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चतुर्थ भाग
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में हाथ जोड़कर कहा कि, "भगवन् ! मेरी क्या सामर्थ्य है ? जो आपसे विवाद करूं ? माज छह महीने तक जो बाद चला, वह घड़े में बैठी तारा देवी के साथ चलता था । धन्य है आपकी विइत्ता और जैनशासनको जो देवी से भी प्राप निरुत्तर न हुए' इत्यादि वचनोंके सुनते ही प्रत्येक मनुष्यके मुखसे जिनशासनकी अयध्वनि हुई । अनेक विद्वान वौद्धधर्मको छोड़कर जिनधर्मावलंबी हो गये । हिमशीतल राजा भी परम जिनभक्त हो गया और उसी दिन से रथयाशका महोत्सव बड़ी धूमधामके साथ किया गया, जिससे जैनधर्मकी अतिशय प्रभावना हुई । उस नगरके प्रायः सपही लोग जैनमतावलंबी हो गये। इसी प्रकार प्रकलंक देखने अनेक बौद्ध विद्वानोंके साथ बादविवाद करके जिनमतकी बड़ी भारी उन्नति की ।
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यह घटना ईस्वी सन् ८५५ की है। इससे पहिले बौद्ध लोग बनारस गयाजीकी तरफसे कांची देशमें ईस्वी सन्के तीसरे शतक में आये थे, अर्थात् ५०० वर्षसे वहां पर वौद्धधर्मका प्रचार हो रहा था, सो इसको अकलंक देवने बादविवाद के द्वारा बदल कर वहां पर जैनधर्मका प्रचार कर दिया । इसीसे अनुमान करना चाहिये कि, अकलंकदेवका ज्ञान- विभव कैसा था। इस ज्ञान-विभवके प्रभावसे ही इन्हें 'भट्ट' की पदवी मिली थी। अर्थात् इनको स्वमती परमती समस्त ऋषि मुनि व विद्वान 'भट्टाकलंकदेव' कहने लगे थे।
ये भट्टाकलंकदेव समस्त ही विषयोंके पारंगत विद्वान थे । तथापि न्याय-विपनमें इनका प्रेम अधिक था। इस कारण इनके
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