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________________ २६० जैनवालबोधक बनाये हुये बृहत्त्रयी, लघुत्रयी, न्यायचूलिका, आप्तमीमांसा भाष्य, श्रादि न्यायके ग्रंथ ही विशेष प्रसिद्ध हैं। राजवातिकालंकार भी इनहीका बनाया हुआ है । ये भट्टा कलंक समस्त विषयोंके दिग्गज विद्वान् थे । इसका एक प्रमाण और भी मिलता है वह यह है कि, एकबार आपने साहसतुंग राजाकी सभामें जाकर दो श्लोक कहे थे, जिनका भावार्थ यह है कि, "हे साहसतुंग राजन् । यद्यपि इस जगत में श्वेतछत्रधारी अनेक राजा हैं, परन्तु तुझ सरीखे रणविजयी दानशूर राजा बहुत दुर्लभ हैं । इसी प्रकार हे राजन् ! इस जगतमें पंडित, कवि, वाग्मी, वादी अनेक हैं, परंतु मेरे • समान अनेक शास्त्रोंके विचारमें चतुरवुद्धि और समस्तवादी पंडितोंका गर्व दूर करने में समर्थ प्रसिद्ध 'विद्वान कोई भी नहीं है। इस तेरी समामें अनेक संत महंत विद्यमान हैं । यदि उनमें ܕ ६८ राजन् ! साहसतुंग संति बहनः श्वेतातपत्रा नृपाः किन्तु त्वत्सदृशा रणे विन मिनस्त्यागान्नता दुर्लभाः । तद्वत्पन्ति बुषा न संति कवयो वावीश्वरा वाग्मिनो नानाशासविचारचातुरधियः काले कलौ मद्विधाः ॥ १ ॥ - राजन् ! सवारिदर्पप्रविद्लनपटुस्त्वं यचात्र प्रसिद्धस् तद्वख्यातोऽहमस्यां भुवि निखिलमदोत्पाटने पण्डितानां । 'नो चेदेषोऽहमेते तव सदसि सदा संति संतो महतो वक्तुं यस्यास्ति शक्तिः स वंदतु विंदिताशेषशास्त्रो यदि स्यात् ॥ १ ॥ 'श्रवणवेलगुलके बिलासों से उद्धृत ।
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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