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________________ ૨૬૨ चतुर्य भाग । कोई सर्वशास्त्र में निपुण हो, तो मेरे सामने प्रावे, यह मैं विवादार्थी खड़ाई!" . इन स्वगर्व प्रकाशकदो श्लोकों परसे ही अकलंकदेवकी विद्वता प्रगट होती है ऐसा नहीं है। इनके बनाये हुए न्यायके ग्रंय ही ऐसे अपूर्व और विलक्षण हैं कि, उनको देखनेसे हर एक नैयायिक विद्वान उनकी विद्वत्ताको पून्यपिसे स्मरण करने लगता है। - ५१. जीवोंके विशेषभेदादि। : १मनुष्य, चार प्रकारके हैं। आर्य, म्लेच्छ, भौगभूमिज 'और कुभोगभूमिज। - २॥ देव चार प्रकारके हैं। भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक , ३ । भवनवासीदेव दश प्रकारके है. असुरकुमार, नाग'कुमार, विद्युत्कुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, वातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, दीपकुमार, दिक्कुमार, ४। व्यंतरदेव पाठ प्रकारके हैं, किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गंधर्व, यक्ष. राक्षस, भूत, पिशाच । भवनवासी और व्यंतरदेव पहिली पृथिवीके खरभाग और पडूभाग तया तिर्यक् लोकमें : ५। ज्योतिष्कदेव पांच प्रकारके है-सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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