SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४० 'जैनवालबोधक के बहाने साथ २ आई और कहने लगीं कि तुम हमारे श्राश्रममें ही रहो। यहांसे धागे सिंह' व्याघ्रोंसे भरा हुआ भयानक वन हैं सो वहां जाना ठीक नहीं इत्यादि बहुत कुछ कहा परंतु ये सबको समझा कर चले गये। · चलते २ जंगह जगह विश्राम करते करते एकदिन मालव देशमें चित्रकूटकी तलेटीमें श्रां निकले. वह जंगल बहुत ही रमशोक थां बहुत दूर तक निकल जाने पर भी कोई वस्ती च मनुष्य नहि मिला तवं एक वटवृक्षके नीचे बैठ गये और लक्ष्मण से कहा कि - इस वृत्तपर चढ़कर देखो कि कहीं आसपासमें गांव नगर भी है या नहीं ? तब लक्ष्मणने चढ़कर देखा और कहा कि हे नाथ! निकट ही एक नगर तौ प्रवश्य हीं दीखता है परंतु उजाड़सा दीखता है। एक ददि मनुष्य इधर आ रहा है। उस दरिद्रको बुलाकर पूछा तो मालूम हुआ कि राजा सिंहांदरका सावंत वज्रकरण इस दशांगं नगरका राजा बड़ा धर्मात्मा है । देवशास्त्र गुरुके सिवाय किसीको नमस्कार नहिं करता सो अंगूठी में जनप्रतिमा को रखकर सिंदोदरको नमस्कार करता था, • सो यह छल कपट मालूम होजानेसे कुपित होकर सिंहोदर इसके नगरको घेर कर पड़ा है। वज्रकिरणको तंग कर रहा है। वह छिपकर शहर में बंदोवस्तीसे बैठा है इस लिये यह नगर उजा इसा दीखता है। तत्पश्चात् रामकी आलासे जंक्ष्मण नगर में गया · नगर के दरवाजेपर वज्रकरणसे भेट हो गई । लक्ष्मणको प्रभावशाली समझकर श्रतिथिसत्कार किया भोजन के लिये प्रार्थना
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy