SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ भाग। १४१ की तवं लक्ष्मणने कहा कि मेरे बड़े भ्राता और भोजाई नगरके: बाहर ठहरे हुये हैं। उनके विना मै भोजन नहिं कर सकता, तब वजकरणने नाना प्रकारके भोजन व्यंजन अपने मनुष्योंके हाथ भेजे। इन तीनोंने आनंदके साथ भोजन किया । फिर रामचंद्र 'बोले कि-यह वज्रकरण वड़ा धर्मात्मा सजन है सो इसकी सहायता करना चाहिये 'लो तुम सिंहोदरके पास जाकर इन दोनोंमें मित्रता करा दो। - तव लक्ष्मण सिंहोदरके पास जाकर कहता हुआ कि मैं मरतराजाका दुत हूँ। भरत राजाकी आशा है कि-तुम बजूकरणसे मित्रता कर लो । सिंहोदरने कहा कि मेरा श्राक्षाकारी सामंत है । मैं चाहे जो करूं । हम दोनोंके वीचमें भरतके पड़नेकी क्या जरूरत है ? लक्ष्मणने बहुत कुछ समझाया पर सिंहोदर की समझ में नहिं पाया । सामंतसुभटोंको पकड़नेके लिये प्राक्षा की तो लक्ष्मणने सबको भगा दिया, शेपमें सिंहोदर युद्ध करनेको आया तो उसे पकड़कर वांध लिया। सिंहोदरकी सेना भाग गई. सिंहोदरंकी रानी पतिके छोडनेकी प्रार्थना करने लगी . लक्ष्मण सवको रामचंद्र के पास ले गया। सिंहोदरने प्रार्थना की कि हे देव ! आपकी जो प्राक्षा हो वही मुझे शिरोधार्य है, मुझे छोड़ दीजिये। तब रामचंद्रजीने वजूकरणको बुलाया। वज्रकरणने भी छोडनेकी प्रार्थना की तब सिंहोदरको छोड दिया । वजकरणसे संधि करा कर सिंहोदरसे प्राधाराज दिलवाया। • वजूकरणने अपनी आठ कन्याओंका और सिंहोदर. आदि
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy