर उनसे युद्ध करेंगे। उन्होंने तुझ निरपराधको वनमें छोडकर इतना दुःख दिया सो जरूर बदला लेंगे। सीताने कहा- बेटा ! तुम ऐसा मत करो, उनसे जाकर मिलो प्रणाम करो । कुमारोंने कहा- हम वीर हैं इसप्रकार नहिं मिलेंगे। युद्धमें ही उनसे मिलेंगे । नारदजीने कहा- कोई हानि नहीं होने दो, बाप बेटोंमें युद्ध मैं बीचमें हूं । हानि समझते हो परिचय करा दूंगा फिर क्या था युद्धको चल दिये। वहां पहुंचते ही युद्ध होने लगा । राम लक्ष्मणाने तो कुमारोंको शत्रु समझकर ही वाण चलाये परंतु कुमारोंने पिता और चाचा समझ कर बचा २ कर वाण चलाये तौ भी राम लक्ष्मण घबड़ाने लगे और मनमें संदेह करने लगे कि - सायद ये ही बलभद्र नारायण न हों । तत्र लाचार होकर कुमारों पर सुदर्शन चक्र चलांया परंतु सुदर्शन चक्र विना घात किये वापिस आगया । सीता और नारदजी यह सब तमासा विमानमें वैठे देख रहे थे । सो नारदजी तुरंत बीचमें कूद पड़े । लक्ष्मणाने प्रणामपूर्वक कहा कि महाराज ! आज तक मेरा वाण कभी खाली नहिं गया, आज क्या हो गया। सबके सब वार खाली जा रहे हैं ! -नारदजीने कहा कि आप किससे लड़ रहे हैं १ ये दोनों सीता के पुत्र मदनांकुश और अनंगलवण हैं ? वस ! कुमार भी तत्काल शस्त्र फेंक रथ से उतर कर राम लक्ष्मण के चरणोंमें गिर पड़े। उन्होंने उठाकर छातीसे लगाकर प्रभूतपूर्व सुखानुभव किया । और सबके बडा आनंद हो गया । सोता देखकर बडी प्रसन्न हुई और बज्रजधके साथ तुरंत ही लौट गई। 1 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ હું जैनवालबोधक कुछ दिन बाद सुग्रीव हनुमानादि और प्रजाके प्रतिनिधियोंने प्रार्थनाकी कि सीता सर्वथा पवित्र हैं उनको लाना चाहिये ast मुसकिल से समझा कर सीताजीको बुलाया । उसने हाथ जोड़कर कहा कि-लोकापवाद दूर करनेके लिये जो आप कहें सो करूं । श्रीरामने कहा- अग्निमें प्रवेश करो। सीताने स्वीकार किया। तब तीन सौ हाथ लंवा चौड़ा अग्निकुंड तैयार हुआ । सीता, पंचपरमेष्ठीका स्मरण करके "मैंने श्रीरामके सिवाय स्वप्न में भी यदि य पुरुषकी वांछा की हो तो मैं इस अग्नि-कुंडमें भस्म हो जाऊं ।' ऐसा कहकर कूद पड़ी। समस्त लोक हाहाकार करते ही रह गये परंतु वह पवित्र पतिव्रता थी । क्या मजाल जो अग्नि उसे जलावे ! तुरंत ही देवोंने निर्मल जलका सरोवर बना दिया। इतना पानी बढ़ा कि लोग बहनेलगे । उस पर सहस्रः दलका कमल और कमलासनपर सीताजी बैठी। दिखायी पडने लगीं । देव उसके शीलव्रतकी प्रशंसा करके धन्य धन्य जय जय शब्द करके पुष्पोंकी वर्षा करते दीखने लगे। लवणांकुश माताकी देवोंके द्वारा प्रशंसा सुन दोनों ओर जा खड़े हुये । रामचंद्रजी ऐसे मुग्ध हुये कि उसके पास जाकर अपने अपराधक क्षमा प्रार्थना करने लगे और घर चलकर सबका सुखी करने के लिये कहा । परंतु सीताजीने संसारका सार जान लिया । सिवाय दुःखके संसार में कुछ नहीं है इस. कारण उससे विरक्त हो पृथिवीमती अर्जिकासे दीक्षा लेकर घोर तपस्याके द्वारा स्त्रीलिंग छेदकर अच्युत स्वर्ग में इन्द्रकी पर्याय धारण की । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग.! १६१ तत्पश्चात् राम लक्ष्मणने बहुत दिनोंतक राज्यसुख भोगां। एक दिन स्वर्गके देवोंमें राम लक्ष्मणके स्नेहको प्रशंसा होने लगी तौ एक देवने पाकर रामचंद्रको मायासे वेहोश करके लक्ष्मणको रामके मरनेकी खवर सुनाई । लक्ष्मणं सुनते ही हाय कहकर जमीनपर गिर पड़ा और प्राण पखेरू उड़ गये । महलमें शोक का गया । रामचंद्र पागल हो गये। लक्ष्मणको लाशको जीवित समझ छह महीने तक लिये लिये फिरे । फिर देवोंने समझाकर शवदहन करवाया। फिर संसारले विरक्त हो श्रीरामने विभी. षण, शत्रुघ्न, अनंगलवण, सुग्रीव आदि सोलह हजार राजावोंके साथ दीक्षा ली । सवने अपने २ पुत्रोंको राज्य दिया और श्रीराम कोटिशिलापरसे मुक्ति गये । लवणांकुश भी मोक्षं गये! . ३५. कर्मसिद्धांत। . . -- --- • ८६ | जिस कर्मके उदयसे संतानके क्रमसे चले पाये जीवके आचरणरूप उच्च नीच गोत्रमें जन्म हो उसे गोत्रकर्म कहते हैं। गोत्रकर्म दो प्रकारका है- एक उच्च गोत्र, दूसरानीच गोत्र । ___801 जिस कर्मके उदयसे उच्च गोत्रमें जन्म हो उसे उच्च गोत्र कर्म कहते है। ____ जिस कर्मके उदयसे नीच गोत्र में जन्म हो उसे नीचगोत्रकर्म कहते हैं। .. : . १२ । जो दान लाभ, भोग, उपभोग और वीर्यमें विघ्न डालें Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालबोधक उसे अंतरायकर्म कहते हैं। इसलिये इस कर्मके पांच नाम हैं : दानांतराय लाभांतराय भोगांतराय, उपभोगांतराय वीर्यतिराय | और ६३ । जो जीवोंको इष्टवस्तुकी प्राप्ति करावे उसे पुण्यकर्म कहते हैं । ९४ । जो जीवोंको अनिवस्तुको प्राति करावे उसे पापकर्म कहते हैं। १५ । जो जीवके धानादिक अनुजीवी गुणोंकां धार्ते उसे घातिया कर्म कहते हैं । 1 ६। जो जीवके शानादिक अनुजीवी गुणको नयाँ से श्रघातिया कर्म कहते हैं । १७। जो जीवके धनुजीवी गुगांको पूरे तौरले बाते उसकी सर्वघातिया कर्म कहते हैं | = जिसका फल जीवने हो उसे जीवत्रिपाकी व जिसका 1 फल पुद्गलमें { शरीरमें } हो उसे पुद्गलत्रिपाकी कर्म कहते हैं. २६ | जिसके फल से जीव संसार के उसे नवविपाकी कर्म कहते हैं । १०० : जिसके फलसे विग्रह गतिने जीवका आकार पहिला सा बना रहे उसे क्षेत्रविपाकी कर्म कहते हैं : २०१ | एक शरीरको छोड़कर दूसरा शरीर ग्रहण करने के लिये जीवके जानेको विग्रहगति कहते हैं । १०२ । चातियाकर्म सैंतालीस है। ज्ञानावरण ५. दर्शनावरण ६६ मोहनीय २८, और अंतराय ५=४७ | Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । १६९ १०३ । श्रघातियाकमकी एक सौ एक प्रकृति है । वेदनीयको २ आयुकी ४ नामकर्मकी ९३ और गोत्रकर्मकी २ = १०१ । २०४ | सर्वघातिया प्रकृति इक्कीस हैं-- ज्ञानावरणकी १, ( केवलज्ञानावरण) दर्शनावरणकी ६ (केवलदर्शनावरण १ और निद्रा ५) मोहनीयकी १४ ( अनंतानुबंधी ४ श्रप्रत्याख्यानावर ४ प्रत्याख्यानावरण ४ मिथ्यात्व १ सम्यग्मिथ्यात्व १ ) | : १०५ देशवातिप्रकृति छन्वीस है-शानावरणकी ४ (मतिशानावरण, श्रुतज्ञानावरण. अवधिज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण) - दर्शनावरणको ३, (चतुर्दर्शनावरण, श्रचतुर्दर्शनावरण, धौर अवधिदर्शनावरण मोहनीयकी १४ ( संचलन ४ नोकषाय ६ सम्यक्त्व १ ) अंतरायकी ५ कुल २६ | १०६ क्षेत्रविपाकी प्रकृतियां चार हैं- नरकत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और देवगत्यानुपूर्वी । १०७ । भवविपाको प्रकृतियां चार हैं-नरकायु तिर्यचायु मनुष्यायु और देवायु । } १०८ | जीवविपाकी प्रकृतियां अठहत्तर हैं. - घातियाकी ४७ गोत्रकी २ वेदनीयको २ और नामकर्मकी २७ ( तीर्थकर प्रकृति, उच्छ्वास, चादर, सूक्ष्म, पर्याप्ति, अपर्याप्ति, सुस्वर, दुःस्वर, प्रदेय, श्रनादेय, यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति, त्रस, थावर, प्रशस्त विहायोगति, प्रशस्तविद्दायोगति, सुभग, दुभंग, गति ४ जाति ! पांच सब मिलकर ७८ । १०६ | पुद्गलविपाकी प्रकृति वासठ हैं-सद प्रकृति- १४८ में - से क्षेत्रविपाकी चार, भवविपाकी चार, जीवविपाकी अठहत्तर Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जैनवालवोधकऐसे सब मिलकर ६६ प्रकृति घटानेसे शेष रहीं वासट प्रकृति पुद्गलविपाकी हैं। ११० । पापप्रकृति कुल १०० हैं-घातियाकर्माकी ४७, अमा. तावेदनीय १, नीचगोत्र १, नरकायु १. नामकर्मको ५० (नरकगति १, नरकगत्यानुपूर्वी १. तिर्यग्गनि १, तिर्यगत्यानुपूर्वी १, जातिमेसे श्रादिकी ४, संस्थान अन्तके , संहनन अन्तके ५, स्पर्शादिक २०, उपघात १, अप्रशस्त विहायोगति १, स्थावर १, सूक्ष्म १,. अपर्याप्ति १ अनादेय १, अयशःकीर्ति १, अशुभ १, दुर्भग १, दुस्विर १, अस्थिर १, साधारण १।। १११ । पुण्य प्रकृतियां कुल ६८ अडसठ हैं। काँकी समस्त प्रकृतियां १४. जिनमेंसे पापप्रकृति १०० घटानेसे शेष रही ४८ और नाम कमकी स्पर्शादिक २० प्रकृति पुण्य और पाप दोनोंमें गिनी जाती हैं क्योंकि वोसों ही स्पादिक किसीको इष्ट किसी को अनिष्ट होते हैं । इसलिये ४८ में २० मिलनेसे १८ पुण्य प्रकृति होती है। .--::--- ___ ३६. श्रीशैल हनुमान। ___ इस भरतक्षेत्र में उत्तरकी तरफ विजयाचनामा पर्वत है । जिसकी दक्षणश्रेणीमें आदित्यपुरं नामका नगर है । उसमें प्रहाद नामका राजा राज्य करता था उसकी रानीका नाम केतुमती था। इनके वायुकुमार नामका पुत्र था जिसका दूसरा नाम पवनंजय था। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग.. १७१ इस ही भरतक्षेत्रमें दक्षिणपूर्व दिशामें महेंद्रपुर नामका एक. नगर था । उसके राजाका नाम महेंद्र, रानीका नाम हृदयवेगा था,इनके अरिंदम आदि १०० पुत्र और अंजना नामको एक पुत्री थी.जिसकी सुन्दरता अद्वितीय थी। इसको योवनवती देखकर इसके विवाह करनेकी चिन्ता हुई । मंत्री श्रादिने रावण वगैरह उनके वर वताये परंतु शेषमें राजा प्रह्लादके पुत्र वायुकुमारको ही वर ठहराया। • एक दिन-वसंत ऋतुमें अष्टाह्निका पर्वमें राजा महेंद्र नंदीश्वर द्वीपमें परवारसहित भगवानकी बंदनार्थ गये थे। वहांसे पाते हुये कैलास पर्वतपरके चैत्यालयों के दर्शनार्थ गये तो वहां पर राजा महादसे भेट हो गई। प्रह्लादने मित्रकी कुशलक्षेम पूछो । राजा महेंद्रने कहा कि-जिसके विवाहयोग्य पुत्री हो उसके कुशलक्षेम. कहाँ हो ? अञ्जनाको विवाहयोग्य देखकर उसके वर ढूंढनेकी चिंतामें वड़ी व्याकुलता रहती है. : हमारी दृष्टि तौ श्रापके पुत्र पवनंजय पर है।राजा प्रह्लादने कहा कि मुझे भी पुत्रके विवाह की चिन्ता लगी हुई है सो आपके वचन सुन बहुत पानंद हुआ जो आपके अंच गई सों हमें भी प्रमाण है। मेरे पुत्रका बड़ा भाग्य है जो आपने कृपाकर कन्याप्रदानकी । तीन दिन बाद फिर क्या था ?. मानसरोवर पर ही विवाह करनेका मुहूर्त निश्चय हो गया। दोनों ओर आनन्द मङ्गल होने लगे। :: पवनंजयने जव अपने विवाहका समाचार सुना तो अंजना को एक बार देखनेकी प्रबल इच्छा हुई और अपने प्रहस्तमित्र सहित विमानसे अंजनाको देखनेके लिये गये। अंजना अपनी Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GR जैनवालबोधक दासियों सहित झरोखेमें बैठी थी। पवनंजय अंजनाके रूपको 'देखकर संतुष्ट हुआ। किंतु उस समय वसंततिलकाने पवनंजय 'के साथ पाणिग्रहण होनेके कारण अंजनाके भाग्यको सराहा । परन्तु दूसरी दासीने पवनंजयकी निंदा करके उसे अयोग्य वर -ठहराया और कहा- इसकी जगह यदि विद्युत्प्रभके साथ विवाह होता तो अच्छा था । पवनंजयको यह सुन कर क्रोध आगया कि - यह नालायक मेरी निन्दा कर रही है और यह चुपचाप सुन रही है । सो इन दोनों को ही मारनेके लिये जाने लगा । प्रहस्तने समझा कर ठण्डा तो किया परंतु डेरे पर आते ही अपने जानेका प्रबंध करने लगा । पिता और श्वशुरने बहुत समझाया तो विवाह करके हो उसे दण्ड देना ठीक है ऐसा मनमें विचार कर विवाह करने पर राजी हो गया । मानसरोवर पर विवाह हो गया । विवाहके बाद पवनंजयने अपनी प्रतिज्ञानुसार उसके महल जानेका व किसी प्रकार के सम्वन्ध रखने का सर्वथा त्यागकर दिया । अंजना पतिको अप्रस नासे वहुत ही दुःखी हो गई । वह महासती पतिव्रता इस दुःखके कारण इतनी दुर्बल हो गई कि पतिका चित्र बनाते समय हाथ में लेखनीको स्थिर नहिं रख सकती थी । कितने ही वर्षोंके बाद एकवार रावण और वरुणमें युद्ध उन गया था । राजा महेंद्र रावणके अधीन राजा था सो उसने युद्ध में सहायता देनेके लिये इसको भी बुलाया । इस युद्ध में राजा प्रह्लाद जाते थे परंतु पवनंजयने कहा कि मेरे रहते आपका -जाना ठीक नहीं । विशेष प्रार्थनासे प्रह्लादने पवनंजयको भेजना Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। .१७३ स्वीकार किया। युद्ध में जानेके समय अंजना पतिदर्शनार्थ द्वार पर पाई सो पवनंजय देखकर बड़ा क्रोधित हुआ। पवनंजयने. पहला डेरा मानसरोवर डाला। वहां पर रात्रिमें चकवेसे चक वीका वियोग होनेसे चकवी बहुत ही दुःखित हो तडफड़ाती थी सो उसे देखकर पवनंजयको अंजनाके दुःखका भान हुआ। और अब वे एकवार अंजनासे मिलकर जाने के लिये विकल हो गये । घरसे रवाना हो आये अव जावें कैले ? फिर सलाह करके प्रहस्तमित्र सहित विमानमें बैठ कर गुप्त भावसे जाना ठहराया सो मुद्गर नामके सेनापतिको सेनाका भार देकर रात्रिमें चल दिये। अंजनाके महलमें रात्रि भर रहे । उस दिन अंजना ऋतुस्नाता थी। सो उसने गर्भ रहनेकी आशंका प्रगट की और माता पिताको अपने पानेकी खबर करके जानेकी प्रार्थना की परंतु पवनंजय दो चिन्ह देकर चले गये और शीघ्र ही हम लोट पावेंगे ऐसा आश्वासन दे गये । इधर अंजनाके गर्भके चिन्ह प्रगट हो गये । पतिकी दी हुई कुंडल और मुद्रिका दिखाई तो भी सासने न माना और पतिसे कहकर अंजनाको पिताके नगरके निकट वनमें छुड़वा दिया। ___ अंजना पिताके घर गई परंतु उसको ऐसी अवस्था देखकर पिताने व्यभिचारिणी समझकर अपने नगरसे निकलवा दिया। तब वसंतमाला (अपनी सखी) सहित वनमें चली गई । वह वन बड़ा भयानक था। वहां पर्वतके ऊपर एक गुफा थी उसमें रहने .का विचार कर वहां गई तो उस गुफामें एक चारण ऋद्धिके धारक मुनिके दर्शन हुये। दोनोंने चंदना करके अंजना के भाग्य Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Te जैनवाल बोधक 1 का वृत्तांत पूछा । मुनिने प्रागामी सब वृत्तांत कहकर धीरज चंधाया और प्राकाशमार्गसे चले गये। वे दोनों श्रवलायें उसी : गुफामें रहने लगीं जो कि - वंबई के पास नाशिक नगरसे १६ मोलपर अंजनेरी पहाड़के ऊपर अंजना गुफाके नामसे अवतक मौजूद है एक रात्रिको वहां पर सिंह आया । वसंतमाला शस्त्रसहित थी सो जनाको रक्षाका प्रबंध किया परंतु दोनों ही भय 'भीत थीं । यह देखकर वहांपर रहनेवाले यक्षने यक्षणीकी प्रार्थनासे अष्टापदका रूप धारण करके सिंहको भगा दिया। उस गुफा में दोनों स्त्रिय - मुनिसुव्रत भगवान की मूर्ति स्थापन करके नित्यपूजा बन्दना करने लगों । गुफामें हो हनुमानजीका जम्म 'हुआ । चालक के जन्म होने पर उनकी प्रभासे अंधेरी गुफामें उजाला हो गया । वालकको शुभ लक्षणवाला देखकर अंजना को परम संतोष हुआ | हनुमानका जन्म चैत्र सुदी अष्टमीको अर्द्ध रात्रिके समय हुआ था । दुसरे दिन श्राकाश मागसे एक विमान जाता था सो इस - गुफा पर आकर अटक गया और उसे देख इन्हें भय हुवा तौ ये रोने लगों । रोना सुन विमानको नीचे उतार कर उसमेंसे हनुरुह द्वीपके राजा प्रतिसूर्य निकल कर गुफा के दरवाजे पर आये । जनाने अपना परिचय दिया । प्रतिसूर्यने अपना परिचय देकर कहा कि तू तो मेरी भानजी है । चल, घर पर चल कर सुखसे रहना। ऐसा कह कर विमानमें विठाकर अपने नगरको 'चल दिया । बालक जनाके हाथोंमें खेल रहा था सो उछल नीचे : पहाड़ पर गिर पड़ा हाहाकार होने लगा विमान उतार कर बालक 1 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । १७९ को देखा तो बालक एक सिलावर श्रानन्दसे खेल रहा है शिला के टुकड़े २ हो गये हैं। यह देख प्रतिसूर्यने जाना कि यह चालक चर्मशरीरी वज्रवृषभनाराच संहननका धारी बड़ा प्रतापी है वास्तव में वह था भी चर्मशरीरी कामदेव । वालकको लेकर - हनुरुह द्वीप पहुंचे । वहां पहुंच कर जन्मोत्सव किया और बालकका नाम श्रीशैल रक्खा गया । इनुरुह द्वीपमें आनेके - कारण दूसरा नाम हनुमान प्रसिद्ध हुआ । इधर पवनंजयने वरुणको जीतकर रावणका प्राशाकारी वना दिया और घर आने पर सुना कि अंजनाको दोष लगा कर निकाल दिया सो सुनकर बड़ा दुःखी हुआ फिर सर्वत्र खोज हुई । पवनंजय और प्रहस्त सुसरालमें गये । वहांसे भी निकाल दी गई सुनकर पवनंजयने वियोगी योगीका रूप धारण किया । और अम्बरगोचर हस्ती पर चढ़ कर जङ्गल २ खोजता फिरने • लगा कुछ दिन बाद हाथीको भी कुमारने छोड़ कर स्वतंत्रता दे - दी परंतु हाथीने कुमारको नहिं छोड़ा साथ २ फिरने लगा । और मित्र के साथ ये समाचार और सब सामान घर भेज दिया । प्रहस्तने राजा प्रह्लादको सब हाल सुनाया । सुनकर बड़े दुःखित हुये । केतुमती माता भी पुत्रके दुःखमे रुदन करने लगी । पिताने कुमारको खोजने के लिये दूत भेजे। स्वयं आकाशमार्गसे खोजने को गये। एक दूतराजा प्रतिसूर्य के पास भी भेजा कि कुमार जनाको खोजने लिये पागल से होकर कहींको चले गये हैं । यह समाचार अंजनाने सुना तो वह बहुत हो दुखित हो विलाप करने लगी उसके विलापसे राजा प्रतिसूर्य बड़ा दुःखित Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ जैनवालवोधकहुधा । दिलासा देकर.आकाशमार्गसे कुमारको खोजनेके लिये अनेक विद्याधरोंको साथ लेकर निकल पड़ा। राजा प्रहलादका भी साध हो गया सो खोजते भूतखर नामा. अटवीमें पाये। वहां वर्षाकालके सधन मेघ समान अंवरगोचर हाथीको देखकर विद्याधर प्रसन्न हुये और राजा प्रतिसूर्यको कहने लगे किजहां यह कुमारका हाथी है वहां पवनकुमार भी होना चाहिये ।' पवनकुमार वहीं जंगलमें निश्चल बैठा था और हाथी उसकी रक्षार्थ वहीं खडा था। विद्याधरोंके कटकको आवाज सुन हाथी ने स्वामीकी रक्षार्थ सबको भगा दिया। पास नहीं आने दिया। तव लाचार हो हथिनियों के समूहसे हाथीको वशमें किया और कुमारके पास गये। पिताने कहा-हे पुत्र ! तू महा विनयवान होकर हमें छोड कहां प्राया ? महा कोमल सेजपर सोनेत्रान्ते तूने महा भयानक वनमें किसप्रकार रात्रि विताई। . पवनकुमारने कुछ भी जवाब नहि दिया। काठके पुतलेके समान निश्चल हो किसीसे न वोला । फिर प्रतिसूर्यने पवनकुमार को छातीसे लगाकर अंजनाको अपने घर लाने और हनुमानके पैदा होने और पहाड शिलाके टूटने वगेरहका हाल सब कहकर कहा कि मेरे घर माता पुत्र दोनों कुशलसें हैं । हां! तुमारे वियोग जनित दुःखसे बहुत ही दुःखित हैं । यह बात सुन कुमार बड़े प्रसन्न हुये तुरंत ही पुत्र स्त्रीके देखनेकी अत्यंत अभिलाषासे विमानमें बैठकर सबके साथ चल दिया । पवनंजयने स्त्रीपुत्रको प्राप्त होकर प्रसन्नतासे अपने मामा श्वसुरके घर पर ही सुखसे रहने लगे तत्पश्चात् राजा प्रहलाद वगेरह सब चले गये। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । १७७ कुछ दिन बाद फिर वरुणराजाने रावण से युद्ध ठान दिया। अबकी बार भी पवनंजय आदि अधीनस्य राजाओंको युद्धार्थ बुलायां सो पवनंजय और प्रतिसूर्यने हनुमानको राज्य देकर जाना चाहा परंतु हनुमानने कहा कि मेरे रहते आप क्यों जाने लगे ? पिता और प्रतिसूर्यने बहुत कुछ समझाया कि तू चालक है, परंतु उसने नहि माना और स्वयं युद्धमें गया। रावणने इसका बहुत सत्कार किया। युद्ध में श्रद्भुत वीरता देख शत्रुको बंदी किया | युद्ध समाप्त होनेके पश्चात् वरुणने अपनी पुत्री और रावणने अपनी बहिन चंद्रनखाकी पुत्री अनंगकुसुमाके साथ हनुमानका विवाह किया और संपूर्ण कुंडलपुरका राज्य देकर राज्या. भिषेक कराया और वहीं पर हनुमान सुखसे रहने लगे। • इसके पश्चात् किष्कंधपुरका राजा सुग्रीव पद्मावती नामा अपनी पुत्रीको योवनवती देख चिंता करने लगा । राजाने कन्या. को श्रनेक राजकुमारोंके चित्र पट दिखाये परंतु सबको तुच्छ दृष्टि से देखकर हनुमानके चित्रपर वह आशक हो गई । पद्मावतीका चित्र हनुमानके पास भेजा तौ उसके एकहजार विवाह दुसरे होने पर भी वह ऐसा आशत हो गया कि वह उसे देखने किंवापुर गया । सुग्रीवने हनुमान कुमारका आना सुन वड़े यादर सत्कारसे नगरमें प्रवेश कराया । कन्या भी हनुमानको देख अति हर्षित व चकित हो गई। फिर बड़े आनंद और उत्साहके S साथ विवाह हो गया । धनुमानं प्रियासहित अपने नगर आये । माता पिता अपने पुत्रको महा लक्ष्मीवान देख सुखसागर में गोता खाने लगे । १२ " Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालबोधक तत्पश्चात् हनुमान श्रीराम लक्ष्मण से मिलकर उनके भक्त हो गये और उनके युद्धमें पूर्ण सहायता देकर श्रीरामको लंकार विजय कराई । श्रीरामने विभीषणको लंकाका, विराधित को लंकापुरीका ( पाताललंकाका ) भामंडलको रथनूपुरका, Treathi देवोपनीत नगरका और हनुमानजीको श्रीनगर तथा हनुरुह द्वीपका राज्य दिया। हनुमानजी व पूर्वपुराय के प्रतापले श्रीनगर में राजधानी बनाकर सुखसागर में मग्न हो गये । एक समय वसंत ऋतु में हनुमानको प्रकृत्रिम चैत्यालयोंके दर्शन करनेकी इच्छा हुई । समस्त रानियों मंत्रियों सहित ढाई द्वीपके समस्त चैत्यालयों के दर्शन करके सुमेरुपर्वत पर आये ! वहां पूजन भजनादि करके घर लोट रहे थे, कि मार्गमें रात्रि हो जानेसे सुरदुंदुभी नामा पर्वतपर ठहर गये । परस्पर वार्ता - लाप हो रहा था कि - हनुमानजीको आकाशमें एक तारा टूटता हुआ दिखाई दिया तो आपको संसार शरीर भोगोंकी प्रसारता प्रतीत होने लगी । और द्वादश भावनारूप विचार करके सुनिदीक्षा लेनेको उद्यत हो गये । प्रभात होते ही चैत्यवान नाम के वनमें संतचारण नामके चरण ऋद्धिके धारक मुनिमहाराज से साढ़े सातसां राजाओं के साथ मुनिदीक्षा ग्रहण करके धोर तपश्चरणपूर्वक तुंगीगिरि पर्वतसे मुक्ति धामको पहुंच गये। 4 १७८ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । ३७. छहढाला सार्थ - दुसरी ढाल । -:०: पद्धरि छंद । ऐसें विथ्या - गज्ञान च । वंशभ्रमत भरत दुख जन्म पर्ण ॥ ૭૨ तातें इनको तजिये सुजान । सुन तिन संछेप कहूं बखान ॥ १ ॥ मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रके कारण ही यह जीव ऊपर कहे हुये संसार में भ्रमण करता है और नानाप्रकारके जन्म मरण संबंधी दुःख भोगता है । इस कारण इन तीनोंको भले प्रकार जानकर त्यागना चाहिये। मैं इन सबको संक्षेपले कहता हूं सो सुनो ॥ १॥ जीवादि प्रयोजन भुन तत्र । सरधै तिन माहि विपर्ययत्व ॥ चेतनको है उपयोग रूप | विनमूरति चिनमूरति अनूप ॥२॥ - पुल नभ धर्म अधर्म काल | इनतें न्यारी है जीब चाल || -ताको न जानि दिपीति मानं । करि, करें देहमें निजं पिछान ॥ मोक्षमार्गमें जीव प्रजीव आस्रव वंघ संवर निर्जरा और मोक्ष सात तत्व प्रयोजनभूत ( अपने मतलवके) हैं । इनमें "भौरका और उल्टा श्रद्धान करना--कर लेना मिथ्यादर्शन है । जीवकां -स्वरूप उपयोगमय है । प्रमूत्तिकं चैतन्यमय है सो यह जीवका स्वरूप पुद्गल, धर्म, धर्म, प्रकाश और काल इन पांच अजीव Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनबालबोधकपदार्थोसे भिन्न है। परंतु यह जीव इसको इसी प्रकार न जानकर इसके विपरीतजड़ रूप देहको ही प्रात्मा (श्रांत्माजीव )मान अद्धान कर लेता है और जान लेता है। मैं दुखी सुखी मैं रंक राव । मेरो धन गृह गोधन प्रभाव ।। मेरे सुत तिय मैं सबळ दीन । वेरूप सुभग मूरख प्रवीन । तन उपजत अपनी उपज जानि। तननशत आपको नाम मानि. रागादि प्रगट जे दुःख दैन। तिनहीको सेवत गिनत चैन ॥५॥ शुभ अशुभ बंधके फल मझार। रति अरति करी निज पद विसार ॥ प्रातहित हेत विराग ज्ञान | ते लख आपको करदान ॥ ६ ॥ रोकीन चाह निज शक्ति खोय। शिवरूप निराकुलता न जोय ॥ ऐसा उलटा श्रद्धान होनेके कारण ही यह जीव मान लेता है कि- मैं दुखी हूं, मैं सुखी हूं, मैं दरिद्र हूँ, मैं राजा हूं, यह घर गोधन संपदा श्रादि सब मेरा ही प्रभाव है। ये स्त्री पुत्र सा. मेरे ही है, मैं ही बलवान हूं मैं ही दीन कुरुप सुंदर और भूरख और पंडित है। इसी प्रकार अपने शरीरको उत्पन्न होते अपनेको; उत्पन हुआ, और शरीरको नाश होते अपनेको नाश हुमा मान लेता है। और रागादि कषाय भाव प्रत्यक्षतया दुख देने वाले.. है परंतु इन हीको धारण करनेमें सुख मानता है। तथा शुभबंध. Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । शुभबंधका फल भोगता है तौ शुभमें रति और अशुभमें अरनि मान कर अपने असली स्वरूपको भूल जाता है। इनके विपरीत ज्ञान विरागादि अपने कल्याणकारी हैं जो उनको अपने लिये दुखदायक समझता है । शक्तिको काममें लाकर अपनी इच्छाओंको रोका नहीं। इसी कारण मोक्षरूपी निराकुलता, अब तक नहि पाई ॥ और याही प्रतीति जुत कछुक ज्ञान । सो दुखदायक अज्ञान जान ॥ इन जुत विषयनिमें जो प्रवृत्त। ताकू जानहु मिथ्या चरित ॥ 'यों मिध्यात्वादि निसर्गजेह । यब जे गृहोत सुनिये सुतेह || इसी (उपर्युक्त प्रकारके) प्रकारके उल्टे श्रद्धान सहित जो कुछ आत्माका ज्ञान है उसको दुखदायक मिथ्याज्ञान जानो और इन मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान सहित पंचेंद्रियोंके विषयों में प्रवृत्ति है उसे मिथ्याचारित्र जानो । इस प्रकार ये मिथ्यादर्शनादिक तौ " गृहीत अर्थात् जीवके हमेशह साथ रहनेवाले हैं। और इनके सिवाय जो इस मनुष्य जन्म में नये ग्रहण कर लिये हैं। ऐसे 'गृहीत मिथ्यादर्शनादिको आगे कहते हैं सो सुनो ॥ ८ ॥ जो गुरु कुदेव कुधर्म सेव | पोषै चिरदर्शन मोह एव || अन्तर रागादिक घरे जेह । बाहर धन अम्बरतें सनेह ॥ ९ ॥ धारै कुलिंग लहि महत भाव । ते कुगुरु जनम जल उपल- नाव ॥ 'जे रागद्वेष मलकरि मलीन । वनिता गदादिः जुत चिह्न चीन ॥ ते हैं कुदेव तिनकी जु सेव । शठ करत न तिन भवभ्रमन छेव ॥ रागादि भाव हिंसा समेत । देर्पित त्रस्यावर मश्न खेत ॥११॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जैनवालवोधक जे किया तिन्हें जानहु धर्म । तिन सरथै जीव लहैं असर्प || याको गृहीतमिवातजान । अव सुन गृहीत जो है कुज्ञान ॥ १२ ॥ जो कुगुरु कुदेव प्रौर कुधर्मका सेवन है सो हमेशा मिथ्यात्व को ही पोषण करता है। जो लोग अंतरंगमें तो राग द्वेष क्रोधः मान माया लोभादि धारण करते हैं और वाह्यमें धन वस्त्रादि परिग्रहों से अनुराग करते हैं ऐसे खोटे भेष धारण करके अपने को बड़े भारी महंत ( पूजनीय ) मानते हैं । वे सब संसार समुद्रमें डवानेके लिये पत्थर की नाव समान कुगुरु हैं। और जो रागद्वेष आदि मलसे मलीन है । साथमें स्त्री गहना त्रिशूल आदि शस्त्र रखते है वे सव कुदेव हैं। इन कुदेवोंकी सेवा पूजा करनेवालोंका ये कुदेव भवभ्रमण नष्ट नहि करते तथा रागादि भावमय भाव हिंसा और स्थावरोंकी द्रव्य हिंसा करनेकी जो जो क्रिया है उन्हें कुधर्म जानना । इस कुधर्मका श्रद्धान करनेसे जीवको दुःख प्राप्त होता है। इन तीनों कुगुरु कुदेव कुधर्मका श्रद्धान करना हो गृहीत मिथ्यात्व वा गृहीत मिथ्यादर्शन है । अव गृहीत मिथ्याज्ञानको कहते हैं सो सुनो ॥ १२ ॥ · एकांतवाद - दूषित समस्त । विषयादिक पोषक अप्रशस्त ॥ - कपिलादिरचित उतको अभ्यास । सो है कुबोध बहुदेन त्रास ॥ जो एकांत पक्षले दुषेत, विषय कषायोंके पोषनेवाले कपिल यदि मिथ्यादृष्टियोंके बनाये खोटे शास्त्रोंको पढना सो बहुत दुःख देनेवाला गृहीत मिथ्याज्ञान है ॥ १३ ॥ जो ख्यातिलाभ पूजादि चाह । घरि करत विविध विध देह दाह Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य भाग। १८३ भान्म अनात्मके ज्ञान हीन जे जे करनी तन करन छीन । ते सब मिथ्याचारित्र त्याग! पापातमके हित-पंथ लाग॥ जग जाल भ्रमनको देय त्यागांभव दौलत नित भातम सुपाग। जो अपनी ख्याति, लाभ, पूजा प्रतिष्ठादिकी चाहना मनमें धारण करके निज परके ज्ञानरहित शरीरको पंचाग्निसे जलाना अथवा शरीरमें खाक रमाना नख केश वढाना आदि नानाप्रकारके काय क्लेश करके शरीरको क्षीण करनेवाली प्रादिकी क्रिया है ये सव गृहीत मिथ्याचारित्र हैं। इनको छोड़कर अब अपने हितकारी मार्ग में लागो और जग: जालमें भ्रमण करनेका त्याग करके हे दोलतराम ! अपने प्रारमकल्याणमें मग्न हो। १५॥ इति द्वितीय ढाल || २॥ ३८. श्रीनेमिनाथ, कृष्ण और बलभद्र। . इस भरतक्षेत्रमें सूर्यवंश चंद्रवंश और हरिवंश ये तीन बड़े प्रसिद्ध वंश हो गये हैं। त्रेसठ शलाका पुरुष प्रायः इन्हीं वंशोंमें होते पाये हैं। हरिवंशमें क्रमसे बड़े २ राजा होनेके पश्चात् अंत में एक यदु नामके प्रसिद्ध राजा हुए जिनसे कि यदुवंश चला। 'यदु राजाके वंशमें फिर नरपति नामका राजा हुना। नरपतिके सूर और सुवीर दो पुत्र हुए। सूरके अंधकवृष्टि और सुवोरके भोजकवृष्टि हुआ ! अंधकवृष्टिके समुद्रविजय, अक्षोभ, स्तिमि Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जैनवालबोधक तसागर, हिमवान, विजय. अन्रल. धारण, पूरण, प्रभिचंद और वसुदेव ये दश पुत्र हुए और भोजकवृष्टिके उग्रसेन, महासेन और देवसेन हुये । भोजकवृष्टिसे फिर भोजवंश जुदा चला। अन्धकवृष्टि राजा अपने बड़े पुत्र समुद्रविजयको राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर मोक्षको गये। समुद्रविजयके शिवादेवी पटराणी के गर्भ से हमारे बाईसवें तीर्थंकर भगवान् श्रोनेमिनाथ हुए और सबसे छोटे भाई वसुदेवके देवकीके गर्भ से नववें नारायण श्रीकृष्ण और रोहिणी देवीसे घनदेव उत्पन्न हुए । नेमिनाथसे उमर में श्रीकृष्ण से छोटे और वलदेव बड़े थे । बलदेव गौरवर्ण थे श्रीकृष्ण और नेमिनाथ कृष्णवर्ण अति मनोहर थे । 'श्रीकृष्णसे पहिले जरासिन्धु प्रतिनारायण था । उस समय तीनों खंडोंमें जरासिंधुका ही राज्य था । श्रीकृष्ण पश्चात् जरासिंधुको मारकर तीन खंडका राज्य लेकर नारायण पदको प्राप्त हुए। युधिष्ठरादि पांच पांडव श्रीकृष्णके परममित्र थे । एक दिन श्रीकृष्णकी अट्ठारह हजार स्त्रियों में से पट्टराणी सत्यभामाने जलक्रीड़ाके समय कुछ हास्यवचन कहे, उस परसे नेमिनाथजीने कृष्णकी आयुघशाला में जाकर नागशय्या दजमली, गांडीव धनुष्य चढ़ाया और शंखध्वनि की । जिसको सुनकर नारायणने जाना कि, यह शंखध्वनि आदि कार्य नेमिनाथने किये है, सो अपने मन में प्रतिशय चिन्तातुर हुआ और बलभद्र भ्राता से कहा कि, ऐसे बलिष्ठ भ्राता के सामने अपना राज्य करना ठीक नहीं है। ये जब चाहेंगे तब ही अपनेको राजगद्दीसे उठा सके हैं। बलभद्रने कहा कि भाई ! हम सरीखों को ऐसे राज्यकी इच्छा Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ ___चतुर्थ भाग रहती है किन्तु नेमिनाथको ऐसी इच्छा कदापि नहीं है। वे इस संसारसे ही उदासीन हैं । वैराग्यका कोई कारण पाते ही वे दीक्षा ग्रहण करके मोक्षका राज्य करेंगे। तव श्रीकृष्णने अपनी स्त्रियोंको कहा कि.-तुम नेमिकुमारको जलक्रीड़ामें लेजाकर इनसे विवाहकी स्वीकारता करायो। तर सत्यभामादि कृष्णको अठारह हजार रानियोंने नेमिनाथसे विवाह करने की स्वीकारता कराई । तव सोरठ देश जूनागढ़के भोजकवंशी राजा उग्रसेनकी पुत्री राजमतीसे नेमिनाथका विवाह करना निश्चय किया। श्रीकृष्णने छलसे जूनागढ़में यरातके रास्ते पर भेड़ बकरे आदि हजारों पशु एकत्र करके एक घेरेमें अटका दिये। और नेमिनाथके रथके सारथीको समझा दिया कि, जब नेमिनाथ पूछे कि-ये पशु किसलिये इकट्ठे किये हैं, तो तू "वरात अनेक बराती मांसाहारी भी पाये हैं उनके लिये इन सबको वध करेंगे एसा कह देना। जय पशुओंके निकट वरात आई और वरातको धूमसे पशुगण भयभीत होकर चिल्लाये: तो नेमिनाथने सारथीसे पूछा कि-ये पशु किसलिये एकत्र किये गये हैं ? तो सारथोने कृष्णकी उपर्युक्त आज्ञानुसार ही कह दिया । उसको सुनते ही नेमिनाथने कहा कि "अहो ! इस मेरे विवाहके लिये इतनामहापाप ? धिक्कार है इस राज्यविभव और सांसारिक भोगोंको" इत्यादि कहकर वे संसार देह भोगोंसे विरक्त हो गये । त्वरित ही रथको थांभकर Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जैनवालवाचकपशुओंको कैदसे छुटाया और गिरनार पर्वत पर जाकर दीक्षा धारण कर वालपनमें ही मुनि हो गये। इधर राजमती भी अन्य वरकी इच्छा छोड़कर नेमिनाथके शरणमें पहुंची और प्रार्थना को कि-श्राप दीक्षा छोड़कर चलिये, महलोंमें ही साधन कीजिये । परन्तु वे एकके दोन हुए। लाचार राजमती भी दीक्षा धारण करके आर्यिका (तपस्विनी । हो गई और तपस्याके प्रभावसे स्त्रीलिंगको छेदकर सोलहवें स्वर्ग में जाकर उत्तम देव हुई। उधरं श्रीकृष्णादि अपना निष्कंटक राज्य करने लगे। नेमिनाथ भगवान् धातिकर्मों को काटकर केवलज्ञान प्राप्त करके अपने उपदेशोंसे असंख्य जीवोंको संसारके दुःखोंसे छुटाकर अन्त में सिद्ध पदको प्राप्त हुए। ___३९. कर्मसिद्धांत (४) ११२ । कर्मोंके आत्माके साथ रहने की .मियादके पडनेको स्थितिबंध कहते हैं। ११३ । शानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, अंतराय इन चारों कर्मोंकी उत्कृष्टस्थिति तीस तीस कोडाकोड़ी सागर की है और मोहनीयकर्मकी सत्तर कोडा कोड़ी सागर है । नामकर्म तथा गोत्र कर्मकी वीस २ कोडा कोड़ी सागर है और आयुकर्मकी स्थिति तेतीस सागरही है। ११४ । जघन्यस्थिति वेदनीय कर्मकी १२ मुहूर्त, नाम तथा Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। गोत्र कर्मकी आट २ मुहूर्त, और शेषके समस्त कर्माकी अंत-. र्मुहूर्त २ जघन्यस्थिति है। . . ११५। एक करोडको एक करोडसे गुणा करने पर जो लब्ध हो उसको एक कोडा कोड़ी कहते हैं। . १६ । दश कोडा कोडी प्रद्धापल्यों का एक सागर होता है। ११७। दो हजार कोश गहरे और दो हजार कोश चौड़े गोल गढेमें कैचीसे जिसका दूसरा खंड न हो सके ऐसे मेढेके यालों. को भरना। जितने वाल उसमें समा उनमें से एक वालको सौ सौ वर्षबाद निकालना। जितने वर्षोंमें वे सव वाल निकल जावें उतने वर्षोंके समयको व्यवहारपल्प कहते हैं। व्यवहारपल्यसे असंख्यात गुणा उद्धार पल्य होता है। उद्धारपल्यसे असंख्यात गुणा अद्धापल्य होता है। . . १९८॥ अडतालीस मिनटका १ मुहूर्त होता है। प्रावलीसे ऊपर और मुहूर्तसे नीचेके कालको अंतर्मुहूर्त कहते हैं। ११६ । एक श्वासोच्छ्वासमें असंख्यात पावनी होती है। नीरोग पुरुषकी नाडीके एक वार चलनेको श्वासोच्छ्वास काल कहते हैं। ऐसे तीन हजार सातसौ तेहत्तर श्वासका एक मुहूर्त होता है। १२० । कर्मोंमें फल देनेकी शक्तिकी हीनाधिकताको अनुभागवंध कहते हैं। - १२१ । बंधनेवाले कर्मोकी संख्याके निणयको प्रदेशबंध कहते हैं। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ जनवालवोधक१२२ । स्थितिको पूरी करके कर्मके फल देनेको उदय - १२३ । स्थिति विना पूरी किये ही कर्मके फल देनेको उदीर्णा कहते हैं। . . : १२४ । द्रव्य क्षेत्र काल भावके निमित्तसे कर्मकी शक्तिका 'अनुभूत (प्रगट न) होना सो उपशम है ।उपशम दो प्रकारका है। एक अंतःकरणरूप उपशंम, दूसरा सदवायारूप उपशम । · · ११५ । आगामी कालमें उदय श्राने योग्य कर्मपरमाणुओं. को प्रागे पीछे उदय पानेयोग्य करनेको अंत:करणरूप उपशम कहते हैं। १२६ । वर्तमान समयको छोड़कर, आगामीकालमें उदय श्रानेवाले कर्मोंके सत्तामें रहनेको सदवस्थारूप उपशम कहते हैं। १२७ । कर्मकी अत्यंतिक निवृत्तिको क्षय कहते है। १२८ । वर्तमान निषेकमें सर्वघाति स्पर्द्धकोंका उदयाभावी तय तथा देशघाती स्पर्द्धकोंका उदय और आगामी कालमें उदय आनेवाले निषेकोंका सदवस्थारूप उपशम ऐसी कर्मकी अवस्था 'को क्षयोपशम कहते हैं। १२९ । एक समयमें कर्मके जितने परमाणु उदयमें आवें उन सबके समूहको निषेक कहते हैं। १३० । वर्गणाओंके समूहको स्पर्द्धक कहते हैं। वर्गोंक समूह को वर्गणा कहते है-समान अविभाग प्रतिच्छेदोंके धारकप्रत्येक 'कर्मपरमाणुको वर्ग कहते हैं। . . १३१ । शक्तिके अविभागी अंशको अविभाग प्रतिच्छेद Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग ! १८६ कहते हैं। यहां शक्ति शब्दसे कर्मोंको फल देनेकी शक्ति सम झाना । १३२ | बिना फल दिये आत्मासे कर्मके संबंध छूटने की उद्याभावी क्षय कहते हैं 4 १३३ | कर्मोकी स्थिति बढ़ जानेको उत्कर्पण कहते हैं और घट जानेको अपकर्षण कहते हैं । १३४ | किसी कर्मके सजातीय एक भेदसे दूसरे भेदरूप हो. जानेको संक्रमण कहते हैं। .. १३५ । एक समय में जितने कर्मपरमाणु और नाकर्मपरमाणु. बंध, उन सबको समयप्रवद्ध कहते हैं । 2 -*-* . ४०. श्री पार्श्वनाथ भगवान । ~~*~~*~~~ भरतक्षेत्र आर्यखंडमें पोदनपुरनामका एकनगर था । उसमें अरविंद नामका राजा था। उसके विश्वभूति नामका ब्राह्मण मंत्री था। उसमंत्रीकी स्त्री. अनुंधरानामकी घडी सुंदर व शील ती थी। उसके दो पुत्र हुये । वड़ेका नाम कमठ छोटेका नाम, मरुभूति । कमठ कपटी, मरुभूति सरल प्रकृति था । कमठकी स्त्रीका नाम बरुणा और मरुभूतिकी स्त्रीका नाम वसुंधरा था । एक दिन विश्वभूति मंत्री को अपने शिरमें सफेद केश देखने से वैराग्य उत्पन्न हो गया | तब मरुभूतिको मंत्री पद देकर मुनिदीक्षा . लेली! मरुभूति बडी नीतिके साथ काम करता इसलिये राजाका : Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जैनवालवोधकउस पर बड़ा भारी प्रेम था। एक समय राजा अरविंद मित्र सहित अपनी सेना नेकर वज्रवीर्य राजापर चढाई करके लड़ाई करने गया। उनके पोछे कमठ ही राज्यका काम करने लगा सो अपने को ही राजा मानकर जीचाहा सो पाचरण करने लगा। एक दिन अपने छोटे भाई मरुभूतिकी स्त्रीको वस्त्राभूषण धारण किये हुये देखा तो उसपर आसक्त हो गया। तत्पश्चात् बगीचे में जाकर लतागृहमें पड़ा हुआ काम विकारसे तड़फने लगा उस समय उसके मित्र कलहंसने इस ' दुःखका कारण पूछा तो कमठने लजा छोड़कर मनको सव हालत कह सुनाई । सुनकर कलहंसने उसको बहुत कुछ उपदेश दिया कि 'परस्त्री और जिसमें भी फिर छोटे भाई की वह वेटी समान है उसके साथ ऐसा काम करनेमें बड़ा भारी पाप है। निंदा है, इत्यादि बहुत कुछ समझाया परंतु कमठको कभी उपदेश वाक्य 'न रुचा। उसने कहा कि यदि मुझे वसुंधरा नहिं मिलेंगी तो मैं अवश्य मर जाऊंगा। जब इस प्रकार कमठका हठ देखा तो कलहंसने जाकर वसुंधरा से कहा कि तेरा जेठ बहुत दुःखी होकर वागमें पड़ा है सो टू उनकी खवर ले। पह सुनते ही 'वह घबड़ाकर वागमें गई और कमठने कपट वचन कहकर 'भीतर बुला लिया और उसके साथ काम विकारकी बातें करके उसका जबरदस्ती शील भंग किया। इधर राजा अरविंद शत्रुको जीतकर नगरमें पाया और घर शा . कमठके ये सव दुराचरण लोगोंने कहे तो राजाने मरुभूतिको बुलाकर पूछा कि इस दुष्टको क्या दंड देना चाहिये । मरुभूति ! Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग १६१ सरल मनका क्षमाशील ब्राह्मण था । उसने कहा महाराज एक आदमी के द्वारा कोई अपराध हो जाय तो एकवार माफ करदेना चाहिये राजाने कहा, जो अपराध दंड करने योग्य ही हो, उस पर दया करना राजाको शोभा नहिं देता । तु मनमें कुछ खेद न -कर, घरको, जा, ऐसा कह कर राजाने उसे घर भेज दिया और कमठ को चुलाकर उसका मुंह कालाकरके गधेपर चढ़ाकर उसको शहर भर में फिगया तत्पश्चात् उसे देशले निकाल दिया । कमठ बहुत दुखी हुवा वहांसे निकालकर भूताचल पर्वतपर तापसियोंके श्राश्रममें पहुंचा वहां सब तपस्वी अज्ञान तप करते थे । उनमें से एकको वडा तपस्वी समझ उसके पास गया उसने - उसे दीक्षित करके उसे भी तापसी बना लिया । कमठके चित्त मैं वैराग्य तौ बिलकुल था ही नहीं । वह भी बाहरले कायक्लेश करने लगा। उसने एक बडी भारी शिक्षा दोनों हाथमें उठा लो और खड़ा २ कायक्लेश करने लगा । इधर मरुभूति मंत्री कमठका पता लगाता रहा जब उसे मालूम हुआ कि वह भूताचल पर्वतपर तपस्या करता है तब उसने एकादि राजासे प्रार्थना कर कहा कि महारज ! मेरा भाई भूताचल पर्वत पर तपस्या करता है। सो उससे मिल भाऊं । राजाने कहा कि वह वडा दुष्ट है उससे मिलनेमें सिवाय हानिके कुछ " भी लाभ नहि होगा सो वहां हरगिज नहिं जाना। परंतु वह सरल स्वभावी था भ्रातृवात्सल्य के कारण उससे रहा नहिंगया इसलिये वह एकदिन भूताचल पर्वतपर कमउके पास पहुंच गया। और बोला कि "भध्या मेरा अपराध क्षमा कर | मैंने राजासे Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ "जैनवाल बांधक बहुत कुछ प्रार्थना की थी। परंतु राजाने मेरी बातमानी. नहीं . और तुझे राजाने दुख दिया। जो कुछ होनहार था सो हो गया श्रव तेरे विना मेरेले रहा नहीं जाता सो तू घर चल" ऐसा कहकर उसने भाईके चरणोंमें मस्तक नमा कर प्रणाम किया । परंतु उस दुष्टको इस क्रियासे उलटा क्रोध उत्पन्न हुआ । उस क्रोधके प्रवेशमें आकर वह शिला जो हाथमें थी उसे अपने भाईपर जोर पटक दी । वस उसीक्षण वह मर गया । कमठका ऐसी निर्दय कृत्य पासवाले तपस्वियोंने देखा तो उन्होंने उसको निकाल दिया। वहांसे निकालकर वह भीलोंमें जाकर मिल गया: और वहां चौरी लूट डकेती आदि नीच काम करने लगा ।. इधर राजा अरविंदने मरुभूति क्यों नहीं आया ? ऐसा एक अवधिज्ञानीसे पूछा तो उन्होंने मरुभूतिकी मृत्युका असली कारण कह सुनाया जिससे राजाको वडा दुःख हुआ और कहने लगा कि मैंने उससे बहुत कुछ कहा था कि तू उस दुष्टके पास मत जा परंतु उसने मेरा कहना नहि माना जिससे कि उसका ऐसा कुमरण हुआ क्या किया जाय होनहार, कभी : मिटती नही । 1 • इधर मरुभूति मरकर सल्लकी नामके वनमें वज्रघोष नामका : हाथी उत्पन्न हुआ और कमठकी स्त्री जो पोदनपुर में थी वह मरकर इसी बनमें हथिनी हुई सो इस हाथी के साथ संबंध हो. गया वह उस इथिनी से रमण करता हुआ नाना प्रकारकी चेष्टा और लोगों को कष्ट देता हुआ उसी धनमें फिरता रहा। . इधर राजा अरविंद एक दिन अपने महलपर बैठा हुआ था. Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। २३ उसने एकमंदिरके आकारका बादल देखा उस वादलके बने हुये मंदिरके बड़े ऊंचे २ शिखर थे । सो राजाने उसकी मुदरता देख कर उसी आकारका एक जिनमंदिर बनाने की इच्छा की और वह उसका नकशा खीचने के लिये कागज कलम लेकर तैयार हुआ ! कि इतने में ही उस बादलका अपूर्व प्राकार विघट गया, उसे देखकर राजाके मनमें यह बात जम गई कि यह समस्त जगत इसी प्रकार क्षयामरमें नाश होने वाला है। शरीर, धन, दौलत राजसम्पत्ति इसी प्रकार एक दिन नष्ट हो जायगी। यह जीव मोहके वशीभूत हो नाशवान वस्तुओं को शाश्वत मानता है सो बड़ी भूल है इसप्रकार विचार करनेसे राजाको वैराग हो आया • उसी वक्त अपने पुत्रको राज्यतिलक देकर गुरुके पास जाकर दिगंबरी दीक्षा लेकर यथायोग्य चारित्र पालने लगा। . एक समय संघके साथ अरविंद मुनि भी सम्मेद शिखरजी. की.यात्राकेलिये ईयर्यापथ सोधन कर जाते थे । सो सब संघ उसी सल्लकी वनमें श्राकर ठहरा । मुनिने संध्या समयमें प्रतिमा योग धारण किया था, उसी वनमें वह मरुभूमिका जीव बज्रघोष नामका हाथी था सो बड़े क्रोधके साथ उस संघमें घुस नाना .प्रकारके उपद्रव करने लगा। हाथीके सामने जो पड़ा उसका काम तमाम हो गया। उसने कितने ही घोड़े बैल जानसे मार डाले। इस प्रकार सबको मारता हुआ. अरविंद मुनिको भी • मारनेऋलिये पास पाया परंतु मुनि मेक समान अचत ध्यानस्य . .खड़े रहे । उनकी छातीपर श्रीवास लक्षण था । म हाथी ने देखा तो देखते ही उसे जातिस्सरण हो पाया और उसका Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ जैनवालवांधकक्रोध एकदम शांत हो गया। तथा मुनिके चरणों में मस्तक रख कर निश्चल हो गया। तब मुनिमहाराजने मीठे शब्दों में कहा किअरे ! तूने यह क्या हिंसाकर्म आरंभ किया ! हिंसा करना वड़ा भारी पाप है, हिंसासे दुर्गतियोंमें दुःख भोगने पड़ते हैं। तूने इतने प्राणियोंकी हिंसा की, तुझे पापका भय कुछ भी न रहा ! देख! पापोंके योगसे ही तू ब्राह्मणका जीव होकर इस हाथोकी पर्याय, पाया।तू मरुभूति मंत्री और मैं अरविंद राजा. यह तुझे पहचान नहीं पडी। तुझे धर्मरहित पार्तध्यानके कारण ही यह निकृष्ट पशुयोनिकी प्राप्ति हुई है। अव इस कार्यको छोड़ कर मनमें धर्मभावना रख, सम्यग्दर्शन धारण कर, जन्मभर निर्मल ‘पंचाणुव्रत धारण करके रह। यह सुनकर हाथीका मन बहुत दया कोमल हो गया । अपने किये हुये पापोंकी निंदा करने लगा और गुरके चरणोंपर मस्तक रख वैठ गया। तब मुनिने सत्यार्थ धर्मका उपदेश दिया। सम्यक्त्वका स्वरूप कहकर पंच उदंवर तीन मकारका (मद्य, मांस, मधुका) त्याग करनेको 'कहा। तत्पश्चात् श्रावकके वारह व्रतोंका स्वरूप उसे कहा सो गुरुके मुखसे सुनकर वह हाथी अपने अंतःकरणमें धारण करके वारंवार भूमिपर मस्तक रखकर मुनिके चरणों में नमस्कार करने लगा। • तत्पश्चात् मुनि महाराज वहांसे जाने लगे तो हाथी मुनिमहारांजके साथ बहुत दूरतक पहुंचानेको गया और शेष काल नमस्कार करके वापिस लोटा । उसी समयसे अपने व्रतोंको पालन करता हुआ उसी वनमें रहा । पहिलेकेसा सव उपद्रव. करना Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। मोड़ दिया। जीजपनसे रहने लगा।घसनीयों को मारनेका त्याग कर दिया. चित्तमें तमा धारण करके शत्रु मित्रको समान समझने लगा । अष्टमी चतुर्दशीको प्रोपधापयास करने लगा। सोधन सूके परे मोर घास खाकर रहने लगा । दूसरोंके चले दुये मागमें दी जाने लगा। दुसरे ताधियों का गदला किया मुगा प्रामुक पानी पीने तगा। शरीर पर पानी कीचड़ धृल डालना पगेरद समस्त अनुचिन क्रियायें छोड़ दो। रास्ते चलते प्रम जीयों को देनकर उन बचाकर चलने लगा। किसीभी हथिनीकी नरफ नजर स्टाकर देग्पनका सर्वथा त्याग कर दिया। इस. मार उलम प्रापर्य पालन करता हुग्रा गानाप्रकारके शारीरिक कर सहने लगा। अपने शरीरफे हिलानेले किसी जीपको कोई प्रकार की पोसा न दी जायरम अभिनायसे अपने शरीरकी प्रयुक्त इजनजन मिया भी बंद कर दी। इसप्रकार रद प्रतिमाओंके पालन करने में उस बायोमासरीर बहुत ही तोग्य हो गया । उसका निरंतर परमेष्ठीको चितयन करते हुये बहुतसा फाल पीन गया तर एक दिन यही जोरकी प्यास लगनेसे यह येगवती नामकी नदी पर पानी पीनके लिये गया । उस नदी किनारेपर कमठका जीय कट नामका सर्प होकर बैठा था, सो उसने पूर्वभयो धेरके कारण उस दायोको काट पाया। हाथीने अपना मरण समझ सन्यास धारणकर लिया। उसके प्रभावसे मरकर या पारगये स्वर्गके स्वयंप्रभ विमानमें शशिप्रमनामका व हुमा पहा अपधिमान योगसे मालूम हुमा फि मैंने हाथोके जन्ममें यत धारण किये थे उसी प्रमावसे यहां स्वर्गमें आकर उत्पन्न Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालवोधकहुआ हूं। इस कारण सबसे पहिले अपने विमानके चैत्यालयमें दर्शन पूजन करके महामेरु नंदीश्वर द्वीप श्रादिके समस्त अकः त्रिम चैत्यालयोंके नित्य दर्शन करनेको जाने लगा। इस वारहवे स्वर्गमें सोलह सागरकी श्रायुपर्यंत सुख भोग कर जंबूद्वीपस्थ पूर्व विदेहके पुष्कलावती देशमें लोकोत्तम नामक शहरके राजा विद्युद्गतिको रानी विद्युन्मालाके गर्भर्मे सुंदर सौम्य स्वभावका पुत्र हुआ। उसका नाम अग्निवेग रक्खा गया। इस अग्निवेगकी धर्ममें बड़ी भारी भकि हुई। युवावस्थामं राज्यसंपत्ति उपभोग करते हुये एक मुनि महाराजके दर्शन हुये। उन मुनिके उपदेश सुननेसे भी जवानी में उसे वैराग्य उत्पन्न हो गया । और गुरुके पास महा व्रत ग्रहण किये। दुर्द्धर तपश्चरण करके उसने रागादिक विकार क्षीण कर दिये । एक विहारी होकर छादशांगवाणीमें प्रवीण हो गया। ___एक दिन हिमगिरि पर्वतकी गुफामें ध्यान- धरके बैठा था। 'सो इधर कर्कट जातिका सर्प मरकर पांचवी नरकभूमिमें सोलह सागर पर्यंत नानाप्रकारके छेदन भेदनादि दुःख भोगकर इसी पर्वत पर अजगर उत्पन्न हुआ था सो वह पूर्व जन्मको शत्रुता कायम रहनेसे ध्यानस्थ मुनिमहराजको निगल गया। मुनिने शांतभाव रखकर सन्यास मरण करके सोलहवें अच्युत स्वर्गमें जन्म पाया। __ अच्युतस्वर्गमें २२ सागरकी आयु भोगकर वहांसे मरण करके जंबूद्वीपस्थ पश्चिम विदेह क्षेत्रमें पद्मनामके देशमें अश्वनामक नगरके राजा वजूवीर्यकी पटरानी विजयाके गर्भ पाया Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य भाग। १९७ इसके गर्भ में प्राते ही विजयाने एक रात्रिमें पांच स्वप्न देखें। उसके बाद गनीने प्रातःकालही राजाके पास जाकर स्वप्न कहे। गजाने मुनकर कक्षा कि तेरे उदरमें अच्युन स्वर्गका देव पुन SAR tोगा । मो या वजनाभि गामा पुत्र उत्पन्न हुआ। यह नीमट लागोमाता था।राजाने पुषका जन्मोत्सव पडे ठाट बाट के साशमिया । पना होनेपर पुत्र वजनाभिने समस्त विद्यार्य पनी 1 वायस्था प्रारमोने पर गिताने अनेक राजकन्याओंमे विवाह किया। फिर पिनाके रास्यका भार भी संभालने लगा। एक दिन याद यायुधशाला गया नौ यदा पर उसे चरनकी प्रानि । उसे ग्राम र उमने भए मंदका दिग्विजय करके चक्रपती पद प्राप्त किया । उसको चौदह रत्नोंकी प्रानि हुई। म प्रकार स मयका मुसा भोगता था नथापि उसका चित्त घोगति धर्मभ्यानमें ही रहता था। बाद चैत्यालयों में जा जिना . गुरु पूजा, मामायिक, और पर्व तिथिको प्रोपो. पयाम करना हुआ निन्य चार प्रकारका दान करता था । शीनयन भी मायधानीसे पालन करना था। एक दिन कर्म भयोगम नेमकर नामक मुनिमहाराज के दर्शन हुये, उसने मुनिमहागजम पास जाकर तीन प्रदक्षिणा देकर घरे विनय के साथ बैठार धर्मोपदेश सुना । यह उपदेश उसके निनमें पदम ठम गया जिसमे चायनीकी समस्त विभूति दावार उममे दिगंबर दाता ग्रहगा की । बाद यारह प्रकारका तपश्चरण करता मा अंगपूलांदि समस्त शास्त्रों में पारगामी Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जैनवालवोधक' इधर कमठका जीव अजगर हुआ था सो मरकर छठे नरक में गया था ।वहां घाईस सागरकी प्रायुपर्यंत दुःख भोगकर मरा सो इसी वनमें विहितकुरंग नामका भील हुआ । वह हाथमें तीर कमान लेकर जानवरोंको मारकर मांस खाता फिरता रहता था। फिरता २ इन वजूनाभि मुनिके पास पाया। उन्हें देखते ही पूर्व जन्मके वैरके कारण इसे क्रोध उत्पन्न हो पाया सो मुनिको बाण मारा । मुनिने धर्मध्यानमें रहकर प्राण छोड़े सो मध्यम प्रैवेयकमें जाकर अहमिंद्र हुये । वह भील मुनिकी हत्या करके फिर कुछ दिन वाद रौद्रध्यानसे मरकर सातवें नरकमें जाकर दुःसह दुख सहने लगा। प्रधर जंबूद्वीपके भरतखंडमें अजोध्यानगरीका वज्रवाह राजा राज्य करता था। वह इक्ष्वाकु वंशी जैनधमावलंबी था। उसकी रानी प्रभाकरीके गर्भ में उस अहमिंद्र देवने चयकर जन्म लिया जिसका नाम आनंदकुमार हुआ । वह बड़ा ही सुंदर था । युवावस्था प्राप्त होने पर अनेक राजकन्याओं के साथ विवाह हुवा । प्रागेको वह बड़ा पराक्रमी होकर महामंडलिक राजा दुवा । ___ एक दिन राजा आनंद सिंहासन पर बैठा था सो स्वामिहित नामक मंत्रीने उससे प्रार्थना की कि-महाराज! यह वसंत ऋतु और नंदीश्वर पर्व है इन दिनोंमें सब कोई नंदीश्वर व्रत धारण करके जिनमंदिरों में पूजन विधानादि घड़ा महोत्सव करते हैं । जिन पूजन करनेसे बड़ा भारी पुण्य होता है अतएव' श्राप भी कीजिये । मंत्रीका ऐसा उपदेश सुनकर राजाने नगरमें बडाभारीउत्सव किया। स्वयं स्नान करके जिनमंदिर में जाकर Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। १६६ पान प्रभारी मनोज सामग्री लेकर भक्ति भावसे जिनंद्रभगवान को पूजा को। प्रजा फग्ने हरे राजाके मनमें मंदेश दुपा कि या प्रतिमा चनन , पूजा करने वालोंको क्या फन्न दे सकती न प्रकारका विचार होनेपर उम्म मंदिग्में दर्शनार्य प्राये हुये विपुनमानि नामके मुनि महाराजमे यह प्रश्न शिया तो मुनि मागउने का कि- गजन् ! प्रतिमाफी भक्ति भव्य जीवोंको निसमार पुगय न देनी है सो में फाहता -तू मुन । निमा अपने भायों को शुभ अशुम करनेके लिये एका निमित्त कारग, मिन प्रकार मफेद स्फटिकमणिके पोळे लाल पुष्प गणनेने फिटिम लाल दिपना प्रोग्याला पुष्प रमनेसे काला दिपने गमा उनी प्रकार या प्रतिमा जीवोंकी टिम जैसी पदनी ही भार बदल जाने हैं। मंदिग्जीमें भगवानकी गौतमग मूनि देखने में हम जीयो परिणाम धैराग्यस्य तोनाते मोरयता नृत्य या निप्र देरनेमेटम सीवरे, परिगाम गगमा जाने । कारण दो प्रकारे होते हैं। एक अंतरंग कारण, दमग कारग । मो तरंग परिणामोंका यारण या कारण होना है। अंतरंग परिणामोंके अनुमार ही फर्मबंध होने हैं। ऐसी ग्यम्या जिन परिणामोंने अधिक पुगय पंध माना उन परिणामक होने के लिये निमित्त कारण जिननिमा है। क्योंकि भगवानली चीनगग मुद्रा देखनेसे सर्वत्र प्रभुके गुगों या स्मरणाही प्राना है और गे ही भाव महान पुगयबंधको कारण, प्रेमा समझो। गगपरदिन निर्मल दर्पणको समान भगवान है। मुख नी नहि देने और दुख भी नहिं देते। इस Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम उत्पन्न होते है तथापि देखन २०० जैनथालयोधकप्रकार अपने अंतःकरणमें समझ कर इसी गुणका चितवन करना चाहिये ध्यान करना चाहिये और इसी गुणका जाप्य पूजन स्तुति करना चाहिये क्योंकि अपने परिणामोंका ही फल अपनेको मिलता है और परिणाम ही मोक्ष सुख देनेवाले हैं। जैसे भगवानके गुण स्थिर रूप रागादि विकाररहित और आयुध भूषणादि रहित कहे गये हैं वे ही गुण जिनप्रतिमाके देखनेसे अपने मनमें उत्पन्न हो जाते हैं । यद्यपि यह प्रतिमा शिल्पकारकी बनाई हुई और अचेतन है तथापि देखनेसे अपने अंत:करणमें शुभभाव उत्पन्न होते हैं । इसी कारण ही यह प्रतिमा अपने परिणाम शुभरूप करनेके लिये निमित्त कारण है। यहां एक दृष्टांत कहता हूं जिससे तेरा संदेह सर्वथा दूर हो जायगा। ___ एक नगरमें एक बहुत सुंदर वेश्या थी । वह मर गई उसको जलानेके लिये जब उसका शरीर चितापर रक्खा गया तो वहां पर एक व्यभिचारी मनुष्य था वह उस लासको देखकर अपने मनमें तलमलाने लगा कि यह जीवित अवस्थामें मुझे देखनेको मिलती तो मैं इसके साथ विषयसुख भोगकर अपने चित्तको तृप्त करता । वहीं पर एक कुत्ता खड़ा२ अपने मनमें पश्चात्ताप करने लगा कि ये लोग इसे व्यर्थ ही जलाये देते हैं यदि ये मुझे दे देते तो मैं इसे खाकर अपनी कई दिन तक क्षुधा शांत करता । और वहीं पर एक साधु मुनि बैठे थे उन्होंने इसे एक बार देखकर मनमें कहा कि-हाय हाय ! ऐसा निरोग शरीर पाकर इस ने तपश्चरण नहिं किया । इस प्रकार उस अचेतन शरीरको देख . कर भिन्न २ जीवोंके भिन्न २ परिणाम कैसे हुये सो विचार कर। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । २०१. इन तीनों ही जीवोंने अपने २ परिणामोंके अनुसार फल पाया। वह व्यभिचारी तौ मरकर नरक गया, कुत्तेको सुधारोग लग गया कितना ही खावै तो उसकी भूख न जावे। और मुनि महाराज. - मरकर स्वर्ग गये। इसी प्रकार यह प्रचेतन जिनप्रतिमा भी कार्य - कारण संबंधसे अपने परिणामोंको शुभ कर देनेके कारण पुण्यप्रदान करती है और पुरायसे स्वर्गके सुख व परंपरा मोक्षका कारण बन जाती है । इस प्रकार विद्वान् लोग समझते हैं सो. - इसमें कुछ भी असत्य वा शंका नहीं है। इस प्रकार मुनिमहाराज के मुख से प्रतिमा पूजाका सविस्तर व्याख्यान सुनकर मूर्तिपूजा -के विषयमें निःसंदेह हो गया । इसी प्रसंग में मुनिराजने तीन लोकसंबंधी कृत्रिम चैत्यालयों · का वर्णन भी किया था उनमेंसे सूर्यके विमान के प्रकृत्रिम जिन-मंदिर का वर्णन कुछ विशेषतासे किया था उसे सुनकर राजाको - मनमें बड़ा भारी हर्ष हुआ। उस दिनसे राजा ध्यानंद कुमार -सवेरे संध्याको महलको छत पर चढ कर सूर्य विमानमें स्थित जिनमंदिर व जिनप्रतिमाओंको अर्घ देने लगा और जिनप्रतिमा - का ध्यान करने लगा । सूर्य विमान बनवा कर उसमें एक जिन. मंदिर बनवाया और नित्यप्रति उस मंदिरमें पूजन करता रहा । इसप्रकार नित्य नियमकरनेसे नगरके लोग भी 'यथा राजा तथा 'प्रजा' की नीति से प्रतिदिन सूर्यको नमस्कार करने लगे और अर्ध देने लगे उसी दिन से इस भरत क्षेत्रमें सूर्यको उपासना प्रचलित हो गई और अब उसका स्वरूप और अभिप्राय भो अन्यमती विद्वानों ने बदल दिया । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨ जनवालबोधकएक दिन राजा आनंद कुमार सभामें बैठा था सो दर्पणमें मुख देखनेसे उसके शिर पर एक सफेद वाल हष्टिगोचर हुआ। उसे देखते ही उसके मनमें वैराग्य उत्पन्न हो गया और अपने पुत्रको राज्य देकर सागरदत्त मुनिके पास दिदावरी दीक्षा ग्रहण की। महाव्रत धारण करके चारह प्रकारके तप करने लगा। उसी मुनि अवस्थामें आनंद कुमार मुनिने सोलह कारण भावनाओंका चितवन प्रारंभ किया जिससे तीर्थकर प्रकृतिका बंध हुआ। तपश्चरणके प्रभावसे उसे नानाप्रकारको मृद्धियें प्राप्त हुई। जिस धनमें इन्होंने योग धारणा किया था उस बनके समस्त दुख नए हो गये। सूखे हुये सरोवर पानी भर गये, समस्त ऋतुओं के फल फूल वृक्षों पर दीखने लगे। सिंह वगेरह जातिवैरी जीव अपना बैर छोड़कर हिरण वगेरह सब जीवोंसे पार करने लगे। सांप मयूर, मूसे विलाई वगैरह आपसमें प्रीनिसे खेलने लगे। मुनि भी सवसे मैत्रीभाव धारण करके आत्मध्यानमें लीन हो गये। एक दिन मुनिमहाराज ध्यानमें बैठे थे। वह पापी कमठका जीच नर्कमें नानाप्रकारके दुख भोगकर मरा लो इसी वनमें आकर सिंह हुवा था तो उसने अानंदकुमार मुनिको देखा . और पूर्वजन्मका वैर याद आनेसे क्रोधित हो मुनिके कंठ जा दवाये। अपने तीक्ष्ण नखोंसे मुनिका सर्व शरीर विदारण करके पंजोंसे टुकड़े २ कर डाले और उन्हें खाडाला । मुनिने ये सब कष्ट साम्य भावोंसे सह लिये, मनमें रंच मात्र भी क्रोध नहि श्राने दिया, उत्तम क्षमा भाव धारण कर लिया.पेसी अवस्थामें Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । २०३. मुनि प्राण त्याग करके तेरहवें स्वर्गमें इन्द्र हुये। वहां पर वह नानाप्रकार के सुख भोगने लगा । परंतु अंतःकरणमें उन सब भोगों को मोक्षसुखके सामने तुच्छ मानता था। वहां से मेरु परके तथा नंदीश्वरद्वीप के अकृत्रिम चैत्यालयोंके दर्शन पूजनके लिये नित्यप्रति जाया करता था । स्वर्गस्थ सभाके सम्यग्दर्शनरहित देवों को उपदेश देकर उन्हें सम्यक्त्व ग्रहणा कराता था । इस प्रकार वीस सागर पर्यंत आयु उसने सुखसे वितादी । जंबूद्वीपके भरतक्षेत्रके काशी देशमें बनारस नामका नगर है । वहां पर विश्वसेन नामका राजा राज्य करता था। वह काश्यप गोत्र और ईश्याकुशी था। उसके मति श्रुत और अवधि तीन ज्ञान थे। उसकी पट्टरानी चामादेवी बड़ी सुंदर पतिव्रता श्री । ये दोनों तीर्थकरके माता पिता होनेवाले थे इस कारण इनके मलसूत्र नहि होता था । एक दिन सौधर्मेन्द्र कुवेरको बुलाकर आशा दी कि तेरहवे आनंत स्वर्गके इंद्रकी व दहमहीने प्रायु शेष रही है। वह वहां से चयकर भरत क्षेत्र में तेईसवें तीर्थकर होंगे । इसलिये बनारस नगर में विश्वसेन राजाके घर पर पंचाश्चर्यवृष्टि करना चाहिये । इन्द्रकी ऐसी प्राशा होते ही कुबेरने तीर्थकर के पिता विश्वसेन राजाके घरपर नानाप्रकारके रत्नोंकी वृष्टिकी । प्रति-दिन साढ़े तीन करोड़ रत्नोंकी वृष्टि होती थी। इसके सिवा कल्पवृत्तों के पुष्पोंकी वृष्टि, गधोदककी वृष्टि होती थी और दुर्दुभि बजते थेऔर आकाश से देव जय जय शब्द करते थे । इस प्रकार छहमहीने तक पंचाश्चर्य होते रहे जिनको देखकर अनेक प्रजैन जैनधर्मावलंबी हो गये थे । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२०४ जैनवालवोधक एक दिन वामादेवी चतुर्थ स्नान करके रात्रिमें सोई थी सो रात्रिके शेषमें उसने १६ स्वप्न देखे । प्रातः काल ही स्नानादि 'नित्य क्रिया करके सखियों सहित राजसभामें गई । राजाने यादर सन्मान करके अर्द्धासन दियो । रानीने अपने सोलह स्वप्ने कहकर फल सुनने की प्रार्थनाकी । राजाने स्वप्नोंका फल • कहा कि- तेरे गर्भ में तीर्थकर आये हैं और प्रत्येक स्वप्नके अनु- सार उसमें सब गुण होंगे। यह फल सुनने से रानीको वडा भारी • प्रानंद हुआ। तदनंतर सौधर्म इंद्रने जान लिया कि तीर्थकर गर्भमें श्राये हैं इस लिये श्री हो आदि देवियोंको हुक्म दिया कि तुम सब विश्वसेन राजाके घर जाकर वामादेवी के गर्भका संशोधन करो और देवीकी तनमनसे सेवा करो क्योंकि उसके गर्भ से तेईसवें तीर्थंकर जन्म लेंगे। यह सुनकर देवियोंको बड़ा आनंद हुवा वे - इन्द्रकी आज्ञानुसार तत्काल ही बनारसमें जाकर माताकी नाना 'प्रकार से सेवा करने लगीं। वैशाख वदि २ विशाखा नक्षत्र की रात्रि मैं वामादेवीके गर्भ रहा था उस समय चारों ही प्रकारके देवोंके आसन कंपायमान हुये । वे सव ही देव विमानों में बैठ २ कर गर्भ 'कल्याणका उत्सव करनेके लिये बनारस नगरोंमें आये | और तीर्थकरके माता पिताको सिंहासन पर बैठाकर सुवर्ण कलशोंसे . उनका अभिषेक किया और गर्भस्थ तीर्थंकरको नमस्कार कर .के गीत नृत्य वादित्र वजाकर माता पिताकी भेट करी । और, रुचिक द्वीप निवासिनो देवियें व्याकर माताकी नित्यप्रति सेवा करने लगी। माता से नाना प्रकारके कठिन २ प्रश्न करती थी । 1 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग २०५ . उनके समस्त प्रश्नोंका उत्तर माता देती थी। जिसके गभमें तीन कानका धारक तीर्थंकर है उसको कठिन २ प्रश्नोंका उत्तर देदेना . कोई प्राश्चर्य की बात नहीं। माताको गर्भको कुछ भी भार वा कष्ट नहीं था । उदरकी त्रिवलीका भी भंग नहिं हुआ । अन्य स्त्रियों की समान माताको किसी भी प्रकारका विकार नहिं हुआ। पूर्वमें छह महीनों की तरह नवमहीने तक पंचाश्चर्यवृष्टि नित्य दांती. रही । नवमास पूर्ण होनेपर पौष कृष्ण एकादशीके दिन पार्श्वनाथ'भगवान् का जन्म हुआ । उस वक्त इन्द्रने जन्मकल्याणका उत्सव किया । माता पिताकी साक्षी से तीर्थंकरका नाम पार्श्वनाथ रखा गया और उनकी सेवा के लिये योग्य देवोंको रखकर सब अपने २ स्थान चले गये । 1 भगवान् दोजके चंद्रमाको समान दिनों दिन बढ़ने लगे।. आठवर्षकी उमर में श्रावकके वारह व्रत धारण किये। प्रभुकेसाथ खेलने के लिये उनहींकी उमर के बरावर होकर देव खेलतेरहते थे । वे सब कभी हाथीपर कभी घोड़ेपर बैठकर वागमें 'जाते थे, कभी जलक्रीड़ा करते थे । भगवान् युवावस्था में आये तब उनका शरीर नव हाथ ऊंचा हो गया । यही उनके शरीर की पूर्ण ऊंचाई थी । शरीरका रंग नीलवर्ण था। सोलह वर्षकी 'उमर हो गई तब एक दिन भगवान् सिंहासन पर बैठें थे । उस १ हरएक तीर्थकरके जन्मसमय जैसा जन्मोत्सव होता है वैसा ही उत्सव इस समय किया गया इसलिए यहां कुछ लिखा नहि गया । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जैनवालवोधकसमय पिताने आकर कहा कि आप एक राजकन्याके साथ विवाह करें जिससे अपने वंशकी रक्षा हो जिसप्रकार नाभिराज की इच्छा आदिनाथ भगवानने पूर्ण की थी वैसी तुम हमारी इच्छा पूर्ण करो। यह पिताके वचन सुनकर भगवानने कहा कि 'श्रादिनाथ भगवानकी समान मेरी उमर कहां है ? मेरी उमर कुल १०७ वर्षकी है उसमें से लोलह वर्ष तो बालकपनके खेल कूद में ही चले गये और तीस वर्ष, दीक्षा लेनी है तव थोडेसे दिन के लिये थोड़ेसे सुखके लिये यह उपाधि किस लिये लगाऊं। इसप्रकार भगवानकी विवाह करने की इच्छा न देख पिताको उदासी अवश्य हुई। परंतु अवधिज्ञानसे उन्होंने भी ऐसा ही भवितव्य समझ संतोष धारण किया । इधर कमठका जीव सिंह हुआ था और मुनिकी हत्याकरके मरकर पांचवे नरक गया। वहां पर सतरह सागर पर्यंत दुःख भोगके मरण किया लो तीन सागर पर्यंत पशुयोनिमें भ्रमण करते करते किसी जन्ममें कोई शुभकार्य हो जानेसे वह महिपाल नामके नगरमें महिपाल नामका राजा हुआ। वही वामादेवीका पिता वा पार्श्वनाथ भगवानका नाना था। उसकी जब पटरानी मर गई तो ‘उसके विरह दुःखसे दुःखित होकर राज्यपाट छोड़ कर उसने संन्यासी तपस्वीका भेष धारण कर लिया और वनमें पंचाग्नि योग साभन कर रहने लगा। शिरपर जटा बढ़ाकर मृगशाला ओढ़कर ऐसे भेषमें फिरता २ बनारसके जंगलमें आया। उस समय पार्श्वनाथ भगवान हाथी पर सवार होकर अनेक देवोंक साथ वनक्रीडा करने के लिए निकले थे सो वापिस पाते समय Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । २०७ अपने नाना महिपालको पंचाग्नि साधन करते हुये देखा । महिपाल तापलीने भी प्रभुको देखा और क्रोधाविष्ट होकर अपने मनमें कहने लगा कि मैं इसका नाना हूं, कुलवान महान तपस्वी हूं तो भी इसने मुझे देखकर नमस्कार नहीं किया । देखो इस छोड़ेको कितना अभिमान है ऐसा कहकर अग्निमें के लकड़े सब जल गये थे सो उसके लिये कुहाडा हाथमें लेकर लकडीको चीरने लगा | यह देख भगवान पार्श्वनाथने मिष्ट वचनोंसे कहा कि हे तापसी ! जरा ठहरो, फिर इस लकड़ेको चीरना ! इस लकड़ेके भीतर दो नाग नागिन बैठे हैं । यह सुनकर तापसीको और भी क्रोध हो प्राया उसने कहा कि - हे लड़के ! क्या सबका सब ज्ञान तेरेमें ही आा गया है मानो ब्रह्मा विष्णु-महेश तू ही है जिससे ऐसी ज्ञानको वात कहता है ? -इस प्रकार कह कर भगवान के मनाही करते २ ही उसने अपने · कुठारको लकड़े पर चलाही दिया । जिससे तत्काल ही नाग - नागिन के टुकडे हो गये और तड़फने लगे । उन्हे देखकर भगबान पार्श्वनाथको बड़ी दया आई और उस तापसीको कहा कि अरे तू व्यर्थ ही गर्व करता है । तेरे अंतःकरणमें जरा भी दया नहीं हैं । अरे ज्ञानके बिना इस शरीरको व्यर्थ ही क्यों कष्ट देता है ? यह वचन सुनकर तापसीने फिर कहा कि-भरे 'छोकडे ! तू क्या समझता है मैं तेरा नाना हूं तेरी मा मेरी बेटी है तिसपर मैं तापसी हो गया हूं सो तूने मुझे नमस्कार तक नहीं किया- मुझसे विनयके साथ बोलना चाहिये सो उसको जगह तू मेरी निंदा करता है ? अरे मैं शरीर परकी अनि सहकर 1 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૮ अनवालवोधक पंचाग्नि साधन करता हूं, एक पांवपर खड़ा होकर एक हाथ ऊंचा रख करके तपस्या करता हूं। सुधा तृपा सहन करता हूं। पारणेके दिन सूखे पत्ते खाकर ही रहता है। अरे तू मेरी तपश्चर्याको मानहीन तपस्या कैसे कहता है ? तब भगवानने उसे मिष्ट शब्दोंमें फिर कहा कि तेरी तपस्या में हिंसाका पाप यात है। नित्य तेरे हाथ से छह कायके जीवोंकी हिंसा होती रहती है। जहां जरा भी जीव हिंसा हुई कि वहां अवश्य हो पातक होता. है और पातकके फलसे दुर्गतिके दुख अवश्य भोगने पड़ते हैं। इस लिये यह दयाहीन तप है । शानके (विवेक ) विना सर्वः प्रकार के कायक्लेश किये तो भी वे उत्तम फल देनेवाले नहीं । जिस प्रकार धान छोड़कर तुपको फूटना व्यर्थ है उसी प्रकार यह अज्ञानतप निष्फल है । जैसे अंधा पुरुष दावाग्नि लगे हुये जंगलमें इधर उधर भागता फिरता है परंतु उसे पागले पत्र कर निकलनेका रास्ता नहि मिलता, जलकर मर जाता है, उसी प्रकार अज्ञानी जीव कायश्लेश करते करते मर जाते हैं परंतु संसाररूपी दावाग्निसे निकल नहि सकते और इसी प्रकार क्रियाके (चारित्रके ) विना सिर्फ शान भी फलदायक नहि है। पांव और आंखें होते हुये भी भागकर दावाग्निसे निकलनेशा उपाय नहिं किया तौ दावाग्निमें अवश्य ही जलकर मरना पडेगा इसकारंण झानसहित आचार और उनके साथ २ विश्वास (श्रद्धान ) ये तीनों ही जम एकत्र हों तब इच्छित फल प्राप्त होता है । इसप्रकार जिनमतानुसार चलकर तू प्रारमहित कर, और यह हठ छोड़ दे । यह मैं तेरे हितके अर्थ कहता हूं। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य भाग। २०६ विचार करके देख, यदि तुझे अच्छा लगे तो कर, नहीं तो मेरा कुछ आग्रह नहीं है। . . वे दोनों नाग नागिनी लकड़ेमेंसे टुकड़े होकर पड़े थे उन्होंने मरते समय तीर्थकर भगवानका दर्शन किया और उनके मुखका उपर्युक्त भाषण सुनकर शांतचित्त होकर मरण किया सो धरणेंद्र पदमावती हुये । उन्हें भरते समय भगवानका साक्षात् दर्शन अना। यह उनका बडा भारी पुण्योदय समझना चाहिये। . तदनंतर पार्श्वनाथ स्वामी तौ अपने घर आये । वह तापसी कुछ दिनोंवाद मरकर ज्योतिर्वासी शंवर नामका देव हुआ। भगवानका आयु जब तीस वर्ष हो गया तव अयोध्याके राजा जयसेनने भगवान पर अपनी अतिशय भक्ति होने के कारण कुछ घोड़े वगेरह बहुतसी वस्तुयें एक दूतके साथ भेजी थीं। सो वह दुत सब सामग्री लेकर वनारस गया । भगवान सिंहासन परं. बैठे.थे सो उसने बड़े आनंदके साथ प्रभुको नमस्कार किया और राजाकी भेजी हुई सव मेंट भगवानके सामने रखकर बोलो कि-राजा जयसेनने आपको साष्टांग नमस्कार कहा है। तब भगवानने उसको अजोध्याके सब समाचार पूछे । उस दूतने जो जो तीर्थकर अजोध्यामें उत्पन्न हुये और कर्म काटकर 'मोसंधाम पंधारे उन सवका वर्णन भी किया जिसको सुनकर भगवानके मनमें वैराग उत्पन्न हो पाया और तत्काल ही मनमें चिंतना करने लगे कि- ... ... . . . . . सबसे श्रेष्ठ पद इन्द्रासन वह भी मैंने इच्छानुसारभोग लिया तो भी मेरी तृप्ति नहिं हुई तो इस मनुष्य जन्ममें कितना सुख Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० जैनबालबोधकमिल सकता है ? अहो ! जब समुद्रप्रमाण जलके पीनेसे ही न्यास नहिं बुझी तो तिनकेकी बूंदसे वह प्यास कैसे मिट सकती है। अग्निमें इंधन झोंकनेसे अग्नि कभी नहिं बुझती परंतु बढ़ती ही जाती है। नदियोंसे समुद्रकी कभी नृप्ति हुई है क्या? कभी नहीं, उसी प्रकार ये विषय भोग अतिशय विकट हैं इनके भागते रहनेसे कभी तृप्ति नहिं होगी । विषय भोग व्यों ज्यों अधिक २ भोगनेको मिलते हैं त्यों त्यों उनके भोगनेकी लालसा अधिक २ पढ़ती जाती है विषयभोग लालसा विपय भोगनेसे नष्ट होती है ऐसा जो कहते हैं वे घी डालके अग्नि वुझानेको कहते हैं। ये विषयभोग भोगते समय बड़े प्रिय लगते हैं परंतु उनके फल बहुत कटुक होते हैं। जैसे कोई मनुष्य धतूरा खालेता है तो उसे सब सोना ही सोना दीखता है। विषको वेलने लगे हुये फल जिस प्रकार प्राणोंके घातक है उसी प्रकार ये विषयभोग प्राणघातक हैं । धिक्कार है इस इन्द्रियसुखको जिसके लोभमें यह जीव अनादि कालसे इसका स्वाद चखता २ भ्रमण करता फिरता है। इन्द्रियसुखोंके वशीभूत होनेसे ही इसको किसीका उपदेश प्रिय नहिं लगता और उसके लिये नानाप्रकारकेपाप कार्य करता रहता है। स्थावर और स जीवोंकी हिंसा इस इन्द्रिय सुम्बके कारण ही करता है-चोरी ठगाई भी इसी विषयभोगकालये करता है, परलीकी पां भी इसी विषयतृष्णाकेलिये करता है। परिग्रहोंकी तृष्णा बढाना भी इन्द्रियविषयों के लिये करता है। अर्थात् जितने अनर्थ है वे सब एकमात्र इन्द्रियजनित विषय सुखकेलिये ही होते हैं परंतु शेषमें उन विषयोंकी तृप्ति तो होती Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग 1 २११ नहीं उसकी जगह नरक नियैचादि दुर्गतियोंके दुःख ही भोगने पड़ते हैं । अतएव इन विषयभोगोंका अनुराग छोड़ना ही उत्तम. है । मैने भी इतने दिन व्यर्थ गमा दिये । संयमके विना जो इतना काल बिता दिया वह समझमें ही नहिं प्राया । मोहके वशीभूत हो तपश्चरण धारण नहिं किया सो अच्छा नहि किया । अस्तु, जो हुआ सो तौ हुआ परंतु अव चारित्ररूपी चिंतामणि ग्रहण करनेमें विलंब नहिं करना चाहिये ।" - इसप्रकार विषय भोगों से विरक्त होकर भगवानने द्वादशानुप्रेक्षा का चितवन प्रारंभ किया । इतनेमें हो पांचवें स्वर्गके लौकांतिक देव था गये और भगवानपर पुष्पांजली डालकर भगवानके चरणोंकी पूजा की और हाथ जोडकर कहने लगे- धन्य प्रभो धन्य ! हे जगत्पते धन्य हैं प्रापके विचारोंको और धन्य है आपके इस सियानपनको । हे दयानिधे ! श्राजका यह समय भी धन्य है जो यह प्रसार संसार और देह अपवित्र है ये सव क्षण भंगुर है ऐसा श्रापने जानकर स्थिर किया और इन्द्रियोंके सब सुख स्वप्न समान आपको भास गये सो वास्तव में सब इसी प्रकार ही हैं। इसमें रंचमात्र भी शंका नहीं है । आपने जो चिस में विचार लिया है वही श्रापका व जगत भरका कल्याण करने चाला कार्य है। आज आप वैराग्यरूपी खड्ग हाथमें लेकर मोह'रूपी शत्रुको नाश करनेके लिये उद्यमी हुये हैं उससे शुभका १ बारह अनुप्रेक्षाओंका चिंतत्रन सर्वत्र एकसा ही होता है इसलिये यहां नहीं लिखा । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ जैनबालवोधकउदय हुआ समझना और मुक्तिरूपी लक्ष्मीको सौभाग्य प्राप्त हुवा है। भगवन् ! यह समस्त जगत् प्रमादसे वेशुध होकर सो रहा है जब आपकी दिव्यध्वनिरूपी गर्जना होगी तब ही यह जगत जागेगा। यह सब आप जानते ही हैं। आप स्वयंबुद्ध है, अन्य जीवोंको उपदेश देने में समर्थ हैं आपको उपदेश देनेकी किसकी सामर्थ्य है पाप तौसूर्य हैं आपके सामने दीपकका प्रकाश करना व्यर्थ है। आपके वैराग्यके समय हम लोगोंको यहां आनेका नियम है इसीलिये हम अाकर आपसे प्रार्थना करें इतना ही नियोग है। बाकी करने योग्य कार्य तौ सब पाप करते ही है इसलिये हे प्रभो ! अव आप महाव्रत धारण करके कर्मरूपी शत्रु का शीघ्र ही संहार करें। भ्रमरूपी अंधकारको नष्ट करदें जिसमे स्वर्गमुक्तिका मार्ग जगतके जीवोंको ठोक २ मालूम हो जाय इस प्रकार बड़ी भक्तिके साथ स्तुति करके वारंवार भगवानके चरणोंमें नमस्कार करके सव देव अपने २ स्वर्गमें चले गये। इसके पश्चात् चार प्रकारके देवोंके इन्द्र अपने २ वाहनों पर चढकर परिवारसहित बड़े हर्षके साथ भगवानके दीक्षा कल्याणक करनेके लिये आये । नानाप्रकारके वाजे वजने लगे। देवांगनायें नृत्य करती, किनरियां मधुर स्वरसे गाती और समस्त देव जय जयकार घोषकरने लगे। सौधर्मेंद्रने भगवानको क्षीर समुद्रसे भरकर लाये हुये सुवर्णके. कलशोंसे सिंहासन पर बैठाकर विधिपूर्वक अभिषेक किया । और सर्व प्रकार वस्त्राभरण धारण कराकर शरीर पर चंदन चर्चित किया। इस समय भगचान ऐसे.शोभते थे मानो मुक्तिस्त्रीको वरण करनेके लिये । .......... .. .. ... Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभागं । दुल्हा (वीन ) ही सजे हों । तत्पश्चात् भगवानने अपने माता पितादि समस्त कुटुंब और उपस्थित जनताको वैराग्यका उपदेश दिया । उसे सुनकर माता के नेत्रों में पानी भर आया । तब उसे भगवानने वडे कसे समझा कर शांत किया। और इन्द्रके द्वारा लाई हुई विमला नामकी पालकीमें बैठ गये । उस पालकीको प्रथम तौ भूमिगोचरी राजा कंपर उठा कर सात पांच चले । तत्पश्चात् विद्याधर राजा अपने कंधे पर उठाकर सात पांच चले तत्पश्चात् इन्द्रादिक देवोंने अपने कंधों पर लेकर अश्वनामा वनमें जाकर रक्खी । उस वनमें एक बड़के वृक्ष तले स्वच्छ शिक्षा पर इन्द्राणीने सांथिया (मांडना ) पूरा था उस पर भगवान जा विराजे । समस्त कोलाहल शांत हो गया भगवान अपने मनमें शांति लाकर समस्त वस्त्राभूषण उतार कर एक दम नग्न हो गये और अत्यंत उदासवृतिले उत्तरमुख बैठकर हाथ जोड़कर सिद्ध परमेष्ठीको नमस्कार किया । अंतरंग और बाह्य समस्त परिग्रहोंका त्याग करके पांच मूडियोंसे अपने केशोंका जोच किया : इस प्रकार पौषशुक्ल एकादशीकै दिन प्रथम पहर में भगवान पार्श्वनाथने महाव्रत धारण किये और पद्मासन धारण करके बैठ गये। भगवान के साथ अन्यान्य तीन-सौ राजाओं ने भी दीक्षा ग्रहण की भगवान के लोच किये हुये केश इन्द्वने अपने हाथमें लिये और बडे आनंद उत्साह से क्षीरसमुद्र में डालकर सब देव अपने २ स्थान गये । तत्पश्चात् प्रभुने एक साथ तीन उपवास किये । वे मुनिके अठाईस मूलगुण और ८४ उत्तर गुण उत्कृष्ट रीति से पालते Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ . जैनवालबोधकहुये मौनसे ध्यान करने लगे जिससे चौधा मनःपर्यय शानं उत्पन्न हुआ। __ ध्यान पूरा होने पर भोजनार्थ विहार किया सी जमीनकी तरफ ही दृष्टि रखकर ईपिय शोधन करते हुये गुल्मखेट नामक नगरमें पहुंचे। वहाँका राजा ब्रह्मदत्त भगवानको देखकर अत्यंत हर्पित हुश्रा और इन्हें उत्तम पात्र समझ कर नमस्कार किया और घरमें ले जाकर सोनेके सिंहासन पर बैठाया, प्रामुक जल से चरण प्रक्षालन करके अष्टप्रकारसे पूजन किया और हाथ जोड़कर नमस्कार किया तथा मन वचन और कायको शुद्ध रखकर भगवानको आहार प्रदान किया। ऐसे उत्तम पात्रको विधिपूर्वक भक्तिसे आहार देनेसे उसके घर पर देवताओंने पंचाश्चर्यवृष्टि को । जिससे राजाकी बड़ी कीर्ति विस्तरी। तदनंतर भगवान वनमें आये और पुन: ध्यान करनेको वैठः गये। उनके उस एकाग्र ध्यानके माहात्म्यसे उस बनके समस्त पशु परस्पर वैरभाव छोड़ कर प्रीतिसे परस्पर खेलते हुये रहने लगे। सिंह किसीको मारता नहीं, सांप किसीको काटता नहीं इस प्रकार सर्वत्र साम्यभाव फैल गया। एक दिन भगवान दीक्षावन कायोत्सर्ग ध्यानमें निमग्न होकर खड़े थे । उस समय शंवर नामक कमठका जीव जो ज्योतिषी देव हुवा था । वह विमानमें बैठकर कहींको जाता था सो उसका विमान भगवानके मस्तक पर पाते ही रुकगया । तव शंवर ज्योतिपीने अवधिज्ञानसे देखा तो मालूम हुआ कि मेरा पूर्वजन्म का वैरी नीचे खडा है। उसका बदला लेना चाहिये ऐता मनमें पनrer --- . . . . . Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थी भाग 1 २१५ विचार कर बड़े क्रोधसे नेत्र लाल करके भगवानको उपसर्ग करना प्रारंभ किया। उसने चारों ओर घोर अन्धकार करके मेघकी भयानक गर्जनापूर्वक मूसलधार मेघ बरसाया, आंधी भी खूब जोरसे चलाई जिससे पर्वत गिर पड़े, बड़े २ वृक्ष उखड़ गये, समस्त पृथिवी समुद्र समान भासने लगी। परंतु भगवान जैसे तैसे अडिग सुमेरुपर्वत समान अचल खड़े रहे। इसके पश्चात् और भी अनेक प्रकार के उपसर्ग भगवानके ऊपर किये. उनके सामने प्राकर यमराजका भयंकर रूप दिखाने लगा । अपने मुंह पर कलोंच लगाकर बड़े जोर जोर से रोने चिल्लाने लगा, गले में मुंडमाला डाल कर सुहसे श्रग्निके फुलिंगे बाहर करने लगा, और मोटे स्वरले 'मारो मारो' चिल्लाने लगा । इत्यादि प्रकार से भगवानको अनेक उपसर्ग किये. परंतु भगवान का ध्यान तिलभर भी न डिगा जिसके प्रभाव से पाताल में धरणेंद्र का शासन कंपायमान हुआ । अवधिज्ञान जोड़ने से मालूम हुआ कि पूर्वजन्म में भगवान पार्श्वनाथका मेरे ऊपर बड़ाभारी उपकार हुआ है सो वह तुरंत ही पद्मावतीको साथ लेकर भगवानके पास आया दोनोंने हाथ जोड़कर भगवानको नमस्कार किया । और भगवानके मस्तक पर नागके फणका वडाभारी मंडपसा बना दिया जिससे भगवान के ऊपर एक बूंद भी पानी नहिं पड़ा और एसे एक वडेभारी भुजंगको जब उस ज्योतिपीने देखा तो देखते ही भय खाकर भाग गया। उस समय भगवान सातवें अप्रमत्त गुणस्थान में स्थिर हो गये। भगवानने चौथे गुणस्थानं में सात प्रकृतियोंका क्षय तौ पहिले ही कर दिया था और Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રહ जैनवालबोधक इस सातवें गुणस्थानमें तीन प्रकृतिका और भी तय करके शुक्ल"ध्यानके प्रथम पायेको प्रारंभ किया । वे क्षपकश्रेणी के मार्ग से अगले गुणस्थानों पर चढ़ने लगे। नववें गुणस्थान चढ़ कर छत्तीस कर्मप्रकृतियोंका तय किया । दशवे गुणस्थान में सूक्ष्म लोभको नष्ट करके ग्यारहवें गुणस्थान में न जाकर बारहवें गुणस्थानमें पहुंच कर सोलह प्रकृतिका नाश किया इस प्रकार चार घातिया कर्मोकी ६३ प्रकृतियोंको नष्ट करके चैत्र कृष्णा · १४ के दिन केवलज्ञानको प्राप्त किया और तेरहवें गुणस्थान पर आ गये । • भगवानको केवलज्ञान हो जाने पर त्रिलोकी के समस्त पदार्थ हाकी तीन रेखाकी तरह दीखने लगे । उनका शरीर जमीन से गंधकुटीके मध्य ऊंचा आकाशमें अधर होगया उस वनके समस्त वृक्षों पर बिना ऋतुके हो फत्र दीखने लगे, समस्तप्रकार की वेलों पर पुष्प आ गये। इंद्रका प्रासन कंपायमान हुआ तव उसने अवधिज्ञान से जान लिया कि भगवानको केवलज्ञानउत्पन्न हो गया उसी वक्त कुवेर प्रादि देवोंने भगवानका समयशरण रचा, वारह सभा बनी। वहां पर पशु पक्षी यादि सवने हो अपने परस्परका वैरभाव छोड़ दिया और वे भगवानके उपदेश को सुनके केलिये सभामें आकर बैठे । इसके पश्चात् स्वयंभूनामके गणधरने भगवान से प्रार्थनाको कि- हे प्रभो ! ये जीव अज्ञानरूपी अंधकार में पड़े हुये दुःख भोग रहे हैं सो इनको आप धर्मोपदेशरूपी प्रकाश देकर मार्ग दिखावें । इस परसे भगवानने समस्त जीवोंकी समझमें आनेवाली · Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । २१७ दिव्य ध्वनिमें धर्मोपदेश देना प्रारंभ किया । अनेक जीवोंने अनेक प्रश्न किये उन सबका समाधान दिव्यध्वनि द्वारा भगवानने किया जिनको सुनकर कितनों होने दिगंबर मुनिको दीक्षा ली, कितने ही पशुओंने भी अणुव्रत धारण किये। कितनी स्त्रियां अर्जिका हुई और अपने पतिके साथ ही साथ वनमें चल दीं कितने ही मनुष्योंने तथा पशुओंने और देव देवियोंने सम्यक्त्व ग्रहण किया। इस समय कमठका जीव शंवर नामका ज्योतिषी भी यहां पर आया था उसने भी भगवानके मुख से उपदेश सुना । जिस से मिथ्यात्व नष्ट हो गया और भगवानके चरणोंमें पड़कर उसने भी सम्यक्त्व ग्रहण किया । उस वनमें सात सौ अन्यमती तपस्वी रहते थे, उनने भी जितेंद्र भगवानकी समवशरण विभूति देखी जिससे उनको समीचीन ज्ञान हो गया । भगवानको तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार किया और अपने पूर्वके मिथ्या आचरणोंका पश्चात्ताप करके संयम धारण किया । तत्पश्चात् स्वयंभू गणधरने भगवानको वाणीको द्वादशांग चौदह पूर्वरूप रचना करके सुनाया जिससे समस्त सभायें प्रत्यंत हर्पित हुई । इसके पश्चात् इन्द्रने खडे होकर भगवानसे प्रार्थना करी कि हे जगत्पते ! जगह २ के भव्य जीवोंको उपदेश देनेके लिये आप विहार करिये। यह सुन भगवान विहार करनेको निकले, काशी, कोशल, पांचाल, महाराष्ट्र, मारवाड़, मगध, अवनी, मालवा, अंग, बंग आदि प्रार्य खंडके देशोंमें विहार करके धर्म का उपदेश किया। उनके साथ २ चतुर्निकाय के देव और सौ इन्द्र चलते थे और स्वयंभू आदि समस्त भागमके ज्ञाता दश Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ जैनवालवोधकरणधर भी रहते थे। जहाँ जहां भगवान जाते देवतागण समयशरण रचते जाते थे। भगवान के साथ पूर्वधारी साढ़े तीन सौ मुनि, दश हजार नवलौ पुराण कहनेवाले शिष्य मुनि थे, चौदह सै अवधिज्ञानी, एक हजार केवलज्ञानी, विक्रियाधारी एक हजार, मनापर्ययज्ञानी साढ़े सातसौ, बाद जीतनेवाले छहसौ मुनि, सोलह हजार साधारण मुनि, छत्रीस हजार अजिंकायें, एकलाख श्रावक, तीन लाख श्रावकायें असंख्यात देवी देवी और संख्यात पशु पक्षी थे। इसप्रकारकी बारह सभा सहित रत्नत्रयका उपदेश करते हुये धर्मका मार्ग दिखाते भगवान् विहार करते थे। इसप्रकार कुछ दिन कम सत्तर वर्ष तक विहार करके सम्मेद शिखर पर आये वहां पर एक महीनेका योग धारण करके शुक्लध्यानके तीसरे पाये सूक्ष्म क्रियाप्रतिपातिका प्रारंभ किया। इसके बाद सयोगकेवली तेरहवां गुणस्थान छोडकर अयोग. केवली नामके चौदहवें गुणस्थानमें पाये इस गुणस्थानका कालः अ उ ऋ ल. इन पांच अक्षरोंके उच्चारण जितना ही होता है इतने ही कालमें चौथे शुक्लध्यानके पाये व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामक धारण करके श्रघातिकर्माको ८५ प्रकृतियोंका क्षय किया। इस प्रकार संपूर्ण कोकी प्रकृतियोंका क्षय करके श्रावण सुदि सप्तमीको विशाखा नक्षत्र में भगवान मोत्तको पधारे । उन के साथ २ छत्तीस मुनि और भी मोक्षको प्राप्त हुये। इसके बाद पन्द्रादि देव मोक्षकल्याणके लिये अपने २ विमानों में बैठ कर आये और भगवानका शरीर पवित्र है. इसलिये रत्नोंकी पालकी Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग २१६ पर रखकर पूजाकी फिर अगर चंदन बगेरह सुगन्धि द्रव्योंसे अग्नि कुमार देवोंने अपने मुकुटसे उत्पन्न की हुई अग्निसे भगवान के शरीरको दग्ध किया । भगवानका शरीर दहन होनेसे चारों तरफ सुगंधि फैल गई । उसके बाद दहन क्रियाकी भल लेकर इन्द्रादिक देवोंने अपने २ मस्तक छाती हाथ गले पर लगाई और बड़ी भक्तिसे नृत्यभजनादिक कर वे समस्त देव अपने अपने स्थान चले गये। पार्श्वनाथ भगवानके भवांतर. १। ब्राह्मणे कुलमें मरुभूति मंत्री। २६ सल्लको वनमें वज्रघोप नामका हाथी जिसने बारह व्रत पाले। ३. वारहवें स्वर्गमें शशिप्रभ देव । ४॥ विद्याधर कुमार अग्निवेग जिसने वालकपनमें संयम . लिया। ५। अच्युत स्वर्गमें देव जिसकी आयु वाईस सागर। ६। वज्रनामि चक्रवर्ती। ७। अहमिंद्र देव । ८मानंद राजा जिसने मुनि दीक्षा लेकर १६ भावना भाई। । तेरहवें स्वर्गमें इन्द्र हुये। . . Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૦ जनचालवोधक१०। राजा विश्वसेन और 'वामादेवीके उदरसे पार्श्वनाथ . तीर्थकर हुये। --- -- ४१. छहढाला सार्थ-तीसरी ढाल । --::-- नरेंद्र छंद २८ मात्रा ( योगीरासा )। "आतमको हित है सुब, सो सुख प्राकुलता विन कहिये। आकुलता शिवमादिन ताते, शिवमग लाग्यो चहिये । सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण शिव, या सो दुविध विचारो। 'जो सत्यारथ रूप सुनिश्चय, कारन सो व्यवहारो॥१॥ पर द्रव्यनि भिन्न श्रापमें, रुचि सम्यक्त मला है। आपरूपको जानपनो सो, सम्यकज्ञान कला है ।। 'आपरूपमैं लीन रहै थिर, सम्यक चारित सोई। अव व्यवहार मोक्षमग सुनिये, हेतु नियतिको होई ॥२॥ आत्माका हित सुखमें है, प्राकुलता ( इच्छा ) रहितको सुख कहते हैं । मोत्तमें आकुलता नहीं है इस लिये मोक्षमार्गमें लगना उचित है । सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी एकता को मोक्षमार्ग कहते हैं सो निश्चय व्यवहारके भेदसे दो प्रकार · का है। जो सत्यार्थरूप है सो तो निश्चय मोक्षमार्ग है और निश्चय मोक्षमार्गका कारण रूप व्यवहार मोक्षमार्ग है ॥१॥ पर द्रव्योंसे भिन्न अपनी आत्मामें ही रुचि (श्रद्धान ) रखना सो तो :निश्चय सम्यग्दर्शन है तथा अपने रूपको जानना सो निश्चय Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। सम्यग्लान है और अपने प्रात्म स्वरूपमें ही लोन व स्थिर रहना लो निश्चय सम्यक्चारित्र है । इस निश्चय मोक्षमार्गका जो कारण स्वरूप व्यवहार मोक्षमार्ग उसे अव सुनिये॥२॥ जीव अजीब तत्त्व अरु यात्रर, वंघ रु संवर जानो। निर्जर मोक्ष कहे जिन तिनको, ज्यों को त्यों सरधानो ।' है सोई समकित व्यवहारी, अब इन रूप बखानो। तिनको सुनि सामान्य विशेष, ह प्रतीति उर भानो ॥३॥ जीव, अंजीव, श्रास्त्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तस्व जिनेंद्र भगवानने जिस प्रकार कहे हैं उसी प्रकार श्रद्धान करना सो व्यवहार सम्यग्दर्शन है। अव इन तत्वोंका सामान्य और विशेष स्वरूप प्रागें कहता हूं सो जानकर उनपर दृढ़ श्रद्धानः करना ॥३॥ अहिरातम अंतर प्रातम परमातम जीव त्रिधा है। देह जीवको एक गिने, वहिरातम तत्व मुधा है ।। उत्तम मध्यम जघन त्रिविधिके, अंतर आतम ज्ञानी । दुविधसंग विन शुध उपयोगी,मुनि उत्तम निज ध्यानी ! मध्यम अंतर आतप हैं जे; देशवती आगारी! ' जघन कहे अविरत समदृष्टी, तीनों शिवमगचारी || : सकळ निकल परमातप द्वै विध, तिनमें घातिनिवारी। श्रीधरहंत सकल परमातम, लोकालोकनिहारी ॥५॥ जीव (आत्मा) तीन प्रकारके हैं, वहिरात्मा, अंतरात्मा, और परमात्मा जो शरीर और आत्माको एक ही जाने सो तो तत्त्वः Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ जनबालबोधकविचारमें मूढ़ वहिरात्मा है और अंतरात्मा उत्तम मध्यम जघन्यके भेदसे तीन प्रकारका है। इन तीनोंमसे बाहा अभ्यंतर दो.प्रकार के परिग्रहरहित शुद्धोपयोगी आत्मध्यानी मुनि तौ उत्तम अंतरात्मा हैं । और जो देशवती गृहस्थ हैं वे मध्यम अंतरात्मा और अव्रत सम्यग्दृष्टी जघन्य अंतरात्मा हैं। ये तीनों ही अंतरात्मा जीव मोक्षमार्गमें चलनेवाले हैं | ज्ञानशरीरी त्रिविध कर्ममल,-वजित सिद्ध महता। .ते हैं निकल अमल परमातम, भोग शर्म अनंता॥ बहिरातमता हेय जानि तजि. अंतर आतम हजै ॥ परमातमको ध्याय निरंतर, जो नित आनंद पूजै ॥६॥ परमात्मा सकल निकल भेदसे दो प्रकारका है। घातिया -कर्मोको नष्ट करके-लोक प्रलोकको देखनेवाले सर्वज्ञ श्ररहंत भगवान तौ सकल परमात्मा हैं ! और ज्ञानमय शरीरवाले तीन कर्म मल (द्रव्यकर्म भावकर्म नोकर्म) रहित सिद्ध भगवान निकल परमात्मा है जो कि अनंत सुखोंके भोक्ता है। हे भाई! बहिरात्मापनको (मिथ्यात्वको) हेय (त्यागने योग्य ) जान कर छोड़ दे और अंतरात्मा होकर परमात्माका नित्य ध्यान कर. जिससे तुझे अविनाशी प्रानंदकी प्राप्ति हो ॥ ६ ॥ चेतनता विन सो अजीव है पंच भेद ताके हैं। पद्ल पंच वरन रस पन गंध, दुफरस वसु जाके हैं ।। जिय पुदलको चलन सहाई, धर्मद्रव्य अनरूपी। , .तिष्ठत होय अधर्म सहाई, जिन विनमूर्ति निरूपी ॥७॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૩ चतुर्थ भाग | सकल द्रव्यको वास जानें, सो आकाश पिछानो । नियत बरतना निस दिन सो, व्यवहार काल परवानो ॥ -यों अजीव व आसव सुनिये, मन वच काय त्रियोगा । मिथ्या अविरत अरु कषाय पर, पाद सहित उपयोगा ॥८॥ ये ही आतमके दुख कारण, तातें इनको तजिये । जीव प्रदेश बंधे विधिसों, सो बंधन कबहु न सज़िय | शमदमसौं जो कर्म न भावै सो संवर बादरिये । तपवळ विधिकरण निरजरा ताहि सदा आचरिये ॥ ९ ॥ सकळ कर्म रहित अवस्था, सो शिवतियसुखकारी । इहविधि जो सरधा तच्चनकी सो समकित व्योहारी ॥ देव जिनेंद्र गुरु परिग्रह विन, धर्म दयाजुत सारो । येहु मान समतिको कारन, अष्ट अंगजुत वारो ॥ १० ॥ जिसमें चेतनता नहीं सो प्रजीव है । श्रजीवके पुद्गल धर्म "अधर्म आकाश और कालके मेदसे पांच भेद हैं । पहिला भेद - पुद्गलमें पांच रंग हैं पांच रस ( स्वाद ) दोय गंध और मठ प्रकारका स्पर्श है इस प्रकार सब मिलकर वीस गुण हैं । जीव पुद्गलको चलने में सहयता करे उसे धर्म द्रव्य और ठहरने में सहाय करे उसे अधर्म द्रव्य कहते हैं । ये दोनों द्रव्य अरूपी है। आकाश द्रव्य दो प्रकारका है जिसमें समस्त द्रव्योंका -वास हो उसे लोकाकाश कहते हैं और लोकसे बाहर अलोका • काश है । काल द्रव्य भी दो प्रकारका है सास्त इव्यों का परि-वर्त्तन करे सो तौ निश्चय काल है । इस द्रव्यका एक एक Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनषालवोधककालाणु लोकाकाशके एक एकप्रदेशमें रत्नोंकी राशिके माफक भरा है और घड़ी पल मिनट वगेरहको व्यवहार काल कहते है। __ मन वचन काय इन तीनोंका चलना सो योग है। इन्हीं योगों से कर्मोका पाना सो आस्त्रव है और मिथ्यात्व, अविरत (बत न पालना) क्रोधादि कषाय और प्रमादसहित श्रात्माके भाव है इन्हीं के द्वारा आत्माके साथ कर्मोंका एकमेक होनासो बंधहै। ये भाव ही दुःखके (बंधके ) कारण है इस कारण इनको छोड़ कर कर्मवंधसे बचना चाहिये । शम दमादिसे अर्थात् समताभाव और इन्द्रियोंके दमनसे आस्रव (आते हुये कर्म ) रुकते हैं इसीको संवर तत्व कहते हैं । तपके प्रभावसे कर्मोका एक देश मडनासो निर्जरा है इस कारण तपका आचरण करना चाहिये। समस्त कर्मोंसे रहित होना सो स्थिर सुखकारी मोक्ष तत्व है। इस प्रकार सात तत्त्वोंका श्रद्धान करना सो व्यवहार सम्यक्त्य है। इसके सिवाय सत्यार्थ जिनेंद्र देव, चौवीस परिग्रहरहित गुरुः और दयामय भर्मका श्रद्धान करना भी व्यवहार सम्यक्त्व है सो आठ अंगसहित यह सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन ) धारण करना चाहिये। वसुमद. दारि निवारि त्रिसठता, षट. अनायतन, त्यागो। . शकादिक वसु दोष बिना, संवेगादिक चित पागो।। अष्ट अंग अरु दोष पचीसों, अब संक्षेप हु कहिये। विन जाने दोष गुननको, कैसे तजिये गहिये ॥ ११॥ पाठ मद, तीन मूढ़ता, छह अनायतन और पाठ शंकादिः दोष इस प्रकार २५ दोषोंको दूर करके प्रशम संवेग अनुकंपा ।' Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । २२५ और प्रास्तिक्य गुणोंको चित्तमें धारण करो । अब प्राठ प्रंग और २५ दोषोंको संक्षेपले कहा जाता है क्योंकि दोष गुणोंको विना जाने त्याग वा ग्रहण करना नहीं हो सक्ता ॥ '; जिन वचमें शंका न धारि नृप, भव सुख वांळा भांने । मुनि तन मलिन न देख बिनावें, तव कुतत्र पिछाने | निजगुन घर पर अवगुन ढांके, वा निजधर्म वढावे | - कामादिककर नृपते चिगते, निजपरकों सु दृढावै ॥ १२ ॥ धर्मीसों गउवच्छ प्रीतिसम, कर जिनधर्म दिपावें । इन गुन विपरीत दोष वसु, तिनको सतत खिपावे ॥ पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय, न तौ मद ठाने । मदन रूपको मदन ज्ञानको, धन वलको मद माने ॥१३॥ तरको मद न मद जु प्रभुताको, करै न सो निज जाने । पद धारे तो ये ही दोप वसु, समकितको मल ठाने ॥ कुगुरु कुदेव कुनृप सेवककी, नहि प्रशंस उचरे है । जिन मुनि जिन श्रुत विन कुगुरादिक, तिन्हें न नमन करै है | जिन भगवान के वचनोंमें संशय नहि करना सो निःशंकित अंग है १, सांसारिक सुखोंकी बांदा न करना सो निःकांक्षित अंग है २. मुनि वा अन्य सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा के शरीरको मैला देखकर घृणा नहिं करना सो निर्विचिकित्सित अंग है। ३, खोटे खरे तत्वों की पहचानमें मूढ़ता ( निर्विचारता ) नं रखना सो अमूद दृष्टि अंग है ४, अपने गुण और परके दोष ढकै या अपना धर्म बढ़ावै सो उपगूहन अंग है, ५, कामादिकके कारण १५ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालवोधक : २२६ 'धर्मसे डिगते हुये निजपरको स्थिर कर देना सो स्थितिकरण अंग है ६, धर्मालाओं से गौ वछरेकीसी प्रोति करना सां वात्सल्य अंग है, ७, और जिस प्रकार घनै उस प्रकार से जैनधर्मका महत्त्व ( माहात्म्य) प्रगट करना सो प्रभावना भंग है । ये सम्यक्त्वके ठग हैं इनसे उल्टे ८ शंकादि दोष हैं। इन दोषोंमें हमेशद दूर रहना चाहिये । प्रव आठ मद कहते हैं-पिता राजा या बड़ा श्रहदेवाला प्रतिष्ठित हो तौ उसका गर्व करना सो कुल मद है १, इसी प्रकार मामा नानाके अधिकारका गर्व करना सो जातिमद है २, अपने रूपका घमंड करना सो रूपमद है ३. अपनी विद्या वा पंडिताईका मद करना सो ज्ञान मद है ४, धनका घमंड करना सो धनमद है ५, वलका घमंड करना सो यलमद हैं ६, अपने तप करने का घमंड करना सो तप मद है ७, अपनी प्रभुः ताका मद करना प्रभुता मद है ८, ये ८ मद भी दोष हैं ये सम्यवको दूपित करते हैं इस कारण इनको भी छोड़ देना चाहिये इसके सिवाय कुगुरु कुदेव कुधर्म तथा इन तीनोंको सेवन करने वाले ये छह अनायतन हैं । इन छहोंकी प्रशंसा करना वा मानना सो छह दोष हैं। तथा कुगुरु कुदेव कुशास्त्रोंको नमस्कार करना सो तीन मूढता है । इस प्रकार आठ शंकादि दोप, प्राठमद, छह अनायतन और तीन मूढता इन सबको मिला कर पच्चीस दोष : होते हैं ॥ दोपरहित गुणसहित सुधी जे, सम्पक दरश सर्जे हैं। वरित मोहवश लेश न संजम, पै सुरनाथ जने हैं ॥ 7 ; Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। गेही, पै गृहमें न रचै ज्यों, जल्में भिन्न कमल है। ‘नगर नारिको प्यार यथा, कादेमें हेम अपल है ।। १५ ।। जो सुधी उपर्युक्त पच्चीस दोप और पाठ अंगसहित सम्यगदर्शनसे अपनेको शोभित करते हैं ये यद्यपि चारित्र मोहनीय कर्मके उदयसे कुछ भी संयम धारण नहिं करते तो भी उनको इंद्रगण नमस्कार करते हैं। यद्यपि वे वरमें रहनेवाले गृहस्थी है परंतु घरने मन (लीन ) नहिं होते जिस प्रकार कमल जल को नहिं छूता उसी प्रकार घरके कार्याले उदासीन रहते हैं। घर में उनकी जो प्रीति है वह वेश्याकी तरह अस्थिर प्रीति है। अथवा कीचड़में पड़े हुये सोनेकी तरह निर्मल ही रहते हैं ॥१५॥ प्रथम नरक चिन षट् भू ज्योतिष, वान भवन पंड नारी । । -थार विकल त्रय पशु नहि, उपजत सम्यक धारी। -तीन लोक तिह काल मांहि नहि, दर्शनसो सुखकारी। सकल घरमको मूळ यही इस, विन करणी दुखकारी ॥१६॥ मोखमहलकी परथम सीढी, या विन ज्ञान चरित्रा॥ । सम्यकता न लई सो दर्शन, धारो भव्य पवित्रा ।। ... दौल समझ सुन चेत सयाने, काल च्या मत खोवे । यह नर थव फिर मिलन कठिन है, जो सम्यक नहि होवे ॥ सम्यकधारी जीव-पहिले नरक विना शेपं छह नरकोंमें, ज्योतिषी भवनवाली और व्यंतरदेवोंमें, स्त्री पर्यायमें, स्थावर एफेंद्रियोंमें तथा द्वीन्द्रिय, तेइंद्रिय, चतुरिंद्रिय इन विकलत्रय जीवोंमें, और पशुओंमें पैदा नहीं होता। सम्यक्त्वके समान Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ जैनवालवोधकतीनलोक तीनकालमें अन्य कोई सुखकारी नहीं है। समस्त धमों का मूल यही है इसके विना जितनी क्रियायें या चारित्र है वह दुखकारी है । मोक्षमहलकी यह पहिली सीड़ी (पैड़ी) है। इस सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान और चारित्र सम्यग्दान वा सम्यक्चा. रित्र नहिं होता । इस कारण हे भव्य पुरुषो! इस सम्यग्दर्शनको पवित्र (निर्दोष ) धारण करी । दौलतरामजी कवि कहते हैं किहे सयाने ! इस वातको समझ कर सुन और शीघ्र ही चेतजा वृथा काल मत गमा। यदि इस भवमें सम्यक्त्व नहिं होगा तो फिर यह नर भव मिलना अत्यंत कठिन है ॥१७॥ ४२. वईमान भगवान और दीपमालिका । वर्द्धमान भगवान हमारे चौबीस तीर्थंकरोंमसे अंतिम तीर्थकर हैं इनके महावीर, सन्मति, वीर जन आदि नाम है। इसही आर्यखंडके-भरतक्षेत्रमें विदेह नामका देश सत्य धर्मोपदेष्टा मुनिसंघादिकोंले परिपूर्ण विदेहक्षेत्रके समान शोभता है जहांसे जीवात्मा निरंतर देहरहित हो मोक्षधाम प्राप्त करते हैं। जहां पदपदमें तीर्थकर व केवलियोंकी निर्वाणभूमियां दिखलाई देती हैं। जिनकी वंदना करनेको मनुष्य, देव व विद्याधर पाया जाया करते हैं । इसी विदेह देशमें वह सम्मेदाचलपर्वत भी है जो अनंत तीर्थंकरों व विलियोंकी निर्वाणभूमि हो गई है और रहेगी ।. इसीको भूगोलमें पार्श्वनाहिलके नामसे लिखाः गया है। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भांग રંર इस धनधान्यपूरित विदेह देश (वर्तमान विहार) के भीतर मध्यभागमें कुंडपुर (वर्तमान कुंडलपुर ) नगर, देहमें नाभिके समान शोभायमान है। यह उस समय धर्मात्माओंसे भरा हुश्रा था। यहां बड़े ही सुंदर नर नारी समान गुणों के धरनेवाले देवों के समान ऊंचे २ महलोंमें निवास करते थे। कुंडलपुर एक छोटा ग्राम न था परंतु एक बडा भारी नगर था। इस नगरके रक्षक राजा श्रीसिद्धार्थ थे--यह हरिवंशरूपी 'अाकाशके सूर्य, काश्यपगोत्रधारी, मति, श्रुति, अवधि तीन ज्ञान के स्वामी, नीतिमार्ग पर चलनेवाले, श्रीजिनेंद्रके भक्त, महादान के का, तथा परम मनोहर लक्षणोंसे शोभायमान थे। इनके चंशको नाथवंश भी कहते थे । इनकी अर्धाङ्गिनी अपने पतिकी परमप्रिय, जिनधर्मभक्त, "परम गुणवती श्रीप्रियकारिणी थी । जिसको त्रिशला भी कहते हैं । । __ पतिपत्नी गृहस्थधर्मको सेवन करते हुए व नीतिसे प्रजाकी - रक्षा करते हुए सच्चे हार्दिक प्रेमसे जीवन विताते थे । जिसके कारण इन गृहशीलधारिकायोंको श्रीमहावीरस्वामी पेसे महावीर "पुत्रका लाभ हुआ। जब बडे भारी पुण्यशाली जीव माताके गर्म में आते हैं तव माताके पुण्योदयसे शुभकर्मोदयसूचक शुभस्वप्न होते हैं। एक दिन पिछली रात्रिको श्रीप्रियकारिणीने १६ स्वप्न देखे-प्रातःकाल उठ सामायिक पूजनादि नित्यक्रिया कर राजा सिद्धार्थकी सभा सखियोंको साथ ले, गई । राजा अपनी धर्म Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. जैनवालबोधक- . सहायिनी परममित्राको सभामें आते हुए देख सन्मान सहित मिष्टवचन वोल अर्द्धासन दे पाप बैठे। प्रियकारिणीने मुदितमनसे सोलह स्वप्नोंका हाल कहा और प्रश्न किया कि महाराज ! इन स्वप्नोंका क्या फल प्राप्त होगा राजा सिद्धार्थ थोड़ी देर ठहर अवधिज्ञानसे विचार कहने लगे कि हे प्रिये ! तुमने हाथी देखा उसका फल यह है कि तुम्हारे । तीर्थकर पुत्रका जन्म होगा, बैल देखनेसे वह जगत्का ज्येष्ठः महाधर्मरूपी रथका चलानेवाला होगा, सिंह देखनेसे अनंतवीर्य का धारी कर्मरूपी हाथियोंके यूथका घातक होगा, लक्ष्मीदेवीका अभिषेक देखनेसे इस पुत्रका जन्माभिषेक इन्द्रादिकदेव सुमेह- . पर्वतके ऊपर करेंगे. दो. पुष्पमाला देखनेसे इसका देह प्रतिनुगंधित होगा और यह सत्यधर्मके ज्ञानका फैलाने वाला होगा,पूर्ण चन्द्र देखनेसे बुद्धिमानोंके हृदयमें सद्धर्मरूपी अमृतका वर्षा करनेवाला होगा, सूर्यमंडल देखनेसे अज्ञान अंधकारका नाशक परमतेजःपुंज होगा, दो कुम्भ देखनेसे तीन ज्ञानका धारी शान ध्यानरूपी अमृतका धारक होगा, दोमत्स्य देखनेसे आपमहासुखी और विश्वको सुखकर्ता होगा, प्रफुल्लित कमल युक्त सरोवरके देखनेसे मनोहर लक्षण और चिन्होंसे शोभित होगा, गंभीर समुद्र . देखनेसे नवकेवललन्धिधारी केवलशानी होगा, सिंहासन देखने से साम्राज्य पदके योग्य जगतका गुरु होगा, स्वर्गका विमान देखनेले उसका आत्मा स्वर्गसे आकर जन्म लेगा, नागेन्द्रका भवन देखनेसे वह अवधिज्ञानधारी होगा, रतनराशि देखनेसे : ब्रत आदि रत्नोंका स्वामी होगा तथा अग्नि देखनेसे कर्म मलको जलावेगा ।.. Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । " अपने प्रिय पतिके परम मंगलकारक शब्द सुनप्रियकारिणीका हृदयकमल प्रफुल्लित हो गया। शरीर रोमांचित हो पाया आंख में आनंदके प्रश्रुपात भर आए । आषाढ़ सुदी ६ उत्तरापाड़ नक्षत्र में श्रीवीरस्वामीका जीव सोलहवें अच्युतस्वर्गमें देव पर्यायको समाप्त कर, माता प्रियकारिणीके गर्ममें आया जैसे सीपके भीतर जलविंदु रहता है इस तरह गर्भ में रहते हुये माताको कुछ भी दुःख न हुआ। जिस समय यह पुण्याधिकारी गर्भ में थे। देवियां माताकी सेवा करती थी तथा नानाप्रकार सुन्दर कथाओंसे माताकों प्रसन्न करती व प्रभ करके उत्तर लेती थीं। हजारों मनोहर' सवालोंके जवाय माता अपने ज्ञानयलसे तुरंत देती थी। इसीके प्रमाणमें दो श्लोक दिये जाते हैं कि ध्येयं धीमतां लोके ध्यानं च परमेष्टिनां। . जिनागमं स्वतत्वं वा धर्म्य शुक्लं न चापरं ॥ २७॥ के चौराः दुर्द्धराः पुसां धर्मरत्नापहारिणः । । पंचाक्षाः पापकारः सर्वानर्थविधायिनः ॥ ५० ॥ . भावार्थ:-प्रश्न-इस लोकमें ध्यान करने योग्य क्या है ? उत्तर पंच परमेष्ठीका ध्यान, जिनागम, श्रात्मतत्व व धर्मध्यान तथा शुक्लल्यान, अन्य नहीं। मनुष्योंके सबसे भारी चोर कौन हैउत्तर-धर्मरूपी रलके हरनेवाले व सर्व प्रकार अनर्थ के कर्ता, पाप . के कारण पंचेन्द्रियों के विषय हैं । इस प्रकार सहजहीअनुमान १ मासके पूर्ण हुए और परम शोभित प्रसूति-गृहमें मिती: चैत्र Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ जैनबालबोधक सुदी १३ के दिन श्रीतीर्थकर महाराजका जन्म हुआ । सुत्रर्ण रंग धारी, परम दीप्तिमान, वज्र के समान हड्डी, वेटन और कोलोंको रखनेवाले परम सुडौल सांचेमें ढले कांतियुक्तशरीर पूर्व दिशामें सूर्योदय के समान गर्न स्थानसे उदय हुये । उसी समय इन्द्र देवों की सेना ले भक्तिके अर्थ आया और श्रीमहावीरस्वामीको पेरा.. वत हस्ती पर विराजमान कर सुमेरु पर्वत पर ले गया। वहां उसने क्षीरसमुद्र के निर्मल जलसे स्नान कराया और बड़ा भारी उत्सव किया । तथा वालकका नाम वीर और वर्द्धमान रक्खा गया । अर्थात्- कर्मरूपी शत्रुओंको नाश करेगा इसलिये वीर तथा गुणोंकी वृद्धिका श्राश्रय होनेसे श्रीवर्द्धमान नाम रक्खा । इन्द्रने सुमेरुसे ला मातापिताकी गोद में प्रफुल्लित वदन बालकको सौंपा तब माताने जन्मोत्सव किया-बहुत दान दिया । महावीर बाल्यवस्थामें रंजित मुख चंद्रके समान अन्य निजवयस्क राजपुत्रोंके साथ क्रीड़ा करते चढ़ते हुये । जैसे और बालकों को पांच वर्षकी उम्र में अक्षर प्रारंभ और आठ वर्षकी उम्र में गुरु के पास उपासकाध्ययनादि ग्रंथ पढने पड़ते हैं । उस तरह विद्या पढनेकी श्रीमहावीर बालकको कोई जरूरत नहीं हुई थी क्योंकि पूर्व संस्कार के बलले श्रीमहावीर जन्मसे ही मति श्रुत तथा अवधि इन तीन ज्ञानके धारी थे, जिससे उनके मानके बाहर कोई शास्त्रीय विद्यां ऐसी न थी. जिसे वह पढकर जानें। इससे वे किसीके शिष्य नहीं हुए। जन्महीसे सम्यक्त्वके धारी थे। इससे आत्मा और परका मेदविज्ञान विद्यमान था। अपने आत्माको शुद्ध निश्चय से परमानंदमय ज्ञाता दृष्टा अनुभव करते थे तथा प्रतींद्रियं व 寰 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । स्वाधीन आनंदको ही सुख निश्चय करते थे। इसी कारण पाठ वर्षकी ही उम्रमें स्वामीने गृहस्य योग्य द्वादशवत अपने आप धारण कर लिये और तवसे श्रावक धर्मको पालने लगे। ___ श्रीमहावीर कुमार अवस्थाहीमें बड़े वीर निर्भय और साहसी थे। एक दफे सौधर्म इन्द्रने अपनी सभामें स्वामीके बलकी प्रशंसा की। संगम नामक एक देवको विश्वास न हुआ। वह परीक्षा करनेके लिये एक बड़े भारी काले नागके रूपमें पाया और जहां राजकुमारों के साथ श्रीमहावीर खेल रहे थे, वहां जाकर जिस वृक्षपर वुमार चढ़े थे उसको लिपट गया । अन्य सव राजकुमार भयभीत हो वृक्षसे फूद कर भागे परंतु चीर कुमारको कुछ भी भय न हुश्रा, किंतु उस सर्पको पकड़ कर उसके साथ तरह २ की क्रीड़ा करने लगे। इनके इस तरहके चलको देख वह देव अति प्रसन्न हुश्रा और बहुत भांति स्तुति कर स्वर्गलोक गया । लल्यपत्व और व्रतकी महिमासे पूर्ण उदासोनचित्त महाचीरका मन गृहजालमें उसी तरह ठहरता हुआ जिस तरह एक कमलका पुप्प सरोवर में ठहरता है। सामायिकद्वारा नित्य सिद्धोंका ध्यान करते, वे प्रात्म-अनुभव करते व गृहस्थावस्थामें माता व कुटुंवियोंको आनंदित करते व राज्यकार्य देखते व मित्रोंसे उत्तम गोष्ठी करते हुये स्वामीने ३० वर्ष विता दिये और विवाह करनेकी और विल्कुल ध्यान नहीं दिया। कुमार अवस्थाहीमें पवित्र जीवन विताया । एक दिन काललब्धि श्राने और चारित्र मोहनीय कर्मके विशेष क्षयोपशम होनेपर श्रीमहावीरस्वामी स्वयं. विचार Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ जैनवालबोधककरने लगे । अर्थात् अवधिशागसे स्वामीने यह विचार लिया कि-मैंने इस अनादि संसार में भील. मारोत्र, राजपुत्र तिर्यच नरक मादिके करोडों भव धारण किये हैं और परिभ्रनगा किया है। कहीं पर भी सारता न देख समस्त भोगादि वस्तुओंमें उत्कृष्ट वैराग्यको प्राप्त हुये और मनन करते हुये कि-अहो ! मुक मूदके इतने दुर्लभ दिन इस जगतमं विना महाव्रतके यों हो चले गये। यह भी एक बड़े श्राश्चर्यकी बात है कि मैंने इस भवमें तीन झान काधारीवात्मज्ञानी होकर भी घरमरहकर विना संयनके धारण किये इतने दिन वृथा ही खो दिये। जो लोग ज्ञान पाकर निर्दोष तपका प्रावरण करते हैं उन्हींका शान सफल है, दूसरोंके लिये ज्ञानाभ्यासादि मात्र क्लेशरूप ही है। प्रशानपूर्वक किया हुआ पाप तत्त्वज्ञानसे नष्ट होता है परंतु ज्ञानपूर्वक किया हुधा पाप यहां किस तरह नष्ट हो । ऐला जानकर ज्ञानवानोंको कोई भी पाप नहीं करना चाहिये, क्योंकि मोहसे दुद्धर राग और प्राण जानेपर भी मोहादि निधकर्मरूप द्वेष उत्पन्न होते हैं। जिनके वश होकर यह प्राणो महाघोर पाप कर लेता है और पापने. चिरकाल दुर्गतिमें दुःख पाता है । ऐसा जानकर शानियोंको उचित है कि पहले प्रगट वैरान्यरूपी खड्गसे सर्व अनर्यके कारण दुष्ट मोहरूपी शत्रुओंका संह र करें। अहो ! इस मोहका जीतना गृहस्थियोंसे नहीं हो सकता इसलिये पापके समान गृहके बंधनको भी दूरसंबोड देना चाहिये। वे ही इस जगतम पूज्य महान और धैर्यवान है-जो युवा प्रव- . स्थामें दुर्जय कामरूपी शत्रुको अच्छी तरह नाश कर डालते हैं। -.- ... ... .:: :: .. ........ . Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग २३५ क्योंकि यौवनसे कामादिभाव बढ़ते हैं और पांच इन्द्रियरूपीचोर परम विकारको प्राप्त हो जाते हैं। राज्यलमीके सदृश गृहवासको कैदखानेके समान जानकर स्वामीने इसको त्यागकर तपोवनमें जानेका दृढ निश्चय किया। दृढ़ निश्चय करके भगवान अपने माता, पिता प्रादि संबंधियों से मोह हटा अपने प्रात्मामें स्थिर हो, अपना स्वरूप अनुभवः करने लगे-और वैराग्यकी माता-संवरके कारण ·१२ भावनाओं का चितवन करने लगे--अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, प्रशुचि, मानव, संवर, निर्जरा. लोक, वोधिदुर्लभ, और धर्म इनका भिन्न २ प्रकारसे स्वरूप विचारते हुप, चैराग्यरसमें भीज गए और इस शरीरसे स्वरूप सिद्धिका ही निश्चय किया। कि-"यदि इस अपवित्र शरीरसे पवित्र गुणों के समूह केवल शात केवलदर्शनादि सिद्ध हो सके हैं तव इस कार्यके करनेमें विचार ही क्या करना। ___ वश! आप उद्यमी होगप-लौकांतिक देव पांचवें ब्रह्मस्वर्गसे: आकर आपकी अति प्रशंसा करने लगे-इन्द्रादिक देव श्राएअति मनोहर पालकी में प्रभुको विराजमान किया-भूमिगोचरीत्र विद्याधर राजा तथा इन्द्रादिक देव सर्व मिलके प्रभुकी सवारी राज्यांगणसे लेकर बडे जलूसके साथ नगर बाहर जाते हुए . नगरके नरनारी देख कर अति आश्चर्य करने लगे कि धन्य है कुमार, इन्होंने विना विवाह कराये व राज्य किये हो तपधारणका संकल्प कर लिया। राजा सिद्धार्थ त्रिज्ञानी थे-ऐसा ही होनेवाला था। ऐसा विचार कर शांतिसे चुप रहे । परंतु माता प्रियकारिणी Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ जैनवालयोधकको मोहकर्मका तीव्र उदय हो आया और अनेक बंधु व सखियों के साथ रोती हुई पालकीके पीछे २ दौड़ती हुई चल पड़ी। माताको विह्वलचित्त और नगरके वारह तक आते हुए देख 'जलूसके संगमें जो महान पुरुप थे उन्होंने इस तरह समझाया। हे देवी! क्या तू जगत् गुरु अपने पुत्रका चरित्र जानती है ? यह तीन जगतका गुरु अद्भुत पराक्रमी है। यह प्रात्मछानी तीर्थकर संसार समुद्र में गिरते हुये अपने प्रात्माको पहले 'उद्धार करके उसके बाद बहुतसे भव्य जीवोंका उद्धार करेगा। हे शुभे! तेरे पुत्रका संसार अति ही निकट रह गया है, यह जगत को तारने समर्थ है सो दीन पुरुपकी नाई किस तरह घरमें प्रेम कर सकता है। इन वचनोंने माताके परिणामोंको बदल दिया। उसका शोक सारा जाता रहा और संसारका स्वरूप विचार अति धर्मानुराग सहित भर्मको हृदयमें रखती हुई वधुवर्ग और सखियों सहित अपने मंदिरको लौटी। भगवानकी पालकी वनखंड नामके वनमें पहुंची वहां प्रभुने एक स्फटिक शिला पर विराजमान हो अपने वस्त्राभूपण सर्व उतार दिये और "ओं नमः सिद्धेभ्यः" कह सिद्धोंको नमस्कार कर अपनी ही मुट्ठियोंसे अपने केशोंको घासको तरह उपाड़ डाला और नग्न वालकके समान मुद्रा धार तेरह प्रकार चारित्र मिती मार्गशीर्ष वदी १० के दिन धारण कर लिया। उस समय भगवान ताये हुये सुवर्णके समान शरीरकी प्रभा को धरनेवाले, जन्म समयके नग्नरूप धारी, स्वभावसे ही प्रति Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७. चतुर्थ भाग। कांति और दीप्ति सहित तेजकी राशिके समान प्रकाशित होते हुए। स्वामी मुनिधर्मकी क्रियायोंको पालते हुए विहार करते हुए । प्रथम आहार कूलके स्वामी कुलाभिध राजाने दिया। दान नेते समय वीतराग हृदयके धरनेवाले तीर्थंकर वर्द्धमान रागादि भावोंको दूरसे ही त्याग करके हाथों को ही पात्र करके खडे हुये ! __ दीक्षा लेनेके वाद प्रभु आहारादिको अति तुच्छ कामना करते हुए शक्तिके अनुसार अपने आत्मध्यानमें मग्न होगये । उप-. देश देनेकी भी प्रवृत्ति छोड रात्रि दिन आत्मसमुद्रमें ही स्नान , करते हुए कभी २ गावोंमें जाकर शुद्ध पाहार ग्रहण करते हुए। प्रभुने एकाकी विना किसी वाहनके पैदल अनेक देश शहर 'प्रामों में विहार किया जिससे निस्पृहता रहै और ध्यानकी सिद्धि होसके। विहार करते करते आप एकदफे मालबाकी उज्जैनी नगरी के वाहर लशान भूमिमें जा पात्मध्यानमें तल्लीन हो गए-उज्जैनी में ११ वें रुद्र स्थाणु निवास करते थे इनकी ही स्त्रीका नाम पार्वती था। ये पहिले बहुत बड़े तपस्वी थे । जव इनको मंत्रादि विद्याएं सिद्ध होगई तब ये कामाशक हो विचलित हो गए और त्रियों में अनुरक्त हो रहने लगे ! स्मशानमें श्रीमहावीरस्वामीको परम सुन्दर यौवनवान ध्यानमग्न देखकर आप विचार करते हुए कि ऐसे पुरुषका मन कितना ध्यानमें दृढ है इस घातकी परीक्षा करना योग्य है । वस! पाप अपनी विद्याके वलसे नानाप्रकारके उपसर्ग करने लगे-सपो और विच्छूओंका उसना. Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २३८ जनवालवांधकधूल, मिट्टीपानीका बरसना, विजलीफा कडकना, स्त्रियोंका हावं भाव, शंगार दिखाना, डांस मच्छरोंका काटना, पिशाचोंका 'नाचना आदि-घंटों तक स्थाणने अनेक उपाय किये कि किसी तरह प्रभुका मन ध्यानसे चलायमान करें और उनके क्रोधादि "पैदा हो जावे । परंतु जैसे सुमेरु पर्वतको वनके श्राघात किसी भी प्रकारकी हानि या बाधा नहीं करसते इसीतरह श्रीमहावीर के चित्तको यह उपसर्ग क्षामित न करसका। उन्होंने अपने आत्माको अजर, अमर, अविनाशी, अच्छेद्य अनुभवकर शरीर की क्रियानोंको पुद्गलकी क्रिया जान कुछ भी क्षोभ न किया। स्थालु अपनी परीक्षामें हार गया-हाथ जोड मस्तक नमा खडा हो गया और अनेक प्रकार बीननी कर क्षमा मांगता हुआ'श्रीगुरुने उत्तम क्षमा धर्मकोही स्थिर रक्खा। प्रभु नगरके बाहर ५ दिन और ग्रामके बाहर तीन दिनसे 'अधिक नहीं ठहरते थे । यहाँसे विहार करते २ आप कोसावी 'नगरीमें पधारे । यहाँ एक सेठ ऋषभसेन बहुत धनी था उसके वशीला नगरीके राजा चेटककी कन्या प्रति गुणवती पतिव्रता 'चंदनासती पुत्रीके भावमें निवास करती थी। उसको अति “रूपवान जान एक विद्याधर विमानमें बैठ कर श्राकाशमार्गसे ले गया था। पीछे इस कामको प्रति निंद्य समझ उसे वनमें छोड गया था। वही सती अपने शोलकी रक्षा करती हुई कौसावी नगरीमें श्राई । वहां इस सेठने दया करके रक्षित किया। परन्तु इसकी स्त्री समुद्राने यह आशंका.कर कि सेठजी इसे स्वस्त्री बनाना चाहते हैं इसको.अपने कुटुम्बसे अलग मकानमें · रख Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । L दिया और नित्य प्रति दले हुये कोदों व जलही भोजनको भेजना शुरू किया। वह श्राविकाके पट् कर्म देवपूजा गुरु उपास्ति स्त्रान्याय, संयम तप और दानमें चतुर थी। दान देनेके अर्थ निय - मध्याह्न कालके पूर्व द्वारापेक्षण करती थी। पुण्ययोगसे श्रीवर्द्ध-मान स्वामी उधर ही आ निकले । सतीने अति नम्र हो आहार 'पानी शुद्ध 'प्रत्र तिष्ठ तिष्ठ तिष्ठ ' तीन बार कहा । स्वामी उसी ओर बढे, आंगण में गये । सतीने नवधाभक्ति सहित उसी कोदों 'और जलका आहार स्वामीको दिया | स्वामीके पुग्यके प्रतापसे. कोदों के पुल खीरके रूपमें परिणत होगये । निरन्तराय थाहार होनेसे देवोंने रत्नादिकी वृष्टि की। सती चंदनाके दानकी प्रति महिमा विस्तरी । उसने श्राजन्म कुमारिका रहनेका निश्चय किया । श्रीवर्द्धमानस्वामीने इस तरह - ध्यानका अभ्यास करते हुये १२ वर्ष पूर्ण किये । तत्पश्चात् विहार करते हुए प्रभु मिती वैशाखशुक्ल १० अप-राहके समय जंभिका ग्राम के बाहर ऋजुकूला नदीके तट पर - शालभू वृक्षके नीचे ध्याकर ध्यानमें मग्न हो गये । छठे, सातवें 'गुणस्थानसे सातिशय अप्रमत्त हो क्षपकश्रेणी चढे | अंतर्मुहूर्त्त ' में आठवे, नवमें, १० वे गुणस्थान चढ़ संपूर्ण मोहनीय कर्मको - नाश किया । फिर १२ वे गुगास्थान में अंतर्मुहूर्त्त ठहरकर ज्ञानावरणी दर्शनावरणी और अंतरायका नाश कर केवलवान प्राप्त 'किया। उस समय भगवान सर्वज्ञ वीतराग जीवनमुक्त परमात्मा हुए। अनंत ज्ञान दर्शन वीर्य और अनंतसुखके स्वामी हो गये । इन्द्रादि देवोंने समवशरण रचा उसमें प्रभु अंतरीक्ष सिंहा Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० जैनघालवोधकसन पर उच्च विराजे । भगवत्के दर्शनार्थ विदेह देशमें प्रसिद्ध इन्द्रभूति, वायुभूति, अग्निभूति, नामके बड़े दिग्गज ब्राह्मण पंडिट अपने सैकडों शिष्योंको लेकर आये और प्रभुके शिष्य (जैन) हो गये । श्रीप्रभुके शिप्य २८००० मुनि और ३६००० अर्जिकाएं तथा एकलाख श्रावक व तीन लाख श्राविकाएं थीं। इन सबमें मुख्य इन्द्रभूति हुये जिनका प्रसिद्ध नाम गौतमस्वामी था तथा सुधर्माचार्य, वायुभूति अग्निभूति श्रादि २१ गणधर हुये । वहुतसे मुनियों के संघोंके स्वामीको गणधर कहते हैं। तथा अजिकाओंमें मुख्यसती चंदना हुई । श्रीभगवानका दिव्य उपदेश जीवोंके पुराव के उदयसे दिनरातमें चार बार छः २ घडीके लिये धाराप्रवाही मेघकी ध्वनिके समान होता था । इस उपदेशको मनुष्य, स्त्री, पशु, देव, देवी, समस्त १२ सभाओंमें बैठकर अपनी अपनी भाषासे सुनते थे । श्रोताओंमें मुख्य राजगृह नगरका स्वामी राजा श्रेणिक था। प्रभुने ३० वर्ष तक अनेक देशोंमें इसी तरह धर्मोपदेश करते हुये विहार किया और सव जगहोंने हिंसाका प्रचार बन्द कराया। अनेकोंने मिथ्यात्व त्यागा और सम्यग्ज्ञानका लाभ किया । प्रभुकी दिव्यध्वनिमें जो सारगर्भित उपदेश हुआ था। उसको गौतमस्वामी गणधरने प्राचारांग आदि द्वादश प्रकारके महान ग्रंथों में रचा । उन्हींका कुछ अंश प्राधुनिक प्राप्त ग्रंथोंमें उपसन्ध हैं । श्रीप्रभु कार्तिक वदी अमावस्याके प्रातः काल विहार देशके पावापुरीके वनसे शुक्लध्यान द्वारा अघातिया कर्मोंका नाश कर मुक्तिधाममें चले गये । अपने साध्यकी सिद्धि करके परमात्मपद Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य भाग। २४१ का लाम किया। शरीरको छोड़ते ही क्षणमात्रमें शुद्ध प्रात्माने उसी ही ध्यानाकारको धारण किये हुए निर्वाण भूमिकी सीधपर ही जाकर लोकाग्रनिवास किया और अनंत कालके लिये परम मुली हो गये। वह स्थान जहाँसे श्रीप्रभुने निर्वाण प्राप्त किया था सर्व जैनियों से अति माननीय और पूजनीय विहार स्टेशनले ६ मील पोखर पुर (पावापुर) है । उस ग्रामके बाहर एक वृहत् सरोवरके मध्य में एक जिनमंदिर निमापित है जिसमें भगवानकी चरण पादुकाएं शोभायमान है । प्रतिवर्ष निर्वाणके दिन अर्थात् कार्तिकवदी अमावस्याको बड़ा भारी मेला होता है । कलकत्ता, पारा, छपरा रदूर दूरके भनेक यात्री दर्शन पूजनार्थ माते हैं। जिस समय भगवान मोक्ष पधारे उसी दिन गौतमस्त्रामीको जिनको गणघरोंका ईश गणेश कहते हैं केवलमानरूप लक्ष्मीकी प्राप्ति हुई ! इसप्रकार उस दिन इंद्रादिक देवोंने मगवानके शरीरका विधिपूर्वक अग्निसंस्कार करके निर्वाण लक्ष्मीको पूजनकी जिसको मोक्षलक्ष्मी व महालक्ष्मी भी कहते हैं । उसी दिन मनुष्योंने दिन भर दान पूजन संयमादिपूर्वक निर्वाण महोत्सव और केवलहान प्राप्तिका उत्सव किया और रात्रिको यन्नाचारसहित दीपोत्सवपूर्वक नृत्य गीत भजनादि करते हुये रात्रिजागरण किया और घर घरमें नानाप्रकारके मंगलाचरण किये गये। उस दिनसे फिर प्रतिवर्ष भगवानकी स्मृतिके लिये इसीप्रकार ही भगवान की निर्वाणपूनापूर्वक दीपोत्सवपर्व मानने लगे, जिसको दीपा Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालबोधक २४२ वली और लक्ष्मी पूजन भी कहने लगे। उस दिनसे व्यापारी गण भी अपने यहां व्यापारिक नवीन वर्षका प्रारंभ मानने लगे. जिसको आज विक्रम संवत् १६७९ तक २४४७ वीं वर्ष चलता हुआ (जैनी लोग ) मानते हैं । और दक्षिण भारतके गुर्जर महाराष्ट्र 'कर्णाटकादि प्रान्तोंमें प्रव भी वीर स्वामीके निर्वाण दिनके पश्चात् अर्थात् दिवालीसे नवीन वर्षका प्रारंभ माना जाता है और गुजराती पंचांग भी इसी तिथिसे नवीन संवत् प्रारम्भ करते हैं। और हम लोग भी दीपमालिकाके दिन नैवेद्य बनाकर महावीर स्वामीकी निर्वाणपूजा प्रतिवर्ष करते रहते ही हैं । ४३. कर्मसिद्धांत | :*::*: आस्रवबंधका विवरण 1 १३६ | बंधके कारण प्रलव चार प्रकार के हैं । द्रव्यवंधका निमित्त कारण. १, द्रव्यवंधका उपादान कारण २, भावबंधका निमित्तः कारण, भावबंधका उपादान कारण ४ | १३७ । कार्यकी उत्पादक सामग्रीको कारण कहते हैं । कारण दो प्रकारका है । एक समर्थ कारण दूसरा असमर्थ कारण । १ जो लोग रुपये पैसेको लक्ष्मी मानकर पूजते हैं वे भूलते हैं। " २ यह २४४७ का हिसाब अभी तक सर्वजनसम्मत नहिं हुआ है । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । -२४३ १३८ । प्रतिबंधकका प्रभाव होनेपर सहकारी समस्त साम"प्रियोंके सद्भावको समर्थ कारण कहते हैं। समर्थ कारणके होने 'पर अनंतर समयमें कार्यकी उत्पत्ति नियमसे होती है । १३६ । भिन्न भिन्न प्रत्येक सामग्रीको असमर्थ कारण कहते हैं। असमर्थ कारण कार्यका नियामक नहीं है । १४० | सहकारी सामग्री दो हैं । एक निमित्त कारणं, दूसरा उपादान कारण । १४१ । जो पदार्थ स्वयं कार्य रूप नहिं परिणमें, किंतु कार्य उत्पत्ति में सहायक हों उनको निमित्त कारण कहते हैं जैसें 'घटकी उत्पत्ति में कुंभकार, दण्ड, चक्र, श्रादिक । . . १४२ । जो पदार्थ स्वयं कार्य रूप परिणमै, उसको उपादान - कारण कहते हैं | जैसे घटकी उत्पत्ति में मृत्तिका । श्रनादिकाल से द्रव्यमें जो पर्यायों का प्रवाह चला आ रहा है उसमें अनंतर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय उपादान कारण है और अनंतर उत्तरक्षणवर्ती पर्याय कार्य है । '१४३ । कार्माण स्कंधरूप पुल द्रव्यमें आत्माके साथ संबंध होनेको शक्तिको द्रव्यबंध कहते हैं । १४४ | प्रात्मा योग कपायरूप भावको भाव बंध कहते हैं । १४५ । आत्मा के योग कपायरूप परिणाम द्रव्यबंधके निमित्त - कारण है । १४६ | वंध होने के पूर्वक्षण में वंध होनेके लिये सन्मुख हुये 'कर्मा स्कन्धको द्रव्यबंधका उपादान कारण कहते हैं । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · जैनवालबोधक१४७ । उदय तथा उदीर्णा अवस्थाको प्राप्त पूर्ववद्ध कर्म भाकः वंधका निमित्त कारण है। १४८ । भावबंधके विवक्षित समयसे अनंतर पूर्व सणवर्ती: योग कषाय रूप प्रात्माफी पर्याय विशेपको भावभका उपदान कारण कहते हैं। १४६ । द्रव्यवंधके निमित्त कारण अथवाभावबंधके उपादान कारणको भावानव कहते हैं। १५०। द्रव्यवंधके उपादान कारण अथवा भावबंधके निमित्त कारणको द्रव्यानव कहते हैं । १५१ । प्रत्येक प्रकृतिमें मिन्न भिन्न उपादान शक्ति युक्त आत्मा से संबंध होनेको प्रकृति वंध कहते हैं और उन ही स्कन्धोंमें फलदान शक्तिको न्यूनाधिकता होनेको अनुभागवंध कहते है। १५२ । जिस प्रकार भिन्न भिन्न उपादान शक्तियुक्त नानाप्रकारके भोजनों को मनुष्य हस्त द्वारा विशेष इच्छा पूर्वक ग्रहण करता है और विशेष इच्छाके समय उदर पूर्ण करनेके लिये. सामान्य भोजनका ग्रहण करता है, उसी प्रकार यह जीव विशेष कपायके अभावमें योगमात्रसे केवल साता वेदनीयरूप कमकीप्रहण करता है परंतु वह योग यदि किसी कषायसे अनुरंजित हो तो अन्यान्य प्रकृतियोंका भी बंध करता है। १५३ । प्रकृतिबंधके कारणत्वकी अपेक्षासे प्रास्रवके पांव भेद है-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, और योग । १५४ । मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे प्रदेवमें देवबुद्धि, अतत्वः Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नतुर्थ भाग । मैं तत्त्व वृद्धि, धर्ममें धर्मबुद्धि, इत्यादि विपरीताभिनिवेशरूप जीवके परिणामको मिथ्यात्व कहते हैं । १५५ । मिथ्यात्व के पांच प्रकार हैं-ऐकांतिक मिथ्यात्त्व, विपत मिथ्यात्व सांशयिक मिथ्यात्त्व, प्राज्ञानिक मिथ्यात्त्व, चैनयिक मिथ्यात्त्व, । १५६ | धर्म धर्मके "यह ऐसा ही है अन्यथा नहीं" इत्यादि अत्यन्त अभिसन्निवेशको ( अभिप्राय ) ऐकान्तिक मिथ्यात्त्व कहते हैं। जैसे बौद्ध मतावलंबी पदार्थको सर्वथा क्षणिक मानता है । , २४५ १५७ | सग्रंथ निग्रंथ है, केवली ग्रासाहारी है, इत्यादि रुचि को विपरीत मिथ्यात्व कहते हैं । १५८ । धर्मका अहिंसा लक्षण है या नहीं इत्यादि मतिद्वैविष्य को सांशयिक मिथ्यात्व कहते हैं। १५६ | जहां हिताहित विवेकका कुछ भी सद्भाव नहीं हो, उसको श्राज्ञानिक मिथ्यात्व कहते हैं । जैसे पशुवधको धर्म समझना । १६० । समस्त देव तथा समस्त मतोंमें समदर्शीपनेको वैज्ञा'निक मिथ्यात्व कहते हैं । १६१ | हिंसादिक पापोंमें तथा इंद्रिय और मनके विषय में प्रवृत्ति होनेको प्रविरति कहते हैं । १६२ । प्रविरति तीन प्रकारकी है । अनंतानुबंधिकषायोदयजनित १, अप्रत्याख्यानावरणकपायोदयजनित २, और प्रत्यापानावरण कपायोदय जनित ३ । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैनवालवोधक. १६३ । संज्वलन और नो कपायफे तीय उदयसे निरतिचार चारित्र पालने में अनुत्साह होनेको तया स्वकरको असावधानता को प्रमाद कहते हैं। १६४ । प्रमाद पंद्रह प्रकारका है। विकया ४(स्त्री कथा,.' राष्ट्रकथा, भोजन कथा, राज कथा ) कपाय ४ (संज्वलनके तीव्रोदय जनित क्रोध, मान, माया, लोभ,) इंद्रियोंके विषय ५, निद्रा एक और राग एक । . १६५ । संज्वलन और नोकपायके मंद उदयसे प्रादुर्भूत प्रात्माके परिणाम विशेषको कपाय कहते हैं। १६६ । मनोवर्गणा अथवा काय वर्गणा (आहार वर्गणा तथा कार्माण वर्गणा ) और वचन वर्गणाके अवलंबसे कर्म नोफर्मको ग्रहण करनेकी शक्ति विशेषको योग कहते हैं। १६७ । योग पंद्रह प्रकारका है-मनोयोग ४ सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, उभय मनोयोग, और अनुभव मनोयोग' काय योग ७ ( औदारिक, प्रौदारिकमिश्र, वैक्रियक, वैक्रियक मिश्र, आहारक, आहारक मिश्र, और कार्माण ) वचन योग । (सत्य वचन योग, असत्य वचन योग, उभय वचन योग, और अनुमय वचन योग) ५६८ । मिथ्यात्वनी प्रधानतासे सोलह प्रकृतियोंका बंध होता है। जैसे-मिथ्यात्व, हुंडकसंस्थान, नपुंसक वेद, नरक गति, नरकगत्यानुपूर्वी, नरकायु, असंप्राप्तस्पाटिका. संहनन,. जाति ४ पकेंद्रिय, द्वीन्द्रिय.त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, स्थावर, प्रातप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण। . Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। . २४७ १६६ । अनंतानुवंधि कषायोदयजनित प्रविरतिसे आगे लिखी पचीस प्रकृतियोंका बंध होता है। अनंतानुवंधि क्रोध, मान. माया, लोभ, स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचला प्रचला, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अप्रशस्त विहायोगति, स्त्रीवेद, नीचगोत्र, तियर गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, तिर्यगायु, उद्योत, संस्थान ४ (न्यग्रोध, स्वाति, कुन्जक, वामन ) संहनन ४ (वजनाराच, नाराच, अर्द्धनाराच, और कीलित ) । १७० । अप्रत्याख्यानावरण कषायोदयजनित अविरतिसे दशप्रकृतियोंका बंध होता है । जैसे-अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, मनुष्यगति मनुष्यगत्यानुपूर्वी. मनुष्यायु, औदारिक शरीर, औदारिक प्रांगोपांग, और वज्रवृषभनाराच संहनन । १७१ । प्रत्याख्यानावरण कषायोदयजनित अविरतिसे चार प्रकृतियोंका बंध होता है-प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभका । १७२ । प्रमादसे छह प्रकृतियोंका बंध होता है, अस्थिर, अशुभ, असातावेदनीय, अयशः कीर्ति, अरति और शोकका । १७३ । कषायके उदयसे अठावन प्रकृतियोंका बंध होता है अर्थात् देवायु, निद्रा, प्रचना, तीर्थकर, निर्माण, प्रशस्त विहायोगति, पंचेंद्रियजाति, नैजसशरीर, कार्माणशरीर, थाहारकशरीर, आहारक प्रांगोपांग, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियकशरीर, वैक्रियक प्रांगोपांग. देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, रूप, रस, गंध, स्पर्श, अगुरुलधु, उपघात, पर. घात, उच्छ्वास, स, वादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ . जैनबालबोधक'शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, हास्य, रति, जुगुप्सा, भय, पुरुपवेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ, मतिझानावरण, श्रुतज्ञानावरण. अवधिहानावरण, मनःपर्वयशानावरण, केवलज्ञानावरण, चक्षुर्दर्शनावरण, प्रचतुर्दशनावरण, अवविदर्शनाधरण, केवलदर्शनावरण, दानांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय, वीर्यातराय, लाभांतराय, यशः कीर्ति, और उच्चगोत्र ५८ इन प्रकृतियोंका बंध होता है। ... १७४ । योगके निमित्तसे एक मात्र सातावेदनीयका वंध होता है। १७५। कर्मप्रकृति सब १४८ हैं और वंध होनेका कारण केवल १२० प्रकृतियोंका ही दिखलाया तो प्रश्न हो सकता है कि २८ प्रकृतियोंका क्या हुश्रा इसका समाधान यह है-स्पर्शादि २० की जगह ४ का ही ग्रहण किया गया है इस कारण १६ तो ये घटीं और पांचों शरीरोंके पांचों बंधन और पांच संघातका ग्रहण नहिं किया गया इस कारण दश ये घर्टी और सम्यक् मिथ्यात्व तथा सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व इन दो प्रकृतियोंका बंध नहिं होता है क्योंकि सम्यग्दृष्टी जीव पूर्ववद्ध मिथ्यात्व प्रकृतिके तीन खंड करता है तव इन दो प्रकृतियोंका प्रादुर्भाव होता है बंध नहिं होता इस कारण दो प्रकृति ये घट गई। १७६ । द्रव्यानव सांपरायिक और ईर्यापथके भेदसे दो प्रकारका होता है। - १७७ । जो कर्मपरमाणु जीवके कषाय भावोंके निमित्तसे आत्मामें कुछ कालके लिये स्थितिको प्राप्त हों.उनके आस्रवको साम्परायिक आस्रव कहते हैं। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। १७८। जिन परमाणुओंका बंध, उदय और निर्जरा एक ही समयमें हो, उनके आनवको ईर्यापथ पानव कहते हैं। १७९ । सांपरायिक प्रास्त्रवका कर्ता (स्वामी) कपाय सहित और इर्यापथका स्वामी कपायरहित आत्मा होता है। १८० । शुभयोगसे शुभास्तव और अशुभयोगसे अशुभास्रव होता है। १८ । शुभ परिणामोंसे उत्पन्न योगको शुभयोग और अशुभ परिणामोंसे उत्पन्न योगको अशुभयोग कहते हैं। ४४. राजा श्रेणिक । प्रवसे प्राय: २५०० वर्ष पहिले अर्थात् अंतिम तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामीके समयमें मगधदेशकी राजगृही नगरीमें एक एपश्रेणिक नामका राजा राज्य करता था । मगधदेशको प्राज कल विहारप्रदेश कहते हैं। परन्तुराजगृही नगरीअप भी राजगृही के नामसे प्रसिद्ध है, जो विहारके भागलपुर और पटनेके निकट है। विहारप्रान्तमें उस समय बौद्धधर्मका अधिक प्रचार था, क्योंकि वौद्धधर्मका चलानेवाला गौतमबुद्ध इसी विहारप्रान्तमें ही उत्पन्न हुआ था, और उसके उपदेशोंका वहांपर बहुत प्रभाव पड़ता था। कहते हैं कि, राजा उपश्रेणिक भी वौद्धधर्मावलम्बी ही था। उपश्रेणिककी अभेक रानियां थी, उनमें एक इन्द्राणी नामकी Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जैनवालबोधक मुख्यरानी के गर्भ से श्रेणिकने जन्म लिया था । थेगिक वालकपन से ही अतिशय बुद्धिमान और पराक्रमी जान पड़ता था । उसको मुखमुद्रा देखकर प्रत्येक ज्योतिपी तथा भविष्यद्वक्ता यही कहते थे, कि उपश्रेणिकके पीछे यहां राजा होगा । परन्तु उपश्रेणिकको यह वात इट नहीं थी कि, मेरे राज्य करते अधिकारी श्रेणिक होवे | वह अपने पीछे अपनी प्यारी राणी तिलकावती के पुत्र चिलातीको राजा बनाना चाहता था। क्योंकि तिलकावती से विवाह के प्रथम वह प्रतिक्षा कर चुका था कि, तेरे गर्भसे जो पुत्र उत्पन्न होगा, वही राजगृहीका राजा होगा। इसलिये उसने एक. झूठमूठ अपराध लगाकर श्रेणिकको देश निकाला दे दिया। श्रेणिकको वालकपनसे वौद्धधर्ममं श्रद्धा नहीं थी. परन्तु राजगृहीसे निकल कर जब वह नन्दिनामके सभामंडपमें गया और वहां वौद्धगुरु जठराशिका उपदेश सुना तो वौद्धधर्मपर उस का दृढ विश्वास हो गया । नन्दिग्रामसे एक इन्द्रदत्त नामक वणिक् के साथ वह वेणातड़ाग ग्रामको गया और वहां इन्द्रदत्त की बुद्धिमती कन्या नन्दनो के साथ विवाह करके सुख से रहने लगा । वहां नन्दीसे उसके एक परम रूप गुणवाला प्रभयकुमार पुत्र हुश्रा । यहाँ उपश्रेणिक चिलातीपुत्रको राज्य देकर मर गया और चिलातीपुत्र राज्य करने लगा। परन्तु थोड़े ही दिनोंमें उसके अन्याय और अत्याचारोंसे राजगृहीकी प्रजा ऊब उठी, इसलिये राज्य के मंत्रियोंने श्रेणिकके पास एक पत्र भेजकर उसे बुला लिया और अपना राजा बना लिया । श्रेणिक सुखसे राज्य करने लगा, और चिलातीपुत्र भयके मारे अन्यत्र भाग गया । f Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। २५१ राजा श्रेणिकके नंदश्रीके अतिरिक्त एक चेलिनी नामकी दूसरी रानी थी, जिसने कि अपने रूप और गुणों के कारण पट्टरानीका पद पाया था। यह वैशाली नगरीके (सिन्धुदेशक ) राजाचेटक की कन्या थी । उस समय सिन्धुदेशमें जैनधर्मका अधिक प्रचार था, वौद्धधर्मका वहां प्रवेश ही हुआ था। राजा चेटक जैनी था, और इसीलिये रानी चेलिनीकी जैनधर्ममें अतिशय प्रीति और श्रद्धा थी। __ राजा श्रेणिकको जैनधर्मसे बहुत घृणा थी. और इस कारण वह चाहता था कि, रानी चेलिनी भी किसी तरह वौद्ध हो जाचे.. परन्तु उसके सब उपाय निष्फल होते थे, क्योंकि वेलिनीके चित्तमें जैनधर्मके आगे वौद्धधर्मका महत्व स्थान नहीं पाता था। और यह उसकी शक्तिले दाहरकी बात थी कि, वह चेलिनीका इसी कारणसे तिरस्कार करने लगे, अथवा अपने प्रेमको न्यून कर सके। क्योंकि चेलिनीके रूप और गुण अद्वितीय थे। रानी चेलिनी भी चाहती थी कि, मेरा पति हिली प्रकारसे जनी हो जावे और कल्याणके मार्गमें लग जावे तो बहुत अच्छा हो जिससे मेरे पतिका जन्म सफल हो जावे । इस कारग राजा को प्रतिबोधित करनेके लिये वह भी समय २पर प्रयत्न किया करती थी। ___ एक दिन राजा श्रेणिक शिकार खेलनेको जंगलमें गया था। वहांसे लौटते समय एक स्थानमें यशोधर नामके एक दिगम्बर मुनिको तपस्या करते हुए देखकर उसके हृदयमें धर्मद्वेयको श्राग धधक उठी । इसलिये उसने अपने शिकारी कुत्तोंको मुनिराज Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ जैनवालयोधकपर छोड दिया : परन्तु मुनिके तपके प्रभावसे वे कुत्ते कुछ न कर सके और प्रदक्षिणा देकर मुनिके समीप जा बैठे। तब राजा अतिशय कुपित होकर एक मरा हुआ सांप मुनिके गलेमें डाल कर वहांसे चला आया। तीन दिनतक यह बात उसने सर्वथा छुपा रखी, किसीसे भी नहीं कही, परन्तु चौथे दिन रात्रिको गनी चेलिनीसे जैन मुनियोंकी हँसी करते हुए यह वात भी कह दी। जिसे सुनकर रानीको अतिशय दुःख हुमा। उसने .एक बड़ी भारी आह खींचकर कहा, कि-स्वामिन् ! आपने बड़ा बुरा कर्म किया, व्यर्थ ही आपने अपने आत्माको नरकमें पटका। निम्रय मुनियोंको कष्ट पहुंचानेके समान संसारमें कोई अन्य पाप नहीं है । यह सुनके श्रेणिकने कहा, कि, क्या वे उस सांपको • गलेमेंसे निकालके अन्यत्र नहीं जा सके होंगे? रानीने कहा, नहीं ! वे महामुनि स्वयं ऐसा नहीं कर सकते । जब तक उनका : उपसर्ग निवारण न होगा तबतक वे महामुनि वहां ही अचल ___ यह सुनके मुनियोंकी ऐसी वृत्तिपर बड़ा भारी आश्चर्य किया। इसलिये कौतूहलवश उसी समय अनेक दीपकोंका प्रकाश कराके सेवकों और रानी चेलिनीके साथ राजा श्रेणिक उसी समय वहां गया, जहां उक्त महामुनिको देखा था। पहुंच कर देखा तो, महामुनि ज्योंके त्यों ध्यानस्थ हो रहे हैं, और सांप - भलेमें पड़ा हुआ है। उनकी शांतिमय ध्यानमुद्राको देखकर -रामाका हृदय भक्तिसे भीग गया, रानीने पड़े यत्नके साथ सांपको अलग करके समयोचित पूजा की और शेष रात्रि वहीं "विताई। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। । सूर्योदयके समय रानीने मुनिराजकी प्रदक्षिणा करके और मस्तक ना करके कहा है संसारसमुद्रसे पार उतारनेवाले भगवन् ! है शान्तिमूर्ते ! उपसर्ग दूर हो गया है, हम लोगोंपर अनुग्रह कीजिये । यह सुनकर मुनिराज ध्यानासन छोड़के बैंड गये और नमस्कारके उत्तर में दोनोंकी ओर हाथ उठाकर बोले, तुम दोनों की धर्मवृद्धि होवे । श्रेणिक राजाके हृदयपर इस आशीवादशी बड़ा चोट लगी । वेसोचने लगे,अहो ! मुनिराजके कैसी अद्वितीय क्षमा है, जो मुझ अपराधीमें और परम भक्तिनीमें कुछ, भी भेद नहीं समझते । और में कैसा चाण्डाल ई, जिसने ऐसे. परम पुरुषके गले में सांप डालकर इतना कष्ट पहुंचाया। ऐसा विचार करके वह आत्मघात करनेको तैयार हो गया । परन्तु मानी मुनिने उसके हृदयकी यातको जानके कहा-राजन् ! तुझे पेसा बुरा कर्म करनेको उद्यत नहीं होना चाहिये । मुनिकी ऐसी अपूर्व शक्ति देखकर श्रेणिकका हृदय पलट गया। उसने उसी दिनसे जैनधर्म पालनेकी ठानली और सुखसे राज्य करने लगा। वादको इसके एक कुणक नामका पुत्र उत्पन्न हुआ,राज्य पाते ही श्रेणिकको कैद करके अतिशय दुःख दिया । एक दिन कुणक. अपने इल पापका पश्चात्ताप करता दुआ राजा श्रेणिककों बंदी.. गृहसे मुक्त करने के लिये गया था, परन्तु श्रेणिकको आयु पूर्ण होगई थी, वह लोहपिंजरमें मरा हुआ मिला जिससे कुणकको. वडा पश्चाताप हुआ। इतिहासों में तथा बौद्ध अन्धोंमें राजा श्रेणिक (शिशुनागवशीय) विम्बसारके नामसे और उसका पुत्र कुणक प्रजात-- शधुके नामसे प्रसिद्ध है। प्रजातशत्रु वौदधर्मका उपासक था। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 जैनवालबोधक ४५. छहढाला सार्थ - चौथी ढाल | --**** दोहा | सम्यक श्रद्धा धारि पुन, सेवह सम्वज्ञान । स्वपर घर्थ बहु धर्मजुन, जो प्रगटावन मान ॥ १ ॥ • उस प्रकार से सम्यग्दर्शन धारण करके फिर सम्यग्ज्ञानकी 'आराधना करो यह सम्यग्ज्ञान अनेक धर्मयुक्त निजपर पदार्थोको - प्रकट करने के लिये सूर्यसमान है ॥ १ ॥ शेलाछंद २१ मात्रा | सम्यक साथै ज्ञान होय पै भिन्न अराधो । लक्षण श्रद्धा ज्ञान दुहूमें भेद प्रबाधो ॥ सम्यक कारमा जान, ज्ञान कारज है सोई । युगपत होते हू प्रकाश दीपकतें होई ॥ २ ॥ यद्यपि सम्यग्दर्शनके साथ ही ज्ञान होता है तथापि उसे जुदा ही प्राराधन (धारण ) करना चाहिये क्योंकि दोनोंके लक्षणमें श्रद्धान और जानना इस प्रकार बाधारहित भेद है । सम्यक्त्व ( सम्यग्दर्शन ) तौ कारण है और सम्यग्ज्ञान कार्य है । जैसे - दीपक और प्रकाश साथ २ ही उत्पन्न होते हैं तथापि दीपक - कारण है और प्रकाश कार्य है ॥ तास भेद दो हैं परोक्ष परतछि तिन माहीं । गति श्रुत दोय परोक्ष अक्ष मनतें उपजाहीं ॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । अवधिज्ञान मनपर्यय दो हैं देश तच्छा | द्रव्यक्षेत्र परिमाण लिये जानै जिय स्वच्छा ॥ ३ ॥ सकल द्रव्यके गुन अनंत परजाय अनंता । जानहि एके काल प्रगट केवल भगवंता ॥ उस सम्यग्ज्ञानके परोक्ष प्रत्यक्ष दो भेद हैं। इंद्रिय और की सहायता से पैदा होनेवाले मतिज्ञान और श्रुतज्ञान तौ परोक्ष हैं । और द्रव्य क्षेत्रका परिमाण लिये विशद जाननेवाले 'अवधिज्ञान और मनः पर्ययज्ञान देश प्रत्यक्ष हैं । और द्रव्यके समस्त गुण और भूत भविष्यत् वर्त्तमानकी अनंत पर्यायोंसहित युगपत् (एक साथ ) जाननेवाले केवली भगवानका केवलशान सर्वदेश प्रत्यक्ष है ॥ २५९ ज्ञान मपान न आन जगतमें सुखको कारन | इड परमामृत जन्म नरामृत रोग निवारन ||४| कोटि जन्म तप तपे ज्ञान विन कर्म भरें जे । ज्ञानीके छिन माहि. गुति, सहज टरेँ ते ॥ मुनिव्रत धार अनंतवार, ग्रीक उपजायो । यै निज आतमज्ञान विना, सुख लेश न पायो ॥ ५ ॥ a जिनवर कथिततव, अभ्यास करीजे । संशय विभ्रम मोह त्याग, प्रापणे कखि लीजै !! यह मानुप परजाय सुकुल सुनियो जिनवानी । यह विधि गये न मिलें, सुपनि ज्यों उदधि समानी ॥ -ज्ञानके समान जगतमें अन्य कोई सुख देनेवाला नहीं है। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ जैनपालवोधकशान ही जन्म जरा मृत्यु रोगको नष्ट करनेके लिये परमामृत है। शानके विना अज्ञानी जीव करोड़ों जन्मोंमें तपकरके जितने कर्मों को काटता है उतने कर्म सम्यग्ज्ञानीके मन वचन काय वशमें होने के कारण सहजमे ही नष्ट हो जाते हैं । यह जीव मुनिव्रत धारण करके अनंतवार नव ग्रैवेयकोंमें उत्पन्न हुआ परंतु पात्मज्ञानके विना लेशमात्र भी सुख नहिं पाया। इस कारण जिनंद्र भगवान द्वारा कथित तत्त्वोंका अभ्यास करके संशय विभ्रम विपर्यय इन दोषोंको छोड़कर प्रात्मशानको प्राप्त करना चाहिये। क्योंकि यह मनुष्य पर्याय उत्तम कुल और जिनवाणीका सुनना व्यर्थ ही चले जायगे तो समुद्रमें डूवे हुये चिंतामणि रत्नकी तरह फिर नहि मिलेंगे॥६॥ धन समाज गज बाज, राज तौ काज न आवै । ज्ञान आपको रूप भये, फिर अचल रहावे ॥ तास ज्ञानको कारण स्वपर, विवेक बखान्यों। कोटि उपाय बनाय भन्य, ताको उर मान्यो ॥७॥ धन समाज हाथी घोड़ा राज्य आदि कोई काम नहीं पाते। ज्ञान आत्माका स्वरूप है। उसकी प्राप्ति होनेपर वह निश्चलं रहता है। उस ज्ञानका कारण निजंपरका विवेक करना बताया गया है अतएव हे भव्य ! कोटि उपाय बनाकर भी उस स्वपर विवेकको प्राप्त करो। जो पूरब शिव गये, जाहिं, अब आगे जै है। सो सब महिमा ज्ञानतणी, मुनिनाथ कहै हैं ।। । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। .. २५७ विषय चाह दवदाह, जगतजन भनि दझावै । तास उपाय न भान ज्ञान धन पान वुझावै ॥८॥ मुनियोंके नाथ जिनेंद्र भगवान कहते हैं कि-जितने जीव पहिले मुक्त गये, अव जाते हैं और आगेको जायगे, सो सब जानकी ही महिमा है । पंचेंद्रियों के विषयोंकी चाह है सो दावाग्नि है सो जगतजनरूपी जंगलको जलाती है। ऐसी दावाग्निको बुझानेके लिये, शानरूपी वादलोंके सिवाय अन्य कोई.उपाय नहीं है॥८॥ .. पुण्यपापफलपाहि, हरख विलखो मत भाई। . यह पुद्गल परजाय, उपजि विनसै थिर पाई ॥ .. . लाख यातकी बात यहै, निश्चयः उर लामो। - तोरि सकल जगद्वंदफंद, नित प्रातम ध्याओ ॥९॥ इसके सिवाय हे भाई! पुण्य और पापका फल मिले उसमें हर्ष विषाद मत करो क्योंकि यह पुण्य पाप पुद्गलरूप कर्मकी पर; आय मात्र है सो हमेशह विनसती उपजती रहती है। संक्षेपमें लाख वातकी वात यह है कि अपने इदयमें यह निश्चय लामो कि-जगतके सव इंदफंदं तोड़कर नित्य पात्माका ही बान, करना चाहिये ॥ ६॥ : सम्यग्ज्ञानी होय, बहुरि,. दृढचारित लीजै। . एक देश,अरु सकल देश, तस मेद कहीजे ॥ असहिंसाको त्याग- वृथा, थावर न संपा। .. परवरकार कठोर निंद्य, नहि वैन उचारै ॥ १० ॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ जैनबालबोधक जलमृतिका विन और नाहि, कछु गहै अदत्ता। निजवनिता विन सफल नारिसों, रहे विरचा ।। अपनी शक्ति विचार, परिग्रह थोरो राखें । दशदिश गमनप्रमान ठान, तसु सीम न नाल ॥११॥ । उक्त प्रकारसे सम्यग्ज्ञानी हो जाय तव फिर दृढ़ताके साय सम्यक्चारित्रको धारण करना चाहिये । चारित्र एक देश मौर सकल देशके भेदसे दो प्रकारका है। उसमेंसे एकदेश चारित्र कहते हैं। - प्रथम तौ त्रसहिंसाको सर्वथा त्यागना और व्यर्थ स्थावर एकेंद्रिय जीवोंकी भी विराधनाका त्याग करना चाहिये। दूसरा परवध करनेवाले कठोर निंद्य वा असत्य वचन न बोलना। तीसरे जलमृत्तिकाके सिवाय विना दिया हुमा कुछ भी किसी का ग्रहण नहिं करै । चौथे-अपनी स्त्रीके सिवाय अन्य सियोंसे विरक्त रहना चाहिये । और अपनी शक्तिको विचार जहां तक बने थोडा परिग्रह राखै इस प्रकार पांच अंणुव्रतके सिवाय तीन गुण व्रत धारण करना चाहिये । उसमेसे प्रथम तौ दिशावोंमें जितनी २ दूर तक जानेका काम पड़े उतनी दूर तकका परिमाण करके उससे आने जानेका यावजीव त्याग देना सो दिग्बत है। ताहमें फिर ग्राम गली, गृह वागवजारा । । गमनागमन प्रमाण ठान, अन सकल निवारा ॥ काहूकी धनहानि, 'किसीकी जय हार न चित। देय न सो उपदेश होय अष वन कषति ॥ १२॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । करि प्रमाद जलभूमि वृक्ष, पावक न विराधै । श्रसि धनु हल हिंसोपकरण, नहि दे जस लावे || राग द्वेष करतार कया, कबहू न सुनीजै । और हु अनरय दंड हेतु, अघ तिन्हें न कीजै ॥१३॥ २५६ उस दिग्व्रतमेंसे फिर थोड़ेसे कालकी मर्यादासे किसी ग्राम, गली घर बाजार आदि तकको मर्यादा रखकर शेषका त्याग कर रहना चाहिये इसे देशव्रत कहते हैं। तीसरे किसीकी धन हानि किसीकी हार किसीकी जय होना अपने मनसे न चाहै । इसको अपध्यान नामा अनर्थदंड कहते हैं। जिससे पाप हो ऐसे व्यापार और वनज वा खेती करनेका उपदेश नहि देना । इसको 'पापोपदेश अनर्थदंड कहते हैं । प्रमाद के विना प्रयोजन पानी 'बखेरने पृथिवी खोदने, वृक्ष काटने आग जलाने यादिका त्याग -कर देना चाहिये इसे प्रमादचर्या श्रनर्थदंड व्रत कहते हैं। तलवार, धनुष, हल आदि हिंसाके उपकरण यशके लिये मांगे हुये नहि देना इसे हिंसोपकरगादान नामा अनर्थदंडवत कहते हैं और रागद्वेष बढ़ानेवाली कथा कहानीया पुस्तक नहिं सुनना वांचना नहीं । इसे दुःश्रुतिनामा अनर्थदंड व्रत कहते हैं ॥ १३ ॥ घर र समता भाव, सदां सामायिक करिये । पर्व चतुष्टय माहि, पाप तज मोषध धरिये ॥ भोग और उपभोग, नियम कर पमत निवारें । मुनिको भोजन देय, फेरि निज करहि आहारै ॥ १४ ॥ बारह व्रतके भतीचार, पनपन न लगावें । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० . जैनवालबोधकपरन समय सन्यास धारि, तसु दोप नसावे ।। यों श्रावक व्रत पाल, स्वर्ग सोलम उपजावे । तहत चय नर जन्म पाय, मुनि हो शिन जावे ॥१५॥ अव चार शिक्षावतको कहते हैं। प्रथम तौ प्रतिदिन प्रात: काल और संध्याकाल अपने हदयमें समता भाव धर कर सामायिक किया करै । दूसरे-महीनेकी दो आ दो चतुर्दशीके दिन समस्त पापारंभ छोड़कर प्रोषध (एकासना) करना चाहिये । तीसरे भोग उपभोगमें आनेवाले पदार्थोका परिमाण कर लेना चाहिये । चौथे-मुनि आदि अतिथियोंको आहारदान देकर भोजन करै । इस प्रकार चारह व्रत धारण करके सबके पांच २ अतीचार (दोष ) हैं उनकोन लगावै । और मरन समयमें मुनिव्रत धारण.. करै तौ सोलवें स्वर्गको जावै और स्वर्गसे चयकर मनुम्य भवमें मुनिव्रत धारण करके मोक्षको जावै ॥ १५ ॥ ४६. इन्द्रभूतिगणधर । हे बालको ! तुम चौवीसर्वे तीर्थकर भगवान वईमानस्वामी का चरित्र पिछले ४२वें पाठमें पढ़ चुके हो। उसमें तुम्हें बतलाया गया है कि, वर्धमान भगवान्के इन्द्रभूति आदि ११ गणधर थे। इस पाठमें तुम्हें उन्हीं इन्द्रभूतिगणधरका चरित्र पदाया जाता है। .. इन्द्रभूतिका दूसरा नाम गौतम भी है। इसका कारण यह . Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। है कि, इन्द्रभूतिने ब्राह्मणोंके गौतमवंशमें जन्म लिया था और गौतमवंशमें जो उत्पन्न होवे उसको गौतम कहते हैं । उसी समय में अर्थात् जव गौतम गणधर अथवा महावीर भगवान् हुए है, 'एक वुद्धधर्मको चलानेवाला गौतम बुद्ध नामका विद्वान् भी हो गया है । इसलिये कोई कोई लोग दोनोंको एक ही समझते है, 'परन्तु यह भूल है । यथार्थमें ये दोनों जुदे २ हो गये हैं। इन्द्रभूति एक गौतम नामक ग्रामके रहनेवाले गौतम ब्राह्मण थे। इनके वायुभूति और अग्निभूति नामके दो भाई थे। ये तीनों ही भाई वैदिकधर्मानुयायी बड़े भारी विद्वान थे और तीनोंके 'पास पांच पांचसौ शिप्य विद्याध्ययन करते थे। इन्द्रभूतिकी जिह्वापर चारो वेद और छहो शास्त्र नृत्य करते थे। इस कारण उस समयके सम्पूर्ण विद्वानोंमें वे श्रेष्ठ गिने जाते थे। उन्हें अपनी विद्याका गर्व भी इतना था कि, संसारमें अपने सामने विवाद करनेवाला वे किसीको नहीं समझते थे। ___ जव महावीर भगवान्को चारघातिया कौक नाश होनेसे वैशाख शुक्ला १० दशमीफे दिन केवलज्ञान प्राप्त हुधा और इन्द्र की पाशा पाकर कुवेरने जव वहां समवसरणकी रचना की, तथा देवमनुष्यादिकोंकी बारह समा एकत्र हो गई, तव सम्पूर्ण भव्यजीव भगवान्की दिव्यध्वनि सुननेके लिये प्रतीक्षा करने लगे। परन्तु जव ६६ दिन दिव्यध्वनि नहीं खिरी, तव इन्द्रने इसका कारण यह निश्चय करके कि " गणधरके न होनेसे दिव्यध्वनि नहीं खिरती है" गणधरके अन्वेषणकरनेका विचार किया। उस समय अवधिज्ञानसे विचार करके वह गौतम ग्रामको एक Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૬ર जैनपालबोधकविद्यार्थीका वेष धारण करके गया और जहांपर इन्द्रभूति अपने शिष्योंको पढ़ा रहे थे, वहांपर जाकर श्राप भी बैठ गया और उनका व्याख्यान सुनने लगा। उस समय किसी विषयका प्रतिपादन करके इन्द्रभूतिने अपने सम्पूर्ण विद्यार्थियोंको उद्देश करके कहा, क्यों तुम लोगों को समझमें यह विषय आया? तव सव विद्यार्थियोंने प्रसन्नतासे "हां! हां!" कह दिया । परन्तु इन्द्रने जो कि छात्रके ही वेपमें वहाँ था, नाक भौंह सिकोड़कर अपनी अरुचि दिखलाई। जिसे विद्यार्थियोंने देखकर अपने गुरुजीसे कह दिया कि, महाराज ! यह छात्र आपकी अधिनय करता है। तव इन्द्रभूतिने उस अपूर्व छात्रसे कहा कि, मुझे सम्पूर्ण वेद और शास्त्र हस्तामलक हो रहे है, मेरे सामने ऐसा कोई भी विद्वान् वादी नहीं है जो गर्वगलित न हो जावै । फिर क्या कारण है कि, तुझे मेरा व्याख्यान नहीं रुचता है। तव वेषधारी छात्रने कहा कि, यदि आप संपूर्ण शास्त्रोंके तत्त्वोंको जानते हैं तो मैं एक प्रार्याछन्द कहता हूं, श्राप उसका अर्थ लगा दीजिये- "षड्वव्यनवपदार्थत्रिकालपंचास्तिकायषट्कायान् । विदुषां वरः स एव हि यो जानाति प्रमाणनयैः ॥" इस अश्रुतपूर्व और विषम अर्थको कहनेवाली प्रार्याको . १ भावार्थ:-छह द्रव्य, नौपदार्थ, तीन काल, पांच अस्तिकाय, और छहकायोंको जो प्रमाण और नयपूर्वक जानता है, वही पुरुष विद्वानोंमें. श्रेष्ठ है। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । ર सुनकर उसका यथार्थ अथ समझने में लटपटाते हुए इन्द्रभूतिने कड़ककर कहा कि, पहले यह बतला कि तू किसका शिष्य है ? इन्द्रने कहा कि, मैं जगद्गुरु श्रीवर्धमानस्वामीका शिष्य हूं। तब इन्द्रभूति कहने लगा कि, श्रोह ! क्या तू उस इन्द्रजालके जानने वाले और आकाशमार्गमेंसे श्राते हुए देवताओंको दिखलानेवाले सिद्धार्थनन्दन (सिद्धार्थ राजाके पुत्र) का शिष्य है ? अच्छा तो चल मैं उसीके साथ शास्त्रार्थ करूंगा। तेरे साथ विवाद करनेस मेरा अपमान होता है क्योंकि तू विद्यार्थी है। यह सुनकर इन्द्रने अपना प्रयोजन सिद्ध हुआ जानकर प्रसन्नतासे कहा कि, अच्छा! आइये, मेरे गुरूके पास चलिये। तब इन्द्रभूति थपने दोनों भाइयों और शिष्यों के साथ इन्द्रको आगे करके समवसरण में माया जहां मानस्तंभोंको देखते ही उसका और उसके भाइयों' का गर्व गलित हो गया । भगवान्‌ के समवसरण में जो मानस्तंभ रहते हैं, उनका ऐसा अतिशय होता है कि, उनको देखने पर कोई कैसा हो मानी क्यों न हो अपने गर्वको भूलकर विनयी बन जाता है। पश्चात् इन्द्रभूतिने अपने भाइयों सहित भगवान् की प्रदक्षिणा देकर भक्तिपूर्वक स्तुति की और तत्काल ही संपूर्ण परिग्रहों को छोड़कर जिनदीक्षा ले ली। ये ही इन्द्रभूति मुनि मन:पर्ययज्ञान और सात ऋद्धिके धारी होकर भगवान् के गणधर होगये। भगवान्‌की दिव्यध्वनि खिरने लगी मौर इन्द्रभूति गणधर उसको श्रवण करके द्वादशांग रचना करके भव्यजीपको सुनाने लगे । बहुत कालतक धर्मोपदेश करके भगवान् महावीर तो मोक्ष ܐ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनालबोधकको पधारे और इन्द्रभूतिगणधरने शुक्लध्यानके प्रभावसे केवल शान प्राप्त करके १२ वर्षतक धर्मोपदेश किया और अन्तमें अविनाशी मोक्षपदकी प्राप्ति की।. : ... . ४७. जीवके असाधारण भावादि। . : : : - S: - . ...१। जीवके श्रीपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशामिक, औदयिक और पारिणामिक इस प्रकार पांच असाधारण भाव है। - जो किसी कर्मके उपशमसे हो, उसे औपशमिक भाव कहते हैं । औपशमिक भाव दो प्रकारके होते हैं। एक सम्यक्त्व भाव, दुसरा चारित्र भाव। : .... .:.३। जो किसी कर्मके क्षयसे उत्पन्न हो उसे 'सायिकभाव कहते हैं। क्षायिक भाव नौ प्रकारका है। क्षायिक सम्यक्त्व, शायिफेचारित्र, क्षायिकदर्शन; नायिकशान, क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, नायिकभोग, क्षायिक उपभोग और. क्षायिकवीर्य।. . . . ४.जो कर्मोंके क्षयोपशम होनेसे हो, उसको क्षायोपशमिकभाव कहते हैं । क्षायोपशमिक भाव अंठारह प्रकारका होता है। सम्यक्त्व, चारित्र, चंचुर्दर्शन; अंचतुर्दर्शन, अवधिदर्शन, देशसंयम, मतिज्ञान, श्रुतंझान, अंबंधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, कुमति शीन, कुंश्रुतज्ञान, कुअंबंधिज्ञान, दान, लाभ; भोग, उपभोग . वीय। .. ५। जो काँक उदयसे उत्पन हो उसे औदयिकभाव कहते Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । २६५ है। (औडयिकमांच इक्कीस प्रकारके होते हैं, -यथा गति ४ कपाय ४ लिंग ३ मिथ्यादर्शन १ असंयम १ असिद्धत्व १ लेम्या ६ ( पीत, पद्म शुक्ला, कृष्ण, नील, कापोत) ६ | जो उपशम, क्षय, क्षयोपशम वा उदयको अपेक्षा न रखता हुआ जीवका खास स्वभाव मात्र हो उसको पारिणामिक भाव कहते हैं । पारिणामिक मात्र तीन हैं । जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व | ७ 1 कंपायके उदयसे अनुरंजित योगोंकी प्रवृत्तिको भाव भ्यां कहते हैं और शरीर के पीत पद्म आदि वर्ण होनेकी द्रव्य लेश्या कहते हैं । ८ । जीवके लक्षणरूप चैतन्यानुविधायो परिणामको उपयोग कंदते हैं | उपयोग दो प्रकारका है। एक दर्शनोपयोग दुसरा ज्ञानोपयोग । ६ । दर्शनोपयोग चार प्रकारका है-चतुर्दर्शन, अचतुर्दर्शन, अवधिदर्शन, और केवलदर्शन | १० । धानोपयोग आठ प्रकारका है । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवविज्ञान, मनः पर्ययज्ञान, केवलज्ञान, कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, और कुप्रवधिज्ञान । ११ । अभिलाषा या वहाको संज्ञा कहते हैं। संज्ञा चार हैंआहारसंज्ञा, भवलक्षा, मैथुनसंज्ञा, और परिग्रहसंज्ञा । १२ | जिन-जिन धर्म विशेषोंसे जीवोंका अन्वेषण (खोज) किया जाय उन उन धर्म विशेपोंको मार्गणा कहते हैं । मार्गणा चौदह प्रकार है गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कपाय, ज्ञान, Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ जैनवालबोधकसंयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संबित्व, आहार । १३ । गतिनामा नामकर्मके उदयसे जीवकी पर्याय विशेषको गति कहते हैं। गति चार है-नरकगति, तियचगति मनुष्यगति, देवगति। १४। प्रात्मा लिंगको (चिह्न) इन्द्रिय कहते हैं। इन्द्रिय दो प्रकारको है। द्रव्येद्रिय और भावेंद्रिय । १५ । निवृत्ति और उपकरणाको द्रव्येद्रिय करने है। १६ । प्रदेशोंकी रचना विशेषको निवृत्ति कहते हैं । निर्वृत्ति दो प्रकारकी होती है। १ वाहानिवृत्ति २ आभ्यन्तर निवृत्ति । १५ इन्द्रियों के आकाररूप पुद्गलकी रचनाविशेषज्ञो वाय निवृत्ति कहते हैं। १८ । आत्माके विशुद्ध प्रदेशोंकी इन्द्रियाकार रचनाविशेषको आभ्यन्तर निवृत्ति कहते हैं। १६ जो निवृत्तिकी रक्षा (उपकार) कर उसे उपकरण कहते हैं। उपकरण भी वाह्य आभ्यंतरके भेदसे दो प्रकारका है.! __२० : नेत्रंद्रियमें पलकवगेरहकी तरह जो निवृत्तिका उपकार करै, उसको वाह्योपकरण कहते हैं। . २९ नेत्रंद्रियमें कृष्ण शुक्ल मंडलकी तरह सब इन्द्रियों में जो निवृत्तिका उपकार करै उसको श्राभ्यन्तर उपकरण कहते हैं । २२। लब्धि और उपयोगको भावेंद्रिय कहते हैं । - २३: ज्ञानावर्ण कर्मके क्षयोपशमविशेषको लब्धि कहते हैं और क्षयोमशम हेतुक चेतनाके परिणाम विशेषको उपयोग कहते हैं । २४ । द्रव्यद्रिय पांच प्रकारकी है-स्पर्शन, रसना, घ्राण, Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। चक्षु और श्रोत्र। २५ जिसके द्वारा आठ प्रकारके स्पीका धान हो, उसे स्पर्शन इन्द्रिय कहते हैं। ___ २६ । जिसके द्वारा पांच प्रकारके रसका (स्वादका ) हान हो, उसे रसनेंद्रिय कहते हैं। ___ २७ । जिसके द्वारा दो प्रकारको गंधका (सुगंध दुर्गधका ) शान हो, उसको ब्राणद्रिय कहते हैं। २८ जिसके द्वारा पांच प्रकारके वर्णका शान हो, उसको चक्षुरिद्रिय कहते हैं। २६ जिसके द्वारा सात प्रकारके स्वरोंका भान हो, उसे. धोत्रंद्रिय कहते हैं। ३०। पृथिवी, अप, तेज, वायु, और वनस्पति इन जीवोंके एक स्पर्शन इंद्रिय ही होती है। कृमि आदि जीवोंके स्पर्शन और रसना दो इन्द्रियां होती है। पिपीलिका (चिवटी ) वगेरह जीवों के स्पर्शन, रसना, और प्राण ये तीन इन्द्रियां होती हैं । भ्रमर मतिका वगेरहके श्रोत्रके विना चार इन्द्रियां होती हैं। घोड़े प्रादि पशु, मनुष्य देव और नारकी जीवोंके पांचों इन्द्रियां होती है। ३१ । स स्थावर नाम कर्मके उदयसे प्रारमाके प्रदेश प्रचय, को काय कहते हैं। ३२ । स नामा नामकर्मके उदयसे द्वींद्रिय श्रींद्रिय, चतुः रिद्रिय और पंचेंद्रियों में जन्म लेनेवाले जीवोंको उस कहते हैं। ३३१.स्थावर नामकर्मके उदयसे पृथिवी, अप, तेज, घायुः Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ जैनवालवाधकऔर वनस्पतिमें जन्म लेनेवाले जीवोंको स्थावर कहते है। ३४। पृथिवी आदिकसे रुक जाय वा दूसरोंको रोकै उसको 'चादर जीव कहते हैं। ३५ । जो पृथिवी श्रादिकसे स्वयं न रुकै और न दुसरे पदार्थो को रोकै, उसको सूक्ष्म जीव कहते हैं। __ ३६ । शरीरका जो एक हो स्वामी हो उसको प्रत्येक धनस्पति कहते हैं, प्रत्येक वनस्पति सप्रतिष्ठित अप्रतिष्टित भेदसे दो प्रकारका है। ___३७। जिस प्रत्येक वनस्पतिके आध्रय अनेक साधारण वनस्पति शरीर हों उसको सप्रतिष्टित प्रत्यक बनस्रति कहते है। ३८ । जिस प्रत्येक वनस्पतिके श्राश्रय कोई भी साधारण वनस्पति न हो, उसको अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं । ३६ | जिन जीवोंके श्राहार, श्वासोच्छ्वास, प्रायु और काय ये साधारण (समान अथवा एक ) हों उनको साधारण कहते हैं। जैसे कंद मूलादिक। ४० । पृथिवी अप, तेज, वायु, केवली भगवान, आहारक शरीर, देव, नारकी इन पाठको छोड़कर समस्त संसारी जीवोंक शरीरोंमें साधारण अर्थात् निगोद रहता है। निगोद दो प्रकार का है। एक नित्यनिगोद दूसरा इतरनिगोद । ४१जिसने कभी भी निगोदके सिवाय दूसरी पर्याय नहि पाई अथवा जिसने कभी भी निगोदके सिवाय दुसरी पर्याय न तौ पाई और न पावैगा उसको नित्यनिगोद कहते हैं। ४२ । जो जीव नित्यनिगोदसे निकलकर दूसरी पर्याय पाकर Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । फिर निगोद में उत्पन्न हो, उसको इतर निगोद कहते हैं । ४३ । पृथिवी, अपू, तेज वायु, नित्यनिगोद और इतर निगोद ये ६ बादर और सूक्ष्म दोनों प्रकारके होते हैं । वाकीके सब जीव बादर ही होते हैं सूक्ष्म नहि होते | ર ४४ । पुलविपाकी शरीर अंगोपांग नामा-नामकर्मके उदयसे मनोवर्गणा, वचनवर्गणा, तथा कायवर्गणाके अवलंबनसे कर्म नोर्म ग्रहण करनेकी जीव की शक्तिविशेषको भावयोग कहते हैं इस ही भावयोग निमित्तसे आत्मप्रदेशके परिस्पंदको (चंचल होनेको ) द्रव्ययोग कहते हैं। योगके भेद पंद्रह है-मनोयोग ४ वचनयोग ४ और काययोग ७ । ४५ । नोकपायके उदयसे उत्पन्न हुई जीवके मैथुन करनेकी अभिलाषाको भाववेद कहते हैं और नामकर्मके उदयसे आविर्भूत जीवके चिह्नविशेषको द्रव्यवेद कहते हैं । वेद तीन प्रकारका होता है । स्त्रोवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद । ४६ । जो आत्मा के सम्यक्त्व, देशचारित्र, सकलचारित्र और यथास्यात चारित्र रूप परिणामोंको वातै, उसको कपाय कहते हैं कषाय ४ प्रकारके हैं-भनंतानुवधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्यास्थानावरण और संज्वलन । ४७ | ज्ञानमार्गणा - मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, केवल तथा कुमति, कुश्रुत, कुप्रवधि भेदसे आठ प्रकारकी है। ४८ । अहिंसादि पांच व्रत धारण करने, ईर्यापिय आदि पांच समितियों को पालने, कांधादि कपायोंके निग्रह करने, मनोयोगादि तीनों योगोंको रोकने, स्पर्शन आदि पांचों इन्द्रियोंके विजय Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० जैनवालवोधक- . करनेको संयम कहते हैं। संयम-सामायिक, वेदोपस्थापना, 'परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसापराय, यथाख्यात, संयमासंयम और 'असंयम भेदसे सात प्रकारको है । ____४६ । दर्शनमार्गणा, चक्षुर्दर्शन, अचतुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन भेदसे चार प्रकारकी है। ५०। लेश्या मार्गणा कृष्ण, नील, कापोत, पोत, पद्म, शुक्ल भेदसे छह प्रकारकी है। ५१। भव्यमार्गणा भव्य श्रभव्य भेदसे दो प्रकारको है। .. ५२ । तत्त्वार्थ श्रद्धानको सम्यक्त्व मार्गणा कहते हैं। सम्यः । क्व मार्गणा ६ प्रकारको है। उपशम सम्यक्त्व, क्षयोपशम सम्य. 'यत्व, क्षायिकसम्यक्त्व, सम्यमिथ्यात्व,सासादन और मिथ्यात्व ! ..५३ । जिसमें संज्ञा हो उसको संझो कहते हैं। द्रव्य मनके द्वारा शिक्षादि ग्रहण करनेको संशा कहते हैं । संघीमार्गणा संत्री असंक्षी भेदसे दो प्रकारकी है। .। ५४ । औदारिक आदिक शरीर.और पर्याप्तिके योग्य पुद्गलों के ग्रहण करनेको आहार कहते हैं । आहार मार्गणा पाहारक अनाहारक भेदसे दो प्रकारकी है। . ५५ । विग्रहगति और किसी २ समुद्घातमें और प्रयोग केवली अवस्था में जीव अनाहारक होता है। ५६ जन्म तीन प्रकारका होता है। उपपाद जन्म, गर्भजन्म, और सम्मूर्छन जन्म। +५७। जो देवोंकी उपपादशय्या तथा नारकियोंके योनि स्थानमें (उत्पत्ति स्थानमें) पहुंचते अंतर्मुहूर्तमें युवावस्थाको Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ चतुर्थ भाग। प्राप्त हो जाय उस जन्मको उपपाद जन्म कहते हैं। ५८। माता-पिताके श्रोणित शुक्रसे जिनका शरीर धनै उनके जन्मको गर्भ जन्म कहते है। ५६ । जो माता-पिताको अपेक्षाके विना घर उधरके परमाणुओंको शरीररूप परिणमावै उसके जन्मको सम्मूर्छन । जन्म कहते हैं। ६० नराकियोंके उपपाद जन्म होता है । जरायुज अंडस पोत ( जो योनिसे निकलते ही भागने दौड़ने लग जाते हैं और 'जिनके ऊपर जेर वगेरह नहिं होतो) जीवोंके गर्म जन्म होता है और शेषजीवोंके सम्मूर्छन जन्म ही होता है। १। नारकी और सम्मूर्छन जीवोंके नपुंसक लिंग होता है। देवोंके पुंलिंग और स्त्रीलिंग और शेष जीवोंके तीनों लिंग होते हैं। . ४८. श्रीसमन्तभद्राचार्य । विक्रम संवत् १२५ के लगभग दक्षिण कांची देशमै व्याकर‘णादि समस्त प्रकारके शास्त्रोंके रचयिता और दुर्दर तपके कर्ता 'श्रीसमन्तभद्र नामके महा मुनि थे। एक समय तीव्र असाता कर्मके उदयसे उनको भस्मक व्याधि हो गई। इस रोगसे जव ११ भस्मक व्याधि होनेसे जितना खाया जाता है. उतना हो भस्म (हजम ) हो जाता है और यह अनेक दिनतक अच्छे २ माल सानेते ही दूर होता है। - Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ . जैनवालवोधकअतिशय दुःखी हो गये, तव एकदिन उन्होंने विचार किया कि, इस रोगणीड़ित अवस्थासे न तो मैं अपना हो कल्याण कर सकता हूं और न जिनशासनका ही उपकार कर सकता हूं. इस कारण सवसे पहिले जिसप्रकार बने. इस रोगको दूर करना चाहिये । शरीर रहेगा तो फिरसे मुनि होकर मैं सब कुछ कर सकूगा परन्तु शरीर नष्ट हो गया तो उभयतः भ्रष्ट हो जाऊंगा। ऐसा विचारकरके अन्तमें यह निश्चय किया कि, इस भेषको छोड़कर कोई ऐसा भेष धारण करना चाहिये, जिससे उत्तमोत्तम गरिष्ठ भोज्य पदार्थ खानेको मिले। लाचार कांची देशको छोड़कर वे उत्तरकी तरफ पुंडूनगरमें बौद्धोंकी आहार दानशाला थी, सो वहां बौद्धसाधुका मेप धारण करके रहने लगे परन्तु यहां पर भी पूरा आहार न मिलनेसे रोगको उपशान्ति न हुई, तव वहांसे निकलकर और भी उत्तरकी तरफ चले. और कितने ही दिनोंमें दशपुर नगरमें आये जिसको हालमें मन्दसौर कहते हैं । यहां पर शैवलोगोंका वडा प्रताप था। शिवधर्मी साधु सन्यासियोंको उत्तमोत्तम भोजनोंसे संतुष्ट करनेके अनेक स्थान थे। सो यहां प्राकर वे शिवलिंगी सन्यासी हो गये । अनेक दिन रहनेपर भी जब भस्मक व्याधि दूर न हुई, तब यहांसे भी निकलकर वे वाराणसी नगरीमें पहुंचे। . . . .: बाराणसीमें उस.समय शिवकोटी नामक राजाका राज्य था शिवकोटी महाराजके बनाये हुए विशाल शिवमंदिरमें नित्य ही अठारह प्रकारके मिष्ट पदार्थोसे भोग लगता था, सो इस मंदिर; को देखकर विचार किया कि, यदि इस मंदिरमें प्रवेश हो जाये. Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग.! :२३ तो मेरा महा क्षुधारोंग दूर हो सकता है। लाचारा उन्होंने योग्य शैवका भेष बनाकर अर्थात् शिवभक बनकर उस मंदिरमें प्रवेश ‘किया और शिवनिर्माल्यको मंदिरसे बाहर फेंका हुआ देखकर वहांके पुजारियोंसे कहां कि, यहाँ पर कोई भी ऐसा समर्थ नहीं हैं, जो भगवान्को आह्वान करके इन उत्तमोत्तम पदार्थोंका भोजन करा दे ? इस प्रकार सुनकर पुजारियोंने कहा कि तुम्हारेमें ऐसी सामर्थ है. जो ऐसा कहते हो? समन्तभद्रस्वामीने कहा कि "वेशक मैं अपनी भक्तिसे भगवान्को इस मंदिरमें अवतरण कराकें सब नैवैद्यका भोग लगा सकता हूं." पुजारियोंने यह बात राजाके कानोंतक पहुंचाई, तो राजाने उस दिन और स्त्रियोंसे उत्तमोत्तम मिठाई बनवाकर उस योगीसे कहा कि आप इन पदार्थोंका भगवान्के भोग लगाइये अर्याद भगवानको अवतरण करा खिला दीजिये। - तब योगिराजने पहिले मंदिरको धुलवाकर पवित्र करवाया और सब नैवेद्य मंदिरमें लेजाकर भीतरसे द्वार बंद कर दिया और सव नैवेद्य स्वयं खा लिया। पश्चात् दरवाजा खोलकर .. सबको बतादिया कि देखो ! भगवान् श्राकर सब नैवेद्य खा गये। सक्ने आश्चर्य किया और समझ लिया कि वेशक भगवान् पाये थे, अन्यथा इतना नैवेद्य कहां जाता। मनुम्यकी, सामर्थ्य नहीं कि, इतना नैवेद्य खा जाये । तब शिवकोटि महाराजने समन्त..भद्रस्वामीको यहाँका पुजारी नियत कर दिया और नित्य उत्तमो सम-पदार्थ एनवाकर भेजना.प्रारंभ कर दिया सोयोगिराज द्वार १८ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રા जैन बालबोधक पसंद करके भगवान्के अर्थात् अपने आप भोग लगा कर भागन करने लगे । इसप्रकार भोजन करते २ जब छह महीने बीत गये तब उन का रोग दूर होने लगा और कुछ कुछ नैवेद्य बनने लगा । तब अन्य पुजारियोंने पूछा कि, भगवान् अब सब नैवेद्य क्यों नहीं खाते ? तय योगिराजने कहा कि भगवान श्रव तृम हो गये सो थोड़ा थोड़ा नैवेद्य छोड़ देते हैं । परन्तु इस जवाब से पुजारियों का दिल नहिं भरा इसलिये उन्होंने यह बात महाराज प्रगट की। महाराजने गुप्तभाव से पनालेकी राहसे एक चालाक और छोटे लड़के को प्रवेश कराकर उसे देखने को कहा। उसने समस्तभद्रको स्वयं भोजन करते देखकर जैसाका तैसा महाराजसे - निवेदन कर दिया । महाराज कुपित होकर योगिराज पुजारीसे वाले कि तुम वडे धूर्त और झूठे हो, जी भगवान्का नाम लेकर स्वयं सबका 'सव प्रसाद उड़ा जाते हो ! और भगवान्‌को नमस्कार भी कभी "नहिं करते ? जान पड़ता है तुम कोई नास्तिक हो । यह सुनकर समन्तभद्रस्वामी कुछ घवराये नहीं और बोले . कि राजन् ! मेरा नमस्कार अष्टादशदोपरहित देव ही झेल सकते । यह मूर्ति मेरा नमस्कार 'भेल नहिं सकती। यदि मैं इसे "नमस्कार करूंगा, तो मूर्ति फट जायगी । राजाने कहा कि मूर्ति फट जांय तो फट जाने दो परन्तु तुमको हमारे सामने नमस्कार करनाही होगा । देखें तुम्हारी • कैसी सामर्थ्य हैं ? योगिराजने कहा कि, यदि मेरी सामर्थ्य ही Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य भाग। । २७५ देखना है, तो आज नहीं कल प्रात:काल ही मैं नमस्कार करूंगा तव देखना। __"अच्छा कलाही सही" ऐसा कहकर राजाने उस मंदिरके चारोंोर पहरेका पक्का प्रबंध कर दिया, जिससे ये रात्रिमें भाग न जावें। समन्तभद्रस्वामीने विचार किया कि, मैंने जल्दीमें कैसी असंभव चात कह डाली, अव सवेरे हीन मालूम क्या होगा। इसी चिन्ता में अन्तःकरणसे दुःखित हो रहे थे कि, अर्धरात्रिके 'पश्चात् अम्विका नामकी जिनशासन देवीका आसन कंपायमान हुआ और वह तत्काल ही समन्तभद्रस्वामीके पास आकर बोली कि, आप चिन्ता न कीजिये, प्रात:काल ही जव श्राप "स्वयम्भुवा भूतहितेन भूतले" इत्यादि चतुर्विशति भगवानका स्तवन करेंगे, तो वह मूर्ति अवश्यही फट जायगी। ऐसा कहकर देवी अदृश्य होगई। राजाने प्रातःकाल ही योगीको द्वार खोलकर बाहर निका. ला। देखा तो योगिराज बड़े प्रसन्नचित्त है, और प्रफुल्लित बदन पर एक प्रकारका प्रतापसा झलक रहा है। राजाने कहा कि अव नमस्कार करके अपनी सामर्थ्य दिखाये। । योगिराज तत्काल ही स्वयंभूस्तोत्र रचकर चतुर्विशति भग 'वान्का स्तवन करने लगे और उसके पूरा होते २ शिवकीर्चि 'फट गई और उसमेंसे चन्द्रप्रभ भगवानको रवमयी चतुर्मुख प्रतिमा प्रगट-हुई। राजा वगेरह सव ही देखनेवाले पार्वचित होकर जय जय ध्वनि करने लगे। राजाने पूछा कि है योगीट्र! आप कौन है, जो इतनी सामर्थ्य रखते है? Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बालबोधक - समन्तभद्रस्वामीने कहा कि हे राजन् ! मैं कांचो देशमें दिनस्वर मुनि था । फिर पुंड्रपुर में आकर शाक्य भिक्षु (बौद्धसाधु) हो गया और दशपुर नगरमें मिष्टभोजी परिवाजक होकर इस वाराणसी नगरीमें (बनारस) शेव तपस्वी होकर श्राया हूँ । यदि किसी विद्वानकी मेरेसाथ वाद करने की शक्ति हो तो मेरे सामने खड़ा होवे, मैं जैननिग्रंथवादी हूं। मैंने पूर्वकालमें पाटली पुत्र नगर में / पटने में ) बांदका ढिंढोरा पिटवाया था। तत्पश्चात् मैं मालवदेश, सिन्धुप्रदेश, ढाका, बंगाल, कांचीदेश और बेडप्रदेशमें वाद जीतकर विद्योत्कट भटोंके द्वारा सुवर्ग हस्ती मादि अनेक सम्मानों को प्राप्त हुआ हूं। और हे राजेन्द्र ! अब मैं वादार्थी होकर सिंहकीसी क्रीड़ा करता हुआ विचरता हूँ । तत्पश्चात् उस भेषको छोड़कर 'जैननिग्रन्थ मुनिका भेष धारण करके काशीके समस्त एकान्तवादी विद्वानोंको वादमें पराभव किया और महाराज सहित हजारों मनुष्योंको जैनमतावलंबी बनाया शिवकोटि महाराज भी उनके उपदेशसे राजपाट. छोड़कर उसी समय जैनसाधु हो गये और उनसे अनेक शास्त्र. पढ़कर शेषमें शिवायन नामके प्राचार्य हो गये । इन्होंने ही श्री लोहाचार्यकृत चौरासीहजार श्लोकमय आराधनासारको संचय कर प्राकृतभाषाके साढ़े तीन हजार श्लोकोंमें बनाया है । a : इसप्रकार उस समय समन्तभद्रस्वामीने जिनशासनका प्रभाव प्रगट करके इस देशमें जिनधर्मका सर्वत्र प्रचार कर 'दिया था. कहते हैं कि उसी दिनसे काशी में फंटे महादेवका माहात्म्य हो गया है, सो अनेक शिवालयोंमें फटे महादेवोंकी स्थापना अब भी होती है 2: GE २७६ : ; · t.: Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ चतुर्थ भाग : ४९ व्हढालासार्थ-पांचवीं ढाल । चालछंद २४ मात्रा। मुनि सकल बती बदमागी । भव भोगनत वैरांगी ॥ . वैराग्य उपावन पाई। चितौ अनुमेक्षा भाई ॥ १ ॥ . इन चिंतत समरस नागें । जिम बलन पवनके लागे । जवही जिय प्रातम जाने। तवहीं जिय शिवसुख थान ।। जो बड़भागी संसार भोगोंसे उदासीन होकर संकलती मुनि होते हैं । वे वैराग्यको उत्पन्न करनेवाली माता बारह भावना ओंको वारंवार चितवन किया करते हैं क्योंकि इन वारह भावनाओंके चितवन करनेसे जिस प्रकार पवनके लगनेसे अग्नि प्रज्वलित होती है उसी प्रकार समता रूपी रस उत्पन्न होता है। जव ही यह जीव अपनी आत्माको जानता है। तव ही यह मोन सुखको प्राप्त होता है। . अनित्यमावना। जोवन गृह गोधन नारी । इय गप जन आज्ञाकारी ॥ . इंद्रिय भोग छिन याई । सुर धनु चपला चपलाई ॥ ३॥ जोवन, घर, गौ, धन, स्त्री, घोडा, हाथी, भागाकारी नौकर इंद्रियोंके भोग ये सव इंद्रधनुष वा चपल विजनीके समान क्षण भर में नाश होनेवाले अनित्य है ॥३॥. ; . Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनबालबोधक ' अशरण भावना / सुर असुर खगाधिप जेते । मृग क्यों हरिकाल दले ते ॥ मणि मंत्र तंत्र बहु होई | मरते न बचावै कोई ॥ ४ ॥ जिस प्रकार हिरनको सिंह मार डालता है । उसी प्रकार काल रूपी सिंह, सुर असुर विद्याधर राजा आदि सब जीवोंको मार देता है । उस समय मणि मंत्र तंत्र आदि कितने ही क्यों न. द्दों कोई भी मरने से नहिं बचा सकता ॥ ४ ॥ संसार भावना | ર चहुं गति दुख जीव भरे हैं । परिवर्तन पंच करे हैं | सव विधि संसार प्रसारा । यामै सुग्ख नाहिं लगारा ॥५॥ सब जीव संसारमें चारों गतियोंके दुःख भरता हुवा पांच परावर्तन करता रहता है यह संसार सर्व प्रकारसे प्रसार है इसमें सुख जरा भी नहीं है ॥ ५ ॥ एकत्व भाव । शुभ अशुभ करमफल जेते। भोगें जिय एक ही तेते ॥ सुत दारा होय न सीरी । सब स्वारथके हैं भीरी ॥ ६ ॥ अपने शुभ अशुभ कर्मोंके जितने दुख सुख फल हैं वे सब यह जीव अकेला ही भोगता है। स्त्री पुत्र आदि कोई भी सुख दुखके साथी नहीं हैं ये सब तो अपने मतलबके साथी हैं ॥ ६ ॥ अन्यत्व भावना | · 'जलं पय ज्यों जियतन मेला । पै भिन्न भिन्न नहि मेला ॥ तौ प्रगट जुदे धन धामा । क्यों है इक मिलि सुत रामा ॥७ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . चतुर्य माग जल और दूध जैसे मिले हैं उसी प्रकार यह जीव और शरीर मिले हुये हैं परंतु वास्तवमें ये. सव जुदे जूदे है, एक नहीं है। जब देह और जीव ही एक नहीं है तब प्रत्यक्ष अन्य दीखने वाले धन मकानादि वा स्त्री पुत्रादि अपने कैंस हो सकते हैं let अशुचित्व भावना । पल रुधिर गधमल यैली । कीकस वसादित मैली ॥ . नवद्वार बहें घिन कारी । अस देह कर किम यारी॥ यह देह मांस रुधिर (पीव ) राध वगेरह चर्वी मलोंकी मनीन थैलिया है। इस देहमें अपवित्र धिनावने नौ द्वारोंसे हमेशह मल बहते रहते हैं ऐसी देहसे कौन प्रीति करै ।९॥ आसव भावना। जो जोगनकी चपलाई । ताते ह आसव माई ।। आस्रव दुखकार घनेरे। वुधिवंत तिन्हें निरवरे ॥९॥ हे.भाई ! मन वचन कायसे योगोंका जो संचलन होता है उस से कर्मोका पात्रत्र (आगमन ) होता है। वे पानव बड़े दुखदायक हैं, बुद्धिमान पुरुष इनको दूर रहते करते हैं ॥ ६ ॥ संवर भावना । जिन पुण्य पाप नहिं कीना । आनम भनुभव चित दीना । तिनही विधि आवत रोके । संवर लहि सुख अवलोके ॥१०॥ जिन्होंने पुण्य-पाप रूप भाव नहिं करके आत्माके अनुभवमें चित्त लगाया उन्होंने ही आते हुये कर्माको रोककर संवरको प्राप्त कर सुखका अवलोकन किया ॥ १० ॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. जैनमालपोषक * . ..... .. :निजरा भावना। ... ... .. निजकालपाय विधि झरना तासौं निनकान न सरना । सर्प कर जो कर्म खपावै । सोई शिवसुख दरमावै ॥ ११॥ ___ कर्मोकी स्थिति पूरी करके जो कर्मोका झड़ना है ऐसी निर्जरासे कोई कार्य नहिं सरता किंतु तप.करके कर्माको सपादे वही निर्जरा मोक्षके सुख दिखाती है ॥११॥ .:: 2 . लोकभावना | . :. :किन ह.न करयो न धरै को । पट द्रव्यमयो न हरै को। सो लोकमाहि विन सपता । दुख सहे जीव नित भ्रमता ॥ इस लोकको न तो किसीने बनाया और न कोई इसे धारण किये हुये है। यह तौ जीवं पुद्गल धर्म अधर्म काल और प्राकाश इन कह द्रव्योंसे भरा हुवा अनादि कालसे विद्यमान है इसका कोई नाश नहीं कर सकता । इस लोकमें यह जीव विना समता के नित्य भ्रमण करताना दुःख भोगता रहता है ॥ १३ ॥ बोधदुर्लम भावना। अंतिम श्रीवकलोंकी हद । पायो अनंत विरियां 'द ॥. पर सम्यकज्ञान न लाध्यो । दुर्लभ निजमें मुनि साध्यो ॥१३ :: इस जीवने नौ ग्रीवक तक जाजाकर अहमिंद्र पद अनंतबार पाया परंतु सम्यग्ज्ञान प्राप्त नहिं हुमा। ऐसे दुर्लभ, सम्यगान को मुनियोंने ही अपने आपमें साधा है॥ १३॥ . . . . . Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ माग | :: धर्मभावना ॥ ! २८१ -जो भाव मोहतें न्यारे । हग ज्ञान व्रनादिकं मारे | · सो धर्म जबै जिव घारै । तब ही सुख अचल- निहारे ||१४|| सो धर्म मुनिन करिधरिये । तिनकी करतूति उचरिये ॥ 'ताको सुनिकै भविमानी । अपनी अनुभूति पिछानी ||१५|| जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र भाव मोहसे पृथक् हैं ये ही धर्म हैं. जब ऐसा धर्म जीव धारण करता है, तब ही मुक्तिका अचल सुख देख पाता है। ऐसा धर्म मुनियोंके द्वारा ही धारण किया जाता है । इस कारण अब अगली दालमें उन · मुनियोंकी करतूत (क्रिया) कही जाती है उसको सुनकरके हे भव्य प्राणी ! अपनी अनुभूति पिछानो ॥ १५ ॥ ५०. श्रीमद्भट्टाकलंकदेव । ईस्वी सन् ८०० के लगभग मान्यखेट नगर में शुभनुंग नामका - राजा था । उसका प्रधान मंत्री पुरुषोत्तम श्रोर उस मंत्रीके पद्मा'चती नामकी भार्या तथा अकलंक निष्कलंक नामके दो पुत्र थे । 'एक समय नंदीश्वर पर्वकी अष्टमी के दिन पुरुषोत्तम मंत्रीने जिन मंदिर में जाकर अष्टाहिकाके ८ दिनका रविगुप्तमुनिके निकट भार्यासहित ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण किया । उस समय कौतुकसे 'अपने दोनों पुत्रोंको भी ब्रह्मचर्यव्रत दिलवा दिया । जब ये दोनों भाई विवाह योग्य युवावस्थाको प्राप्त हुए और पिताने इनके विवाहकी चर्चा उठाई। तब दोनों भाइयोंने हाय Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ હેર जैनवालबोधक ' जोड़कर माता पिता से प्रार्थना की कि, प्रापने तो हमें रविगुप्तमुनिकी साक्षी से ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण कराया था, अब आप विवाहकी चर्चा क्यों चलाते हैं ? पिता माताने कहा कि, उस समय तुमचे थे, वह व्रत हमने कौतुकसे दिलाया था और सो भी केवलमात्र आठ दिनके लिये था। क्योंकि हमने भी तो उस समय ८ दिनका ब्रह्मचर्यव्रत लिया था । तब दोनोंने कहा कि कहीं व्रत ग्रहण कराने में भी हंसीठट्ठा होता है ? दूसरे आपने ८ दिनकी बात उस समय प्रगट नहीं की थी, हमने तो उसी समय यावज्जीव ब्रह्मचर्यकी प्रतिष्ठा करली थी । सो श्रव हम उसेतोड़ेंगे नहीं। मंत्रीने इसप्रकार पुत्रोंकी व्रतकी दृढ़प्रतिक्षा देख विबाहकी चर्चा छोड़ उन दोनों भाईयों को बड़े २ विद्वान् उपाध्यायोंकी से बामें रखकर जिनधर्म व संस्कृतविद्याका पूर्णतया अभ्यास कराया जिससे वे दोनों भाई वालकपनमें ही द्वितीय विद्वान् हो गये । उस समय इस आर्यावर्त्तमें वौद्धधर्मकी बड़ी उन्नति थो । ऐसे बहुत ही कम· विद्वान थे, जो बौद्धाचार्योंके सामने बाद विवादमें ठहर सकं । वौद्धोंने अनेक राजावोंको भी अपने धर्म में दीक्षित कर लिया था, और राजाका जो धर्म होता है वही प्रायः प्रजाका हुआ. करता है, इस कारण इस भारतवर्ष के प्रायः सबही देशमें बौद्धधर्मका प्रबल प्रताप विस्तृत था । उस समय उन धर्मवत्सल दोनों भाइयोंने विचार किया कि, अपन दोनों बौद्ध . शास्त्रोंका पठन करके बौद्धमतसे परिचित होनेपर वौद्धोंके: धर्माभिमानी पंडितोंको वादविवादमें परास्त करके इस देशसे 1 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। २८३ बौद्धधर्मका अभाव करें और सत्यार्थ उपदेश देकर सनातन पवित्र जैनधर्मका प्रभाव प्रत्येक मनुष्यके हृदयमें विठाकर "जैनं जयति शासनम् की लोकोक्तिको चरितार्य कर दें तो अपना जन्म सफल समझे। इसप्रकार विचार करके वे दोनों भाई महावोधी स्थानमें । (पटनेमें ) बौद्धधर्म पढ़ने के लिये अतिशय प्रशान बौद्ध विद्यार्थी । का वेप बनाकर गये। क्योंकि उस समय मान्यावेट नगरमें । ऐसा कोई विद्वान् नहीं था जो उन्हें पढ़ा सके। वहां जाकर । प्रसिद्ध महावौद्धपरिक्षाता धर्माचार्यके शिष्य वनकर पढ़ने लगे। इनमें से अकलंक देव एकसंस्थ थे अर्थात् कैसा ही कठिन विषय वा श्लोक क्यों न हो, एकवार सुननेसे ही उनको हृदयस्थ । (कंठान) हो जाता था और निस्कलंक द्विसंस्थ थे अर्थात् वे दो वार सुननेसे हृदयस्थ करनेवाले थे। सो अल्प कालमें ही ये . दोनों भ्राता बौद्धशास्त्रों में भी अतिशय प्रवीण हो गये। एक समय वह बौद्ध गुरु पाठ्यग्रंथमें जैनधर्मके समभंगी न्यायके पूर्वपक्षका व्याख्यान करता था । परंतु पाठ अशुद्ध होने. से लगता नहीं था. इसालये वहाना बनाकर आप पाठशालासे वाहर टहलने लगा। उस समय अकलंक देवने उस अशुद्ध पाठको सुधार दिया। परन्तु ऐसी चतुराईसे सुधारा कि. पास के बैठे हुए वौद्धविद्यार्थियोंको कुछ भी भान नहिं होने दिया । जय कुछ समयके पश्चात् वौद्धगुरुने आकर पुस्तकको देखा तो किसी महाविद्यानने वह पाठ शुद्ध कर दिया है, यह देखनेसे उसे निश्चय हो गया कि कोई भी धूर्त जैनो विद्वान् हमारे धर्म : Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवाजवोधक'को विध्वंस करनेकी इच्छासे बौद्धविद्यार्थीका वेष बनाकर हमारे 'धर्मको जाननेके लिये आया है। सो उसका पता लगाकर उसे ' शीघ्र मरवा डालना चाहिये, नहीं तो हमारे धर्मको बड़ी हानि "पहुंचावेगा। : ऐसा विचार कर उसने नानाप्रकारसे सब. विद्यार्थियोंकी 'परीक्षा की, परन्तु वे दोनों भाई नहीं पहिचाने गये । अन्तमें संव विद्यार्थियोंके सो जाने पर अचानक ही कांस्यपात्रोंको पटककर विजलीकासा भयंकर शब्द किया, जिससे सव विद्यार्थी चौंककर बुद्धदेवका स्मरण करने लगे। परन्तु जिनभक्त प्रक• लंक निष्कलंकके मुखसे णमो अंरहंता इत्यादि मंत्रका उच्चा.. रण हो गया, जिससे बौद्धगुरुने उन दोनोंको पहिचान लिया 'कि-'ये ही दोनों जैन हैं. तत्पश्चात राजासे उनकी शिकायत करके उन्हे पकडवा दिया और राजाने रात्रिको सख्त पहरे में • रखकर प्रात:काल ही शूलीपर चढ़ानेका हुकुम दे दिया। ..अर्द्धरात्रिके समय निष्कलंकने अकलंकदेवसे कहा कि, भाई 'प्रातःकाल ही अपन दोनों मारे जायगे, मुझे मरनेका तो भय, रंचमात्र भी नहीं है। परंतु हमने जिस अभिप्रायसे महापरिश्रम - करके विद्याध्ययन किया था, उससे जैनशासनका कुछ भी. उपकार नहिं कर सके, इसी वातका मुझे अतिशय दुःख है। अकलंकने धैर्य देकर कहा कि, तुम इस संकटका कुछ भी भय. : मत करो। मैंने मन्त्रवलसे सबको निद्रावश कर दिया है । चलो इसी समय यहांसे निकल चलें। ऐसा विचारकर दोनों भाई कैदखानेसे निकल गये। किंतु जब पहरा बदला गया, तो भेद Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्यभाग खुल गया। कोटपालने उसी वक चारो :ोर घुड़सवार दोडाये और उनको तत्काल ही शिरश्छेदन करनेका हुकुम दिया । । ये दोनों भाई अपने देशकी तरफ भागे जा रहे थे। सवेरा हो चला था, कुछ २ अंधेग था.। उस समय पीछेसे' घोड़ोंकी टापें सुनाई दी तो दोनों घबड़ाये। निष्कलंकने कहा कि अब हम किसी प्रकार भी नहीं बच सकते । भाई तू बड़ा विद्वान है। यदि तू जीता रहेगा तो अकेले ही जिनधर्म और समाजका बहुत कुछ कल्याण कर सकता है. सो मेरी समझमें तो तू झटपट इसा तालावमें डूबकर वैठ जा. जहां तक बना में भी अपने बचनेका उपाय करूंगा। यह बात सुनकर अकलंकदेव त्वरित ही तालाय. में डूबकर कमलपत्रोंसे अपना मुख ढककर महामंत्रका जप करने लगे। वहीं परं एक धोबीका लड़का खडा था। उसने इस प्रकारकी क्रिया देखकर निष्कलंकले उसका कारण पूटा तो उसने उत्तर दिया किं, इन,घोड़ों पर शत्रुओंकी सेना आ रही "है। मार्गमें जो मिलता उसीको मारती चली आती हैं। यदि तुझे अपने प्राण बचाने हों तो, भाग । यह बात सुनकर धावी का लडका भी निष्कलंकके साथ भागने लगा । दैवयोगमे इस धोवीके लडकेकी सूरत सकल व कद भी प्रकलंक देवसे मिलता था, इसलिये घुडसवारोंने क्रोधके तीय वेगमें कुछ भी ध्यान न देकर त्वरित ही उन दोनोंको मार डाला और वहीं उन्हें गडवा दिया। इधर राजाने प्रातःकाल ही उनके.मारनेकी खवर मंगाई; तो कोटवालने उनके भागने वगैरहका कुछ मी : :समाचार न भेजकरानको मारडालनेकी सूचना कर दी।.. Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ जेनबालबोधक। तत्पश्चात् विघ्नं टल जाने पर अकलंकदेव नालावसे निकले और विद्वान् भ्रातृवियोगका दुःख छोडकर अपने देशको न जा कर अनेक देशोंमें धर्मोपदेश करते हुए विचरने लगे। उनकी 'विद्यापयो मूर्ति और लोकोपकारार्थ प्रानन्दसे मांगते हुए महा. • परिश्रमको देखकर सब लोग उनको देवतुल्य समझते थे। - एक समय अकलंकदेव विहार करते २ कांची देशमें रब• संचयपुरके निम्टवर्ती वनमें आकर ठहरे। उस नगरमें उस • समय हिमशीतल नामक बौद्धधमी राजाका राज्य था, किन्तु उसकी प्रियतमा पट्टराणी मदनसुंदरी जिनमत थी। जिस समय अकलंकदेव उस नगरके समीपवर्ती वनमें प्राये थे, उसी दिन फाल्गुन शुक्ला अष्टमीको नदीम्बर पर्वक महोत्म्वका प्रारंभ था, सो मदनसुंदरी राणीने जिनेन्द्र भगवान् की रथयात्राका उत्सवपूर्वकमहान् पूजन विधानका प्रारंभ किया ' था। परंतु राजगुरु संघश्री वौद्ध साधुने राजासे कहकर रय. यात्राके उत्सवको अटका दिया और मदनसुंदरीको कहला मेला कि-"जस्तकासंघश्रीको वादविवादमें कोई जैनी विद्वान् नहि 'जीत लेगा, तबतक जिनेन्द्रका रथ इस नगरमें नहीं चल सकना तव मदनसुंदरी सचिंत हो सव मंदिरोंमें गई, परन्तु उस समय कहीं पर भी संघधीको जीतनेवाले किसी विद्वान् चा मुनिके दर्शन नहीं हुए । तर निरूपाय होकर उसने जिनेन्द्र भगवानके • सम्मुख प्रतिज्ञा की कि “जब तक जिनरथयात्रा निविधताके साथ न होगी, तब तक मेरे प्रमजल ग्रहण करनेका त्याग" इस प्रकार प्रतिमा करके वह जिनन्द्र भगवादकेसम्ममीठ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । ૨૭ - कर महामंत्र का जाप करते २ ध्यानमें मग्न हो गई। उसी रात्रिको चक्रेश्वरी देवीका आसन कम्पायमान हुआ और तत्काल ही उसने रानीके पास आकर उसे सूचना दी कि, "हे मदनसुंदरी ! तू चिंता मत कर, प्रातःकाल ही इस नगरके समीप पूर्वकी तरफ अनेक शिष्यसहित अकलंकदेव पधारेंगे, सो वे धर्मसम्बन्धी वाद विवाद करके तेरा मनोरथ पूर्ण करेंगे। यह सूचना पाकर रानी प्रातःकाल ही पूर्वकी तरफ गई तो अकलंकदेवके पवित्र दर्शन हुए और प्रार्थना करके आनदोत्साह के साथ नगरके मंदिरमें ले आई. और रयके पटकानेका वृत्तांत - सुनते ही अकलंकदेवने राजसभामें जाकर त्वरित ही संघीको बादमें परास्त करके गर्वरहित किया । परन्तु उस सभा के समस्त सभासद विद्वान् वौद्धधर्मावलंबी होनेसे पक्षपातपूर्वक वाले कि, अभी वाद समाप्त नहीं हुआ है, कल फिर भी याद होना चाहिये | अकलंकदेवने कहा कि- 'बहुत ठीक एक दिन हो नहीं -बल कि, छह महीने तक मैं वाद करनेको तैयार हूं।' तत्पश्चात् दूसरे दिन संघधीने अपने मतकी तारादेवीकी श्राराधना करके उसको परदेके भीतर एक मट्टीके घड़े में स्था'पन किया और तारादेवीने संघधीको वोली बनाकर अकलंकदेवसे याद करना स्वीकार किया। इसकारण संघधीने भी वहीं बैठकर वादको सूचना दी कि मैं परदेमें बैठकर वाद करूंगा । कलंक 'देवने 'तथास्तु' कहकर याद करना प्रारंभ किया । परमेंसे तारादेवी प्रश्न करती थी, उन सबका उत्तर और खंडन अकलंकदेव वरावर करते जाते थे और जिनमतकी जय होती AND Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ जैनवालबोधक 'जाती थी। परन्तु परदेकी प्रश्नावली ६ महीने तक होती रहीकिसीकी भी हार जात नहीं हुई। अकलंकदेवके मनमें आश्चर्य - हुआ कि, जो संघश्री मेरे सम्मुख क्षणभर भी नहिं ठहर सकता था, वह आज छह महीने हो गये, बराबर प्रश्न किये जाता है सो यह क्या भेद है, इसी चिन्तामें रात्रिको कुछ शयन किया । उस 'समय चक्रेश्वरी देवीने स्वप्न दिया कि हे विद्वन्! परमैं संघश्री प्रश्न नहिं करता है, किन्तु घड़े में स्थापन कियी हुई उसकी शासन देवता तारा देवी तुम्हारे साथ विवाद करती है। कलं जब आप उसके किये हुए प्रश्नको फिरसे पूछेंगे, तो वह चुप हो जायगी। क्योंकि उसने एक बार प्रश्न किये हुए वाक्यको दूसरी वार न बोलने की प्रतिज्ञा की है । सो वह चुप हो जायगी और प्रापकी जीत होगी । } 1 इसप्रकार गूढ रहस्यको जानकर अकलंकदेवने प्रातःकाल ही सभामें उपस्थित होकर राजा और समस्त विद्वानोंने सिंह. गर्जना के साथ कहा कि-प्राज छह महीने पर्यन्त जो मैने बाद"विवाद किया, सो केवल मात्र जिनशासनका प्रभाव दिखाने के - लिये किया था परन्तु प्राज मैं इस वादको समाप्त कर देता हूं । ऐसा कहकर परदे की ओर देखा, तो परदेसे त्वरित ही एक प्रश्न सुष्मा, वस उसे सुनकर, अकलंकदेवने कहा कि, एकवार प्रश्नको । फिरसे कहो । फिर क्या था, तारादेवीसे बोला नहिं गया, अलं-कदेवने परदे में जाकर, उस घड़ेपर लात जमादी। जिससे वह " लड़ा फूट गया और तारादेवी भाग गई । तब उस, संघभी से कहा कि, वोलता. क्यों नहीं १ परन्तु उसने विद्वानोंकी भरी सभा Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग २८२. · में हाथ जोड़कर कहा कि, "भगवन् ! मेरी क्या सामर्थ्य है ? जो आपसे विवाद करूं ? माज छह महीने तक जो बाद चला, वह घड़े में बैठी तारा देवी के साथ चलता था । धन्य है आपकी विइत्ता और जैनशासनको जो देवी से भी प्राप निरुत्तर न हुए' इत्यादि वचनोंके सुनते ही प्रत्येक मनुष्यके मुखसे जिनशासनकी अयध्वनि हुई । अनेक विद्वान वौद्धधर्मको छोड़कर जिनधर्मावलंबी हो गये । हिमशीतल राजा भी परम जिनभक्त हो गया और उसी दिन से रथयाशका महोत्सव बड़ी धूमधामके साथ किया गया, जिससे जैनधर्मकी अतिशय प्रभावना हुई । उस नगरके प्रायः सपही लोग जैनमतावलंबी हो गये। इसी प्रकार प्रकलंक देखने अनेक बौद्ध विद्वानोंके साथ बादविवाद करके जिनमतकी बड़ी भारी उन्नति की । 4 यह घटना ईस्वी सन् ८५५ की है। इससे पहिले बौद्ध लोग बनारस गयाजीकी तरफसे कांची देशमें ईस्वी सन्के तीसरे शतक में आये थे, अर्थात् ५०० वर्षसे वहां पर वौद्धधर्मका प्रचार हो रहा था, सो इसको अकलंक देवने बादविवाद के द्वारा बदल कर वहां पर जैनधर्मका प्रचार कर दिया । इसीसे अनुमान करना चाहिये कि, अकलंकदेवका ज्ञान- विभव कैसा था। इस ज्ञान-विभवके प्रभावसे ही इन्हें 'भट्ट' की पदवी मिली थी। अर्थात् इनको स्वमती परमती समस्त ऋषि मुनि व विद्वान 'भट्टाकलंकदेव' कहने लगे थे। ये भट्टाकलंकदेव समस्त ही विषयोंके पारंगत विद्वान थे । तथापि न्याय-विपनमें इनका प्रेम अधिक था। इस कारण इनके १६ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० जैनवालबोधक बनाये हुये बृहत्त्रयी, लघुत्रयी, न्यायचूलिका, आप्तमीमांसा भाष्य, श्रादि न्यायके ग्रंथ ही विशेष प्रसिद्ध हैं। राजवातिकालंकार भी इनहीका बनाया हुआ है । ये भट्टा कलंक समस्त विषयोंके दिग्गज विद्वान् थे । इसका एक प्रमाण और भी मिलता है वह यह है कि, एकबार आपने साहसतुंग राजाकी सभामें जाकर दो श्लोक कहे थे, जिनका भावार्थ यह है कि, "हे साहसतुंग राजन् । यद्यपि इस जगत में श्वेतछत्रधारी अनेक राजा हैं, परन्तु तुझ सरीखे रणविजयी दानशूर राजा बहुत दुर्लभ हैं । इसी प्रकार हे राजन् ! इस जगतमें पंडित, कवि, वाग्मी, वादी अनेक हैं, परंतु मेरे • समान अनेक शास्त्रोंके विचारमें चतुरवुद्धि और समस्तवादी पंडितोंका गर्व दूर करने में समर्थ प्रसिद्ध 'विद्वान कोई भी नहीं है। इस तेरी समामें अनेक संत महंत विद्यमान हैं । यदि उनमें ܕ ६८ राजन् ! साहसतुंग संति बहनः श्वेतातपत्रा नृपाः किन्तु त्वत्सदृशा रणे विन मिनस्त्यागान्नता दुर्लभाः । तद्वत्पन्ति बुषा न संति कवयो वावीश्वरा वाग्मिनो नानाशासविचारचातुरधियः काले कलौ मद्विधाः ॥ १ ॥ - राजन् ! सवारिदर्पप्रविद्लनपटुस्त्वं यचात्र प्रसिद्धस् तद्वख्यातोऽहमस्यां भुवि निखिलमदोत्पाटने पण्डितानां । 'नो चेदेषोऽहमेते तव सदसि सदा संति संतो महतो वक्तुं यस्यास्ति शक्तिः स वंदतु विंदिताशेषशास्त्रो यदि स्यात् ॥ १ ॥ 'श्रवणवेलगुलके बिलासों से उद्धृत । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૬૨ चतुर्य भाग । कोई सर्वशास्त्र में निपुण हो, तो मेरे सामने प्रावे, यह मैं विवादार्थी खड़ाई!" . इन स्वगर्व प्रकाशकदो श्लोकों परसे ही अकलंकदेवकी विद्वता प्रगट होती है ऐसा नहीं है। इनके बनाये हुए न्यायके ग्रंय ही ऐसे अपूर्व और विलक्षण हैं कि, उनको देखनेसे हर एक नैयायिक विद्वान उनकी विद्वत्ताको पून्यपिसे स्मरण करने लगता है। - ५१. जीवोंके विशेषभेदादि। : १मनुष्य, चार प्रकारके हैं। आर्य, म्लेच्छ, भौगभूमिज 'और कुभोगभूमिज। - २॥ देव चार प्रकारके हैं। भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक , ३ । भवनवासीदेव दश प्रकारके है. असुरकुमार, नाग'कुमार, विद्युत्कुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, वातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, दीपकुमार, दिक्कुमार, ४। व्यंतरदेव पाठ प्रकारके हैं, किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गंधर्व, यक्ष. राक्षस, भूत, पिशाच । भवनवासी और व्यंतरदेव पहिली पृथिवीके खरभाग और पडूभाग तया तिर्यक् लोकमें : ५। ज्योतिष्कदेव पांच प्रकारके है-सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૩૨ जैनवालवोधक- . और तारे । ज्योतिकदेव पृथिवीसे सातसौ नये योजनकी ऊं. चाईसे लगाकर नौसौ योजनकी ऊंचाई तक अर्थात् एकसौ दश योजन आकाशमें एक राजूमात्र तिर्यक् लोकमें रहते हैं। ६। वैमानिकदेव कल्पोपपत्र और कल्पातीतके भेदसे दो प्रकार के है जिनमें इंद्रादिकोंकी कल्पना है उनको कल्पोपपत्र कहते है और जिनमें इंद्रादिककी कल्पना न हो ऐसे नवप्रैवेयकादि में रहनेवाले देव कल्पातीतकहाते हैं। ___७ । कल्पोपपत्र देव सोलह प्रकारके है-सौधर्म, पेशान, सानकुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ठ, शुक्रः महाशुक्र, सतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, पारण और अच्युत । टाकल्पातीतदेव २३ प्रकारक है-जो कि नववेयक, नव अनुदिश, पांचपंचोत्तर (विजय. वैजयन्त जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि ) इन तेईसविमानोंमें रहते हैं। नारकी जीव अधोलोककी सात पृथिवियोंमें रहनेवाले सात प्रकार के हैं । रत्नप्रभा (धर्मा ) शर्कराप्रभा (वंशा) वालकाप्रभा.(मेघा), पंकप्रभा ( अंजना), धूमप्रभा (अरिष्ठा), तमप्रभा (मघवी), महातमप्रभा (माधवी)। १०। सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव सर्वलोकमें रहते है। बादर प. दिन किसी आधारका निमित्त पाकर यत्र तत्र निवास करते है। प्रसजीव असनालीमें (जो कि चौदह राजू ऊँची एकराजू लंबी. चौड़ी होती है) रहते हैं। विकलत्रय जीव कर्मभूमि और अंत के माधे द्वीप तथा अंतके स्वयंभूरमण समुद्र में ही रहते है। ११ । पंचेंद्रिय जीव तिर्यक लोक में रहते है. परन्तु जलकर Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। २६३ तिर्यंच लवणसमुद्र कालोदधि समुद्र और स्वयंभूरमण समुद्र के सिवा अन्य समुद्रों में नहीं है। ___ .१२। मेरुसे नीचे सात राजू अधोलोक है । मेरके ऊपर लोकके अन्त पर्यन्त उर्ध्वलोक है । और एक लाख चालीस योजन * मेरकी ऊंचाईके वरावर मध्य लोक है । मध्यलोकके अत्यंत वीचमें एक लाख योजन चौड़ा गोल थालीकी तरह जंबूद्वीप है । जंबूद्वीपके बीच में एक लाख योजन ऊँचा सुमेक 'पर्वत है जिसका एक हजार योजम जमीनके भीतर मूल है। निन्याणवे हजार योजन पृथिवीके ऊपर है और चालीस योजन की यूलिका (चोटी) है ।जंबूद्वीपके वीचमें पश्चिम पूर्वको तरह लवे छह कुलाचल पर्वत पड़े हुये हैं। जिनसे जंबूद्वीपके सात खंड होगये हैं इन सातो खंडोंके नाम इस प्रकार है, भरत १ हैमवत २, हरि ३ विदेह ४, रम्यक ५, हरपयवत ६ और पेरा. वत ७ । और ६ पर्वतोंके नाम इस प्रकार है-हिमवन, महादिम'वन, निपध, नील, रुक्मी और शिखरी । विदेहक्षेत्र में मेरुसे उत्तर की तरफ उत्तरकुरु और दक्षिणकी तरफ देवकुरु नामकी दो 'भोगभूमि है । वृद्धीपके चारों तरफ खाईकी तरह पड़े हुये दो लाख योजन चौड़ा जवण समुद्र है। लवणसमुद्रको चारों तरफ वेड़ा हुवा चार लाख योजन चौड़ा धातकीखंड नामका होग है। इस धातुकीखंड द्वीपमें दो मेरु पर्वत है और क्षेत्र कुलाचलादिकी सव रचना जंबूद्वीपसे दूनी है। धातुकी खंडको चारों तरफ वेड़े हुये पाठ लाख योजन चौड़ा कालोदधि समुद्र है। * यहां एक योवन दो हमार कोषका मानना । - - Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जैनवालवोधकऔर कालादोधिको वेड़े हुये सोलह लाख योजन चौड़ा पुष्करद्वीप है पुष्करद्वीपके बीचों बीच वलयके प्राकार चौड़ाई पृथिवी पर एक हजार वाईस योजन वीचमें सातसौ तेईस योजन ऊपर चार सौ चौवीस योजन ऊंचा सतर सौ इकईस योजन और जमीनके भीतर चारसौ सवातीस योजन जिसकी जड़ है। ऐसा मानुषोत्तर नामा पर्वत पड़ा हुवा है जिससे पुष्कर द्वीपके दो खंड हो गये हैं । पुष्कर द्वीपके पहिले अर्द्धभागमें जंबूद्वीपसे दुनी २ अर्थात् धातकी खंडके बराबर सब रचना है। जंबूद्वीप धातुकीखंडद्वीप, पुकरार्धद्वीप, तथा लवणोदधि समुद्र और कालोदधि समुद्र इतने क्षेत्रको नरलोक कहते हैं। पुष्करद्वीपसे श्रागे परस्पर एक दूसरेको पडे हुये दुने २ विस्तारवाले मध्यलोकके अन्त तक असंख्यात द्वीप समुद्र है। पांच मेरु सम्बन्धी पांच भरत, पांच ऐरावत, पांच देवकुरु पांच उत्तर कुरुको छोड: 'कर पांच विदेहक्षेत्र इस प्रकार संव मिलकर १५ तौ कर्मभूमि, 'पांच हैमवत और पांच हैरण्यवतं इन दश क्षेत्रों में जघन्य भोग भूमि है । और पांच हरि और पांचरम्यक इन दश क्षेत्रोंमें मध्य'मभोग भूमि हैं और पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु इन दशः क्षेत्रोंमें उत्तम भोगभूमि है। जहाँपर असि, मषि, कृषि, सेवा, शिल्प और वाणिज्य इन षट् कर्मोंकी प्रवृत्ति हो; उसको कर्मभूमि कहते हैं । जहां इनकी प्रवृत्ति न हो, उसको भोगभूमि कहते हैं। मनुष्य क्षेत्रसे वाहरके समस्त द्वीपोंमें जघन्य भोगभूमि कीसी रचना है। किंतु अंतिम स्वयंभूरमण द्वीपके उत्तरार्धमें तथा समस्त स्वयंभूरमण समुद्र में और चारों कोनोंकी Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । २६५ चारों पृथिवियोंमें कर्मभूमि कीसी रचना है। 'लवणसमुद्र और कालोदधि समुद्र ६६ अन्तद्वीप है जिनमें कुभोग भूमि कीसी रचना है। वहां मनुष्यही रहते हैं । उनमें मनुष्योंकी भाकृतिय नाना प्रकारको कुत्सित है । १३ | संसारमें समस्त प्राणी सुखको चाहते हैं और होरात्र सुखका ही उपाय करते हैं परंतु सुखकी प्राप्ति नहि होती इसका कारण यह है कि संसारी जीव असली सुखका स्वरूप और उसकी प्राप्तिका उपाय न तो जानते हैं और न उसका साधन करते हैं इस लिये असली सुखको भी प्राप्त नहि होते । १४ । आल्हाद स्वरूप जीवके अनुजीवी गुणको प्रसजी सुख कहते हैं । यही जीवका खास स्वभाव ( धर्म ) है । परंतु संसा री जीवोंने भ्रमवश साता वेदनीय कर्मके उदय जनित उस मसलीसुखकी वैभाविक परिणतिरूप साता परिणाम को ही सुख मान रक्खा है । कर्मोंने उस असली मुखको घात रक्खा है इस कारण असली सुख नहि मिलता। संसारी जीवको असनीसुख मोक्ष होने पर ही मिल सकता है। १५ । आत्मासे समस्त कर्मके विप्रमोक्ष ( अत्यंत वियोग ) होनेको मोक्ष कहते हैं । मोक्ष प्राप्तिका उपाय संबर और निर्जरा है । १६ | स्वके निरोधको संवर कहते हैं । अर्थात् अनागत (नवीन) कर्मोंका आत्माके साथ सम्बंध न होनेका नाम संबर है। १७ | आत्माका पूर्व संवन्ध हुये कर्मोसे सम्बंध छूट जाने को निर्जरा कहते हैं । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E जैनवालवोधक • १८ । आत्माके सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीनों गुणोंकी पूर्ण एकता ही संवर और निर्जरा होनेका उपाय है।. -:*: @ঃ*: ५२. पात्रकेशरी वा विद्यानंद | ད་ ནས/ " : ; भारतवर्ष में मगध नामका एक देश है। उसके अंतर्गत एक प्रहिछत्र नामका सुंदर शहर था। उस नगरका राजा प्रवनिपाल वडा गुणी था समस्त राजविद्या आदि विद्यार्थीका पंडित था । अपने राज्यका पालन अच्छी रीतिके साथ करता था । उस नगर में पांच सौ विद्वान ब्राह्मण रहते थे जो कि राजसभामें या राज्यकार्यमें बड़ी सहायता दिया करते थे उन सबमें प्रधान समस्त' विद्याओंका पारगामी पात्रकेशरी नामका दिग्गज वैदिक विद्वान् था । एक दिनकी बात है कि वह विद्वान उन पांचसौ शिष्यों'सहित राजाके यहां जाता था । मार्ग में एक पार्श्वनाथ भगवानका मंदिर था उसे देखनेको गया । वहां पर चारित्रभूषण नामके एक मुनि भगवान के सम्मुख देवागमस्तोत्र पढ़ रहे थे सो पात्रकेशरी विद्वानने शेषका भाग सुना जब मुनिमहारज सब पढ़ चुके तब वह मुनिसे बोला कि हे मुने ! तुम्हें इसका अर्थ भी प्राता है कि नहीं ? मुनिने कहा कि मुझे अर्थ नहीं आता । पात्रकेशरीने कहा कि इसे फिर से प्रारंभ से अंत तक पढ़ जावो - ; Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । २७ तो मुनिने धीरे धीरे देवागमस्तोत्रको फिरसे पढ़ा । आद्योपांत सुननेसे पात्रकेशरीको वह स्तोत्र याद हो गया। सो वे इस स्तोत्रका अर्थ विचारने लगे विचारते २ उनको दर्शनमोहनीय कर्मके क्षयोपशम होनेसे विश्वास (श्रद्धान) हो गया कि-जिनद्रभगवानने जो जीवादि पदार्थीका स्वरूप कहा है वही सत्य है। अन्य सब मिथ्या है। इसके बाद फिर वे अपने घर पर जाकर वस्तुका स्वरूप भले प्रकार विचारने लगे। सय दिन उनका इसी तत्त्व विचारमें वीता, रातको भी उनका यही हाल रहा। उन्हें निश्चय हो गया कि, सब पदार्य ठीक समझे गये हैं। इसी मतसे ही आत्माका कल्याण हो सकता है। परंतु एक संदेह रह गया कि-जिनमतमें अनुमान प्रमाणका लक्षण फहा नहीं गया। सो क्यों ? यह संदेह दूर हो जाय तो क्स कलसे.जैनधर्मानुयायी ही वन जाऊंगा। इसी बीच में पद्मावती देवीका श्रासन कंपायमान हुपा और वह देवी तुरंत ही वहां आई और कहने लगी कि-आपको जैनधर्मके पदार्थमें जो संदेह हो गया है उसकी 'चिंता नहीं करें। आप प्रातःकाल पार्श्वनाथ भगवान के दर्शनार्य जावेंगे तो आपका सव संदेह दूर हो जायगा और वहींपर आपको अनुमान प्रमाणका स्वरूप मिल जाएगा। इसप्रकार कर कर देवी चली गई और मंदिरमें जाकर पार्श्वमायके फनके ऊपर एक श्लोक लिख कर वह अपने स्थान चली गई यह श्लोक यह था। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___२६८ जैनवालवोधकअन्यथानुपपन्नत्वं यत्र यत्र त्रयेण किं। : नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किं ॥१॥ - प्रातःकालही जव पात्रकेशरी मंदिर में प्राकर पार्श्वनाथ भगवानकी प्रतिमाका दर्शन करने लगे तो फणके ऊपर लिखा श्लोक देखकर बड़े प्रसन्न हुये सवं संदेह दूर हो गया। और जैनधर्मके सच्चे श्रद्धानी हो गये एवं घरपर अन्य सव छोडकर एकमात्र जैनधर्मके ग्रन्थोंपर ही विचार करने लगे। ऐसा देखः कर अन्य सव विद्वान कहने लगे कि यह क्या बात है? आज. कल न्याय, वेदांत, मीमांसा आदि ग्रंथोंको छोडकर एकमात्र जैनधर्मके ग्रंथों को ही क्यों देख रहे हैं ? तव पात्रकेशरीने कहा कि, आपलोगोंको अपने वेदोंपर ही विश्वास है। इसलिये भापकी. दृष्टि सत्यकी तरफ ही नहीं जाती। परंतु मेरा विश्वास आपसे उलटा है । मुझे वेदोंपर विश्वास न होकर जैनधर्मपर विश्वास है । जैनधर्म ही मुझे संसारमें सर्वोत्कृष्ट दीखता है। मैं श्राप लोगोंको भी आग्रहसे कहता हूं कि-प्राप विद्वान हैं सत्य झूठकी परीक्षा कर सकते हैं । इसलिये जो मिथ्या हो उसे छोड़कर । सत्यको ग्रहण कीजिये । ऐसा धर्म एकमात्र जिनधर्म ही है और ग्रहण करने योग्य है। पात्रकेशरीके इस उत्तरसे ब्राह्मणविद्वानों को संतोष नहीं हुआ। वे इसके विपरीत शास्त्रार्थ करनेको तैयार हो गये और राजाके पास जाकर आपसमें शास्त्रार्थ करनेकी प्रार्थना की। राजाने पात्रकेशरीको राजसभामें बुलाया और शास्त्रार्थ कराया पात्रकेशरीने समस्त ब्राह्मणविद्वानोंको पराजित करके संसार. Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्यभाग Le पूज्य और समस्त प्राणियों को सुख देनेवाले जिनधर्मका बड़ा भारी प्रभाव प्रगट किया । उनने एक जिनस्तोत्र बनाया था जिसका नाम आनपरीक्षा स्तोत्र कहा जाता है । उसमें जिनधर्मके तत्त्वका विवेचन और अन्यमतके तत्त्वोंका बड़ेभारी पांडित्यके साथ खंडन किया गया ថ្មី ' उसका पठन पाठन सबके लिये सुखका कारण है। पात्रकेशरोके श्रेष्ठ गुणों और बड़े बड़े विद्वानों द्वारा आदर सत्कार देख कर अवनिपाल राजाने तथा उन पांचसों विद्वान ब्राह्मणोंने मिथ्यामतको छोड़कर शुभभावोंके साथ जैनमतको ग्रहण किया } तत्पश्चात् ये पात्रकेशरी मुनिदीक्षा लेकर विद्यानंद वा विद्यनंदी नामसे प्रसिद्ध हुये । आचार्य पद प्राप्त होकर न्यायके प्रमाण परीक्षा पत्रपरीक्षा आदि अनेक ग्रंथ बनाये तथा देवागमस्तोत्र पर भगवान प्रकलंकदेवकृत आप्तमीमांसा ढोका पर अटसहस्त्री नामकी बडी भारी टीका रत्री है। जिसके पांडित्यको देखकर बड़े २ विद्वान चकरा जाते हैं इसके सिवाय -भगवत्स मंतभद्राचार्यकृत युक्तयनुशासन आदि ग्रंथोंपर भी टोकायें लिखी हैं ये विद्यानंद स्वामी भट्टाकलंक देवके पश्चात् हो गये हैं । -: ५३. छहढाला सार्थ - छठी ढाल । हरिगीता छंद मात्रा २८ | पटका जीवन इन सब विघ दरब हिंसा वरी । रागादि भाव निवार, हिंसा न भावित अवतरी ॥ D Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० जैनवालवोधकजिनके न लेश मृषा न जल तृण, हू विना दीयो गहैं। . अठदश सहस विधि शीलधर, चिब्रह्ममें निन रमि रहैं। ' - मुनियोंके षट्कायके जीवोंकी हिंसाका त्याग होनेसे सर्वप्रकार की द्रव्य हिंसा छूटगई। और रागद्वेष मोहादि भावोंके डर होने से भाव हिंसा भी नहीं होती। इसके सिवाय लेशमात्र भी अस. त्यवचन नहिं वोलते और विना दिया एक तृण भी नहिं ग्रहण करते और अठारह हजार दूपण रहित ब्रह्मचर्यको धारण करते हुये विद्ब्रह्ममें ही हमेशह मग्न रहते हैं ॥१॥ इसके सिवाय अंतरचतुर्दश मेद बारह संग दशधाते टलैं। परमाद तजि चौ कर मही लखि समिति ईयाते चलें ।। • सुनग हितकर सब प्रहितहर, श्रुतिसुखद सब संशय हरें। . भ्रमरोग-हरजिनके वचन, मुखचन्द्रअमृत झरें॥२॥ - अंतरंग चौदह और वाह्यके दश परिग्रह रहित हैं इसप्रकार पांच महाव्रत पालते हैं। तथा परमाद रहित हो चार हाथ परिमाण मार्ग देखकर चलते हुएईर्यासमिति पालते हैं। सबके हित करनेवाले और अहित हरनेवाले कानोंको प्रिय संशयके हरने व भ्रमरोग हरनेवाले मुखरूपी चंद्रमासे अमृतकीसमान वचन उमारणकर भाषा समितिका पालन करते हैं ॥२॥ छयालीस दोष पिना सुकुल श्रावक तणे घर असनको। लैं, तप चढावन हेत नहि. तन, पोखते तजि रसनको ॥ अचि ज्ञान संजम उपकरन, लखि गर्दै लखि धरें। निजेतु थान बिलोक, तनमल मंत्रश्लेषम परिहरैं॥३॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य माग। तथा छियालीस दोष टालकर कुलीन श्रावकके घर तप चढ़ानेके लिये तनको पुष्ट नहीं करनेवाले नौरस आहार लेकर एपणा समिति पालन करते हैं। और पवित्र मान और संयमके उपकरण शास्त्र और पीछी कमंडलुको देखकर उठाते और घरते हुये प्रादाननिक्षेपण समिति पालते हैं और जीवरहित स्थानको देखकर मलमूत्रादि क्षेपण करके व्युत्सर्ग समिति पालने सम्यक प्रकार निरोधि मनवचकाय आतम पावते । तिन सुथिर मुद्रा देखि मृग गन, उपल साज सुजावते ।। रसरूपगंध तथा फरस भरु, वन्द शुम असुहावने। तिनमें न राग विरोष, पंचेंद्रिय जयनपद पावने।।2।। इसके सिवाय मनवचकायको भने प्रकार वश करके तीन गुप्तिका पालन करते हुये भात्माका ध्यान करते हैं। जिनको स्थानमें निश्चल पत्थर समान देखकर हिरण अपनी माज सुजावते रहते है। और पंचेद्रियोंके विषयोंमें प्रयादम्वाद लेनेप देखने, गंध लेने, स्पर्शन करने वा शन्दमुननेमें वा सुहावने प्रसुहावने पदायोमें रागद्वेप छोडकर पांचों इंद्रियोंको जय करके पंचेंद्रिय अयन पदको पाते है ॥४॥ समता सम्हारे श्रुति डाचरे, वंदना जिनदेनको । नितकरें श्रुतरति धरै प्रविक्रम, तजे तन महमेषको । जिनके न हौन न दंत पोवन, लेख अंबर आवरन । प्रवाहि पिछली रयनिमें कछु, शयन एकासन करन ॥५॥. Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ .* जैनवालबोधक. इनके सिवाय मुनिमहाराज त्रिकाल सामायिक करते हैं भग'चीनको स्तुति बन्दना करते हैं स्वाध्याय, प्रतिक्रमण और कायो. 'त्सर्ग करते हैं तथा स्नान करना, दन्त धावन नहीं करके नन मुद्रा धारण करते हुये पिछली रातमें थोडोसो देर एकही करवट " शयन करते हैं ॥५॥ इक बार दिनमें लें अहार, खडे अल्म निज पानमैं । . कचलोंच करत न डरत परिसह,-सों लगे निज ध्यानमैं । अरि मित्र पहल मसान कंचन, काच निंदन थुति करन । अर्घावतारन असिपहारन, में सदा समता धरन ॥६॥ तथा मुनिगण दिनमें एफवार खड़े होकर हाथमें ही श्राहार करते हैं । वालोंको हाथसे उपाडते (केशलोंच करते ) हैं। परिसहोंसे न डरकर निजध्यानमें लगे रहते हैं। इस प्रकार पाँच . महाव्रत,पांच समिति पांचों इन्द्रियोंका विजय छह आवश्यक और नग्नता प्रादि सात, कुल अठाईस मूल गुण पालन करते हैं। इनके सिवाय शत्रु, मित्र, महल, मसान, सोना, काच, निंदा, स्तुति, पूजा करना तलवारसे मारने आदिमें समता रखते हैं । तप तपैं द्वादस, धरै वृष दक्ष, रतनत्रय सेवे सदा। . . मुनिसायमें वा एक विचरें, चहैं नहिं भव सुख कदा । -यो है सकल संजम चरित, सुनिये स्वरूपाचरन अब।. . 'जिस होत प्रगटै प्रापनी निधि, मिटै परकी प्रवृति सर्व ॥७॥ तथा मुनि महाराज बारह प्रकारके तप दश प्रकारके धर्म वां Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । ३०३ रत्नत्रयका पालन करते हैं । विहार कभी तो अकेले ही करते -कभी मुनियोंके साथमें करते हैं । सांसारिक सुखको कभी नाहते नहीं इस प्रकार मुनिका सकल चारित्र ( व्यवहार चरित्र ) afia किया गया | अब निश्चय चारित्रको (स्वरूपाचरण - रित्रको ) कहते हैं जिसके अपनी ज्ञानादि संपत्ति प्रगट होने मे 'परवस्तु मैं समस्त प्रकारकी प्रवृत्ति मिट जाती है ॥ ७ ॥ जिन परमपॅनी सुबुधिनी, डारि अन्तर भेदिया । चरणादि अरु रागादिने, निज मावको त्याग किया || निजमाहि निजके हेत निजकर, भापको आपे गयो । गुण गुणी ज्ञाता ज्ञनाशेय-मकार कछु भेद न रह्यां ॥ ८ ॥ जहूँ ध्यान ध्याता ध्येयको न विकल्प व भेद न जहाँ । चिद्भाव कर्म चिदेश करता, चेतना किरिया तहां ॥ . तीनों अभिन्न अखिन्न शुघ उपयोगकी निश्चल दशा | -अंगटी जहां हग ज्ञान व्रत ये तीनधा एकैलशा ॥ ९ ॥ मुनिमहाराजने जव परम पैनी सुबुद्धिरूपी नोंके द्वारा अपने अंतरंगका भेड़ किया तो व रस गंधादि २० गुण व रागादि भावोंसे अपनेको न्यारा कर लिया तब अपने में दो भएने लिये अपने द्वारा अपने आत्माको आप ही ग्रहण करते हैं। तब गुण और गुणी; ज्ञान ज्ञाता और मेयमें कुछ भी भेद नहिं रहता । श्रात्मध्यान अवस्थामें ध्यान ध्याता और ध्येयका कुछ भी भेद या विकल्प नहि रहता है और न वचनसे जुदा २ कहनेका Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ जैनवालबोधकही भेद रहता है। क्योंकि इस अवस्थामें चेतन भाव ही तो कर्म होता है चेतन ही कर्ता है और चेतना ही क्रिया है ये तीनों अभिन्न अखिन शुद्धोपयोगकी निश्चल दशा प्रगटी है । इस अवस्थामें दर्शन मान चारित्र तीन प्रकार का होते हुये भी एक ही हो जाते हैं । परमान नय निक्षेपको न उदोत अनुभवमैं दिख । हग वान सुख बलमय सदा नहीं पान भाव जु मोविखै ।। मैं साध्य साधक मैं अबाधक कर्म अरु तसु फलनित । चित पिंडचंड असंच सुगुन करंडच्युत पुनि कलनितें ॥१०॥ इस प्रकार अनुभव दशामें (ध्यान अवस्थामें ) प्रमाण नय निक्षेपका प्रकाश भी अनुभवमें नहिं आता किंतु उस समय प्रा. मा विचारता है कि मैं अनन्त दर्शन शान सुख वीर्यरूप मुझमें दूसरा कोई भाव नहीं है, मैं ही साध्य हूं, मैं ही साधक हूं, तथा मैं ही कर्म व कर्मके फलसे रहित हूं । मैं चैतन्यका पिंड प्रचंड अखंड उत्सम गुणोंका पिटाराई॥१०॥ यों चित्य निजमें थिरमये तिन प्रकय जो भानंद लह्यो । सो इन्द्र नागनरेंद्र वा अहमिन्द्रक नाही करो। तब ही शुकळध्यानाग्निकरि संधातिविधिकाननदयो । .... सब लखौकेवल ज्ञान करि, भविलोकको शिवमगको ११. , ' इस प्रकार विचार कर जब मुनिमहाराज आत्मध्यानमें लीनः हो जाते है तब उन्हें. जो अकथनीय: (सुख ) होता है वैसा Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग ३०५ आनंद वा सुख न इन्द्रको मिलता है न नागेंद्रको या चकच या अहमिंद्रको मिलता है । उसी वक्त ही शुक्लध्यानरूपी अग्नि चार घातिया कर्मरूपी वनको भस्म करके केवलज्ञानको प्राप्त करते हैं और उसके द्वारा तीनोंकाल की वार्ताको जानकर भव्य पुरुषों को मोक्षमार्गका उपदेश करते हैं ॥ ११ ॥ पुनि घात शेष अधातिविधि, छिनमाहि श्रष्टपभू बसें । वसु कर्म विनसे सुगुनवसु, सम्यक्त्व आदिक सब उसें ॥ संसार खार व्यपार पारावार, तिर तीरहिं गये । अविकार कल रूप शुधचिद्रूप अविनाशी भये ॥१२॥ निनमाहि लोकअलोक गुन, परजाय प्रतिबिंचित यये । रहि हैं अनंतानंत गल, यथा तथा शिव पर नये । धन धन्य हैं जे जीव नर भर पाय यह कारज किया। तिनही अनादी भ्रमण पंचमकार तजिवर सुख लिया ||१३|| तत्पश्चात् फिर आयु नाम गोत्र और अंतराय इन चारों अघातिया कर्मोंको दिन भर में नष्ट करके मोक्ष चले जाते है । आठ कर्मोंका नाश होने से उनमें सम्यक्त्वादि आठ गुगा प्रगट हो जाते हैं । मोह कर्मके नष्ट होने से तो सम्यक्त्व, मानावरणी कर्मके नाश होनेसे अनंतज्ञान, दर्शनावरणीय कर्मके नाश हानेसे अनंतदर्शन. अंतरायकर्मके नाश होने से अनंतवीर्य, प्रायुकर्मके नाश होने से श्रवगाहनत्वगुण, नामकर्मके नष्ट होनेसे सूक्ष्मत्व गुण, गोत्रकर्मके नष्ट होने से अगुरु लघुत्य और बेदनीय कर्मके २० Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ जैनवालबोधकनाश होनेसे अव्यावाधस्व इस प्रकार आठगुण सिद्ध होनेपर हो जाते हैं । वे ससाररूपी अपार क्षार समुद्रसे पार उतर कर विकार, शरीर, और रूपरहित होकर शुद्ध चैतन्यमय अविनाशी सिद्ध हो जाते हैं ॥ १२ ॥ जव सिद्ध हो जाते हैं तव अपनी आत्मामें लोक-प्रलोक समत्त द्रव्योंके गुण पर्याय दर्पणकी माफक प्रतिबिंवित हो जाते हैं । मोक्षमें जैसे और सिद्ध हैं वैसे ये भी अनंतानंत काल पर्यंत रहेंगे । वे जीव धन्य हैं जिन्होंने नर भव पायकर यह कार्य सिद्ध किया। ऐसे ही जीवोंने अनादिकालसे चले आये पंच परावर्तनरूप संसारको त्यागकर उत्तम सुखको प्राप्त किया है ॥ १२ ॥ मुख्योपचार दुभेद यों बडभागि रत्नत्रय धरें। अरु धेरंगे ते शिव लहैं, तिन सुयश जल जगमल हरौं । इमि नानि आलस हानि साहस ठानि यह सिख आदरो। जबलों न रोग जरा गहै तबलौं, मटिनि निजहित करी ॥ यह राग भाग दहे सदा, तातें समामृत सेइये। चिर भजे विषय कषाय, अव तौ त्याग निजपद वेइये ॥ कहा रच्यो परपदमें न तेरो, पद यहै क्यों दुख सहै। . अब दौल होउ सुखी स्वपदं रचि, दावमत चूको यहै ।।५|| जो बड़भागी इस प्रकार निश्चय व्यवहार दो भेदरूप चारित्रको धारण करते हैं वा धरेंगे वे मोक्षको पावेंगे । उनका सुयशरूपी जल जगतके मैलको हरैगा यह जानकरके आलस्यरहित हो और अपने साहसपूर्वक यह उपदेश ग्रहण करो कि जब तक Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । ૩૦૭ रोग और बुढ़ापा नहिं आवै तब तक जल्दी से अपना बन्याण कर डालो | क्योंकि रागरूपी आग सब जीवोंके हृदय में सदासे जल रही है इस कारण ममनारूपी अमृतका सेवन करना चाहिये । हे दौलतराम ! चिरकालले विषय काय सेवन किये अय तौ इन सबको त्याग करके अपने निजपदको जान, जो नृ. पर वस्तुमें कच रहा है सो यह पद तेरा नहीं है क्यों यह सब दुःख भोग रहा है। अब स्वपदमें चकर मुखी हो यह दाव (मोका) हरगिज नहीं खो देना ॥ १५ ॥ इक नवं वसुं इके वर्षकी, तीन सुकुल वैशाख । करयो तव उपदेश यह, लखि बुधजनकी माख ॥ १ ॥ लघुधी तथा प्रमादतें, शब्द अर्थकी भूल | सुधी सुधार पढो मदा, जो पावो भवकूल ॥ २ ॥ पंडित दौलतरामजीने प० बुधजनकृत इजढाको देखकर यह तत्त्वोपदेशमय छहढाला सम्वत् १८६१ मिती वैशाख सुदी तृतीयको पूर्ण किया है। पंडितजी कहते हैं कि थोड़ी बुद्धि तथा श्रमादसे जो कहीं शब्द या अर्थको भूल हो गई हो तो सुधी पुरुष इसे सुधार कर पढ़ें जिससे संसार-समुद्रकः किनारा मिले ॥ २ ॥ इति दौलतरामकृत छहढाला भाषानुवादमहित समाप्त । *** Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ जैनवालवोधक ५४. राखी पूर्णिमा। अवन्ती देश उज्जयनी नगरीमें राजा श्रीवर्मा था। उसकी राणी श्रीमती थी। उसके बलि, बृहस्पति. प्रह्लाद और नमुचि ये ४ मंत्री थे। ये सव भिन्नधर्मी थे । उस नगरीके बाहर उद्यान में एक समय समस्त शास्त्रोंके जाननेवाले, दिव्यज्ञानी अकम्पनाचार्य सातसौ मुनिसहित पधारे । संघाधिपति प्राचार्य महाराजा ने संघके समस्त मुनि गोंसे कह दिया कि, यहां राजा वगेरह कोई लोग आवें, तो किसीसे भी बोलना नहीं, सब मौन धारण करके रहना । नहीं तो संघको उपद्रव होगा। ___ उस दिन राजाने अपने महल परसे नगरके स्त्री पुरुषोंको पुष्पाक्षतादि लिये जाते हुये देखकर मंत्रियोंसे पूछा कि,-ये लोग विना समय किस यात्राके लिये जाते हैं ? मंत्रियोंने कहा कि, नगरके वाहर नग्न दिगम्बर मुनि आये हुए हैं, उनकी पूजा के लिये ये सब जाते हैं । राजाने कहा कि चलो अपन भी चलकर देखें कि वे कैसे मुनि हैं। तव राजा भी उन. मंत्रियों सहित बनमें गया। वहां सबको भक्ति पूजा करते हुये देखकर राजाने भी नमस्कार किया परन्तु गुरुकी आज्ञानुसार किसी भी मुनिने राजाको आशीर्वाद नहीं दिया। यह क्रिया देख राजाको कुछ क्षोभ और सन्ताप हुआ। तब मंत्रियोंने अवसर पाकर कहा कि-महाराज! ये सब मूर्ख वलीवर्द्ध हैं, इनको बोलना नहीं पाता है,इसी कारण छलसे Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य भाग। १०९ सबने मौन धारण कर लिया है । इत्यादि निंदा व हास्यादि क. रके मंत्रीगण राजाके साय नगरको और लोटे, किंतु मार्गमें उसी संघके श्रुतसागर नामक मुनि नगरीसे चर्या करके वनको पाते थे। उनको सम्मुख देखकर उन बारों मंत्रियोंने कहा कि देखिये महाराज! यह भी एक तरुण वलोवर्द्ध पेट भरके श्रा रहा है । युतसागर मुनिने इस पर मंत्रियोंको अच्छा मुंहतोड़ जवाब दिया और पोड़े विवाद करके राजाके सम्मुख ही उन्हें अनेकांत वादसे हरा दिया। जिससे कि, वे बड़े लजित हुए। पोहे संघमें पहुंच कर श्रुतसागरने प्राचार्य महाराजको यह सब वृत्तांत कह सुनाया । आचार्य महाराजने कहा कि, तुमने बहुत बुरा किया । समस्त संघपर तुमने बडी भारी विपत्ति ला दी। प्रस्तुः श्रय प्रायश्चित्त यही है कि, तुम उसी वादकी जगह पर जाकर कायोत्सर्ग पूर्वक ठहरो और जो जो उपसर्ग आत्रे उन्हें सहन करो। आशा पाकर श्रुतसागरने ऐसा ही किया । और रात्रिको वे चारो मंत्री समस्त संघको मारनेका संकल्प करके आये। परंतु मार्गमें अपने असली शत्रु युतसागर मुनिको देखकर ये चारोंके चारों खड्ग लेकर पहिले उसीपर टूट पडे । किंतु उस जगहके वन देवतासे यह अन्याय देखा नहीं गया। इसलिये उसने मुनिको मारनेके लिये हायमें तलवार उठाये हुए उन चारों मंत्रियोंको जहांका नहां कील दिया अर्थात् वे चारो पत्यर जैसे हो गये और मुनिको नहीं मार सके। प्रात:काल हो यह वृत्तांत राजाने सुना तो उसने उन चारोंका काला मुँह करके और गधेपर सवार करके देशसे निकाल दिया। ' Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१• जिन बालबोधक वे चारो मत्री कुरुजांगल देशमें हस्तिनापुर नगरके राजा 'पद्मसे जाकर मिले और उसके मंत्री हो गये। उस समय उस नगर पर कुंभपुरका राजा सिंहवल चढ़ श्राया था, सो उन चारोंमेंसे चलि नामक मंत्री अपनी चतुराईसे उस सिंहवल राजा को हराकर पकड़ लाया, तब पद्मराजाने खुश होकर बलिको मनवांछित वर मांगने का वचन दिया । चजी मंत्रीने कहा कि, मेरा वर इस समय जमा रहे, जब मुझे आवश्यकता होगी तव याचना करूंगा । राजाने तथास्तु कहकर स्वीकार किया । इसके पश्चात् कुछ दिनों में वे ही अकम्पनाचार्य अपने मानसौ मुनियोंके संघसहित हस्तिनापुरके वनमें प्राये तब वलिने १ यह बात जानकर उन मुनियोंको मारने की इच्छा से राजासे अपना वह पुराना वर मांगा कि, मुझे दीजिये। राजा पद्म, सात दिनके लिये आप अपने राजमहलो में रहने लगा । चलिने आतापन नामक पर्वत पर कायोत्सर्गसे ध्यान करते हुये मुनियों को मारनेके लिए वहींपर नरमेध यज्ञका प्रारंभ किया। उनके निकट वकरे वगेरहोंका हवन करके उसकी दुर्गंध से बडा कष्ट पहुंचाया यहां तक कि अनेक मुनियोंके उस दुर्गंधित धुंएसे गले फट गए और अनेक वेहोस हो गये । इसी समय में मिथिलापुरीके निकट एक वनमें श्रुतसागर चंद्राचार्य महाराजने श्रर्द्धरात्रि के समय श्रवण नक्षत्रको कंपायमान देखकर अवधिज्ञान से विचारकर खेदके साथ कहा कि'महामुनियोंको महान् उपसर्ग हो रहा है' उस समय पास बैठे " सात दिनका गज बलिको राजा वनाकर • Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । ३११ पुष्पदंत नामक विद्याधर तुल्लकने पूछा कि, 'भगवन् ! कहां पर किन २ मुनिमहाराजोंको उपसर्ग हो रहा है ? तब वार्य महाराजने हस्तिनापुर के वनमें अकंपनाचार्यादिके उपसर्गका समस्त वृतांत कहा । तुल्लक महाराजने पूछा कि इस उप सर्गके दूर होनेका भो कोई उपाय है ? तत्र मुनि महाराजने अवधिज्ञानसे कहा कि, धरणिभूषण पर्वतपर विष्णुकुमार नाम के मुनि है । उनको विक्रिया ऋद्धि प्राप्त हुई है। उनसे जाकर तुम प्रार्थना करो, तो वे इस उपवर्गको दूर कर सकते हैं । यह सुनते - हो उस विद्याधर जुलकने तत्काल हो विष्णुकुमार मुनिके निकट जाकर मुनिसंघ के उपसर्गको वात कही और यह भी कहा कि, आपको विक्रिया ऋद्धि है, आप समर्थ हैं । तत्र विष्णुकुमार मुनि महाराजने हाथ पसार कर देखा, तो कोसों तक हाथ लंबा होता चला गया । तत्र उसी वक्त पद्म राजा के पास गये । उसको बहुत कुछ कहा उसने कहा कि मैंने ७ दिनका राज्य बलिको दे दिया है वही उपसर्ग करता है। नव विष्णुकुमार बलिराजाके पास गये, जहां कि वह सबको इच्छित दान दे रहा था. विष्णुकुमारने बामन रूप धारण करके कुटोर बनानेको अपने पांवसे तीन पैंड जमीन मांगी। बलिने तत्कालही दे दी - विष्णुकुमारने विक्रिया ऋद्धिसे बहुत बड़ा शरीर बनाकर एक पांव दक्षिण तरफके मानुषोत्तर पर्वनपर रक्खा और एक पांव' सुमेरुपर्वत - १ अढाई द्वीप के चारों तरफ आधे द्वीपमें कोटकी तरह एक पर्वत है । वहांसे आगे विद्याधर मनुष्य भी नहीं जा सकता, इस कारण उसकी मानुषोत्तर पर्वत कहते हैं । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ जैनवालवोधकपर रखकर दूसरा पांव उत्तरके मानुपोत्तर पर्वतपर रक्खा . और तीसरे पावसे देवोंके विमानोंको क्षोभित करके वलिकी पृष्टपर रखके उसको काबूमें कर लिया अर्थात् बलिको बांध लिया तब देवताओंने श्राकर मुनियोंके उपसर्गको निवारण किया, पूजा वंदनादि की, पद्मराजा और चारों मंत्रियोंने विष्णुकुमार अकंप-. नाचार्यादि मुनि महाराजोंके चरणोंमें पड़कर क्षमा प्रार्थना करके अपराध क्षमा कराया। सबने जैनधर्म धारण कर श्रावकके १२ व्रत ग्रहण किये। मुनियोंके कंठ धुयेंसे फट गये थे, बड़ी तकलीफ थी, सो नगरके लोगोंने उस दिन दुधको खीरके भोजन तैयार किये और सब मुनियोंकोपाहार दिया । उस दिन श्रावण शुक्ला पूर्णमासीका दिन था, नातसौ मुनियोंकी रक्षा हुई, इस कारण देशभरकी प्रजाने परस्पर रक्षाबंधन किया और उस दिन को पवित्र दिन मानकर प्रतिवर्ष रक्षाबंधन क्षीरभोजनादिसे इस पर्वको सुरू किया। उसी दिनसे यह राखीपूर्णिमाका तिहवार चला है। अन्यमतियोंने विष्णुकुमारकी जगह विष्णुभगवान् और बलि मंत्रीकी जगह सुग्रीवके भाई बलि राजाको मानकर सनघडंत कहानी वनाली है, सो मिथ्या है। ५५. जकडी पं० दौलतरामजीकृत (१.) - अब मन मेरा चे, सीखंवचन सुन मेरा। भजि जिनवरपद वे, ज्यौं विनसै दुख तेरा Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। ३१३ 'विनसै दुख तेरा भवव करा, मनवचतन जिनचरन भजौ। पंचकरन वश राख सुशानी, मिथ्यामतमग दार तजी। मिथ्यामतमग पगि अनादित, ते चहुंगति कीन्हा फेरा । अबट्ट चेत अचेत होय मत, सीख वचन सुन मन मेरा॥१॥ इस भववनमें वे, ते साता नहिं पाई। बमुविविवश ह वे, ते निजसुधि बिसराई । तें निजमुधि विसराई भाई, तातें विमल न वोध लहा। परपरनतिमें मगन भयो त, जन्म-जरा-मृत-दाह दहा । जिनमत सारसरोवरकों अब, गाहि लागि निजचिंतनमें । तो दुखदाह नशै सब नातर, फेर फंसे इस भववनमें २॥ इस तनमें तू वे. क्या गुन देख लुभाया। महा अपावन वे, सतगुरु याहि वताया ॥ सतगुरु याहि अपावन गाया, मलमूत्रादिकका गेहा। कृमिकुल कनित लखत घिन आवे, यासों क्या कोजे नेहा । यह तन पाय लगाय आपनी, परननि शिवमगसाधनमें । तो दुखदंद नशै सब तेरा, यही सार है इस तनमें ॥३॥ भोग भले न सही रोग शोकके दानी । शुभगतिरोकन वे, दुर्गतिपय अगवानी ॥ दुर्गतिपयश्रगवानी हैं जे, जिनकी लगन लगी इनसौं। तिन नानाविधि विपति सही है, विमुख भया निजसुख तिनसौं १ संसाररूपी वनका । १ पांच इन्द्रियां । ३ आठ कमाके वश हो कर। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ जैनवालवोधककुंजर झेख अलि शलभ हिरन इन, एक अक्षवश मृत्यु लही। यातें देख समझ मनमाही. भवमें भोग भले न सही ॥४॥ काज सरै तव वे, जव निजपद आराधै। नशै भवावलि.वे, निरावाधपद लाधै ॥ निरावाधपद लाधै तब तोहि, केवलदर्शनशान जहां। ' सुख अनंत अतिइन्द्रियमंडित, बीरज अचल अनंत तहां ॥ ऐसा पद चाहै तो भज नि, वारवार अव को उचर। 'दौल' मुख्य उपचार रत्तस्य, जो सेवै तो काज सर॥५॥ ५६. विषयों में फंसे संसारी जीवका दृष्टांत । किसी समयमें एक मनुष्य भयंकर बनमें जा पहुंचा उसमें एक जंगली हस्तीने इसका पीछा किया। यह मनुष्य भागते २ अचानक कहीं एक अधकूपमें गिरने लगा गिरते २ वटके वृक्षकी जड़ पकड़ लो सो कूपमें अधर लटकने लगा। हस्तीने कोधमें आकर वट वृक्षकी शाखाको हिलाया तो उसमें मधुमक्खि. योंका छत्ता या उसकी समस्त मक्खिये उडकर उस मनुष्यके सर्व शरीर में चिएट कर काटने लगी उसने नीचे कूपमें झांककर देखा तो उसमें चारों तरफ चार सर्प मुख वाये इसके गिरनेकी वाट देख रहे हैं और बीच में एक अजगर भी मुख बाये १ हाथी । २ मछली । ३ भौरा--भ्रमर । ४ पतंग । ५ एक एक इंद्रियके वससे। ६ भवों का समूह । ७ "जिन" भी पाठ है। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । ३१५ पड़ा है। ऊपरको देखा तो जिस वृक्ष की जड़ को पकड़े हुये हैंउस जड़को एक सफेद एक काला दो चूहे काट रहे हैं। इस प्रकार चारो और दुःख और महा कष्ट हो रहा है इसी समय मधुमेंसे एक मधुका बिंदु उसके मुखमें श्रापड़ा उसका स्वाद बहुत ही मिष्ट लगा सो फिर भी ऊपरको मुख वाये रहा थोड़ीदेरमें एक बूंद और पड़ी उसका स्वाद लेकर अन्य समस्त दुःख भूल गया । इसीप्रकार वारंवार मधुकी बूंदोंका आनंद ले रहा था इसी बीच एक विद्याधर दंपती (स्त्रांपुरुष ) विमानमें बैठे जा रहे थे उनकी दृष्टिमें यह मनुष्य पट्टा तो उनने दयाकरके विमानको नीचे उतारा और मनुष्यसे कहा कि भाई ! तुम बड़े कष्टमें हो, यह हाथी तुम्हें विना मारे छोड़ेगा नहीं. श्राश्रीतुमको विमान में बिठाकर तुमारे घर पर पहुंचादें । उस दुखी पुरुषने कहा कि भाप जरा देर ठहरिये एक बूंद आ रही है उसको लेलू तो मैं चलूं जब एक बूंद या गई तो विद्याधरने कहा कि चलो भावो हमको फिर देर हो जायगी । उसने कहा कि- जरासी दया और कीजिये एक बूंद और आजाने दो फिर मैं चलना हूं । थोड़ी देर बाद जब एक बूंद आगर तो फिर विद्याधर ने कहाकि तुम बड़े मूर्ख हो इस एक बूंद मधुके लिये यहां कितना कष्ट भोग रहे हो यदि हमारे साथ विमानमें नहिं आते हो तो फिर तुमारी यहीं पर - मृत्यु है । इस जंगलमें कोई नहिं श्राता तुमारे भाग्य योगसे तुम हमारी दृष्टिमें आगये श्रव चलना हो तो चलो नहीं तो हम चले जाते हैं । इत्यादि बहुत कुछ समझाया इसी बीच में एक बूंद और भी उसके मुँह में पड़ गई परन्तु फिर भी वह कहता है कि- एक • Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालबोधकबूंद और पाजाने दो फिर तो अवश्य हो चलूंगा। लाचार थोड़ी देर और ठहरकर बुलाया तो फिर भी वही बात तब वह विद्या'घर वहीं छोड़ कर अपने इष्ट स्थानको चला गया। जिस प्रकार यह मनुष्य दुःखी था ठीक इसी प्रकार यह सं"सारी जीव इस संसाररूपी वनमें दुःख भोग रहा है। सफेद पौर काले दो चूहे दिन और रात में सो आयुरूपी जड़को काट रहे हैं हस्तीरूपी विकराल हमारी मृत्यु है सो सिरपर घूम रही है । - कूपमें चार सर्प थे सो चार गतियां है सो किसी न किसी गति में मर कर जाना है। और एक अजगर था सो निगोद राशि है सो अधिक पाप किया तौ निगोदमें जाना पड़ेगा। मधुमक्खिये . जो चारों तरफ शरीरको नोंच रहो वा काट रही हैं सो ये सब - कुटुंबके लोग है सो हर तरहसे संसारी जीव को दुःख देरहे हैं। वह विद्याधर था सो सुगुरु समान है । सुगुरु महाशय धर्मोपदेश देकर इस जीवको संसारके दुःखोंसे छुटा कर मोक्ष मार्गमें ले "जाना चाहते हैं परन्तु यह जीव जरासे इन्द्रियजनित सुखके लिये सब दुःख भोग रहा है संसारका मोह छोड़ धर्म मार्गमें नहिं • लगता सो अवश्य ही नरकादिगतियों में दुःख भोगेगा। ५७. जकडी दौलतरामकृत. (२) वृषभादिजिनेश्वर ध्याऊं, शारद अंवा चित लाऊं। दैविधि-परिग्रह-परिहारी, गुरु नमहुं स्वपरहितकारी। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। ३१७ हितकारि तारक देव श्रुत गुरु, परख निजउर लाइये। दुखदायक्रपथविहाय. शिवसुख, दाय जिनवृष ध्याइये । चिरते कुमगपगि मोहठगरि ठग्यौ भव-कानन पस्यौ । व्यालीसद्विकलख जौनिमें. जैर-मरन-जामन-दच जस्यौ १६) जव मोहरिपुदीन्हीं घुमरिया, तसुवश निगोदमें परिया। तहां स्वास एकके माही,अपादश मरन लहाहीं ॥ लहि मरन अन्तमुहर्तमें, छयासठ सहस शत तीन ही। पटतील काल अनंत यौं दुख, सहे उपमा ही नहीं । कवह लही वर आयु दिति-जल, पवन-पावक-तरुतणी । तसु मेद किंचित कहूं सी सुन, कह्यौ जो गौतमगणी ॥ २॥ पृथिवी द्वयमेद वखाना, मृदु माटी कठिन पखाना। मृटु द्वादशसहस बरसकी, पाहन वाईस सहसकी। पुनि सहस सात कही उदेक त्रय, सहसवर्ष समीरको । दिन तीस पावक दशसहस तरु, प्रभृति नाश सुपीरकी । विनघात सूच्छमदेहधारी, घातजुत गुरुतन लहौ। तहं खनन तापन जलन व्यंजन, छेद भेदन दुख सह्यौ ॥३॥ शंखादि दुइंद्री प्रानी, थिति द्वादशवर्ष वखानी । यूँकादि तिइंद्री हैं जे, वासर उनचास जिय ते ॥ १ संसाररूपी वन । २ चौरासीलाख योनी। .३ वृद्धावस्था, मृत्य और अम्मरूपी अनिमें जला { ४ पृथ्वी । ५ पानी । ६ जू आदि। , Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "३९८ जैनवालबोधकजोवे छमास अलीरमुख, व्यालीस-सहस उरगतनी। . खगकी यहत्त-सास नवपूर्वाग सरीसपैकी भनी । नरमत्स्यपूरवकोटकी थिति, करमभूमि वखानिये । जलचरविकलविन भोगभू-नर.-पशु त्रिपल्य प्रमानिये ॥४॥ प्रयवश करि नरक बसेग, भुगतै तह कष्ट घनेरा। छर्दै तिलतिल तनसाग, छेपें हपृतिमंझारा ॥ मंझार वज्रानिल पचावै, धरहिं शूली ऊपर। सीजु खारे वारिसौं दुठ, कहें व्रण नीके करें । वैतरणिसरिता समल जल अति, दुखद तरु सेंवलतने । अति भीमवन असिफांत सम दैल, लगत दुख देवें घने ॥५॥ तिस भूमैं हिम गरमाई, सुरगिरिसम अंस गल जाई। तामै थिति सिंधुतनी है, यौँ दुखद नरकग्रवनी है । अवनी तहांकीतें निकसिकबहूं जनम पायौ नरौं। सर्वांग सकुचित अति पावन, जठर जननीके परौ ॥ तहँ अधोमुख जननी रसांश, थकी जियो नवमास लौं। ता पीर में कोउ सीर नाहीं, सहे आप निकास लौं ॥ ६ ॥ जनमत जो संकट पायौ.रसनानै जात न गायो । लहि वालपने दुख भारी, तरुनापौ लयो दुखकारी ।। दुखंकारि इष्टवियोग अशुभ.-संयोग सोग सरोगता। पैरसेव ग्रीषम सीत पावस, सहै दुख अतिभोगता ॥ १ श्रमरआदि। २ सर्पविशेष । ३ भोगूमियों मनुष्य आरे पशु। ४ दुर्गधिक भरे तालाव । ५ फोडे । ६ तलवारकी धार ! ७ पत्ते। .८ लोहा । ९ पृथ्वी। 1. दुसरोंकी सेवा-नौकरी। .. - - Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। ३१६ काह कुतिय काह कुबांधव, काह सुता व्यभिचारणी। किसह विसन-रत पुत्र दुष्ट, कलत्र कोऊ पररिणी ॥ ७ ॥ वृद्धापनके दुख जते, लखिये सब नयनन ते ते । मुख लाल बहे तन हाल. विन शक्तिन वसन संभालं ॥ न संभाल जाके देहकी तो, कहो चपी का कथा । तव ही अचानक पान जम गह, मनुजजन्म गयौं वृथा । काह जनम शुमठान किंचित, लह्यौ पद हुँदेवको। अभियोग किलिप नाम पायो, सही दुख परसेवकौ ॥ ८॥ नहं देख महत मुररिद्धी, झूयो विषयनकरि गृद्धी । कबई परिवार नसानौं, शोकाकुल है विललानौ ॥ बिललाय अति जब मरन निकट्यो, सहौ संकट मानसी।। मुरविभव दुखद लगी नवै जव, लखो माल मलानसी ॥ तव ही जु सुरउपदेशहित समु, झाइयो समुझौ न त्यौं । मिथ्यात्वजुत च्युत कुगति पाई, लहै फिर सो स्वपद क्यौं ॥६॥ यौं चिरभव अटवी गाही. किंचित माता न लहाही । जिनकथित धरम नहिं जान्यौ. परमाहि अपनपोमान्यौ । मान्यौ न सम्यक त्रयातम, आतम अनातममें फस्यौ। मिथ्या-चरन हरज्ञान रंज्यौ, जाय नवग्रीवक वस्यौ । पै लह्यौ नहिं जिनकथित शिवमग, वृथा भ्रम भूल्यौ जिया। चिदभाउके दरसावविन सब, गये अंहले तप किया ॥१०॥ १ दुष्टस्त्री । २ व्यसनी । ३ लाला लार | ४ धर्मकी । ५ चार प्रकारके देव । ६.७ देवोंमें अभियोग और किल्विष एक प्रकारके नीचे सेवकों समान देव होते हैं । ८ माला ! ९ मुरझानी हुई। १० व्यर्थ । - Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० जैनवालवोधकअव अद्भुत पुण्य उपायो, कुल जात विमल तू पायो । यातें सुन सीख सयाने, विपयनसौं रति मत हाने । ठाने कहा रति विपयमैं ये, विपम विषधरसम लखौ यह देह मरत अनंत इनकौं, त्यागि श्रातमरस चखौं । या रसरसिकजन वसे शिव अव, बसे पुनि यसि हैं सही। 'दौलत'स्वरचिपरविरवि सतगुरु-सीख नित उरधर यही॥ ५८. सुकुमालमुनि। कौशांबीके राजा अतिवलका पुरोहित सोमशर्मा था उसकी स्त्रीका नाम काश्यपी था । उसके अग्निभूत वायुभूत नामके दो पुत्र थे । माता पिताके अधिक लाड प्यारके कारण वे कुछ पढ़ लिख न सके । कालकी विचित्रगतिसे सोमशा असमयमें ही चल वसा । राजाने अग्निभूतिको मूर्ख देख उसके पिताका पुरोहित पद किसी अन्य विद्वानको दे दिया। सो ठीक ही है मूर्यो का आदर सत्कार कहीं नहीं होता। यह देख दोनों भाइयोंको बड़ा दुःख हुा । तब इनको पढ़नेकी सूझी और राजगृहीमें अपने काकाके पास पांचसात वर्प रहकर विद्वान होकर आये तौ राजाने उनको पुरोहित पद देदिया। ___ इधर राजगृहीमें एक दिन संध्याके समय सूर्यमित्र सूर्यको अर्घ चढ़ा रहा था, उसकी अंगुलीमें राजाको एक रत्नजडित बहुमूल्य अंगुठी थी सो अर्घ देते समय महलके नौवें तालावमें -खिले हुये कमलमें गिर पड़ी और सूर्यास्त होनेसे कमल मुद गया। अर्ध देनेके बाद अंगूठीका ख्याल हुआ तो बड़ा घवराया। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२१ चतुर्थ भाग। राजा मागेंगे तो क्या जवाब दूंगा। अंगूठी दूंढनेका बहुत यल या परिश्रम किया परंतु अंगूठी नहिं मिली तय किसीके कहनेसे अवधिमानी सुधर्ममुनिके पास गया और हाथ जोड़कर अंगूठी की वाचत पूछा उन्होंने कहा कि सूर्यको अर्घ देते समय तालावमें एक कमलमें गिर पड़ी है वह कल तुझे मिल जायगी। दूसरे दिन कमल खिलनेसे वह अंगूठी मिल गई सूर्यमित्र बड़ा खुश हुआ। उसे बड़ा अचंभा हुवा कि मुनिने यह यात कैसेवतलाई ? • दुसरे दिन फिर मुनि महाराजके पास जाकर प्रार्थना की कि प्रभो ! जिस विद्यासे आपने अंगूठी वताई कृपाकरके मुझे वह विद्या पढ़ादें तो बड़ा ही उपकार हो । मुनि महाराजने कहा किमुझे इस विद्याके वतानेमें कोई इनकार नहीं है परंतु जैनमुनिकी दीक्षा लिये विना यह विद्या प्रा नहिं सकती। सूर्यमित्र तब केवल विद्याके लोभसे दीक्षा लेकर मुनि हो गया। मुनि होकर उसने विद्या पढ़ानेको गुरुसे कहा तो सुधर्म मुनिराजने मुनियोंके आचार विचारके ग्रंथ तथा सिद्धांत शास्त्र पढ़ाये । तव तौ सूर्यमित्रकी एक दम पाखें खुलगई । अव तो वह जैनधर्मके माता विद्वान हो गये और अपने मुनिधर्ममें खूव हद हो गये तब गुरुकी प्राक्षा लेकर एकविहारी होगये । एकबार विहार करते हुये कौशांबी नगरीमें आये तो अग्निभूति पुरोहितने भकिपूर्वक आहारदान दिया और अपने छोटे भाई वायुभूति को भी मुनिके पास चलने वा वंदना करनेको कहा । परंतु वह तौ जिन धर्मसे सदा विरुद्धही रहता था। बदनाके बदले उसने निंदा करके बहुत कुचंबुरा भला कहा । सो ठीकही है जिनको पढ़ाया विद्वानहाविहारी रोहितने Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालवोधकदुर्गतिमें जाना होता है वे दूसरोंकी प्रेरणासे भी धर्मके सन्मुख नहिं होते । असिभूतिको अपने भाईकी दुर्वद्धिपर बड़ा दुःख हुवा और मुनिमहाराजके साथ ही इनमें जाकर धर्मोपदेश सुननेले संसार शरीर भोगोंसे उदास होकर मुनि दीक्षा लेली। अतिभूतिके मुनि हो जानेकी वात जव उसकी सती स्त्रीने मुनी तो उसने वायुभूतिसे कहा कि-देखो तुमने मुनिको वंदना नहिं करके उनकी बुराई की सो सुना जाता है कि तुमारे भाई इसीसे दुःखी होकर मुनि हो गये हैं यदि अव तक मुनिन हुये हों तो चलो उन्हें समझा कर लौटा लावें। परंतु वायुभूतिने गुस्सा होकर कहा तुम्हे गर्म हो तो तुम जावो, मैं उन नंगे मुनियों के पास नहि जाता इत्यादि मर्मभेदी वचन कह कर अपनी भौजाईको एक लात मारकर चल दिया। जिससे भौजाईको वड़ा दुःख हुआ स्त्री जाति अवला होनेसे और तो कुछ नहिं सरसको परंतु मनमें निदान बांध लिया कि-"इस वक्त तो में लाचार हूं परंतु अगले किसी न किसी जन्ममें तेरी यही टांग और हृदय खाऊंगी तव ही मुझे संतोष होगा" धिक्कार है इस प्रकारके मूर्खलोगोंके निदान विचारको। इसके बाद मुनि निंदाके फलसे सात ही दिन बाद वायुभूः तिके सारे शरीरमें कोढ निकल आया सो ठीकही है प्रत्युत्कट पुण्य वा पापका फल तीन दिन या तीन पक्ष या तीन मास और तीन वर्षके भीतर २ अवश्य मिल जाता है। वायुभूति कोढके रोगसे मरकर कोशाँवीमें एक नटके यहां ग़धा हुआ । गधा मर. कर जंगली सूअर हुअा। सूअर मरकर चंपापुरी में एक चंडाल. Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। ३२३ के यहां कुचीका जन्म धारण किया । कुत्ती मरकर चंपापुरीमें ही एक दुसरे चंडालके यहां जन्मांध लड़की हुई । इसके सारे शरीरमें पदबू होनेसे इसके माता पिताने उसे छोड़ दिया । परन्तु भाग्यसे बच रही, एक जामनके पेड़के नीचे पड़ी २ जामुन खा रही थी । देव योगसे सूर्यमित्र मुनिअग्निभूतिको साथ लेकर उसी तरफ प्रा निकले थे सो अग्निभूतिकी दृष्टि इस कन्या पर पड़ी तो हृदयमें कुछ मोह और दुःख हुआ तव गुरुसे पूछा कि-प्रभो इस लड़कीकी दशा बड़ी कष्टमय है यह कैसे जी रही है । अवधिशानी सूर्यमित्र मुनिने कहा-तुमारे भाई वायुभूतिने हमारी घोर निंदा की थी उसके पापसे उसे कोढ़ हुश्रा, मरकर गधा और सूअर तथा कुत्ती होकर अव यह चंडालके यहां जन्मांध और दुर्गंधमय शरीरवाली लड़की पैदा हुई है। इसकी उसर वहुत थोड़ी रह गई है इस लिये तुम जाकर इसे अणुव्रत देकर सन्यास देआवो । अग्निभूतिने जाकर उसे दुःखका कारण वता 'कर अणुव्रत दिलवाये सन्यास लिवा दिया सो मरकर व्रतके प्रभावसे चंपापुरीमें नागशर्मा ब्राह्मणके यहां नागश्री नामकी कन्या हुई। एक दिन नागधी कितनी ही लड़कियोंके साथ वनमें नागपूजा करनेको गई थी सी पुण्ययोगसे सूर्यमित्र और अग्निभूति मुनि भी विहार करते इसी वनमें आकर विराजे थे। उन्हे देख कर नागरीके मनमें अत्यंत भक्ति हो गई। वह उनके पास गई, बना करके उनके पास बैठ गई। नागश्रीको देखकर अग्निभूतिके मनमें कुछ स्नेहका उदय हुआ। क्यों कि यह पूर्व जन्ममें इसकी Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ जैनवालवोधक भाई थी । गुरुसे स्नेह होनेका कारण पूछा- उन्होंने भ्रातृभावही कारण बताया । तव प्रग्निभूतिने उसे धर्मका उपदेश दिया सम्यक्त्व तथा पांच अणुव्रत उसे ग्रहण कराये । नागश्री व्रत ग्रहण. करके जाने लगी तब मुनिराजने कहा कि हां ! वच्ची सुन ! तेरे पिता यदि तुझसे इन व्रतोंको लेनेके कारण नाराज हों तो हमारे व्रत हमे आकर वापिस देजाना ! इसके बाद नागश्री घर गई तौ व्रत ग्रहणकी बात सुनकर पिता घड़ा नाराज हुष्मा और नागश्री से बोला कि बेटी तू बड़ी भोली हैं, चाहे जिसके बहकानेमें आ जाती है तू नहीं जानती कि अप ने पवित्र ब्राह्मण कुलमें उन नंगे मुनियोंके दिये व्रत नहिं लिये। जाते । वे अच्छे लोग नहिं होते इस लिये उनके व्रत छोड़ दे । तव नागश्रीने कहा कि पिताजी ! उन मुनिमहाराजने आते समय कह दिया था कि-यदि तुझसे तेरे पिताजी इन व्रतों के छोड़नेके लिये कहैं तो तू हमारे व्रत हमें यहां आकर वापिस दे जाना । सो श्राप चलिये जो उनके व्रत वापिस दे आऊं । सोमशर्मा नागभीको लेकर क्रोध कर्त्ता गर्जता हुआ मुनियोंके पास चला । नागश्रीने रास्ते में - एक आदमी बंधा हुआ पड़ा था कई जने उसे निर्दयतासे मार रहे थे उसे देखकर पितासे पूछा कि निदर्यतासे क्यों मारा जाता है ? सोमशर्माने कहा कि इसको एक वनके लड़के के रुपये देने थे वनियेके लड़केने तकाजा किया इसने रुपये न देकर उसे जान से मार डाला इस कारण अपने राजाने इसे प्राणदंडकी आज्ञा दी है इस कारण राजपुरुष इसे मारते पीटते हैं। नागश्रीने कहा-मुझे मुनिमहाराजने यही तो अहिंसा Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । ३२५ दिया है कि - किसी जीवको किसी प्रकारकी पीड़ा नहिं देना इसे छोड़नेको आप क्यों कहते हैं? तब सोमशर्मा ने कहा कि भच्छा ! यह व्रत तौ रखना और सब छोड़ देना । प्रागे चलने पर नागधीने एक अन्य पुरुषको बंधा देखकर पूछा-1 - पिताजी इसने क्या अपराध किया था तब पिताने कहा कि यह झूठ बोलकर लोगोंको ठगा करता था इस लिये इसे बांध- कर लेजाते और पीटते हैं । नागश्रीने कहा - पिताजी मेरे व्रतमें एक यह भी व्रत है कि कभी झूठ नहिं बोलना सो यह भी तो अच्छा है इसे क्यों छुड़ाते हैं ? तव पिताने कहा कि अच्छा यह व्रत भी रख लेना चाकी सब छोड़ देना। आगे जाकर इसी प्रकार चोरी परस्त्रीगमन और लोभ वगैरह पापोंके अपराधियों को दंड पाते देखकर पिता से पूछा कि ये ही तौ व्रत मुझे मुनिमहाराजने दिये हैं इन्हे क्यों छोडूं । तव सोमशर्माने कहा कि अच्छा इन व्रतों को तो नहिं छोड़ना परंतु मुनियोंको जाकरके मुझे अवश्य कहना है कि- तुम्हें हमारे विना पूछे हमारी बेटीको व्रत देनेका क्या अधिकार है ? सो चल, वे नंगे मुनि कहां हैं सो नागश्रीका हाथ पकड़कर मुनियों के पास गया। दूरसे ही देखकर सोमशर्मा 'क्रोधित होकर बोला कि क्यों रे नंगों ! तुमने मेरी लड़कीको व्रत देकर क्यों ठग लिया बतलाओ तुम्हें इसका क्या अधिकार था ? सूर्यमित्र मुनि महाराजने - सोमशर्माको उत्तेजित देख धीर· तासे कहा कि - भाई ! जरा धीरज घर क्यों इतनी जल्दी कर - रहा है ? मैंने इसे व्रत दिये है परंतु अपनी लड़की समझकर दिये हैं और वास्तव में यह लड़की है भी मेरी । तेरा तौ इस पर Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ जैनवालवोधककुछभी अधिकार नहीं है । तू भले ही कह कि यह मेरी लड़की है परंतु वास्तव में यह तेरी लड़की नहि है ऐसा कहकर मुनिमहाराजने नागश्रीको पुकारा । नागश्री झटसे पाकर उनके पास वैट गई । अब तो ब्राह्मण देवता बड़े घबराये। 'अन्याय' 'अन्याय' कहकर चिल्लाते हुये राजाके यहाँ जाकर पुकारा कि मेरी वेटोको नंगे साधुओंने छीन लिया । सो मुझे दिला दीजिये। यह वात सुनकर राजा और राजसमा चकित हो गई । क्या बात है ऐसा कैसे हो सकता है तब राजा सबके साथ मुनिमहाराजकी सभा में पाया और सोमशर्माने फिर कहा कि देखिये वह नामश्री लड़की मेरी वैठी है मुनिराज कहते हैं कि-मेरी है। इस प्रकार झगड़ा होनेके वाद सोमशर्मासे मुनि वोले कि यदि यह लड़की तेरी है तौ वता कि तूने इसे क्या पढ़ाया है ? मैंने तो इसे सब शास्त्र पढ़ाये ! इसलिये मैं कहता हूं कि यह लड़की मेरी है। तव राजा बोले प्रभों ! यदि आपनेहसको सव शास्त्र पढ़ाये हैं तो उन शास्त्रोंमें इसकी परीक्षा दिलवाइये जिससे हमे विश्वास हो। ____ तव मुनिमहाराज नागश्रीके शिरपर हाथ रखकर वोले कि हे नागश्री ! मैंने तुझे वायुभूतिके भवमें जितने शास्त्र पढ़ाये हैं। उनमें इस उपस्थित मंडलीको परीक्षा दे । फिर क्या था मुनिमहाराजकी प्रामा होते ही जन्मांतरके पढ़े हुये सब शास्त्र नागश्री ने धारा प्रवाह सुना दिये । राजा और उपस्थित समस्त जनोंको .बड़ा अचंभा.हुआ। सबके चित्त डामाडोल हो गये नागश्री छोटीसी लड़की अभी तक इसके पिताने अक्षराभ्यास भी नहि कराया यह सव शास्त्र किस प्रकार सुनाने लगी ।. सवने हाथः Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य भाग । ३२७ जोड़कर कहा कि -- महाराज यह क्या कौतुक है शीघ्र ही हम लोगोंका संदेह दूर कीजिये । तव मुनिमहाराजने नागश्रीके पूर्वजन्मका समस्त चरित्र कहकर सुनाया और सबको जैनधर्मका उपदेश देकर संसार शरीर भोगोंसे विरक्त होकर आत्मकल्याण करने में प्ररेणा की जिसके सुननेसे राजाको वास्तव में ये सब मोहकी लीला जान पड़ां मोह ही सब दुःखका मूल है इत्यादि विचारनेसे बड़ा वैराग्य हो गया। सो अनेक राजाओं के साथ जिनदीक्षा ग्रहण की। सोमशर्मा भी जैनधर्मका सत्यार्थ उपदेश सुनकर मुनि हो गया और तपस्या करके अच्युत स्वर्ग में देव हुआ । नागश्रोको भी अपने पूर्व के भव सुनकर वैराग्य हो गया सो दीक्षा लेकर प्रार्थिका हो गई और अंतमें शरीर छोड़ कर अच्युत स्वर्ग में महर्द्धिकदेव हो गई । वहांसे विहार करके सूर्यमित्र और अग्निभूति मुनिमहाराजने अग्निमंदिर पर्वत पर जाकर तपस्या द्वारा घातिया कर्मोंको नाश करके केवल ज्ञान प्राप्त किया और त्रिलोकपूज्य हां शेषमें शेष कर्मोको नष्ट करके मोक्ष को पधारे । इसके पश्चात् प्रयंती देशके उज्जैन नगर में इन्द्रद्रत्त नाम का शेठ बड़ा धर्मात्मा जिनभक्त दृढ़ श्रद्धानी या उसकी स्त्री गुणवती के गर्भ में प्रच्युतस्वर्गका देव जो कि सोमशर्माका जीव था सो सुरेंद्रदत्त नामका गुणी पुत्र हुआ। सुरेंद्रदत्तका विवाह उज्जैन में ही सुभद्रसेठकी लड़की यशोभद्राके साथ हुवा इनके घर में किसी बातकी कमी नहीं थी पुण्यके प्रतापसे अटूट धन और सर्व प्रकार के सुख प्राप्त थे । परंतु कोई संतान नहीं थी । एक दिन Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮ जैनदालबोधक सुभद्राने अवधिज्ञानी मुनिराज से पूछा कि -- महाराज मेरा मनोरथ भी कभी सिद्ध होगा ? मुनिमहाराजने मनोगत अभिप्राय जान कर कहा कि- "हां होगा अवश्य होगा परंतु जिस दिन तेरे उस मोक्षगामी भव्यजीव पुत्रका जन्म होगा, तेरे स्वामी पुत्रका मुख देखकर मुनि हो जायगे । दुसरे जिस दिन तेरा वह पुत्र किसी मुनिको देख पावैगा तौ वह भी मुनि दीक्षा लेकर योगी हो जायगा । मुनिमहाराजके कथनानुसार नौ महिने बाद यशोभद्रा सेठानी के उदरसे नागश्रीका जीव वही महर्द्धिकदेव पुत्ररूपसे उत्पन्न हुप्रा और उसका नाम सुकुमाल रक्खा गया । उधर सुरेंद्र पुत्र के दर्शन करके मुनिदीक्षा लेकर कर्मोंको काटने लगा । जब सुकुमाल युवावस्थाको प्राप्त हुआ तो उसकी माता यशोभद्राने अच्छे २ घरानेको ३२ सुंदर कंन्याओंके साथ विवाह करा दिया और उन सबके लिये एक जुदा ही बड़े बड़े रमणीक महल जिसके पीछे मनोहर उपवन था वनवाकर सर्व प्रकार की भोगोपभोग समाग्रियोंसे सजा दिया सो सुकुमालजी अहोरात्र ३२ स्त्रियों सहित नानाप्रकार के भोगों में अहोरात्र मग्न हो रहे सूर्योदय और मस्तका भी उन्हे ठिकाना न रहा । · एक दिन वाहरके सौदागरने एक बहुमूल्य रत्नजडित कंबल बेचने के लिये राजा के पास जाकर दिखाया परंतु उसकी कीमत अत्यंत अधिक होनेसे राजा नहिं ले सका। किसी के कहनेसे वह सुकुमालशेठ के घर माया तौ यशोभद्राने तुरंत ही मुख मांगे दाम देकर वह कंवल सुकुमालके लिये महल पर भेज दिया परंतु Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । ३२ वह सुकुमाल ही था सो उस कंवलको ओढ़ते ही घबड़ाया और उतार कर फेंक दिया । तव यशोभद्राने उसके टुकड़े करके बहुत्रों - केलिये जूतियां वनवादीं। एक दिन सुकुमालकी एक स्त्री जूतियां खोलकर पांव धो रही थी सो चील उसे मांसखंड सम जूतीको उठा लेगई परंतु यह मांस नहिं है ऐसा समझते ही एक वेश्या के घर पर छोड़ दिया | वेश्याने इतनी कीमती जूनी राजघरानेकी समझ राजाके पास लेजाकर पेश की तौ राजाने बड़ा प्राचर्य किया कि जिसकी स्त्री ऐसी बहुमूल्य जूती पहरती है उसके धनका क्या ठिकाना इसका पता लगाना चाहिये। जब राजाने पता लगाया तो मालूम हुआ कि वह शेठ सुकुमाल है और उसकी स्त्री ही यह जूती है । राजाको सुकुमालसे मिल नेकी उत्कट इच्छा हुई तो खवर देकर एक दिन महाराज स्वयं 'सुकुमाल के घर गये । यशोभद्वाने वड़ा आदर सत्कार किया 'और अपने पुत्र और राजाकी एकही साथ घृतके दियेसे भारती उतारी जिससे सुकुमालको आंखों में पानी आगया । राजाने पूछा - तौ यशोभद्राने कहा कि महाराज ! इसने जन्म से लेकर आज तक रतनदीपक के सिवाय ऐसा दीपक कभी नहिं देखा था इसीसे • इसकी आंखों में पानी आ गया है । तत्पश्चात् राजाको और सुकुमालको भोजन कराया गया तौ सुकुमाल चावलों को वीन वीन कर खाने लगा । राजाने भेद पूछा तौ यशोभद्राने कहा कि खिले कमलों में चावल रख कर सुगंधित किये जाते है वे ही चावल यह हमेशद खाया करता है आज वे चावल अधिक न होनेसे दूसरे चावल मिलाकर Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० जैनवालवोधक बनाये गये हैं सो यह वीन वीन कर उन्हीं चावलोंको खाता है । राजाने खुश होकर पुगयात्मा सुकुमालको प्रशंसा करके कहा कि. माताजी ! आज तक तौ यह तुमारे घरके ही सुकुमाल थे परंतु अब मैं इसे अवंतिसुकुमालकी पदवी देकर सारे देशका सुकुमाल . बनाता हूं। तत्पश्चात् - राजा और सुकुमाल यागकी बावड़ी में जल क्रीड़ा करने को गये सो राजाकी एक बहुमूल्य अंगूठी जल में गिर पड़ी उसको ढूंढने लगे तौ देखा गया कि हजारों बहुमूल्य रत्न जडित गहने उस बावड़ी में पड़े हैं। उन्हे देखकर राजाकी अकल चकराई। सुकुमाल के अनंत वैभव को देख कर बड़े ही चकित हुये, कुछ शरमिंदा होकर महन्तको लौट आये यशोभद्राने रत्नोंसे भरे हुये थाल राजाकी भेटमें दिये और विदा किया ! हे विद्यार्थियो ! यह धन धान्यादि संपदाका मिलना, पुत्र, मित्र, सुंदर स्त्रोका प्राप्त होना अच्छे वस्त्र आभूषण आदि समस्त प्रकारको भोगोपभोग सामग्रीका प्राप्त होना एक मात्र पुण्यका प्रताप है और पुण्य जिनेंद्र भगवान्की पूजा करनेसे पात्रों को दान देने से भौर पंचाणुव्रत धारण करने आदि से होता हैं सो तुम भी ये सब कार्य करो । एक दिन जैन तत्वोंके पारगामी सुकुमालके मामा गणधराचार्य सुकुमालकी प्रायु बहुत थोड़ी रही जानकर उसके महल पीछे वागमें आकर ठहरे और चतुर्मास लगजानेसे उन्होंने वहीं पर चातुर्मालिक योगधारण कर लिया। यशोभद्राको उनके आने और चतुर्मास योग धारण करने की खबर मिली तौ वह Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। ३३१ दौड़कर आई और वंदना करके कह आई कि महाराज जब तक प्रापका चतुर्मास पूरा न हो तब तक आप ऊंचे स्वरसे स्वाध्याय या पठन पाठन न किया करें । जव उनका चतुर्मास पूर्ण हो गया तब उन्होंने योग संबंधी समस्त क्रियायें पूर्ण करके त्रिलोक प्रशप्तिका पाठ कुछ ऊंचे स्वरसे करना प्रारंभ किया। उसमें उन्हों ने अच्युतस्वर्गके देवोंको श्रायु काय आदिकी ऊंचाई वगेरहका वर्णन खूब अच्छी तरहसे किया था सो उसे सुनकर सुकुमाल को जातिस्मरण हो गया। पूर्व जन्ममें पाये हुये दुःखोंको यादकर वह कांप गया फिर क्या था उसी समय चुपकेसे महलसे उतर कर मुनिमहाराजके पास पाकर साष्टांग प्रणाम किया और वैठगया। मुनिमहाराजने कहा-वेटा! अव तुमारी आयु सिर्फ तीन दिनकी रह गई है इस लिये अव तुम्हे इन विषय भोगोंको छोड़कर आत्महितमें लग जाना चाहिये । ये विषयभोग पहिले कुछ अच्छेसे लगते हैं परंतु इनका अन्त बड़ा ही दुखदाई है। जो विषय भोगोंकी धुनमें ही मस्त रहकर अपने हितकी तरफ ध्यान नहिं देते. उन्हे कुगतियोंमें अनंत दु:ख उठाने पड़ते हैं। यद्यपि शीत कालमें अग्नि शरीर को सुखदायक प्यारी लगती है परंतु घनिष्ट संबंध करते ही यानी कृते ही जलादेती है इसी प्रकार ये विषय भोग हैं। इस प्रकार मुनिमहाराजका उपदेश सुन सुकुमालको बड़ा वैराग्य हो गया और उसी समय सुखदायक जिन दीक्षा लेकर मुनिमहाराजके साथ वनमें चल दिया। जो सुकुमाल फूलोंकी. शय्या पर सोते और फूलों सरीखी कोमल फर्सपर चलते थे। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ जैनवालवोधकवेआज कंकड़ पत्थर कंकड़मय पृथिवीपर नंगेपांव चल रहे हैं : यद्यपि पांवोंके तलुए छिलकर रक्त बहने लगा परंतु उस तरफ कुछ भी ध्यान नहीं हैं वे दनादन चले जा रहे हैं। सारी जिंदगीमें जिनकी अांखोंमें प्राशु न भरे हों उनकी आखोंमें भी सुकुमालका यह अंतिम तीन दिनका जीवन आंशु लादेनेवाला है। पांवों से खून बहता जाता है और सुकुमालमुनि चले जा रहे है. चलकर एक पहाड़की गुफामें पहुंचे वही पर ध्यानासन जमाकर बारह भावनाओंका विचार करने लगे। उन्होंने प्रायोपगमन सन्यास धारण कर लिया था जिसमें कि अपनी सेवा सुरुषा करानेका भी निषेध है। सुकुमाल मुनि तौ इधर प्रात्मध्यानमें लवलीन हुये अब जरा इनके वायुभूतिके जन्मकी वात याद कीजिये। जिस समय वायुभूतिके बड़े भाई अग्निभूति मुनि हो गये थे उस समय अग्निभूतकी स्त्रीको इन्होंने लात मारी थी सो उस वक्त उस भोजाईने निदान किया था कि इस अपमानका बदले में इस जन्ममें नहीं तो किसी न किसी अगले जन्ममें इसी पांवको और तुमारे हृदयको अवश्य खाऊँगी, तब ही मुझे शांति मिलेगी। सो वह भोजाई अनेक कुयोनियोंमें नानाप्रकारके दुःख भोगे सो अब वह इसी वनमें स्यारनी (गीदड़ी) हुई साथमें उसके तीन बच्चे थे सो वे चारों ही पावोंसे पथरों 'पर पडे हुये रक्त विंदुओंको चाटते २ इस गुफातक आ गये और स्यारनी सुकुमालको देखते ही क्रोध करके उस. पर झपटी और अचल ध्यानमें बैठे हुये मुनिको खाना सुरूकर Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। ३३३ दिया सो वरावर चारों जीवोंने तीन दिन तक मुनिमहाराजको थोड़ा थोड़ा करके खाया मुनिमहाराज उस पीड़ासे रंचमात्र भी. चलायमान नहिं हुये तीसरे दिन शरीरको. त्यागकर रागद्वेष रहित सम भावोंसे मरकर फिर भी अच्युत स्वर्गमें जाकर महद्धिकदेव हुये । वायुभूतिकी भोजाई स्यारनीने अपने निदानका बदला चुफा लिया। कहाँ वे मनको लुभानेवाले भोग और कहां यह दारुण तप. स्या सच तो यह है कि महापुरुषोंका चरित्र कुछ विलक्षण ही हुआ करता है। सुकुमालमुनि अच्युत स्वर्गमें देव होकर अनेक प्रकारके दिव्य सुखोंको भोगते हैं और जिन भगवान की भक्ति में सदा लीन रहते हैं। सुकुमालमुनिकी इस वीर मृत्युके प्रभाव से स्वर्गके देवोंने आफर उनका बड़ा भारी उत्सव मनाया और जय जय शन्द करके वड़ा.भारी कोलाहल किया। कहते हैं किइसी कारणसे ही उज्जैनमें महाकाल नामके कुतीर्थकी स्थापना हुई हैं और देवोंने सुगंधित जलकी वर्षा की थी उसीसे यहांकी: नदी गंधवती नामसे प्रसिद्ध हुई हैं। ५९. जकडी (३) भूधरदासकृत। अब मन मेरे वे, सुन सुन सीख सयानी। जिनवर चरना दे, कर कर प्रीतिं सुझानी ॥ कर प्रीति सुशानी शिवसुखदानी, धन जीतव है पंचदिना।' कोटि वरप जीवौ किस लेखे, जिनचरणांबुजभक्ति विना . . Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालबोधक नर परजाय पाय अति उत्तम, गृहबसि यह लाहा लेरे। समझ समझ बोलें गुरुशानी, सीव सयानी मन मेरे ॥१॥ तू मति तरसै चे, सम्पति देख पराई। बोये लुनि लेवे, जो निज पूर्वकमाई ॥ पूर्वकमाई सम्पति पाई, देखि देखि मति झूर मरे । वोय बंबूल शूल-तरू भोंदु, धामनकी क्या आस करें । श्रवकछु नमझ बूझ नर तासौं, ज्यों फिर परभव सुख दरसे। कर निज ध्यान दान तप संजम.देखि विभवपर मत तरसै ॥२॥ जो जगदीस वे. सुंदर अर सुखदाई। सो सब फलिया वे, धरमकल्पद्रुम भाई ॥ . सो लव धर्म कल्पद्रुमके फल, रथ पायक बहु रिद्धि सही। तेज तुरंग तुग गज नौ निधि, चौदह रतन छखंड मही । रति उनहार रूपको सीमा, सहस छयानवै नारि वरै। .सो सब जान धर्मफल भाई, जो जग सुंदर दृष्टि परै ॥३॥ लगें असुंदर वे, कंटकघान घनेरे।। ते रस फलिया बे, पापकनकतरुके रे ॥ ते सब पायकनक-तरुके फल, रोग सोग दुख नित्य नये । कुथित शरीर चीर नहिं तापर, घरघर फिरत फकीर भये: भूख प्यास पीड़े कन मांग होत अनादर पगपगमें। ये परतच्छ पापसंचितफल, लगें असुंदर जे जगमें ॥॥ इस भववनमें वे, ये दोऊ तक जाने । - जो मन माने बे, सोई सींच सयाने ॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। ३३५ सींच सयाने जो मन माने, वेर वेर अव कौन कहै। न करतार तुही फल भोगी, अपने मुख दुख प्राप लहै ॥ धन्य धन्य जिनमारग सुंदर, सेवनजोग तिहँपनमें। जासौं समुमि परै सव भूधर, सदा शरण इस भवयनमें ॥५॥ ... ६०. श्रुतपंचमी पर्वको उत्पत्ति। . .. --::--- श्री महावीर स्वामीकी मुक्ति होनेके १८३ वर्ष बाद जब कि अंगशानका विच्छेद हो गया तब उर्जयंत गिरिको (गिरनारजीकी ) चंद्र गुफामें निवास करनेवाले महातपस्त्री श्रीधरसेनाचार्य हुये इन्हे अग्रायणी पूर्वके अंतर्गत पचम वस्तु के चतुर्थ महाकर्म प्रामृतफा झान था जब उनके अपने निर्मल ज्ञानमें यह भासमान हुआ कि अब मेरी आयु थोड़ी ही रह गई है और मुझे लो शास्त्रज्ञान है वही संसारमें कुछ दिन रहेगा इसले आगे मेरेसे अधिक कोई शास्त्रज्ञ नहिं होगा और यदि कोई विशेष प्रयत्न नहि किया जायगा तो जिसका मुझे शास्त्रज्ञान है उसका भी विच्छेद हो जायगा । इसी प्रकार विचार करके निपुणमति धरसेनाचार्य महाराजने देशेंद्र (आंध्र ) देशके वेणा तटाकपुरमें तीर्थ यात्रार्य आये हुये संघाधिपति महासेनाचार्यको एक पत्र लिखा कर एक ब्रह्मचारी के साथ भेजा कि-"मेरी आयु अत्यंत स्वल्प रह गई है जिससे मेरे हृदयस्थशास्त्रज्ञानकी व्युच्छित्ति हो जानेकी संभावना है अतएव उसकी रक्षाके लिये आप यदि दो ऐसे यतीश्वरोंको Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालवोधकभेज दीजिये जो शास्त्रज्ञान धारण करनेमें समर्थ और तीक्ष्ण बुद्धि हों तो मैं हृदयस्यशास्त्रज्ञान उन्हें धारगा करा दूं । जिससे वे कुछ दिन वीर शासनको कायम रख सके। जव यह पत्र ब्रह्मचारीके हाथ महासेनाचार्य के हस्तगत हुआ तौ पढ़नेसे वड़ा पानंद हुआ और अपने संघर्मसे पुष्पदंत और भूतबली नामके दो मुनियोंको तीक्ष्ण बुद्धि धारक समझ श्रीधर सेनाचार्यके पास भेज दिया जिस दिन प्रात:काल ये दोनों मुनि पहुंचे उसी रात्रिको प्रभात ही श्रीधरसेनाचार्य महाराजको स्वप्न हुवा कि-दो हष्ट पुष्ट सफेद वैल उनके चरणों में नमस्कार कर ते हैं इस उत्तम स्वप्नको देखकर आचार्य महाराजको वेहद प्रस. मता हुई और यह कहकर उठ बैठे कि-समस्त संदेहोंको नष्ट करनेवाली श्रुतदेवी-जिनवाणी सदा काल संसारमें जयवंत रहै।" . प्रातःकाल होते ही उन दोनों मुनियोंने जिनकी उन्हे चाह थी आकर प्राचार्य महाराजके पावों में बड़ी भकिसे अपना शिर झुकाया और प्राचार्य महाराजकी स्तुति की। प्राचार्य महाराज उनको आशीर्वाद दिया कि तुम लोग चिंरजीवी होकर भगवान् महावीर स्वामीको पवित्र शासनकी सेवा करके विस्तार करो। . अक्षान और विषयोंके दास बने संसारी जीवोंको शान देकर उन्हे कर्तव्यकी तरफ लगायो। तत्पश्चात आचार्यमहाराजने उन दोनों मुनियोंको तीनत्रक मार्ग श्रमदूर करनेके पश्चात उनकी बुद्धिको परीक्षा करनेके लिये दो साधनेके दो मंत्र विद्यायें दिये उन मंत्रोंमें दो तीन प्रक्षर न्यूना Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। ३३७ धिक करके इन्हे सिखाये। ये दोनों ही मुनि गिरनारजीपरभग• वान नेमिनाथको सिद्धशिला पर बैठकर मंत्र साधने लगे। मंत्र साधनेकी अवधि पूरी हुई तव कम अक्षरवाले मंत्रका जाप करनेवाले मुनिके सामने तो एक आंखवाली देवी आई और अधिकातर साधनेवाले मुनिके सामने बडे २ दांतवाली देवो आकर खड़ी हो गई । इन दोनोंने ही विचारा कि देवियोंके रूप तो ऐसे कदापि नहिं हो सकते यह क्या कारण है जो इन विद्याओंका विकृत अंग है हमारी साधनामें कोई न कोई अवश्य भूल है तव दोनोंनेही अपने २ मंत्रोंको मंत्र व्याकरणके अनुसार मिलाकर ठीक किया और फिरसे उन मंत्रोंका जाप्य करना प्रारंभ किया तब मंत्रारा. धन विधि पूरी होते ही वे दोनों देविय सुन्दराकारसे हाजिर हुई और वो नीति "कहिये किस कार्यके लिये हमे आशा होती है।" मुनियोंने कहा कि हमे कोई जरूरत नहिं है हमने तो गुरुकी आज्ञासे मंत्रोंकी सिद्धि की है। तब "जव कभी जरूरत हो तव याद करें हम तत्काल ही हाजिर होकर आमा पालन करेंगी" ऐसा कह कर वे देवियां अपने २ स्थानको चली गई। उन दोनों मुनियोंने प्राचार्य महाराजकी सेवामें उपस्थित होकर अपना सारा वृत्तांत निवेदन किया तौ सुनकर आचार्य महाराज बड़े प्रसन्न हुये और शुभ तिथि शुभ नक्षत्र समय देखकर उन्हे पढ़ाना प्रारंभ कर दिया और वे मुनि भी प्रमादरहित हो गुरुविनय और शानविनय पालन करते हुये. अध्ययन करते रहे। ..कुछ दिनके पश्चात् प्रापाढ़.शुक्ला . एकादशीको विधिपूर्वक, ग्रंथाध्ययन समाप्त हुआ उस समय देवोंने. पुष्प वरसाये और Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालवोधकमुनिमहाराजकी दंतपंक्ति जो विषमरूप थी उसे सुंदर कुंदके पुष्प समान कर दिया और उनका पुष्पदंत नाम सार्थक कर दिया और इसी प्रकार भूतजातिके देवोंने भूतवली मुनिकी तूर्यनाद जय. घोष तथा गंधमाल्य धूप श्रादिसे पूजा करके उनका भी सार्थक नाम भूतपति रख दिया । - दुसरे दिन प्राचार्य महाराजने यह सोचकर कि मेरी मृत्यु संनिकट है यदि ये समीप रहेंगे तो ये बड़े दुःखी होंगे, उन दोनों मुनियोंको कुरीश्वर भेज दिया और तब वे दिन चलकर उस नगरमें पहुंचे। वहां आषाढ़ कृष्ण पञ्चमीको योग ग्रहण करके वर्षाकाल वहीं पर पूर्ण किया। तत्पश्चात् दक्षिणकीतरफ विहार करके कुछ दिनोंमें वे दोनों ही महात्मा करहाट नगरमें पहुंचे। वहां पर श्रीपुष्पदंतमुनि तौ अपने जिनपालित नामके भानजेको मुनिदीक्षा देकरके अपने साथ लेकर वनवासदेशमें जा पहुंचे। इधर भूतबलि महाराज द्रविड़देशके मथुरानगरमें पहुंचकर ठहर गये। करहाटनगरसे इन दोनों मुनियोंका साथ छूट गया। श्रीपुप्पदंतमुनिने जिनपालितको पढ़ानेकी इच्छा करके कर्म प्राभूतकी छहखंडोंमें उपसंहार करके ग्रंथरूप रचना करनी चा. हिये ऐसा विचार करके उन्होंने प्रथम ही जीव स्थानाधिकार की (जिसमें कि-गुणस्थान जीव सामासादि वीसप्ररूपणामोंका ___.१ दक्षिण देशमें पहिले शुक्लपक्ष पश्चात् कृष्णपक्ष होता है वह भी अगले महिने कृष्णपक्ष होता है । अर्थात हमारे उत्तर हिंदुस्थानके पंचांगों के अनुसार यह आषाढ कृष्ण श्रावणका कृष्णपक्ष है.।.. Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। ३३६ वर्णन है ) वहुत उत्तमचाके साथ रचना की। फिर जिनपालित शिष्यको सौ सूत्र पढ़ाकर मूतवलिमुनिके पास उनका अभिप्राय जानने के लिये भेजा और जिनपालितने जाकरके सौ सूत्र भूतचलिमहाराजको सुना दिये तो सुनकर उन्होंने श्रीपुष्पदंतमुनिका पखंडरूर आगम रचना करने का अभिप्राय समझ लिया और अव लोग दिन पर दिन अल्पायु और अल्पमति होते जाते हैं ऐसा विचार करके स्वयं पांच खंडोंमें पूर्व सूत्रोंके सहित छह हजार श्लोकोंद्वारा द्रव्यप्ररूपणा अधिकारकी रचना. की और इसके पश्चात् महावंध नामक छठे खंहको तीस हजार सूत्रों में रचना करके समाप्त किया । पहिले पांचखडों के नाम-जीवस्थान, लकवंध, वैधस्वामित्व, भाववेदना और वर्गणा है। श्रीभूतबलि मुनिमहाराजने इस प्रकार पड्खड भागमकी रचना करके पुस्तकमें लिखवाकर लिपिबद्ध किया और ज्येष्ठ शुक्ला पञ्चमीको चतुर्विध संघसहित वेष्टनादि उपकरणों के द्वारा क्रियापूर्वक पूजा की । उसी दिनसे यह जेष्ठ शुक्ला पंचमी संसार में श्रुतपंचमी पर्वके नामसे प्रसिद्ध हुई । इस दिन श्रुतका पुस्तक रुपमें अवतार हुआ इस लिये आजपर्यंत समस्त जैनी जेट सुदी 'पंचमीके दिन श्रुतपूजा (श्रुतस्कंधविधान ) करते हैं। कुछ दिनके पश्चात् भूतवली आचार्यने पट खंड आगम अच्छी तरह अध्ययन (कंठान ) करके जिनपालितके साथ वह पुस्तक देकर श्रीपुष्पदंतमुनिके.पास भेज दिया और उसे देखकर अपने चितवन किये हुये कार्यको पूर्ण हुआ समझकर श्रीपुष्पदंताचार्य शास्त्रके प्रगाढं अनुरागमें तन्मय हो गये और उस ग्रंथको Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० जैनवालबोधक बड़ी भक्ति से पढ़कर गले जेष्ठकी पंचमीको बड़े श्रानंद उच्छाय से स्कंध विधान किया और इस वर्ष दक्षिण के सब नगरों में श्रुतपंचमी पर्व मानकर श्रुतपूजा की गई। दक्षिण देशमें तौ यह श्रुतपंचमी पर्व उसी दिनसे आज तक मनाया जाता है परंतु हमारे उत्तरप्रांत में कुछ दिनोंसे ही यह पर्व बड़े बड़े शहरों में मनाया जाता है । सर्वत्र इसका प्रचार भी तक नहिं हुआ है अतएव विद्यार्थियोंको चाहिये कि प्रति वर्ष जहां तक वनै स पर्वके मनाने का प्रयत्न किया करें और दो चार नवीन ग्रंथ प्राचीन ग्रंथ परसे जीर्णोद्धार करा कर अपने यहां मंदिरजी में स्थापन किया करें। - -::-- ६१. जकडी ( ४ ) रामकृष्ण कृत । -:: अरहंतचरन चिलाऊं । पुन सिद्ध शिवंकर ध्याऊं ॥ बंद निमुद्राधारी । निर्ग्रन्थ यती अविकारी ॥ अविकार करुणावंत वन्दों, सकललोक शिरोमणी । सर्वशभाषित धर्म प्रणम्, देय सुख सम्पति घनी ॥ ये परममंगल चार जगमें, चारु लोकोत्तम सही । भव भ्रमत इस असहाय जियकों, और रक्षक कोऊ नहिं ॥ १ # मिथ्यात्व महारिषु दंड्यो । चिरकाल चतुर्गति हंड्यो || उपयोग - नयन-गुन खोयो । भरि नींद निगोदै सोयौ ॥ सोयौ अनादि निगोदमें जिय, निकर फिर थावर भयौ । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग I. . भू तेज तोय समीर तरुवर, थूलसूच्छमतन लयौ ॥ कृमि कुंथु अली सेणी असणी, व्योम जल थल संचखो। पशुयोनि वासठलाख इस विधि, भुगति मर मर अवतन्यो॥२ अति पाप उदय जब आयौ । महानिंद्य नरकपद पायो । थिति सागरों वन्ध जहाँ है । नानाविधि कष्ट तहाँ है। है त्रास अतिआताप वेदन, शीत बहुयुत है मही। जहां मार मार सदैव सुनिये एक क्षण साता नहीं । नारक परस्पर युद्ध ठान, असुरगण क्रीड़ा करें। इसविधि भयानक नरकथानक, सहै जी परवश परें ॥ ३६ मानुपगतिके दुख भूलौ । वसि उदर अधोमुख मूलौ ।' जन्मन जो संकट सेयौ । अविवेक उदय नहिं वेयौ। वेयौ न कछु लघुवालवयमें, वंशतरुकोपल लगी। दल रूप यौवन वयम प्रायो, काम-दौं तव उर जगी ॥ जब तन बुढ़ापौ घटौ पौरुष, पान पकि पीरौ भयौ । झडि परयो काल वयार वाजत, वादि नरभव यौं गयौ ॥४॥ अमरापुरके सुख कीने । मनवांछित भोग नवीने ॥ उरमाल जवै मुरझानी । विलपौ श्रासन-मृतु जानी ॥ मृतु जान हाहाकार कीनौं, शरण अव काकी गहौं। यह स्वर्गसम्पति छोड़ भव मैं, गर्भवेदन क्यौं सहौं । तब देव मिलि समझाइयो, पर कछु विवेक न उर वसौ। सुरलोकगिरिसे गिरि प्रशानी, कुमति-कांदौ फिर फंसौ ॥५॥ इस विधि इस मोही जीने । परिवर्तन पूरे की ।। तिनकी यह कष्टकहानी । सो जानत केवलज्ञानी। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालयोधकशानी विना दुख कौन जान, जगत वनमें जो लह्यो। जरजन्ममरणस्वरूप तीछन, त्रिविधि दावानल दह्यो । जिनमतसरोवरशीतपर अब, पेठ तपन बुझाय हौ। जिय मोतपुरकी वाट वूझौं. अब न देर लगाय हौं । यह नरभव पाय सुशानी । कर कर निजकारज प्रानी। तिर्यंचयोनि जब पावै । तब कौन तुझे समुझावै ॥ समुझाय गुरु उपदेश दीनौं, जो न तेरे उर रहै । तो जान जीव अभाग्य अपनो, दोष काहको न है। सूरज प्रकाशै तिमरनाशै, सकल जनको भ्रम हरै । गिरिगुफागर्भ उदोत होत न, ताहि भानु कहा करै ॥ ७ ॥ जगमाहि विषयवन फूलौ । मनमधुकर तिस विच भूलौ ॥ रसलीन तहां लपटानौ । रस लेत न रंच अघानौ ॥ न घाय क्यौं ही रमै निशिदिन, एक क्षण भी ना चुके। नहिं रहै वरजौ घरज देखौ, वार वार तहां झुकै ॥ जिनमतसरोत सिधान्तसुन्दर, मध्य याहि लगाय हौं । अब 'रामकृष्ण' इलाज याकौ. किये ही सुखपाय हौं ॥८॥ ६२. सुकांशलमुनि। अयोध्यानगरीमें प्रजापाल राजाके समयमें एक सिद्धार्यनामके धनी शेठ थे । इनके ३२ स्त्रियां थीं परंतु संतान एकके भी नहीं र्थी । सबसे प्रिय जयावती नामकी स्त्री थी उसे पुत्रप्राप्तिकी सबसे अधिक इच्छा थी जिससे वह अनेक यत्तदेवी देव Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग ३४३ तोंकी पूजा करके उनसे पुत्र चाहती थी । परंतु किसी भी देवताने उसकी इच्छा पूर्ण नहिं की । उसे कुदेवादिकको पूजते हुये एक मुनिमहाराजने देखा तो उसे उपदेश दिया किपुत्रकी प्राप्ति इन मिध्यातो देवता मोंको पूजनेसे कदापि नहि हो सकती । पुत्र धन धान्यादि सुखकी जितनी सामग्री मिलती है वह पुण्यके उदयसे मिलती है । इस लिये तू पुण्यप्राप्तिके लिये जिनधर्म पर विश्वासकर जिससे तू सच्चे मार्ग पर था जायगी और पुराय के प्रतापसे तेरी इच्छा सातवर्ष के भीतर २ पूरी हो जायगी मुनि महाराजका उपदेश उसे लग गया वह उसी दिनसे जिनमें रत हो गई । कुछ वर्षो के बाद जयावतीको पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई । पुत्रप्राप्ति की खुशी में धर्मकी बड़ी प्रभावना की गई। नाम सुकोशल रक्खा गया। सुकोशल बड़ा सुंदर और तेज थोथा । सिद्धार्थशेठ संसार शरीर भागों से पहिले से ही विरक्त हो रहे थे । परंतु जब तक विषय संपत्ति संभालनेवाला वा भोगनेवाला न हो तब तक वे सर्वथा त्याग नहिं कर सकते थे । श्रव सुकोशल के होते हो उस के ललाट पर पदका तिलक करके श्राप नयंधर मुनिके पास जिन दीक्षा ले गये । • अभी बालकको जन्मते देर न हुई कि सिद्धार्थशेठ घरबार छोड़कर योगी होगये इस कठोरता पर जयावतीको वड़ा क्रोध श्राया और नयंधर मुनिपर क्रोध आया कि उन्हें इस समय दीक्षा देना उचित न था इस कारण मुनिमात्रपर उसकी अश्रद्धा हो गई और अपने घर पर मुनियोंका थाना जाना चन्द कर Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालबोधक ३४४ दिया । बड़े दुःखकी बात है कि जीव मोहके वशीभूत हो धर्म को भी छोड़ बैठता है । बड़ा होनेपर सुकोशलने भी अपने पिताका अनुकरण करके बड़े २ घरोंकी ३२ कन्याओंसे विवाह किया और दिन रात भोगों में बिताने लगे । माताका उसपर अत्यन्त स्नेह होनेके कारण नित्य नयी २ भोगसामग्री प्राप्त होती थी । सैकड़ों दास दासी हाजिर रहते थे । जो चाहता था वह वस्तु आंखोंक' इशारा करते ही प्राप्त होती थी । • १ उन पूछा एक दिन सुकोशल अपनी माता धाय और कई स्त्रियों सहित महलकी कृतपर बैठा २ अजोध्याको शोभाको देख रहा था । उसकी दृष्टि वहुत दूर दूर तक जारही थी । उसने एक मुनिमहाराजको आते देखा वे मुनिमहाराज सुकोशलके पिता ही थे के चदन पर कुछ भी कपड़ा न देख चकित होकर माता से कि- माता ये कौन हैं ? जिनके पास कुछ भी वस्त्र नहि हैं । सि'वार्थको देखते ही जयावतीकी आंखोंमें खून बरसने लगा उस ने कुछ घृणा और उपेक्षासे कहा कि - होगा कोई भिखारी, तुझे इससे क्या मतलव ? परंतु माता के इस उत्तरसे सुकोशजका दिल नहि भरा | माता ये तो बड़े खूबसूरत और तेजस्वी मालूम पड़ते हैं तुम इन्हें मिखारी कैसे बताती हो । जयावतीको अपने स्वामी पर ऐसी घृणा करते देख सुकोशलकी धाय सुनंदासे नहिं रहा गया। उसने कहा तुम जानती हो कि ये हमारे मालिक है और सुकोशलको मिथ्याश्रद्धान करा रही हो । यह तुम्हें योग्य नहीं। क्या होगया यदि ये मुनिं हो गये तो और भी हमारे पूज Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । ३४५ नीय हो गये। जिसकी जगह तू उल्टी निंदा कर रही है। यह बात पूरी भी न होने पाई थी कि जयावतीने श्रखके इशारेसे. समझाया कि तू चुप रह, चोचमें क्यों बोलती है ? कोशल ठीक तौ नहिं समझ पाया परंतु इतना अवश्य ज्ञान हो गया कि मेरी माने मुझे सच्ची बात नहिं वतलाई इतनेमें, रसोइया सुकोशलको भोजनार्थ चलनेको शर्थना करने लगा ! सुकोशलने भोजनार्थ जानेको इनकार कर दिया । माता वगेरह सवने कहा कि चलो ! बहुत समय हो गया परंतु सुकोशलने कहा "जब तक उन महात्माका सच्चा २ हाल न जान लूंगा तब तक मैं. भोजन नहिं करूंगा। जयावतीको सुकोशलके इस आग्रहमे कुछ गुस्सा था गया सो वह तो वहांसे चली गई। पीछेसे सुनंदाधायमाताने सिद्धार्थ मुनिको सब बातें उसे समझा दीं । सुन कर लुकोशलको बड़ा दुःख हुआ और साथ ही उसे संसार शः रीर भोगों से कुछ वैराग्य भी हो आया। वह उसी वक्त मुनिमहाराजके पास गया और उन्हें विनयसहित नमस्कार करके धर्म श्रवण करनेकी इच्छा प्रगट की। सिद्धार्थ मुनिमहाराजने उसे मुनि और गृहस्थका स्वरूप भिन्न भिन्न प्रकारसे विस्तार सहित सम काया । सुकोशलको गृहस्थधर्मपरं रुचि न होकर मुनिधर्म बड़ा पसंद आया और अपनी स्त्री सुभद्राको गर्भज संतानको अपने शेठ पदका तिलक करके माया ममता धन दौलत और स्वजना परिवारको त्यागकरके अपने पिताके पास ही मुनिदीक्षा लेकर चनको चल दिया | . एक मात्र पुत्र और वह भी योगी हो गया वह सुनकर जया : · Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ जैनवालदोधकबतीके हृदय पर बड़ी मारी चोट लगी। वह पुत्रवियोगसे पगलो हो गई खाना पीना उसके लिये जहर हो गया। अहोरात्र नेत्र श्रांनुओंसे भरे रहते . इसी चिंता दुःख और आर्तध्यानसे मरकर मगधदेशके मोहलिक नामके पर्वत पर व्याघ्रीका उन्न पाया ! इसके तीन बच्चे हुये, सो वनों सहित उसी पर्वत पर रहती थी। विहार करते २ एक दिन सिद्धार्य और मुकोशज मुनिने इस पर्वत पर पाकर योग धारण किया । योग पूरा होने पर ये जर मिनार्य शहरमें जाने के लिये पर्वत से उतरने लगे तो उस समय वह व्याघ्री (जो कि पूर्व जन्मने सिद्धार्थकी स्त्री और नुकोशल की माता यो ) इन्हे खानेको दौड़ी। ये जबतक सन्यास लेकर बैठने हैं कि इतनेने उसने या दवाया और फाड़कर खाने लगी सुकोशलको खाते २ जब उसका हाय ताने लगी तो उस समय सुकोशलके हायके चिन्हों ( लावणों) पर दृष्टि जा पडो । उन्हें देखते ही उसे पूर्व जन्मकी नृति हो आई और जिल पुत्रपर वेहद प्यार था जिसके वियोग दुःखसे ही मरी थी उसी पुत्रको ता रही हूं। धिक्कार है मुझ पापिनीको ! जो अपने ही प्यारे पुत्रको मैं खा रही हूं। हाय हाय मैं मोइमें फसकर ऐसा घोर पापकर रही हूं इत्यादि अपने पापोंकी पालोचना करके वह यात्री एकदम शरीरले विरक्त हो सन्यास धारण करके शुभ भावोंसे प्राण छोड़कर सौधर्म स्वगर्ने देव हुई और वे दोनों पिता पुत्र समाधिसे शरीर बोड़कर सर्वार्थसिद्धि में गये। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। ६३. जकडी (५) कविदासकृत । तुम त्रिभुवनपति हो जिया, पल अपना क्यों गमाया। तन्य सकल परहत्य दिया, विषयनिसौं मन लाया ॥ लाय मन विषयहिं निरत्ता चहृगतिमैं प्रति भमौ। जिनधर्म तजि मिथ्यात सेया, रहसि वांधे दुहकमौ ॥ संमारमें वसु सार जान्या मोह परिग्रह तुम किया । कवि दास वास कुवास छांडो तुम त्रिभुवनपति हो जिया ॥ शान कछू हिरदै धरौ जग धंदा करि जानौ। कामविषय सब परिहरी, समता घटमें पानौ ॥ प्रानि समताभाव घटमें, कुमति दूरि निवारयो । दिह गौ समकितभाव करुना. होय शुभमति सारओ। बहुत दिन भव बसत वीते, क्यों न घरकी सुधि करौ। कवि दास वास कुवास छोड़ो, ज्ञान कछु हिरदै धरौ ॥२॥ काल.बहुत भमते गए, मारग कहूं न पाया । मोहकरमठग संग लगे, नेट ज्यौं नाच नचाया ॥ नाच नट ज्यों तू नचाया, स्वांग बहुतेरे धरे । पांच पात्री छौ नायक, नाचते त्रिभुवन फिरे । जिय सकल सक्रति गंवाय अपनी, श्रानिके परहथ भए । कवि दास वास कुवास छांडौ, काल बहु भमते गए ॥३॥ १ पराये हाथमें । १ पांचों इन्द्रियां । ३ मन । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪. जैनवालबोधक परम महासुख चाह्, ता. परसंग निवारों । अष्ट करमदल गाह, अपनी सकति संभारों ॥ जिय सकल सकति संभार अपनी, सबै सेव तेरी करें। सुर असुर नर धरणिंद खग मुनि, तोहि जपि हियरे धरें । तुम आप परका भेद जानौ, बहुरि भव नहिं श्रावहु । कवि दास बास कुवास हांड़ी, परम महासुख चाहहु ॥ ४ ॥ -:0: ६४. कार्तिकेय मुनि | -:०: कार्त्तिक पुरके राजा अग्निदत्तकी रानी वीरवती के कृत्तिका नामकी एक लड़की थी । वह बहुत ही सुंदरी थी । एकवार अ· ठाई के दिनोंमें उसने आठ दिनके उपवास किये। अंत के दिन वह भगवानकी पूजा करके आशका ( पुष्पमाला ) लेकर भाई और अपने पिताको उसने दी। पिता माला लेते समय उसकी दिव्य रूप राशिको देखकर उसपर श्राशक हो गया। शेषमें कामसे पीडित होने पर उसने अनेक अनी और कुछ जैन मुनियोंको एकत्र करके उनसे पूछा कि क्यों महात्मा विद्वानों ! आपलोग कृपा करके यह बतावें कि- मेरे घरमें पैदा हुये रत्नका मालिक मैं ही हो सकता हूं कि अन्य कोई ? राजाका प्रश्न पूरा होते ही सब ओरसे एकही आवाज आई कि - महाराज उस रलके तौ १ दलन करों-करो । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ चतुर्थ भाग। प्रापही मालिक हो सकते हैं न कि दूसरा । परंतु जैन साधुओंने राजाके प्रश्नका गहरा विचार करके उत्तर दिया कि अपने यहां उत्पन्न हुये रत्नके मालिक आप ही हैं परंतु एक कन्यारत्नको छोडकर । क्योंकि कन्या पर मालिकी आप पिताके नातेसे योग्य वरके साथ विवाहादि क्रिया कर देने आदि द्वारा कर सकते हैं। जैन साधुओंका यह हितभरा उत्तर राजाको बहुत बुरा लगा और लगना ही चाहिये क्योंकि पापियोंको हितकी वांत कदापि नहीं सुहाती · राजाने जैन मुनियोंको देश निकाला दे दिया और अन्य विद्वानोंकी सम्मतिको मानकर अपनी पुत्रीके साथ स्वयं विवाह कर लिया। कुछ दिनोंके वाद कृत्तिकाके दो संतान एक लड़का और लड़की हुई। लडके का नाम कात्तिकेय और • लड़कीका नाम घोरमती रक्खा गया। वीरमती वडी सुन्दर यी उसका विवाह रोहेड नगरके राजा क्रौंचके साथ किया । वीरमती वहीं रहकर सुखके साथ दिन विताने लगी। इधर कार्तिकेय भी चौदह वर्षका हो गया। एकदिन काति.. केय अपने साथी राजकुमारोंके साथ खेल रहा था उस दिन वे सब नानाके यहाँसे पाये हुये नाना प्रकारके अच्छे २ वस्त्र और गहने पहिरे हुये थे। पूछने पर कार्तिकेयको मालूम हुवा कि वे वस्त्राभूषण सब राजकुमारोंके नाना मामाओंके यहांसे आये हुये थे। तब उसने अपनी माले जाकर पूछा कि क्यों मा! मेरे साथी राजकुमारोंके लिये तो उनके नाना मामा अच्छे २ कपड़े गहने भेजते हैं, मेरे नाना मामा क्यों नहीं भेजते ? .अपने प्यारे बोकी ऐसी भोली बात सुनकर कृत्तिकाका हदय भर पाया -- Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवालवोधकखोंसे आंसू वह चले । अब उसे वह क्या कहकर समझावे, शेपमें वेसमझ बञ्चके अत्यंत प्राग्रहसे उसे सच्ची वात कह देना पड़ी वह रोती हुई बोली-वेटा ! मैं इस महा पापकी बात तुझसे क्या कहूं ? कहते हुये मेरी छाती फटती है । जो वात दुनियामें आज तक भी न हुई वही वात तेरे मेरे संबंधों है । वह यह है कि- . जो तेरा बाप है वही मेरा वाप है। मेरे पिताने मुझसे जबर्दस्ती व्याह करके मुझे कलंकित किया और उसीको तू फल है । कार्तिकेयको इस वातके सुननेसे बेहद दुःख और ग्लानि हुई, लजा और आत्मग्लानिसे उसका हृदय तलमला उटा । उस ने फिर मातासे पूछा कि क्यों मा ! उस समय मेरे पिताको ऐसा अनर्थ करते किसीने रोका नहीं, सब कानोंमें तेल डाले पड़े रहे यसने कहा-वेटा! रोका क्यों नहीं। अनेक जैनमुनियोंने समझाया ‘था परंतु उनकी बात नहिं मानी गई, उल्टा उन मुनियोंको देशसे निकाल दिया। . कार्तिकेयने फिर पूछा कि-माता वे गुणवान् मुनि कैसे होते हैं ! कृत्तिका बोली-वेटा! वे बड़े शांत रहते हैं किसीसे लड़ते झगड़ते नहिं । कोई पचासों गालियां भी उन्हे दे जाय तो वे उसे कुछ नहिं कहते और न उन पर क्रोध करते हैं। बेटा! वे बड़े 'विद्वान होते हैं अपने पास धन दौलत तो दूर रहे वे एक फूटी 'कौड़ी भी अपने पास नहिं रखते। वे चाहे कैसी ही ठंडी गर्मी वा 'वर्षा क्यों न हो कपड़ा नहिं पहरते, दशों दिशा वा आकाशही उन के कपड़े होते हैं । उनके सब समान है। वेटा! वे बड़े ही दयावान होते हैं कभी किसी जीवको जरा भी नहीं सताते जीवोंकी. Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग ! रक्षाके लिये चे सव एक मयूरके पांखोंकी बड़ी कोमल पीछी रखते हैं सो चलते उठते बैठते समय उस पीसीसे जीवोंको हटा कर साफ जमीन पर चलते बैठते उठते हैं । उनके हाथमें एक लकड़ीका कमंडलु होता है उसमें शौचादि क्रियाके लिये जल रहता है। वे भिक्षा लिये श्रावकोंके घर जाते जरूर हैं परंतु मांगकर नहिं खाते कोई नवधा भक्तिपूर्वक प्रासुक आहार देता है तो हाथमें ही लेकर सोलह प्राससे अधिक नहिं खाते। वहींपर प्रत्येक ग्रासके साथ एक एक चुलु पानी पीते जाते हैं। फिर कभी पानी नहिं पोते । यदि कोई भक्तिपूर्वक श्राहारके लिये नहि तुलाता है तो फिरकर वनमें चले आते हैं इसी प्रकार पंद्रह २ महीनेके उपवास करजाते हैं । वेटा ! मैं उनके प्राचार विचारकी बाते कहां तक समझाऊं । ससारमें सच्चे साधु एक मात्र वेही होते हैं। अन्य नहीं। ___ अपनी माताके द्वारा जैन साधुओं की प्रशंसा सुनकर कार्तिकायकी उनपर बडी श्रद्धा हो गई। उसे अपने पिताके अनुचित कार्यसे विराग तौ पहिले ही हो गया था माताके इसप्रकार समझानेसे उसको उड जम गई । वह उसी समय माया ममता छोड धरसे निकल कर जैन मुनियोंके स्थान तपोवनमें पहुंच गया। मुनियोंका संग देखकर उसे बडी प्रसन्नता हुई। उसने वडी भक्तिसे उन सब साधुओंको हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और मुनिदोनाके लिये प्रार्थना की। संघके स्वामी आचार्य महाराजने उसे दीक्षा देकर मुनि बना लिया। कुछ दिनों में ही कार्तिकेय मुनि स. अम्त शास्त्रोंको पढकर विद्वान हो गये। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनवाल वोधककार्तिकेयकी माताने पुत्रके सामने मुनियोंकी प्रशंसा अवश्य की थी परंतु उसे क्या मालूम था कि वह यह सब सुनकर मुनि हो जायगा । इसलिये जब उमने सुना कि कार्तिकेय तो मुनि हो गया तो बडा पश्चात्ताप करने लगी उसके वियोगसे उसे बहुत ही दुःख हुआ। शेपमें पुत्रके प्रार्तध्यानसे ही मरकर वह देवी ___ उधर कार्तिकेय मुनि घूमते फिरते एक दिन अपने वहनाईके रोहेड नगरमें आये, जेठका महीना था गर्मी खूब तेजीसे तप रही थी। अमावस्याके दिन कार्तिकेय मुनि भिक्षाके लिये राज महलके नीचे होकर जा रहे थे कि उन पर महल में बैठी हुई उनकी बहन वीरमतीकी नजर पड़ गई। उसे अपना भाई पह. चान कर उसी वक्त अपनी गोदमें शिर रखकर लेटे हुये स्वामी का शिर नीचे रखकर दौडी हुई भाके पास आई और बडी भक्तिले अपने भाईको हाथ जोड़ कर नमस्कार किया तथा अनुरागके वश हो मुनिके पावोंमें गिर पड़ी । सो उचित ही है क्योंकि प्रथम तो भाई फिर मुनि हो तव किसका प्रेम उस पर न हो । क्रौंच राजाने जब एक नंगे भिखारोके पांव पड़ते हुये अपनी रानीको देखा तो उन्हें वडा क्रोध हो पाया। इस कारण उसने अपने सेवकों द्वारा मुनिको खूब पिटवाया। यहां तक मुनिमहा. राज पोरे गये कि मारसे वेहोश हो जमीन पर गिर पड़े।. सच है पानी मिथ्याती और जैनधर्मसे द्वेष रखनेवाले लोग ऐसा कौन सा नीच कर्म है जो नहिं कर डालते । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग। ३५३ कार्तिकेय मुनिको अचेत पडे देखकर उनकी पूर्वजन्मकी माता जो इस जन्ममें व्यंतरनी हुई है मोरनीका रूप लेकर आई और उन्हें उठाकर शीतलनाथ भगवानके मंदिर में निरापद स्थान पर रख दिया, मुनिकी अवस्था बहुत खराब हो चुकी थी। उनके अच्छे होनेकी कोई सूरत न थी इस कारण मूलासे चैतन्य होने पर उन्होंने सन्यास धारण कर लिया सो मरकर स्वर्गधाम पधारे। उस समय देवोंने आकर उनकी भक्ति पूजा की थी। उसी दिनसे वह स्थान कार्तिकेय तीर्थसे प्रसिद्ध हुआ और वे वीरमतीके भाई थे उसने उनकी पूजाकी थी इस कारण दूसरा भाई वीजिका त्यौहार भी तवहीसे चलता है। ये ही कार्तिकेय स्वामी प्राकृत द्वादशानुप्रेक्षा नामक ग्रंयके फर्ता हैं जो कि इस समय स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा नामसे “प्रसिद्ध है। कहते हैं कि ये कार्तिकेयस्वामी महावीरभगवान से पहिले और पार्श्वनाथभगवानके पीछे किसी समयमें हो गये हैं। ६५. जकडी (६) जिनदासकृत । राग आयासिंधु । थिर चिर देवा गणहरसेवा, कर गुनमालाज्ञान | थिर चिर जीवा भरमनि भमता, करि करना परिनाम । करि कहनापरिनाम सुद्धता, गुणकरि सवै समाना। कर्मतनी थिति प्रतिवधि दौल, निणय केवलबाना ॥ . Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ जैनवालबोधक· यौं जान दिनु जतन करीजै, परिहरियै परपीडा। मुर्ख होय जिन श्राप वधावी, ज्यौं कुसियाला कीडा ॥१॥ ज्यौं कुसियाला अपनी लालो, फंदति श्रापोश्राप । त्यौं तू पाला विकलपमाला, बंधति पुन रु पाप ॥ पुन्न रु पाप दुवै दिदवंधन, लोकशिखर किन जावै । थिर बर होय हूँगति.भीतर, रह्यौ चिदानंद दावे ॥ चितमें चेत चमकत नाहीं, साथि सरूपी कूड़ा। इंद्री पंचतनैं वलि पड़करि, विषय विनोदां बूड़ा ॥२॥ विपय विनोदां श्राप विरोध्या, जात निगोद अपार । तहां काल अनंता दुःख सहता एकलडो निरधार।। एकलडो निरधार निरंतर, जामन मरन करतौ। . कर्म विपाकतनें वसि पड़ियो, फिर फिर दुःख सहतौर .वरलै कौन स्वयंकृत कर्महि, यौहि अनादि सुभाचौ। . वांछित सुक्ख कहाँ किमि पावौ, दसणतणो अभावौ ॥ ३॥ दसण गुण विन जात के दिन, सो दिन धिकधिक जानि। धन्य सोही सोही परभिन्नो, भ्रांति न मनमहि आनि। भ्रांति सुमिथ्यादृष्टीलच्छन, संशयरहित सुदिष्टी। यौं जान विन गह्यौ गहीजे, पद पावै परमिष्टी। ए दुइ मेद जिनागम कहिया, ते तनमैं अवधारै। सुद्ध सुसम्यकदरसन कारन, मिथ्यारष्टि निवारै ॥४॥ १ कोशेका.अर्थात एक प्रकारके रेवामका कीरा । २ नारसे । ३ोनों। ४वेग । ५ जिस दिन । .... ... .... . .. .. . . Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । ३५५ मिथ्याती मुनिवर अवर सुतरुवर, सहें कलेश अनेक । तप तप्यौ न तपियौ खप्यौ न खपियो, दोऊ रहित विवेक ॥ दोऊरहित विवेक जीव इक, कर्म वैधै इक छोड़े । श्राव बंध उदय नहिं समझत, क्योंकर कर्महिं तोड़े ॥ दंसण-रे-चरण-गुणरया, मूरख खिन न सँभाले । काच समान विषयसुख साँदें, ते गहि तोनो रेलै ॥ ५ ॥ गहि तीनो रयणा तनमन व्यगा, चर निज चरन सयान । डंडस करुणा खंडनि मैया, मंडसि धरमह ध्यान ॥ मंडसि ध्यान कर्मठ्यकारण, कारण काज दिखावै । -काज सुदंसण ज्ञान सकति सुख, सहजहि चारो पावै ॥ बहुडि न कोई रहै कृतकर्मह, जो जग जीवा तारौ । एक समय में केवलज्ञानी, अनीत अनागत जाणे ॥ ६ ॥ अतीत श्रनागत देखत जानत, सो हम लख्यौ न देव | जो हूं देखत देखि विहरखत, हरग्व़ि करत तसु सेव ॥ हरखि हरखितसु सेव करता, जिन यापनसौ कीनौं । मोहनधूलि धरी सिर ऊपरि, ठगि रयणत्तो लीनौं ॥ अव श्री कुन्दकुन्द गुरुवयणा, जिन विन घडि न सुहावै । आपणड़ा गुण सहज सुनिर्मल, यौं जिनदास हि गाँवै ॥७॥ २ ज्ञान । ३ रन । ४ बदले । ५ फेंक देता है । ६ वचन ! -७ मदन- कामदेव | Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ जैनवाल बोधक ६६. ब्रह्मगुलालमुनि | ----p -:: विक्रमसंवतके सोलह सौ और सतरह सौ के वीचमें सूरदेश के अन्तर्गत एक टापा नामका नगर था । उस नगर में पद्म नगर निवासी पद्मावतीपुरवालमेंके पांड़े दीरंग और इल नामके दो भाई व्यापाराथ आये थे। उस टापा नगरमें ये दोनों भाई अपने धर्म कर्ममें सावधान होकर प्रसिद्ध हुये ! हल्ल नामका छोटा भाई एक दिन कार्यवश ग्रामांतर में गया था उनके पीछे टापा नगर में आग लगी सो वहुतसे घर कुटुम्ब पशु जलकर मर गये । उसमें हलका कुटुंब भी मय दिरगके सब जलकर मर गया हल्लने प्राकर सुना तौ बड़ा ही दुःखी हुआ । टापाके राजा के पास जाकर रोया धोया तौ राजाने इसको धर्मात्मा गुणी समझ अपने पास रख लिया । फिर थोड़े दिन में इसका विवाद करके घर गृहस्थी बना दिया | उस हलके कुछ दिन बाद सुन्दर गुणी पुत्र हुआ उसका नाम ब्रह्मगुलाल रक्खा गया। यह लड़का वडा होने पर समस्त प्रकारकी विद्या पड़कर बहुतही चतुर हो गया । परंतु संगीत शास्त्र में ( नाचने गानेमें) वड़ा नामी हुवा। नाटक स्वांग भरकर नाचने गानेको बहुत अच्छा समझता था । सो इसी . काममें रहते रहते बहुरूपियाके भेव लानेमें बड़ा ही चतुर होगया जिससे राजकुमारकी प्रीति ब्रह्मगुलाल पर बहुत हो गई । नित्य. नये स्वांग लालाकर राजा व राजाके पुत्रका मनोरंजन किया करता था । 1 " Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग! ३५७ एक समय राजकुमारने अपने अजैन दोस्तोंके बहकानेसे प्रस्ताव किया कि ब्रह्मगुलाल ! तुम सर्व प्रकारके भेष तौवनालेते हो परंतु सिंहका मेव बनाकर लावो जिसमें वही पराक्रम वही गर्जन आदि सब गुण हों। ब्रह्मगुलालने कहा-सिंहका भेप बनाना कोई मुस्किल नदि है। परन्तु सिंहके मेपमें किसी पर चोट हो जाय तो मुस्किल है । राजकुमारने एक खून माफ करनेकी लिखित श्राक्षा पितासे दिलवादी या स्वयं लिखदी। फिर क्या था ब्रह्मगुलाल सिंहका रूप बनाकर राजाकी भरी सभामें कड़ककर आया । राजकुमारने वहाँ पर चकरीका एक बचा मगाकर बाँध रक्खा था। क्योंकि राजकुमार और उसके दोस्तोंने ब्रह्मगुलालके जैनीपनेकी परीक्षा करनेके लिये सिंहका रूप धरवाया था। देखें ! यह वकरीके वञ्चकोमारता है कि नहीं। इस कारण राजकुमारने कहा कि यह सिंह काहका है गीदड़ है। सिंह होता तो श्रांगनमें बकरीका वच्चा खड़ा है उसको मार न डालता। वश ! फिर क्या था ? सिंह क्रोधित होकर बकरीके बच्चेको मारना उचित न समझ राजकुमार पर झपटा लो उसे . थप्पड़से गिराकर चीर डाला जिससे राजकुमार मर गये। बड़ा हाहाकार होने लगा, सिंह तो घर चला गया । राजाने एक खून माफ कर दिया था सो वह ब्रह्मगुलालको कुल भी दंड नहिं दे सका। परंतु पुत्रकी मृत्युका बड़ा मारो शोक था। किसी न किसी तरह चित्तको शांत होना चाहिये। इस चिंतामें देख रा.. जाके मंत्रीने ब्रह्मगुलालको कहा कि तुमने सिंहका रूप तो अच्छा वनाया परन्तु अब मुनिका रूप भी जैसेका तैसा वनना चाहिये। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ जैनदालवोधक___ मंत्रीने सोचा था कि यदि यह मुनिका रूप बनानेको इनकार करैगा तो राजाशाके उल्लंघन करनेका दंड दिया जायगा और मुनि होकर मुनिरूप छोड़ देगा तो इसका भी दंड दिया जायगा। ब्रह्मगुलालने कहा कि महाराज मुनिका रूप तो में अव. श्य भरूंगा परन्तु उसके लिये कुछ दिनों की मुहलत देना चाहिये तव राजाने जब तुमारो खुशी हो तब रूप लेना ऐसा स्वीकार किया और ब्रह्मगुलालने अपने घर पाकर कहा कि मैं तो अव मुनिदीक्षा लेऊंगा। माता पिता स्त्री वगेरहने बहुत कुछ समझाया परंतु सवको उपदेशामृतसे संतुष्ट करके सबसे क्षमा प्रार्थना करली फिर बारह भावना भाकर अपने चित्तको अच्छी नरह दृढ़ कर एक दिन श्रीजिनमंदिर में जाकर प्रतिमाके सम्मुख प्रार्थना करने लगा कि-अव कालदोपसे मुनिका संयोग मिलना अत्यंत कठिन हो गया है, लाचार हे भगवान ! मैं आपके सम्मुख पंचमहाव्रत धारण करता हूं। ऐसा कहकर अपने हाथसे अपने केशोंका लोच करके पोछी कमंडलु धारण करके नग्न दिगवर मुनि हो गया और उसी वक्त समस्त जैनी भाईयोको जिन धर्मका उपदेश देकर राजसभामें गया। राजा ब्रह्मगुलालको मुनि के रूपमें देखकर चकित हो गया और शांत मुद्राको देखकर नमस्कार करना पड़ा । फिर उसने जिनधर्मके तत्त्वोंका स्वरूप अच्छी तरहसे वर्णन करके संसार शरीर विषय भोगोंको असा रता दिखाकर राजकुमारकी मृत्युका जो राजाके चित्तमें शोक भर रहा था सो दूर कर दिया। राजाने निष्कपट और प्रसन्न होकर कहा कि तुमने मुनिका बहुत ही अच्छा रूप बनाकर सच्चे धर्मका Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । ३५९ उपदेश दिया सो बड़ा उपकार किया अब तुम्हें जो इच्छा हो सो मांगों; मैं देने को तैयार हूं । ब्रह्मगुलालने कहा कि- महाराज वस मुझे क्षमा कीजिये मैंने संसार शरीर भोगों से नाता तोड़ दिया अब मुझे किसी भी सांसारिक वस्तुकी कुछ भी चाह नहीं है। ऐसा कह पीछो कमंडलु उठाकर वनको चल दिये । राजाने तथा राजाके मंत्राने वनमें जा कर बहुत कुछ प्रार्थना करी कि हमारा अपराध क्षमा करके चले श्रावो । जिस प्रकार सम भेष वना २ कर छोड़ते थे, उसी प्रकार यह वेप भी छोड़ दो। तुमारी वयस और यह काल मुनि होकर कठिन तपस्या करनेका नहीं है । परन्तु ब्रह्मगुलाल तौ सच्चे मुनि हुये थे, वे क्यों आने लगे ? तत्पश्चात् माता पिताने तथा स्त्रीने भी वनमें जाकर वहुत कुछ प्रार्थना की परन्तु सबको संसारकी असारताका उपदेश देकर लौटा दिया । -:: १६७ जकडी ( ७ ) जिनदासकृत । :0: - राग धनाश्री । भूला मन मेरा, जिनवर धर्म न देवै । मिथ्या ठग मोह्या, कुगुरु कुमारग सेवै ॥ सेविया कुगुरु कुमार्ग रे जिय, फिरै चहुंगति, वावरौ । चार विका अनादि भाषै, सुननको जु उतावरौ ॥ - १ बिकमा । २ सुननेके लिये । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० जैनवालवोधकपर्याय रातो मदहि माती, फिरै फूल्यो फुल्लचौ (१)। यौं कहै दरिगह धरम जिनवर, वैवै जीव न भुल्लवौ ॥१॥ तू यह मणुत्तन, काहे मूढ़ गंवावै । सासय सुखदायक, सो तू ढूंढि न पावै ॥ ढूंढे न पावै पासि तुम हो, आपआप समावए । गुनरतन मूठीमाहिं तेरी, काई दह दिसि धावए । वह राज अविचल करहि शिवपुर, फिर ससार न श्रावए यौं कहै दरिगह यह मणुतण, काहे मूढ़ गवावए ॥२॥ दरसन विन भूला, लीनासंजमभार। फाया कष्ट किया, सहै परिसहसार ! सारे परीसह सहै दुद्धर, पार नवग्रीवक गयौ । मारग न जान्यौ पौ उन्मग. मामि भववन थकि रह्यो । सोधरम कबहुं न पालिसकियो जो जु जिन.आगम कहो। यौं कहै दरिगह ख्याति-तौ, भार संयम जिय वह्यो । समकित प्रोहण चढि, ज्यौं पायहि भवपार । दरसन विन मूढा, करनी सबै असार ॥ करनी सवाई नाव पाथर, चढि न डूवै रे जिया। सब जाय अहिला विना दरसन, सील संजम तप किया। १ मनुज-तन अर्थात् मनुष्यका शरीर । २ शाश्वत-अविनाशी । ३ समा ना- लवलीन हो जा । ४ दशोंदिशाओंमें क्यों दौडता है ? ५ नव प्रैवेयिक तक । ६ उन्मार्ग-खोटा मार्ग । ७ प्रसंग्रामें रत होकर । ८ जहान । ९ व्यर्थ। - - Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६१ चतुर्थ भाग। ज्यों लाव ऊपर चढे वाजी, लेय वांस अधार वे। यौं कहै दरिगह सेय जिनवर, ज्यों पावै भवपार वे ॥४॥ सुन सुन जियरा रे, तृत्रिभुवनका राव रे। तू तजि परभाव रे, चेतसि सहज सुमाव रे ॥ चेतसि सहज सुभाव रेजियरा, परसौं मिलि क्याराच रहे। अप्पा पर जान्या पर अप्पाणा, चउगइ दुःख अंगणाइ सहै ॥ अब सो गुन कीजै कर्मह छीजै, सुगहु न एक उपाव रे । दसणणाणचरणमय रे जिय, तू त्रिभुवनका राव रे ॥१॥ कर्मनि वसि पड़िया रे, प्रणया मूढ़ विभाइ रे। मिथ्यामद नडिया रे, मोह्या मोह अनाहरे॥ मोहा मोह अनाइ रेजियड़े, मिथ्यामद नित माचिरह्या। पंडि पडिहार खड़ग मदिरावत, शानावरणी श्रादि कहा ॥ खोड़ा चिंत्री कुलाल भंडारी, आठौं दिये पताइरे। रेजियडे करमनिवसि पडिया, प्रणया मूढ़ विभाइ रे ॥२॥ तू मति सोवहि नचीता रे, वैरिनमैका वासरे। भव भव दुखदायक रे, तिनका करहि विसास रे॥ तिनका करहि विसासरे जिवडे, तु मूढा नहिं निर्मपु डरै। जामन मरण जरा दुखदायक, तिनसौं तु नित नेह करै । प्रापैशाता आप हया, कहि समझाऊँ कासरे। १ वरद । २ वाजीगर-नट | ३ अपनाया । ४ चारों गति । ५अनादि । परिणया। ७ परदा। ८ द्वारपाल |९ चित्रकार । १० विश्वास । । जरा भी। १२ किसको Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૉર जैनवालवोधक रेजिय तू मति सोवहि नचीता वैरिनमैंका वास रे ॥ ३ ॥ ते जगमहिं जागे रे, रहे अंतरलौं लाइ रे । केवल विगत भया रे, प्रगटी जोति सुभाइ रे ॥ प्रगटी जोति सुभाइ रे जिवडे, मिथ्यारैन विहानी । सुपरभेदकारण जिन मिलिया, ते जाग हवा गांणो सुगरु सुधर्म पंचपरमेष्टी, तिनके लागों पाय रे । कहै दरिगह जिन त्रिभुवन सेवै, रहै अंतरलों लायरे ||४|| ( ३ ) जिया जगतके राय, सकति सँभालहु आपनी । तिहुं लागहि पाय, मुकनि मिले वर कामिनी ॥ भमियो काल अनादि, दुख देख्यौ सुख ना लहै । रहियौ जगतहिं काय, आठ करम अरि संग्रहै ॥ संग्रह करम अचेत जड़मय, लाज तुम्हहि न दीजिये । निरग्रंथ गुरु दे कर विजपु (१), सुकिन सो घर कीजिये ॥ तिहु वंत्रसहित त्रिकाल माया, मान-संजम-गद पिया | आपणी सकति सँभाल प्रतिवल, जगतके राऐ जिया ॥ १ ॥ तुम विन अवर न कोई, तुझको कोइ न आपनौ ! मीत नचीत न सोइ, काज महा सिर है घनौ ॥ सात शिव सिधि होइ, वासौं शिवपुर पाइए । पौ जिनवर देव, जिनवयणनि मन लाइए ॥ मन लाय वयनि जिनपजपौ, परय परिगह परिहरै । अरहंतदेव समान निहने, सदा भापौ अनुसरै ॥ १ ज्ञानी । २ त्रिभुवन । ३ राना । ४ कहा है । ५ जिनदेवका कहा हुआ 3 19 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग । ३६३ 'विप-सरिस इंद्रिय विषय माया, अथिर पुदगल परियणु । आपनौ वर न कोड जाणो, जिया तुझको तुझविणु ॥२॥ चल चल पूर्व विदेह. रतनत्रय आराहिए। श्रौतरि श्रावग गेहि. आठवरसहि साहिए । करि तपु तीनहुँ काल गिरिसिरि तरुतलि चासिए । दुःसह सहि दुख झॉल, केवलज्ञान पर्यापिए ॥ · सहि दुसह झाल पयासि केवल, कम्म गहि तू कूड़यो। • चढि लोय-सिहरि पलोय तिवण, थान संगहि रुडओ ॥ वसु गुण विराउणि ( ? ) काय माया. सुद्धपय सिद्धहँ मिलु । पूरब विदेह विदेह अविचल, चेगि रे जिय चलु चलु ॥ ३॥ सोई सोहं देव, निवसौ काया-देहरै। लांधौ भवियण भेव, मेरो करम कहा करै ॥ जा सरि पुन न पाप, राउ विसाउन हौं करो। ५० सांभलहुं परम जिणंद जगगुरु, जीव अति गुणासुंदरो। आदिरहित अनंत सोहं, ज्ञानसुखगुणमंदिरो॥ दीनौं दिखाई एसाइ तुझको, गह्यौ गुड़ जिमि रंकवो । काय देहुरौ कहै साहणु, सोहं सोहं देव सो॥४॥ इति चतुर्थ भाग समाप्त । १ परिजन परिवारके लोग । २ तेरे बिना । ३ आराधिये । ४ साधिये । ५ आंच । ६ प्रकाशियें । ७ लोक शिखर । ८ सुन्दर । ९ लाधना अर्थात् प्राप्त करना । १० यहां एक चरण रह गया है। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्थाके छपे हुये भाषाटीका सहित उत्तमोत्तम जैन शास्त्र। परीक्षामुख ) संस्कृतप्रवेशिनी-दोनों भाग संस्कृतप्रवेशिनी-द्वितीय भाग 1) जनवालबोधक द्वितीय भाग तत्त्वज्ञानतरंगिणी १०) जैनबालयोधक तृतीय भाग सुभापितरत्नसंदोह खुलेपत्र २असहमतसंगम मकरध्वजपराजय-हिन्दी, काम और जिनदेवका युद्ध , कच्ची जिल्दका पक्को जिल्दका परमाध्यात्मतरंगिणी-संस्कृत और भापाटीका सहित (थोडी है ) २) जिनदत्तचरित्र भापावचनिका II) जिल्दका 1) विनतीमप्रह ) आराधनासार सजिल्द १८) तत्त्वार्थमार मापाटीका पात्रकेशरीस्तोत्र भाषाटीका सहित ।) तीर्थयात्रा दर्शक ) गोम्मटसारजी-दोनोंकांड पूर्ण, और लब्धिमार क्षपणामार सहित मुलेपत्र ४००० पृष्ठ ५१) प्रन्यत्रयी) जिल्दकी ३) रविवत कथा -) गोम्मटसारजी-कर्मकांड पूर्ण, लम्धिसार क्षपणासारजी, और भाषा संदृष्टि सहित ३४) चारित्रसार २) धर्मपरीक्षा | लब्धिसार क्षणासारजी भाषाटीका संदृष्टि सहित १२) दव्यसंग्रह सान्वयार्थ छहढाला संग्रह स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा सजिल्द ॥ जनकथा संग्रह सजिल्द ॥) भदैया पूजा संग्रह ॥) शीलकथा ) दर्शनकथा ) दानकथा ) विशेष जानने के लिये वडा सूचीपत्र मंगाकर देखिये । मिलनेका पता- . श्रीलाल जैन, .. मंत्री-भारतीयजैनसिद्धांतप्रकाशिनी संस्था, ९ विश्वकोष लेन, वाघवाजार कलकत्ता । romanama- papmang - e Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृषक २ पटानी परती हैं तो हमने इन विषयोंका इन भार्गामही यथास्थान पर समावेश कर दिया है जिससे कोई पुस्तक हुसन पढार इस एक प्रस्तकके पदानेसे ही सगस्त विषयों का ज्ञान प्राप्त हो जायगा। हो । हिंदी यावरण व गणित मान जुदा अवश्य पढाना पड़ेगा और भंगरेजी पदामा हो तो इस चौधेभागको पाने के बाद मरकतकी प्रवेशिकादि कक्षाओं में । पाना ठीक होगा। . . ये सब विषय हमने बंबई जैन धूनिवर्सिटी वा मालमा प्रांतिक.जैन यूनिवासी और गोपालजैनसिद्धांतविद्यालयके पठन क्रमानुसार ही रक्के है । मतएव इन सबके पठन क्रममें इन भागोंको रखकर परीक्षा लेनेका प्रचार करेंगे तो यह भम सार्थक समझा जायगा। निवेदकमोरेना-1-६-१९१२ ई.] - पन्नालाल वाकलीवाल । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Printel and Published by Srilal Jain at the JAIN SIDDHANT PRAKASHAK PRESS, 9, Visvakoshin Lane, Bagbazar-CALCUTTA, Page #375 -------------------------------------------------------------------------- _